श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १३                                      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १३ "यतिधर्म का निरूपण और अवधूत-प्रह्लाद-संवाद"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १३                                                          

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः १३                                                             

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय १३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ त्रयोदशोऽध्यायः १३ ॥

नारद उवाच

कल्पस्त्वेवं परिव्रज्य देहमात्रावशेषितः ।

ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्चरेन्महीम् ॥ १॥

बिभृयाद्यद्यसौ वासः कौपीनाच्छादनं परम् ।

त्यक्तं न दण्डलिङ्गादेरन्यत्किञ्चिदनापदि ॥ २॥

एक एव चरेद्भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रयः ।

सर्वभूतसुहृच्छान्तो नारायणपरायणः ॥ ३॥

पश्येदात्मन्यदो विश्वं परे सदसतोऽव्यये ।

आत्मानं च परं ब्रह्म सर्वत्र सदसन्मये ॥ ४॥

सुप्तिप्रबोधयोः सन्धावात्मनो गतिमात्मदृक् ।

पश्यन् बन्धं च मोक्षं च मायामात्रं न वस्तुतः ॥ ५॥

नाभिनन्देद्ध्रुवं मृत्युमध्रुवं वास्य जीवितम् ।

कालं परं प्रतीक्षेत भूतानां प्रभवाप्ययम् ॥ ६॥

नासच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम् ।

वादवादांस्त्यजेत्तर्कान् पक्षं कं च न संश्रयेत् ॥ ७॥

न शिष्याननुबध्नीत ग्रन्थान् नैवाभ्यसेद्बहून् ।

न व्याख्यामुपयुञ्जीत नारम्भानारभेत्क्वचित् ॥ ८॥

न यतेराश्रमः प्रायो धर्महेतुर्महात्मनः ।

शान्तस्य समचित्तस्य बिभृयादुत वा त्यजेत् ॥ ९॥

अव्यक्तलिङ्गो व्यक्तार्थो मनीष्युन्मत्तबालवत् ।

कविर्मूकवदात्मानं स दृष्ट्या दर्शयेन्नृणाम् ॥ १०॥

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।

प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ ११॥

तं शयानं धरोपस्थे कावेर्यां सह्यसानुनि ।

रजस्वलैस्तनूदेशैर्निगूढामलतेजसम् ॥ १२॥

ददर्श लोकान् विचरन् लोकतत्त्वविवित्सया ।

वृतोऽमात्यैः कतिपयैः प्रह्लादो भगवत्प्रियः ॥ १३॥

कर्मणाऽऽकृतिभिर्वाचा लिङ्गैर्वर्णाश्रमादिभिः ।

न विदन्ति जना यं वै सोऽसाविति न वेति च ॥ १४॥

तं नत्वाभ्यर्च्य विधिवत्पादयोः शिरसा स्पृशन् ।

विवित्सुरिदमप्राक्षीन्महाभागवतोऽसुरः ॥ १५॥

बिभर्षि कायं पीवानं सोद्यमो भोगवान् यथा ।

वित्तं चैवोद्यमवतां भोगो वित्तवतामिह ।

भोगिनां खलु देहोऽयं पीवा भवति नान्यथा ॥ १६॥

न ते शयानस्य निरुद्यमस्य

ब्रह्मन् नु हार्थो यत एव भोगः ।

अभोगिनोऽयं तव विप्र देहः

पीवा यतस्तद्वद नः क्षमं चेत् ॥ १७॥

कविः कल्पो निपुणदृक् चित्रप्रियकथः समः ।

लोकस्य कुर्वतः कर्म शेषे तद्वीक्षितापि वा ॥ १८॥

नारद जी कहते हैं ;- धर्मराज! यदि वानप्रस्थी में ब्रह्मविचार का सामर्थ्य हो, तो शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर एक गाँव में एक ही रात ठहरने का नियम लेकर पृथ्वी पर विचरण करे। यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अंग ढक जायें और जब तक कोई आपत्ति न आवे, तब तक दण्ड तथा अपने आश्रम के चिह्नों के सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करे।

संन्यासी को चाहिये कि वह समस्त प्राणियों का हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसी का आश्रय न लेकर अपने-आप में ही रमे एवं अकेला ही विचरे। इस सम्पूर्ण विश्व को कार्य और कारण से अतीत परमात्मा में अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत् में ब्रह्मस्वरूप अपने आत्मा को परिपूर्ण देखे। आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरण की सन्धि में अपने अपने स्वरूप का अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही केवल माया है, वस्तुतः कुछ नहीं-ऐसा समझे। न तो शरीर की अवश्य होने वाली मृत्यु का अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवन का। केवल समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और नाश के कारण काल की प्रतीक्षा करता रहे। असत्य- अनात्म वस्तु का प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों से प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाह के लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवाद के लिये कोई तर्क न करे और संसार में किसी का पक्ष न ले। शिष्य-मण्डली न जुटावे, बहुत-से ग्रन्थों का अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामों का आरम्भ न करे। शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासी के लिये किसी आश्रम का बन्धन धर्म का कारण नहीं है। वह अपने आश्रम के चिह्नों को धारण करे, चाहे छोड़ दे। उसके पास कोई आश्रम का चिह्न न हो, परन्तु वह आत्मानुसन्धान में मग्न हो। हो तो अत्यन्त विचारशील, परन्तु जान पड़े पागल और बालक की तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होने पर भी साधारण मनुष्यों की दृष्टि से ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है।

युधिष्ठिर! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लाद का संवाद। एक बार भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद जी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदय की बात जानने की इच्छा से लोकों में विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सह्य पर्वत की तलहटी में कावेरी नदी के तट पर पृथ्वी पर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीर की निर्मल ज्योति अंगों के धूलि-धूसरित होने के कारण ढकी हुई थी। उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण-आश्रम आदि के चिह्नों से लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं। भगवान् के परम प्रेमी भक्त प्रह्लाद जी ने अपने सिर से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जानने की इच्छा से यह प्रश्न किया- भगवन्! आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषों के समान हष्ट-पुष्ट है। संसार का यह नियम है कि उद्योग करने वालों को धन मिलता है, धन वालों को ही भोग प्राप्त होता है और भोगियों का ही शरीर ह्रष्ट-पुष्ट होता है और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता। भगवन्! आप कोई उद्योग तो करते है नहीं। फिर आपको भोग कहाँ से प्राप्त होंगे? ब्राह्मण देवता! बिना भोग के ही आपका यह शरीर इतना ह्रष्ट-पुष्ट कैसे है? यदि हमारे सुनने योग्य हो, तो अवश्य बतलाइये। आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती हैं। ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है?’

नारद उवाच

स इत्थं दैत्यपतिना परिपृष्टो महामुनिः ।

स्मयमानस्तमभ्याह तद्वागमृतयन्त्रितः ॥ १९॥

नारद जी कहते हैं ;- धर्मराज! जब प्रह्लाद जी ने महामुनि दत्तात्रेय जी से इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणी के वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले।

ब्राह्मण उवाच

वेदेदमसुरश्रेष्ठ भवान् नन्वार्यसम्मतः ।

ईहोपरमयोर्नॄणां पदान्यध्यात्मचक्षुषा ॥ २०॥

यस्य नारायणो देवो भगवान् हृद्गतः सदा ।

भक्त्या केवलयाज्ञानं धुनोति ध्वान्तमर्कवत् ॥ २१॥

अथापि ब्रूमहे प्रश्नांस्तव राजन् यथाश्रुतम् ।

सम्भावनीयो हि भवानात्मनः शुद्धिमिच्छताम् ॥ २२॥

तृष्णया भववाहिन्या योग्यैः कामैरपूरया ।

कर्माणि कार्यमाणोऽहं नानायोनिषु योजितः ॥ २३॥

यदृच्छया लोकमिमं प्रापितः कर्मभिर्भ्रमन् ।

स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं तिरश्चां पुनरस्य च ॥ २४॥

अत्रापि दम्पतीनां च सुखायान्यापनुत्तये ।

कर्माणि कुर्वतां दृष्ट्वा निवृत्तोऽस्मि विपर्ययम् ॥ २५॥

सुखमस्यात्मनो रूपं सर्वेहोपरतिस्तनुः ।

मनःसंस्पर्शजान् दृष्ट्वा भोगान् स्वप्स्यामि संविशन् ॥ २६॥

इत्येतदात्मनः स्वार्थं सन्तं विस्मृत्य वै पुमान् ।

विचित्रामसति द्वैते घोरामाप्नोति संसृतिम् ॥ २७॥

जलं तदुद्भवैश्छन्नं हित्वाज्ञो जलकाम्यया ।

मृगतृष्णामुपाधावेद्यथान्यत्रार्थदृक् स्वतः ॥ २८॥

देहादिभिर्दैवतन्त्रैरात्मनः सुखमीहतः ।

दुःखात्ययं चानीशस्य क्रिया मोघाः कृताः कृताः ॥ २९॥

दत्तात्रेय जी ने कहा ;- दैत्यराज! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्यों को कर्मों की प्रवृत्ति और उनकी निवृत्ति का क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी ज्ञानदृष्टि से जानते ही हो। तुम्हारी अनन्य भक्ति के कारण देवाधिदेव भगवान् नारायण सदा तुम्हारे हृदय में विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देते हैं, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञान को नष्ट करते रहते हैं। तो भी प्रह्लाद! मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियों को तुम्हारा सम्मान अवश्य करना चाहिये।

प्रह्लाद जी! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पुरी नहीं होती। उसी के कारण जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला। कर्मों के कारण अनेकों योनियों में भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्य योनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानव देह की भी प्राप्ति का द्वार है- इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदि की योनि, निवृत्त हो जायें तो मोक्ष और दोनों प्रकार के कर्म किये जायें तो फिर मनुष्य योनि की ही प्रप्ति हो सकती है। परन्तु मैं देखता हूँ कि संसार के स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता है- वे और भी दुःख में पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मों से उपरत हो गया हूँ।

सुख ही आत्मा का स्वरूप है। समस्त चेष्टाओं की निवृत्ति ही उसका शरीर-उसके प्रकाशित होने का स्थान है। इसलिये समस्त भोगों को मनोराज्य मात्र समझकर मैं अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ। मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुख को, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैत को सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयंकर और विचित्र जन्मों और मृत्युओं में भटकता रहता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समजने वाला पुरुष आत्मा को छोड़कर विषयों की ओर दौड़ता है।

प्रह्लाद जी! शरीर आदि तो प्रारब्ध के अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दुःख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं।

आध्यात्मिकादिभिर्दुःखैरविमुक्तस्य कर्हिचित् ।

मर्त्यस्य कृच्छ्रोपनतैरर्थैः कामैः क्रियेत किम् ॥ ३०॥

पश्यामि धनिनां क्लेशं लुब्धानामजितात्मनाम् ।

भयादलब्धनिद्राणां सर्वतोऽभिविशङ्किनाम् ॥ ३१॥

राजतश्चौरतः शत्रोः स्वजनात्पशुपक्षितः ।

अर्थिभ्यः कालतः स्वस्मान्नित्यं प्राणार्थवद्भयम् ॥ ३२॥

शोकमोहभयक्रोधरागक्लैब्यश्रमादयः ।

यन्मूलाः स्युर्नृणां जह्यात्स्पृहां प्राणार्थयोर्बुधः ॥ ३३॥

मधुकारमहासर्पौ लोकेऽस्मिन् नो गुरूत्तमौ ।

वैराग्यं परितोषं च प्राप्ता यच्छिक्षया वयम् ॥ ३४॥

विरागः सर्वकामेभ्यः शिक्षितो मे मधुव्रतात् ।

कृच्छ्राप्तं मधुवद्वित्तं हत्वाप्यन्यो हरेत्पतिम् ॥ ३५॥

अनीहः परितुष्टात्मा यदृच्छोपनतादहम् ।

नो चेच्छये बह्वहानि महाहिरिव सत्त्ववान् ॥ ३६॥

क्वचिदल्पं क्वचिद्भूरि भुञ्जेऽन्नं स्वाद्वस्वादु वा ।

क्वचिद्भूरि गुणोपेतं गुणहीनमुत क्वचित् ॥ ३७॥

श्रद्धयोपहृतं क्वापि कदाचिन्मानवर्जितम् ।

भुञ्जे भुक्त्वाथ कस्मिंश्चिद्दिवा नक्तं यदृच्छया ॥ ३८॥

क्षौमं दुकूलमजिनं चीरं वल्कलमेव वा ।

वसेऽन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक् तुष्टधीरहम् ॥ ३९॥

क्वचिच्छये धरोपस्थे तृणपर्णाश्मभस्मसु ।

क्वचित्प्रासादपर्यङ्के कशिपौ वा परेच्छया ॥ ४०॥

क्वचित्स्नातोऽनुलिप्ताङ्गः सुवासाः स्रग्व्यलङ्कृतः ।

रथेभाश्वैश्चरे क्वापि दिग्वासा ग्रहवद्विभो ॥ ४१॥

नाहं निन्दे न च स्तौमि स्वभावविषमं जनम् ।

एतेषां श्रेय आशासे उतैकात्म्यं महात्मनि ॥ ४२॥

विकल्पं जुहुयाच्चित्तौ तां मनस्यर्थविभ्रमे ।

मनो वैकारिके हुत्वा तन्मायायां जुहोत्यनु ॥ ४३॥

आत्मानुभूतौ तां मायां जुहुयात्सत्यदृङ्मुनिः ।

ततो निरीहो विरमेत्स्वानुभूत्याऽऽत्मनि स्थितः ॥ ४४॥

स्वात्मवृत्तं मयेत्थं ते सुगुप्तमपि वर्णितम् ।

व्यपेतं लोकशास्त्राभ्यां भवान् हि भगवत्परः ॥ ४५॥

मनुष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दुःखों से आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्ट से कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है? लोभी और इन्द्रियों के वश में रहने वाले धनियों का दुःख तो मैं देखता ही रहता हूँ। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका सन्देह बना रहता है। जो जीवन और धन के लोभी हैं-वे राजा, चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और काल से, यहाँ तक कि कहीं मैं भूल न कर बैठूँ, अधिक न खर्च कर दूँ’-इस आशंका से अपने-आप भी सदा डरते रहते हैं। इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और जीवन की स्पृहा का त्याग कर दे।

इस लोक में मेरे सबसे बड़े गुरु हैं-अजगर और मधुमक्खी। उनकी शिक्षा से हमें वैराग्य और सन्तोष की प्रप्ति हुई है। मधुमक्खी जैसे मधु इकठ्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्ट से धन-संचय करते हैं; परन्तु दूसरा ही कोई उस धन-राशि के स्वामी को मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगों से विरक्त ही रहना चाहिये। मैं अजगर के समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनों तक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ। कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस-बेस्वाद; और कभी अनेकों गुणों से युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन। कभी बड़ी श्रद्धा से प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमान के साथ और किसी-किसी समय अपने-आप ही मिल जाने पर कभी दिन में, कभी रात में और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ।

मैं अपने प्रारब्ध के भोग में ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ-जैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ। कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राख के ढेर पर ही पड़ा रहता हूँ, तो कभी दूसरों की इच्छा से महलों में पलँगों और गद्दों पर सो लेता हूँ। दैत्यराज! कभी नहा-धोकर, शरीर में चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलों के हार और गहने पहन रथ, हाथी और घोड़े पर चढ़कर चलता हूँ, तो कभी पिशाच के समान बिलकुल नंग-धडंग विचरता हूँ। मनुष्यों के स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अतः न तो मैं किसी की निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मा से एकता चाहता हूँ।

सत्य का अनुसन्धान करके वाले मनुष्य को चाहिये कि जो नाना प्रकार के पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्ति में हवन कर दे। चित्तवृत्ति को इन पदार्थों के सम्बन्ध में विविध भ्रम उत्पन्न करने वाले मन में, मन को सात्त्विक अहंकार में और सात्त्विक अहंकार को महत्तत्त्व के द्वारा माया में हवन कर दे। इस प्रकार ये भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाये।

प्रह्लाद जी! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्र से परे की वस्तु है। तुम भगवान् के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है।

नारद उवाच

धर्मं पारमहंस्यं वै मुनेः श्रुत्वासुरेश्वरः ।

पूजयित्वा ततः प्रीत आमन्त्र्य प्रययौ गृहम् ॥ ४६॥

नारद जी कहते हैं ;- महाराज! प्रह्लाद जी ने दत्तात्रेय मुनि से परमहंसों के इस धर्म का श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान किया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे यतिधर्मं नाम त्रयोदशाध्यायः ॥ १३॥

जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः

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