श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ११                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ११ "मानव धर्म, वर्ण धर्म और स्त्री धर्म का निरूपण"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ११                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ११                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ एकादशोऽध्यायः ११ ॥

श्रीशुक उवाच

श्रुत्वेहितं साधुसभासभाजितं

महत्तमाग्रण्य उरुक्रमात्मनः ।

युधिष्ठिरो दैत्यपतेर्मुदा युतः

पप्रच्छ भूयस्तनयं स्वयम्भुवः ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- भगवन्मय प्रह्लाद जी के साधु समाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिर को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारद जी से और भी पूछा।

युधिष्ठिर उवाच

भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् ।

वर्णाश्रमाचारयुतं यत्पुमान् विन्दते परम् ॥ २॥

भवान् प्रजापतेः साक्षादात्मजः परमेष्ठिनः ।

सुतानां सम्मतो ब्रह्मंस्तपोयोगसमाधिभिः ॥ ३॥

नारायणपरा विप्रा धर्म गुह्यं परं विदुः ।

करुणाः साधवः शान्तास्त्वद्विधा न तथापरे ॥ ४॥

युधिष्ठिर जी ने कहा ;- भगवन्! अब मैं वर्ण और आश्रमों के सदाचार के साथ मनुष्यों के सनातन धर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परमपुरुष भगवान् की प्राप्ति होती है। आप स्वयं प्रजापति ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी! आपकी तपस्या, योग एवं समाधि के कारण वे अपने दूसरे पुत्रों की अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं। आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्म के गुप्त-से-गुप्त रहस्य को जैसा यथार्थरूप से जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते।

नारद उवाच

नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्महेतवे ।

वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥ ५॥

योऽवतीर्यात्मनोंऽशेन दाक्षायण्यां तु धर्मतः ।

लोकानां स्वस्तयेऽध्यास्ते तपो बदरिकाश्रमे ॥ ६॥

धर्ममूलं हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः ।

स्मृतं च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ७॥

सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः ।

अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम् ॥ ८॥

सन्तोषः समदृक्सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः ।

नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम् ॥ ९॥

अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः ।

तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १०॥

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः ।

सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम् ॥ ११॥

नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः ।

त्रिंशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति ॥ १२॥

संस्कारा यदविच्छिन्नाः स द्विजोऽजो जगाद यम् ।

इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम् ।

जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥ १३॥

विप्रस्याध्ययनादीनि षडन्यस्याप्रतिग्रहः ।

राज्ञो वृत्तिः प्रजागोप्तुरविप्राद्वा करादिभिः ॥ १४॥

वैश्यस्तु वार्तावृत्तिश्च नित्यं ब्रह्मकुलानुगः ।

शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा वृत्तिश्च स्वामिनो भवेत् ॥ १५॥

वार्ता विचित्रा शालीनयायावरशिलोञ्छनम् ।

विप्रवृत्तिश्चतुर्धेयं श्रेयसी चोत्तरोत्तरा ॥ १६॥

जघन्यो नोत्तमां वृत्तिमनापदि भजेन्नरः ।

ऋते राजन्यमापत्सु सर्वेषामपि सर्वशः ॥ १७॥

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याण के लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान् को नमस्कार करके उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। युधिष्ठिर! सर्वदेवस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जानने वाले महर्षियों की स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्म के मूल हैं।

युधिष्ठिर! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है- ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परमआश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के नाम- गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण- यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं।

धर्मराज! जिनके वंश में अखण्ड रूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्मा जी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजों के लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है। अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। क्षत्रिय को दान नहीं लेना चाहिये। प्रजा की रक्षा करने वाले क्षत्रिय का जीवन-निर्वाह ब्राह्मण के सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदि के द्वारा होता है। वैश्य को सर्वदा ब्राह्मण वंश का अनुयायी रहकर गो रक्षा, कृषि एवं व्यापार के द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्र का धर्म है द्विजातियों की सेवा। उसकी जीवका का निर्वाह उसका स्वामी करता है।

ब्राह्मण के जीवन-निर्वाह के साधन चार प्रकार के हैं- वार्ता[1] शालीन[2] यायावर[3] और शिलोञ्छन[4] इसमें से पीछे-पीछे की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं। निम्न वर्ण का पुरुष बिना आपत्ति काल के उत्तम वर्ण की वृत्तियों का अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मण की शेष पाँचों वृत्तियों का अवलम्बन ले सकता है। आपत्ति काल में सभी सब वृत्तियों को स्वीकार कर सकते हैं।

ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा ।

सत्यानृताभ्यां जीवेत न श्ववृत्त्या कथञ्चन ॥ १८॥

ऋतमुञ्छशिलं प्रोक्तममृतं यदयाचितम् ।

मृतं तु नित्ययाच्ञा स्यात्प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ १९॥

सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् ।

वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् ।

सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २०॥

शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम् ।

ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम् ॥ २१॥

शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजस्त्याग आत्मजयः क्षमा ।

ब्रह्मण्यता प्रसादश्च रक्षा च क्षत्रलक्षणम् ॥ २२॥

देवगुर्वच्युते भक्तिस्त्रिवर्गपरिपोषणम् ।

आस्तिक्यमुद्यमो नित्यं नैपुण्यं वैश्यलक्षणम् ॥ २३॥

शूद्रस्य सन्नतिः शौचं सेवा स्वामिन्यमायया ।

अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षणम् ॥ २४॥

स्त्रीणां च पतिदेवानां तच्छुश्रूषानुकूलता ।

तद्बन्धुष्वनुवृत्तिश्च नित्यं तद्व्रतधारणम् ॥ २५॥

सम्मार्जनोपलेपाभ्यां गृहमण्डलवर्तनैः ।

स्वयं च मण्डिता नित्यं परिमृष्टपरिच्छदा ॥ २६॥

कामैरुच्चावचैः साध्वी प्रश्रयेण दमेन च ।

वाक्यैः सत्यैः प्रियैः प्रेम्णा काले काले भजेत्पतिम् ॥ २७॥

सन्तुष्टालोलुपा दक्षा धर्मज्ञा प्रियसत्यवाक् ।

अप्रमत्ता शुचिः स्निग्धा पतिं त्वपतितं भजेत् ॥ २८॥

या पतिं हरिभावेन भजेच्छ्रीरिव तत्परा ।

हर्यात्मना हरेर्लोके पत्या श्रीरिव मोदते ॥ २९॥

वृत्तिः सङ्करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत् ।

अचौराणामपापानामन्त्यजान्तेवसायिनाम् ॥ ३०॥

प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे ।

वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत् ॥ ३१॥

वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत् ।

हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात् ॥ ३२॥

उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात् ।

न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति ॥ ३३॥

एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया ।

विरज्येत यथा राजन्नाग्निवत्कामबिन्दुभिः ॥ ३४॥

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् ।

यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५॥

ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत-इनमें से किसी भी वृत्ति का आश्रय ले, परन्तु श्वान वृत्ति का अवलम्बन कभी न करे। बाजार में पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतों में पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर शिलोञ्छवृत्ति से जीविका-निर्वाह करना ऋतहै। बिना माँगे जो कुछ मिल जाये, उसी अयाचित (शालीन) वृत्ति के द्वारा जीवन-निर्वाह करना अमृतहै। नित्य माँगकर लाना अर्थात् यायावरवृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करना मृतहै। कृषि आदि के द्वारा वार्तावृत्ति से जीवन-निर्वाह करना प्रमृतहै। वाणिज्य सत्यानृतहै और निम्नवर्ण की सेवा करना श्वानवृत्तिहै।

ब्राह्मण और क्षत्रिय को इस अन्तिम निन्दित वृत्ति का कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है। शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायण और सत्य-ये ब्राह्मण के लक्षण हैं। युद्ध में उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजा की रक्षा करना-ये क्षत्रिय के लक्षण हैं। देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम-इन तीनों पुरुषार्थों की रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता-ये वैश्य के लक्षण हैं। उच्च वर्णों के सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामी की निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रों से रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ, ब्राह्मणों की रक्षा करना-ये शूद्र के लक्षण हैं।

पति की सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों को प्रसन्न रखना और सर्वदा पति के नियमों की रक्षा करना-ये पति को ही ईश्वर मानने वाली पतिव्रता स्त्रियों के धर्म हैं। साध्वी स्त्री को चाहिये कि झाड़ने-बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदि से घर को और मनोहर वस्त्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत रखे। सामग्रियों को साफ-सुथरी रखे। अपने पतिदेव की छोटी-बड़ी इच्छाओं को समय के अनुसार पूर्ण करे। विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनों से प्रेमपूर्वक पतिदेव की सेवा करे। जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तु के लिये ललचावे नहीं। सभी कार्यों में चतुर एवं धर्मज्ञ हो। सत्य और प्रिय बोले। अपने कर्तव्य में सावधान रहे। पतिव्रता और प्रेम से परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे। जो लक्ष्मी जी के समान पतिपरायणा होकर अपने पति की उसे साक्षात् भगवान् का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोक में भगवत्सारूप्य को प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मी जी के समान उनके साथ आनन्दित होती है।

युधिष्ठिर! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते-उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसंकर जातियों की वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परा से उनके यहाँ चली आयी हैं। वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्रायः मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है। जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है।

महाराज! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अंकुर उगना बंद हो जाता है, यहाँ तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है-उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओं का खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करने से स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाये तो वह बुझ जाती है। जिस पुरुष के वर्ण को बतलाने वाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११॥

जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः

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