श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १६

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १६            

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १६ यममार्ग के सोलह पुरों का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय १६

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) षोडशोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 16

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प सोलहवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १६            

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय १६ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः १६       

श्रीभगवानुवाच ।

एवं विलपतस्तस्य प्रेतस्यैवं खगेश्वर ।

क्रन्दमानस्य नितरां पीडितस्य च किङ्करैः ॥ २,१६.१ ॥

सप्तदश दिनान्येको वायुमार्गे विकृष्यते ।

अष्टादशे त्वहोरात्रे पूर्वं याम्यपुरं व्रजेत् ॥ २,१६.२ ॥

तस्मिन्पुरवरे रम्ये प्रेतानां च गणो महान् ।

पुष्पभद्रा नदी तत्रन्यग्रोधः प्रियदर्शनः ॥ २,१६.३ ॥

पुरे स तत्र विश्रामं प्राप्यते यमकिङ्करैः ।

जायापुत्रादिकं सौख्यं स्मरेत्तत्र सुदुः खितः ॥ २,१६.४ ॥

रुदते करुणैर्वाक्यै स्तृषार्तः श्रमपीडितः ।

स्वधनं स्वकलत्राणि गृहं पुत्राः सुखानि च ॥ २,१६.५ ॥

भृत्यमित्राणि चान्यच्च सर्वं शोचति वै तदा ।

क्षुधार्तस्य पुरे तस्मिन्किङ्करैस्तस्य चोच्यते ॥ २,१६.६ ॥

श्रीभगवान् ने कहा- हे खगेश ! इस प्रकार करुण - क्रन्दन और विलाप करते हुए अत्यधिक दुःखित प्रेत को सत्रह दिन तक अकेले वायुमार्ग में ही यमदूतों के द्वारा निर्दयतापूर्वक खींचा जाता है । अट्ठारहवाँ दिन-रात पूर्ण होने पर पहले वह 'याम्यपुर' पहुँचता है। उस रमणीक नगर में प्रेतों के महान् गण रहते हैं। वहाँ पुष्पभद्रा नदी तथा देखने में सुन्दर लगनेवाला एक वटवृक्ष है । यमदूत वहाँ पहुँचकर उस प्रेत को विश्राम करने का समय देते हैं । वहाँ प्रेत दुःखित होकर अपनी स्त्री और पुत्रादि सगे- सम्बन्धियों से प्राप्त होनेवाले सुख का स्मरण करता है। मार्ग में पड़नेवाले परिश्रम से थका एवं भूख- प्यास से व्याकुल वह प्रेत वहाँ करुण विलाप करता है । उस समय वह धन, स्त्री, पुत्र, घर, सुख, नौकर और मित्र के विषय में तथा अन्य सभी के विषय में सोचता है। उस नगर में भूख-प्यास से पीड़ित उस प्रेत को देखकर यमदूत कहते हैं।

किङ्करा ऊचुः ।

क्व धनं क्व सुता जाया क्व गृहं क्व त्वमीदृशः ।

स्वकर्मोपार्जितं भुङ्क्ष्व चिरं गच्छ महापथे ॥ २,१६.७ ॥

जानासि शंबलवशं बलमध्वगानां नो शंबलः प्रयतते परलोकपान्थ ।

गन्तव्यमस्ति तव निश्चितमेव तेन मार्गेण यत्र भवतः क्रयविक्रयौ न ॥ २,१६.८ ॥

यमदूतों ने कहा—' हे प्रेत ! कहाँ धन है, कहाँ पुत्र है, कहाँ स्त्री है, कहाँ घर है और कहाँ तू इस प्रकार का दुःख झेल रहा है! चिरकाल तक अब तू अपने कर्मों से अर्जित पापों का भोग कर और इस महापथ पर चल । हे परलोक के पथिक! तुम जानते हो कि राहगीरों का बल पाथेय के वश में है। निश्चित ही तुझे उस मार्ग से चलना होगा, जहाँ कुछ क्रय- विक्रय करना भी सम्भव नहीं है।'

यमदूतोदितं वाक्यं पक्षिन्नैवं त्वया श्रुतम् ।

एवमुक्तस्ततः सर्वैर्हन्यमानः स मुद्गरैः ॥ २,१६.९ ॥

अत्र दत्तं सुतैः पात्रे (त्रैः) स्नेहाद्वा कृपयाथ वा ।

मासिकं पिण्डमश्राति ततः सौरिपुरं व्रजेत् ॥ २,१६.१० ॥

तत्र नाम्ना तु राजा वै जङ्गमः कालरूपधृक् ।

तं दृष्ट्वा भयभीतस्तु विश्रामे कुरुते मतिम् ॥ २,१६.११ ॥

उदकं चान्नसंयुक्तं भुङ्क्ते तस्मिन्पुरे गतः ।

त्रैपक्षिके तु यद्दत्तं तत्पुरं स व्यतिक्रमेत् ॥ २,१६.१२ ॥

नगेन्द्रनगरे रम्ये प्रेतो याति दिवानिशम् ।

गच्छन्वनानि रौद्राणि दृष्ट्वा क्रन्दति तत्र सः ॥ २,१६.१३ ॥

भीषणैः क्लिश्यमानस्तु रुदते च पुनः पुनः ।

मासद्वयावसाने तु तत्पुरं सोऽतिगच्छति ॥ २,१६.१४ ॥

भुक्त्वा चान्नं जलं पीत्वा यद्दत्तं वान्धवैरिह ।

क्लिश्यमानस्ततः पाशैर्नोयते यमकिङ्करैः ॥ २,१६.१५ ॥

तृतीये मासि सम्प्राप्ते गन्धर्वनगरं शुभम् ।

तृतीयं मासिकं भुक्त्वा तत्र गच्छत्यसौ पुरः ॥ २,१६.१६ ॥

शैलागमं चतुर्थे स मासे प्राप्नोति वै पुरम् ।

पाषाणास्तत्र वर्षन्ति प्रेतस्योपरि संस्थिताः ॥ २,१६.१७ ॥

चतुर्थमासिके श्राद्धं भुक्ते तत्र सुखी भवेत् ॥ २,१६.१८ ॥

ततो याति पुरं प्रेतः क्रूरं मासे तु पञ्चमे ।

इह दत्तं सुतैर्भुङ्क्ते प्रेतो वै तत्पुरे स्थितः ।

षष्ठे मासि ततः प्रेतो याति क्रौञ्चाबिधं पुरम् ॥ २,१६.१९ ॥

तत्र दत्तेन पिण्डेन श्राद्धेनाप्यायितः पुरे ।

मुहूर्तार्धं तु विश्रम्य कम्पमानः सुदुः खितः ॥ २,१६.२० ॥

तत्पुरं स व्यतिक्रम्य तर्जितो यमकिङ्करैः ।

प्रयाति चित्रनगरं विचित्रो यत्र पार्थिवः ॥ २,१६.२१ ॥

यमस्यैवानुजः सौरिर्यत्र राज्यं प्रशास्ति हि ।

हे पक्षिराज ! यमदूतों के द्वारा इस प्रकार कहे जाने के बाद वह यमदूतों के द्वारा मुद्गरों से मारा जाता है । तत्पश्चात् स्नेहवश अथवा कृपा करके भूलोक में पुत्रों के हाथों से दिये गये मासिक पिण्ड को वह खाता है। उसके बाद वहाँ से वह 'सौरिपुर' के लिये चल देता है। उस नगर में कालरूपधारी जंगम नाम का राजा है । उसको देखकर प्रेत भयभीत हो उठता है और विश्राम करना चाहता है। त्रैपाक्षिक श्राद्ध में दिये गये अन्न और जल का वह उसी नगर में उपभोग करके दिन और रात चलकर सुन्दर बसे हुए 'नगेन्द्रभवन' नामक नगर की ओर जाता है। उस महापथ पर चलते हुए महाभयंकर वन देखकर वह करुण विलाप करता है। वहाँ के कष्टों से दुःखित होकर वह बार-बार रोता है। दो मास बिताने के पश्चात् वह उस नगर में पहुँचता है। यहाँ वह अपने बन्धु-बान्धवों के द्वारा दिये गये अन्न और जल को खाता-पीता है। उसके बाद यमदूत पाश में बाँधकर उसे दुःख देते हुए पुनः आगे की ओर ले जाते हैं। तीसरे मास में वह 'गन्धर्वनगर' पहुँच जाता है। तीसरे मास में दिये गये श्राद्ध-पिण्ड का यहाँ भक्षण करके चौथे मास में वह 'शैलागम' नामक नगर पहुँचता है। यहाँ प्रेत के ऊपर पत्थरों की वर्षा होती है । वहाँ वह चौथे मास में दिये गये श्राद्ध-पिण्ड को खाकर संतुष्ट होता है । इसके बाद प्रेत पाँचवें मास में 'क्रौञ्चपुर' जाता है । उस पुर में पुत्रों के द्वारा दिये गये पाँचवें मास के श्राद्ध के पिण्ड को खाता है। तदनन्तर छठे मास में प्रेत 'क्रूरपुर' नामक नगर की यात्रा करता है । उस पुर में छठे मास में पुत्रों द्वारा दिये गये श्राद्ध-पिण्ड को खाकर उसकी संतृप्ति होती है; किंतु आधे मुहूर्त भर विश्राम करने के बाद उसका हृदय पुनः दुःख से काँपने लगता है । यमदूतों से तर्जित होकर वह प्रेत उस पुर को लाँघकर 'विचित्रभवन' की ओर प्रस्थान करता है जहाँ का राजा विचित्र है । यमराज का छोटा भाई सौरि ही यहाँ के राज्य पर शासन करता है ।

मासैस्तु पञ्चभिः सार्धैरूपषाण्मासिकं भवेत् ॥ २,१६.२२ ॥

ऊनषाण्मासिकं तत्र भुङ्क्ते याम्यसमाहतः ।

मार्गे पुनः पुनस्तस्य बुभुक्षा पीडयत्यलम् ॥ २,१६.२३ ॥

सन्तिष्ठते मृते कोऽपि मदीयः सुतबान्धवः ।

सौख्यं यो मे जनयति पततः शोकसागरे ॥ २,१६.२४ ॥

एवं मार्गे विलपति वार्यमाणश्च किङ्करैः ।

आयान्ति संमुखास्तत्र कैवर्तास्तु सहस्रशः ॥ २,१६.२५ ॥

वयं ते तर्तुकामाय महावैतरणीं नदीम् ।

शतयोजनविस्तीर्णां पूयशोणितसंकुलाम् ॥ २,१६.२६ ॥

नानाझषसमाकीर्णां नानापक्षिगणैर्वृताम् ।

वयं त्वां तारयिष्यामः सुखेनेति वदन्ति ते ॥ २,१६.२७ ॥

अन्तरं देहि भो पान्थ बहुला चेद्रुचिस्तव ।

तेन तत्र प्रदत्ता गौस्तया नावा प्रसर्पति ।

मनुजानां हितं दानमन्ते वैतरणी स्मृता ॥ २,१६.२८ ॥

परापापं दहेत्सर्वं विष्णुलोकं च सा नयेत् ।

न दत्ता चेत्खगश्रेष्ठ तां समेत्य समज्जति ॥ २,१६.२९ ॥

स्वस्थावस्थे शरीरेऽत्र वैतरण्या व्रतं चरेत् ।

देया च विदुषे धेनुस्तां नदीं तर्तुमिच्छता ॥ २,१६.३० ॥

अवदन्मज्जमानस्तु निन्दत्यात्मानमात्मना ।

पाथेयार्थं मया किञ्चिन्न प्रदत्तं द्विजायच ॥ २,१६.३१ ॥

न दत्तं न हुतं जप्तं न स्नातं न कृतं स्तुतम् ।

यादृशं कर्म चरितं मूढ भुङ्क्ष्वेति तादृशम् ॥ २,१६.३२ ॥

तदैव हृदि संमूढस्ताडितो भाषते भटैः ।

वैतरण्याः परतटे भुङ्क्ते दत्तं घटादिकम् ॥ २,१६.३३ ॥

ऊनषाण्मासिकश्राद्धं भुक्त्वा गच्छति चाग्रतः ।

तार्क्ष्य तत्र विशेषेण भोजयीत द्विजाञ्छुभान् ॥ २,१६.३४ ॥

हे पक्षिराज ! पाँच मास और पंद्रह दिन पर ऊनषाण्मासिक श्राद्ध होता है । अतः यमदूतों के द्वारा संत्रस्त वह प्रेत उसी 'विचित्रभवन में ऊनषाण्मासिक श्राद्ध-पिण्ड का उपभोग करता है । मार्ग में बार-बार उसको भूख पीड़ा पहुँचाती है। अतः यमदूतों के द्वारा रोके जाने पर भी वह उस मार्ग में विलाप करता है कि क्या कोई पुत्र या बान्धव है ? जो मेरे मरने पर शोक – सागर में गिरते हुए मुझे सुखी नहीं कर रहा है? इसी समय वहाँ पर उसके सामने हजारों मल्लाह आते हैं और कहते हैं कि 'सौ योजन विस्तृत मवाद और रक्त से पूर्ण नाना प्रकार की मछलियों से व्याप्त, नाना पक्षिगणों से आवृत महावैतरणी नदी को पार करने की इच्छा करनेवाले तुम्हें हम लोग सुखपूर्वक तारेंगे। किंतु हे पथिक! यदि उस मर्त्यलोक में तुम्हारे द्वारा गोदान दिया गया है तो उस नाव से तुम पार जाओ ।' मनुष्यों का अन्त समय आने पर वैतरणी- गोदान ही हितकारी होता है। अतः शरीर स्वस्थ रहने पर वैतरणी - व्रत करना चाहिये और वैतरणी नदी को पार करने की इच्छा से विद्वान् ब्राह्मण को गोदान करना चाहिये । वह पापी के समस्त पापों को विनष्ट करके उसे विष्णुलोक ले जाता है। जिसने वैतरणी - दान नहीं किया है, वह प्रेत उसी नदी में जाकर डूबने लगता है। डूबते हुए स्वयं अपनी निन्दा करता हुआ कहता है कि 'मैंने पाथेय-हेतु ब्राह्मण को कुछ भी दान नहीं दिया है। न मैंने दान किया है, न तो मैंने अग्नि में आहुति दी है, न भगवन्नाम का जप ही किया है, न तीर्थ में जाकर स्नान ही किया है और न भगवान्‌ की स्तुति ही की है। हे मूर्ख ! जैसा कर्म तुमने किया है, अब वैसा ही भोग कर ।' ऐसा कहने के बाद यमदूतों से हृदय में मारा जाता हुआ वह प्रेत उसी समय किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है और वैतरणी के दूसरे तट पर दिये गये षाण्मासिक श्राद्ध के घटादिक दान एवं पिण्ड का भोजन करके आगे की ओर बढ़ता है । अतः हे तार्क्ष्य ! षाण्मासिक श्राद्ध पर सत्पात्र ब्राह्मण को विशेषरूप से भोजन कराना चाहिये ।

चत्वारिंशत्तथा सप्त योजनानि शतद्वयम् ।

प्रयाति प्रत्यहं तार्क्ष्य अहोरात्रेण कर्शितः ॥ २,१६.३५ ॥

सप्तमे मासि सम्प्राप्ते पुरं बह्वापदं व्रजेत् ।

तत्र भुक्त्व प्रदत्तं यच्छ्राद्धं सप्तममासिकम् ॥ २,१६.३६ ॥

अष्टमे मासि सम्प्राप्ते नानाक्रन्दपुरं व्रजेत् ।

नानाक्रन्दगणान्दृष्ट्वा क्रन्दमानान्सुदारुणम् ॥ २,१६.३७ ॥

स्वयं च शून्यहृदयः समाक्रन्दति दुः खितः ।

तन्मासिकं च यच्छ्राद्धं भुक्त्वा तत्र सुखी भवेत् ॥ २,१६.३८ ॥

विहाय तत्पुरं प्रेतो याति तप्तपुरं प्रति ।

सुतप्तनगरं प्राप्य नवमे मासि सोऽश्नुते ।

द्विजभोज्यं पिण्डदानं कृतं श्राद्धं सुतेन यत् ॥ २,१६.३९ ॥

मासि वै दशमे प्राप्ते रौद्रं स्थानं स गच्छति ।

दशमे मासि यद्दत्तं तद्भुक्त्वा च प्रयाति सः ॥ २,१६.४० ॥

दशैकमासिकं भुक्त्वा पयोवर्षणमृच्छति ।

मेघास्तत्र प्रवर्षन्ति प्रेतानां दुः खदायकाः ॥ २,१६.४१ ॥

(ततः प्रचलितो पोतो बहुर्घमतृषार्दितः) ।

द्वादशे मासि यच्छ्राद्धं तत्र भुङ्क्ते सुदुः शितः ॥ २,१६.४२ ॥

किञ्चिन्न्यूने ततो वर्षे सार्धे चैकादशेऽथ वा ।

याति शीतपुरं तत्र शीतं यत्रातिदुः खदम् ॥ २,१६.४३ ॥

शीतार्तः क्षुधितः सोऽथ वीक्षते हि दिशो दश ।

तिष्ठेत्तु बान्धवः कोऽपि यो मे दुःखं व्यपोहति ॥ २,१६.४४ ॥

किङ्करास्तं वदन्त्येवं क्व ते पुण्यं हि तादृशम् ।

श्रुत्वा तेषां तु तद्वाक्यं हा दैव इति भाषते ॥ २,१६.४५ ॥

दैवं हि पूर्वसुकृतं तन्मया नैव सञ्चितम् ।

एवं सञ्चिन्त्य बहुशो धैर्यमालम्बते पुनः ॥ २,१६.४६ ॥

चत्वारिंशद्योजनानि चतुर्युक्तानि वै ततः ।

धर्मराजपुरं रम्यं गन्धर्वाप्सराकुलम् ॥ २,१६.४७ ॥

चतुरशीतिलक्षैश्च मूर्तामूर्तैरधिष्ठितम् ।

त्रयोदश प्रतीहारा धर्मराजपुरे स्थिताः ॥ २,१६.४८ ॥

शुभाशुभं तु यत्कर्म ते विचार्य पुनः पुनः ।

श्रवणा ब्रह्मणः पुत्रा मनुष्याणां च चेष्टितम् ।

कथयन्ति तदा लोके पूजिताः पूजिताः स्वयम् ॥ २,१६.४९ ॥

नरैस्तुष्टैश्च पुष्टैश्च यत्प्रोक्तं च कृतं च यत् ।

सर्वमावेदयन्ति स्म चित्रगुप्ते यमे च तत् ॥ २,१६.५० ॥

दूराच्छ्रवणविज्ञाना दूराद्दर्शनगोचराः ।

एवञ्चेष्टास्तु ते ह्यष्टौ स्वर्भूपातालचारिणः ॥ २,१६.५१ ॥

तेषां पत्न्यस्तथै वोग्रा श्रवण्यः पृथगाह्वयाः ।

एवं तेषां शक्तिरस्ति यर्त्ये मर्त्याधिकारिणः ॥ २,१६.५२ ॥

व्रतैर्दानैस्तवैर्यश्च पूजयेदिह मानवः ।

जायन्ते तस्य ते सौम्याः सुखमृत्युप्रदायिनः ॥ २,१६.५३ ॥

हे गरुड ! इसके बाद वह प्रेत एक दिन रात में दो सौ सैंतालीस योजन की गति से चलता है। सातवाँ मास आने पर वह 'बह्वापद' नामक पुर में पहुँचता है। सप्तम मासिक श्राद्ध में जो कुछ दान दिया गया है, उसको खाकर आठवें मास की समाप्ति पर उसकी यात्रा 'दुःखदपुर' तथा 'नानाक्रन्दनपुर' की ओर होती है। अत्यन्त दारुण क्रन्दन करते हुए नानाक्रन्दगणों को देखकर वह प्रेत स्वयं शून्यहृदय एवं दुःखित होकर बहुत जोर-जोर से रोने लगता है। वहाँ आठवें मास के श्राद्ध को खाकर वह सुखी होता है। नगर को छोड़कर वह 'तप्तपुर' चला जाता है। 'सुतप्तभवन' में पहुँचकर प्रेत नवें मास के श्राद्ध में पुत्र के द्वारा किये गये पिण्डदान एवं कराये गये ब्राह्मण भोजन को खाता है। दसवें मास में वह 'रौद्रनगर' जाता है । वहाँ वह दसवें मास के श्राद्ध का भोजन करके आगे स्थित 'पयोवर्षण' नामक पुर के लिये चल देता है। वहाँ पहुँचकर वह ग्यारहवें मास के श्राद्ध का भोजन करता है। वहाँ मेघों की ऐसी जलवर्षा होती है, जिससे प्रेत को बहुत ही कष्ट होता है । तदनन्तर आगे की ओर बढ़ता हुआ वह प्रेत अत्यन्त कड़कती हुई धूप और प्यास से व्यथित हो उठता है । बारहवें मास में पुत्र ने श्राद्ध में जो कुछ दान दिया है, उसका ही वह दुःखित प्रेत वहाँ पर भोग करता है। इसके बाद वर्ष – समाप्ति के कुछ दिन शेष रहने पर अथवा ग्यारह मास पंद्रह दिन बीत जाने पर वह 'शीताढ्यपुर' जाता है, जहाँ प्राणियों को अत्यन्त कष्ट देनेवाली ठंडक पड़ती है। वहाँ की ठंडी से व्यथित, भूख से व्याकुल वह प्रेत इस आशाभरी दृष्टि से दसों दिशाओं को देखने लगता है कि 'क्या मेरा कोई बन्धु बान्धव है जो मेरे इस दुःख को दूर कर दे?' उस समय यमदूत उस प्रेत से यह कहते हैं कि 'तेरा पुण्य वैसा कहाँ है, जो इस कष्ट में सहायता कर सके।' उनके उस वचन को सुनकर वह प्रेत 'हाय दैव !' ऐसा कहता है। निश्चित ही पूर्वजन्म में किया गया पुण्य दैव है । उसको 'मैंने संचित नहीं किया है, ऐसा मन-ही-मन अनेक प्रकार से विचार करके वह प्रेत पुनः धैर्य का सहारा लेता है। इसके बाद वहाँ से चौवालीस योजन परिक्षेत्र में फैला हुआ गन्धर्व और अप्सराओं से परिव्याप्त अत्यन्त मनोरम 'बहुधर्मभीतिपुर' पड़ता है, जहाँ चौरासी लाख मूर्त एवं अमूर्त प्राणी निवास करते हैं। इस पुर में तेरह प्रतीहार हैं, जो ब्रह्माजी के पुत्र हैं और श्रवण कहलाते हैं । वे प्राणियों के शुभाशुभकर्म का बार-बार विचार करके उसका वर्णन करते हैं। मनुष्य जो कहते और करते हैं, उन सभी बातों को ये ही ब्रह्माजी के पुत्र श्रवणदेव चित्रगुप्त तथा यमराज से बताते हैं । वे दूर से ही सब कुछ सुनने और देखने में समर्थ हैं। इस प्रकार की चेष्टावाले एवं स्वर्गलोक और भूलोक तथा पाताल में संचरण करनेवाले वे श्रवण आठ हैं। उन्हीं के समान उनकी पृथक्-पृथक् श्रवणी नामक उग्र पत्नियाँ हैं । उनकी भी शक्ति वैसी ही है, जैसी उनके पतियों की है। वे मर्त्यलोक के अधिकारी के रूप में हैं। व्रत, दान, स्तुति से जो उनकी पूजा करता है, उसके लिये वे सौम्य और सुखद मृत्यु देनेवाले हो जाते हैं।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे प्रेतयात्रादिनिरूपणं नाम षोडशोऽध्यायः॥

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