श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १२
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय
१२ "ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमों के नियम"
श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वादश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय
१२
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः १२
श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध
बारहवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
सप्तमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ सप्तमस्कन्धः ॥
॥ द्वादशोऽध्यायः –
१२ ॥
नारद उवाच
ब्रह्मचारी गुरुकुले वसन् दान्तो
गुरोर्हितम् ।
आचरन् दासवन्नीचो गुरौ सुदृढसौहृदः
॥ १॥
सायं प्रातरुपासीत गुर्वग्न्यर्कसुरोत्तमान्
।
उभे सन्ध्ये च यतवाग्जपन् ब्रह्म
समाहितः ॥ २॥
छन्दांस्यधीयीत
गुरोराहूतश्चेत्सुयन्त्रितः ।
उपक्रमेऽवसाने च चरणौ शिरसा नमेत् ॥
३॥
मेखलाजिनवासांसि जटादण्डकमण्डलून् ।
बिभृयादुपवीतं च दर्भपाणिर्यथोदितम्
॥ ४॥
सायं प्रातश्चरेद्भैक्षं गुरवे
तन्निवेदयेत् ।
भुञ्जीत यद्यनुज्ञातो नो
चेदुपवसेत्क्वचित् ॥ ५॥
सुशीलो मितभुग्दक्षः श्रद्दधानो
जितेन्द्रियः ।
यावदर्थं व्यवहरेत्स्त्रीषु
स्त्रीनिर्जितेषु च ॥ ६॥
वर्जयेत्प्रमदागाथामगृहस्थो
बृहद्व्रतः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्त्यपि
यतेर्मनः ॥ ७॥
केशप्रसाधनोन्मर्दस्नपनाभ्यञ्जनादिकम्
।
गुरुस्त्रीभिर्युवतिभिः
कारयेन्नात्मनो युवा ॥ ८॥
नन्वग्निः प्रमदा नाम घृतकुम्भसमः
पुमान् ।
सुतामपि रहो जह्यादन्यदा
यावदर्थकृत् ॥ ९॥
कल्पयित्वाऽऽत्मना
यावदाभासमिदमीश्वरः ।
द्वैतं तावन्न विरमेत्ततो ह्यस्य
विपर्ययः ॥ १०॥
एतत्सर्वं गृहस्थस्य समाम्नातं
यतेरपि ।
गुरुवृत्तिर्विकल्पेन
गृहस्थस्यर्तुगामिनः ॥ ११॥
अञ्जनाभ्यञ्जनोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं
मधु ।
स्रग्गन्धलेपालङ्कारांस्त्यजेयुर्ये
धृतव्रताः ॥ १२॥
उषित्वैवं गुरुकुले
द्विजोऽधीत्यावबुध्य च ।
त्रयीं साङ्गोपनिषदं यावदर्थं
यथाबलम् ॥ १३॥
दत्त्वा वरमनुज्ञातो गुरोः कामं
यदीश्वरः ।
गृहं वनं वा
प्रविशेत्प्रव्रजेत्तत्र वा वसेत् ॥ १४॥
अग्नौ गुरावात्मनि च
सर्वभूतेष्वधोक्षजम् ।
भूतैः स्वधामभिः पश्येदप्रविष्टं
प्रविष्टवत् ॥ १५॥
नारद जी कहते हैं ;-
धर्मराज! गुरुकुल में निवास करने वाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों
को वश में रखकर दास के समान अपने को छोटा माने, गुरुदेव के
चरणों में सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हित के कार्य करता रहे। सायंकाल और प्रातःकाल
गुरु, अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओं
की उपासना करे और मौन होकर एकाग्रता से गायत्री का जप करता हुआ दोनों समय की
सन्ध्या करे। गुरु जी जब बुलावें, तभी पूर्णतया अनुशासन में
रहकर उनसे वेदों का स्वाध्याय करे। पाठ के प्रारम्भ और अन्त में उनके चरणों में
सिर टेककर प्रणाम करे। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार मेखला, मृगचर्म,
वस्त्र, जटा, दण्ड,
कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथ में कुश धारण करे।
सायंकाल और प्रातःकाल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरु जी को समर्पित कर दे। वे
आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा ने दें तो उपवास कर
ले। अपने शील की रक्षा करे। थोड़ा खाये। अपने कामों को निपुणता के साथ करे।
श्रद्धा रखे और इन्द्रियों को अपने वश में रखे।
स्त्री और स्त्रियों के वश में रहने
वालों के साथ जितनी आवश्यकता हो, उतना ही
व्यवहार करे। जो गृहस्थ नहीं है और ब्रह्मचर्य का व्रत लिये हुए है, उसे स्त्रियों की चर्चा से ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियाँ बड़ी बलवान्
हैं। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करने वालों के मन को भी क्षुब्ध करके खींच लेती हैं।
युवक ब्रह्मचारी युवती गुरुपत्नियों से बाल सुलझवाना, शरीर
मलवाना, स्नान करवाना, उबटन लगवाना
इत्यादि कार्य न करावे। स्त्रियाँ आग के समान हैं और पुरुष घी के घड़े के समान।
एकान्त में अपनी कन्या के साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्त में न हो, तब भी आवश्यकता के अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये। जब तक यह जीव
आत्मसाक्षात्कार के द्वारा इन देह और इन्द्रियों को प्रतीतिमात्र निश्चय करके
स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तब तक ‘मैं
पुरुष हूँ और यह स्त्री है’- यह द्वैत नहीं मिटता और तब तक
यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्री के संसर्ग में रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्य बुद्धि हो ही जायेगी।
ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थ के
लिये और संन्यासी के लिये भी विहित हैं। गृहस्थ के लिये गुरुकुल में रहकर गुरु की
सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमन के
कारण उसे वहाँ से अलग भी होना पड़ता है। जो ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सूरमा या तेल न लगावें, उबटन न
मलें। स्त्रियों के चित्र न बनावें। मांस या मद्य से कोई सम्बन्ध न रखें। फूलों के
हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणों का
त्याग कर दें।
इस प्रकार गुरुकुल में निवास करके
द्विजाति को अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार वेद, उनके अंग- शिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदों का अध्ययन
तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। फिर यदि सामर्थ्य हो तो गुरु को मुँह माँगी
दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञा से गृहस्थ, वानप्रस्थ
अथवा संन्यास-आश्रम में प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उसी
आश्रम में रहे। यद्यपि भगवान् स्वरूपतः सर्वत्र एकरस स्थित हैं, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता- फिर भी अग्नि,
गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियों में अपने आश्रित
जीवों के साथ वे विशेष रूप से विराजमान हैं। इसलिये उन पर सदा दृष्टि जमी रहनी
चाहिये।
एवं विधो ब्रह्मचारी वानप्रस्थो
यतिर्गृही ।
चरन् विदितविज्ञानः परं
ब्रह्माधिगच्छति ॥ १६॥
वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान्
मुनिसम्मतान् ।
यानातिष्ठन् मुनिर्गच्छेदृषिलोकमिहाञ्जसा
॥ १७॥
न कृष्टपच्यमश्नीयादकृष्टं
चाप्यकालतः ।
अग्निपक्वमथामं वा
अर्कपक्वमुताहरेत् ॥ १८॥
वन्यैश्चरुपुरोडाशान्
निर्वपेत्कालचोदितान् ।
लब्धे नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं तु
परित्यजेत् ॥ १९॥
अग्न्यर्थमेव शरणमुटजं
वाद्रिकन्दराम् ।
श्रयेत हिमवाय्वग्निवर्षार्कातपषाट्
स्वयम् ॥ २०॥
केशरोमनखश्मश्रुमलानि जटिलो दधत् ।
कमण्डल्वजिने
दण्डवल्कलाग्निपरिच्छदान् ॥ २१॥
चरेद्वने द्वादशाब्दानष्टौ वा चतुरो
मुनिः ।
द्वावेकं वा यथा बुद्धिर्न विपद्येत
कृच्छ्रतः ॥ २२॥
यदाकल्पः स्वक्रियायां
व्याधिभिर्जरयाथवा ।
आन्वीक्षिक्यां वा विद्यायां
कुर्यादनशनादिकम् ॥ २३॥
आत्मन्यग्नीन् समारोप्य
सन्न्यस्याहंममात्मताम् ।
कारणेषु न्यसेत्सम्यक् सङ्घातं तु
यथार्हतः ॥ २४॥
खे खानि वायौ
निश्वासांस्तेजस्यूष्माणमात्मवान् ।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि क्षितौ
शेषं यथोद्भवम् ॥ २५॥
वाचमग्नौ सवक्तव्यामिन्द्रे शिल्पं
करावपि ।
पदानि गत्या वयसि रत्योपस्थं
प्रजापतौ ॥ २६॥
मृत्यौ पायुं विसर्गं च यथास्थानं
विनिर्दिशेत् ।
दिक्षु श्रोत्रं सनादेन
स्पर्शमध्यात्मनि त्वचम् ॥ २७॥
रूपाणि चक्षुषा राजन्
ज्योतिष्यभिनिवेशयेत् ।
अप्सु प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं
क्षितौ न्यसेत् ॥ २८॥
मनो मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं
बोध्यैः कवौ परे ।
कर्माण्यध्यात्मना रुद्रे
यदहंममताक्रिया ।
सत्त्वेन चित्तं क्षेत्रज्ञे
गुणैर्वैकारिकं परे ॥ २९॥
अप्सु क्षितिमपो ज्योतिष्यदो वायौ
नभस्यमुम् ।
कूटस्थे तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे
च तत् ॥ ३०॥
इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं
चिन्मात्रमवशेषितम् ।
ज्ञात्वाद्वयोऽथ
विरमेद्दग्धयोनिरिवानलः ॥ ३१॥
इस प्रकार आचरण करने वाला
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासी अथवा गृहस्थ विज्ञान सम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्व का अनुभव
प्राप्त कर लेता है।
अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम
के नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करने से वानप्रस्थ-आश्रमी को अनायास ही ऋषियों के
लोक महर्लोक की प्राप्ति हो जाती है।
वानप्रस्थ-आश्रमी को जोती हुई भूमि
में उत्पन्न होने वाले चावल, गेंहूँ आदि
अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमय में पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आग से पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाये। केवल
सूर्य के ताप से पके हुए कन्द, मूल, फल
आदि का ही सेवन करे। जंगलों में अपने-आप पैदा हुए धान्यों से नित्य-नैमित्तिक चरु
और पुरोडाश का हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहले से इकट्ठे किये हुए
अन्न का परित्याग कर दे। अग्निहोत्र के अग्नि की रक्षा के लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाड़ की गुफा का आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घाम को
सहन करे। सिर पर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैल को भी शरीर से अलग न करे। कमण्डलु,
मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र
और अग्निहोत्र की सामग्रियों को अपने पास रखे।
विचारवान् पुरुष को चाहिये कि बारह,
आठ, चार, दो या एक वर्ष
तक वानप्रस्थ-आश्रम के नियनों का पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्या का
क्लेश सहन करने से बुद्धि बिगड़ न जाये। वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के
कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त-विचार करने की भी सामर्थ्य न रहे,
तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये। अनशन के पूर्व ही वह अपने
आह्वनीय आदि अग्नियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। ‘मैंपन’
और ‘मेरेपन’ का त्याग
करके शरीर को उसके कारणभूत तत्त्वों में यथा योग्य भलीभाँति लीन करे।
जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीर के
छिद्राकाशों को आकाश में, प्राणों को वायु
में, गरमी को अग्नि में, रक्त, कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वों को जल और हड्डी आदि ठोस
वस्तुओं को पृथ्वी में लीन करे। इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषण को उसके
अधिष्ठातृ देवता अग्नि में, हाथ और उसके द्वारा होने वाले
कला-कौशल को इन्द्र में, चरण और उसकी गति को काल स्वरूप
विष्णु में, रति और उपस्थ को प्रजापति में एवं पायु और
मलोत्सर्ग को उनके आश्रय के अनुसार मृत्यु में लीन कर दे। श्रोत और उसके द्वारा
सुने जाने वाले शब्द को दिशाओं में, स्पर्श और त्वचा को वायु
में, नेत्र सहित रूप को ज्योति में, मधुर
आदि रस के सहित[1] रसनेन्द्रिय को जल में और युधिष्ठिर!
घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जाने वाले गन्ध को पृथ्वी में लीन कर दे।
मनोरथों के साथ मन को चन्द्रमा में,
समझ में आने वाले पदार्थों के सहित बुद्धि को ब्रह्मा में तथा अहंता
और ममतारूप क्रिया करने वाले अहंकार को उसके कर्मों के साथ रुद्र में लीन कर दे।
इसी प्रकार चेतना-सहित चित्त को क्षेत्रज्ञ (जीव) में और गुणों के कारण विकारी-से
प्रतीत होने वाले जीव को परब्रह्म में लीन कर दे। साथ ही पृथ्वी का जल में,
जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में, वायु का आकाश में, आकाश का अहंकार में, अहंकार का महत्तत्त्व में, महत्तत्त्व का अव्यक्त
में और अव्यक्त का अविनाशी परमात्मा में लय कर दे। इस प्रकार अविनाशी परमात्मा के
रूप में अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँ-यह जानकर अद्वितीय भाव में स्थित हो जाये। जैसे अपने आश्रय
काष्ठादि के भस्म हो जाने पर अग्नि शान्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है,
वैसे ही वह भी उपरत हो जाये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम द्वादशोऽध्यायः
॥ १२॥
जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: त्रयोदशोऽध्यायः
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box