श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ७                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ७ "शकट-भंजन और तृणावर्त-उद्धार"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ७

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं सप्तम: अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ७                                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः ७ 

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध सातवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ सप्तमोऽध्यायः - ७ ॥

राजोवाच

येन येनावतारेण भगवान् हरिरीश्वरः ।

करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो ॥ १॥

यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा

सत्त्वं च शुद्ध्यत्यचिरेण पुंसः ।

भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं

तदेव हारं वद मन्यसे चेत् ॥ २॥

अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम् ।

मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः ॥ ३॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- प्रभो! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुनने में मधुर लीलाएँ करते हैं। वे सभी मेरे हृदय को बहुत प्रिय लगती हैं। उनके श्रवण मात्र से भगवत-सम्बन्धी कथा से अरुचि और विविध विषयों की तृष्णा भाग जाती है। मनुष्य का अंतःकरण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है। भगवान के चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है। यदि आप मुझे उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान की उन्हीं मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये। भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट होकर मनुष्य-जाति के स्वभाव का अनुसरण करते हुए जो बाल-लीलाएँ की हैं अवश्य ही वे अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिए आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का भी वर्णन कीजिये।

श्रीशुक उवाच

कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे

जन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम् ।

वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै-

श्चकार सूनोरभिषेचनं सती ॥ ४॥

नन्दस्य पत्नी कृतमज्जनादिकं

विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः ।

अन्नाद्यवासःस्रगभीष्टधेनुभिः

सञ्जातनिद्राक्षमशीशयच्छनैः ॥ ५॥

औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी

समागतान् पूजयती व्रजौकसः ।

नैवाशृणोद्वै रुदितं सुतस्य सा

रुदन् स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत् ॥ ६॥

अधः शयानस्य शिशोरनोऽल्पक-

प्रवालमृद्वङ्घ्रिहतं व्यवर्तत ।

विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं

व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम् ॥ ७॥

दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय

औत्थानिके कर्मणि याः समागताः ।

नन्दादयश्चाद्भुतदर्शनाकुलाः

कथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात् ॥ ८॥

ऊचुरव्यवसितमतीन् गोपान् गोपीश्च बालकाः ।

रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः ॥ ९॥

न ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत ।

अप्रमेयं बलं तस्य बालकस्य न ते विदुः ॥ १०॥

रुदन्तं सुतमादाय यशोदा ग्रहशङ्किता ।

कृतस्वस्त्ययनं विप्रैः सूक्तैः स्तनमपाययत् ॥ ११॥

पूर्ववत्स्थापितं गोपैर्बलिभिः सपरिच्छदम् ।

विप्रा हुत्वार्चयाञ्चक्रुर्दध्यक्षतकुशाम्बुभिः ॥ १२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार भगवान श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत-सी स्त्रियों के बीच में खड़ी हुईं सती-साध्वी यशोदा जी ने अपने पुत्र का अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मण लोग मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे। नन्दरानी यशोदा जी ने ब्राह्मणों का खूब पूजन, सम्मान किया। उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुँह माँगी वस्तुऐं दीं।

जब यशोदा जी ने उन ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालक के नहलाने आदि का कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्ला के नेत्रों में नींद आ रही है, अपने पुत्र को धीरे से शैय्या पर सुला दिया। थोड़ी देर में श्यामसुन्दर की आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पान के लिये रोने लगे। उस समय मनस्विनी यशोदा जी उत्सव में आये हुए ब्रजवासियों के स्वागत-सत्कार में बहुत ही तन्मय हो रही थीं। इसलिए उन्हें श्रीकृष्ण का रोना सुनायी नही पड़ा। तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे। शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोये हुए थे। उसके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हें-नन्हें थे। परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया। उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसों की भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब-के-सब फूट-फाट गये, उसका जुआ फट गया। करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गये। वे आपस में कहने लगे - अरे, यह क्या हो गया? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया?’ वे इसका कोई कारण निश्चित न करे सके। वहाँ खेलते हुए बालकों ने गोपों और गोपियों से कहा कि इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँव की ठोकर से इसे उलट दिया है, इसमें कोई संदेह नहीं।' परन्तु गोपों ने उसे बालकों की बातमानकर उस पर विश्वास नहीं किया। ठीक ही है, वे गोप उस बालक के अनन्त बल को नहीं जानते थे। 

यशोदा जी ने समझा यह किसी ग्रह आदि का उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर ब्राह्मणों से वेद मन्त्रों के द्वारा शान्ति-पाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं। बलवान गोपों ने छकड़े को फिर से सीधा कर दिया। उस पर पहले की तरह सारी सामग्री रख दी गयी। ब्राह्मणों ने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जल के द्वारा भगवान और उस छकड़े की पूजा की।

येऽसूयानृतदम्भेर्ष्याहिंसामानविवर्जिताः ।

न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफलाः कृताः ॥ १३॥

इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः ।

जलैः पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमैः ॥ १४॥

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नन्दगोपः समाहितः ।

हुत्वा चाग्निं द्विजातिभ्यः प्रादादन्नं महागुणम् ॥ १५॥

गावः सर्वगुणोपेता वासःस्रग्रुक्ममालिनीः ।

आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्वयुञ्जत ॥ १६॥

विप्रा मन्त्रविदो युक्तास्तैर्याः प्रोक्तास्तथाऽऽशिषः ।

ता निष्फला भविष्यन्ति न कदाचिदपि स्फुटम् ॥ १७॥

एकदाऽऽरोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती ।

गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत् ॥ १८॥

भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता ।

महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु ॥ १९॥

दैत्यो नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः ।

चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम् ॥ २०॥

गोकुलं सर्वमावृण्वन् मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः ।

ईरयन् सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिशः ॥ २१॥

मुहूर्तमभवद्गोष्ठं रजसा तमसाऽऽवृतम् ।

सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन् न्यस्तवती यतः ॥ २२॥

नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः ।

तृणावर्तनिसृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः ॥ २३॥

इति खरपवनचक्रपांसुवर्षे

सुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता ।

अतिकरुणमनुस्मरन्त्यशोच-

द्भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः ॥ २४॥

रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो

भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः ।

रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं

पवन उपारत पांसुवर्षवेगे ॥ २५॥

तृणावर्तः शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन् ।

कृष्णं नभो गतो गन्तुं नाशक्नोद्भूरिभारभृत् ॥ २६॥

तमश्मानं मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया ।

गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाशक्नोदद्भुतार्भकम् ॥ २७॥

गलग्रहणनिश्चेष्टो दैत्यो निर्गतलोचनः ।

अव्यक्तरावो न्यपतत्सह बालो व्यसुर्व्रजे ॥ २८॥

जो किसी के गुणों में दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमान रहित हैं - उन सत्यशील ब्राह्मणों का आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता। यह सोचकर नन्दबाबा ने बालक को गोद में उठा लिया और ब्राह्मणों से साम, ऋक और यजुर्वेद मन्त्रों द्वारा संस्कृत एवं पवित्र औषधियों से युक्त जल से अभिषेक कराया। उन्होंने बड़ी एकाग्रता से स्वस्तययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणों को अति उत्तम अन्न का भोजन कराया। इसके बाद नन्दबाबा ने अपने पुत्र की उन्नति और अभिवृद्धि की कामना से ब्राह्मणों को सर्वगुण सम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं। वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोने के हारों से सजी हुई थीं। ब्राह्मणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता।

एक दिन की बात है, सती यशोदा जी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रहीं थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गये। वे उनका भार न सह सकीं। उन्होंने भार से पीड़ित होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया। इसके बाद उन्होंने भगवान पुरुषोत्तम का स्मरण किया और घर के काम में लग गईं। तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। उसने ब्रज-रज से सारे गोकुल को ढक दिया और लोगों की देखने की शक्ति हर ली। उसके अत्यन्त भयंकर शब्द से दसों दिशाऐं काँप उठीं। सारा ब्रज दो घड़ी तक रज और तम से ढका रहा। यशोदा जी ने अपने पुत्र को जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो, श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे। उस समय तृणावर्त ने बवंडर रूप से इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे। उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था।

उस जोर की आँधी और धूल की वर्षा में अपने पुत्र का पता न पाकर यशोदा जी को बड़ा शोक हुआ। वे अपने पुत्र की याद करके बहुत ही दीन हों गयीं और बछड़े के मर जाने पर गाय की जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी। वे पृथ्वी पर गिर पड़ीं। बवंडर के शान्त होने पर जब धूल की वर्षा का वेग कम हो गया, तब यशोदा जी के रोने का शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं। नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा सन्ताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। वे फूट-फूटकर रोने लगीं इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शान्त हो गया। वह अधिक चल न सका।

तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशु को अपने से अलग नहीं कर सका। भगवान ने इतने ज़ोर से उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया। उसकी आँखें बाहर निकल आयीं, बोलती बंद हो गयी तथा प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह ब्रज में गिर पड़ा।

तमन्तरिक्षात्पतितं शिलायां

विशीर्णसर्वावयवं करालम् ।

पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धं

स्त्रियो रुदत्यो ददृशुः समेताः ॥ २९॥

प्रादाय मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः

कृष्णं च तस्योरसि लम्बमानम् ।

तं स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं

विहायसा मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ।

गोप्यश्च गोपाः किल नन्दमुख्या

लब्ध्वा पुनः प्रापुरतीव मोदम् ॥ ३०॥

अहो बतात्यद्भुतमेष रक्षसा

बालो निवृत्तिं गमितोऽभ्यगात्पुनः ।

हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः

साधुः समत्वेन भयाद्विमुच्यते ॥ ३१॥

किं नस्तपश्चीर्णमधोक्षजार्चनं

पूर्तेष्टदत्तमुत भूतसौहृदम् ।

यत्सम्परेतः पुनरेव बालको

दिष्ट्या स्वबन्धून् प्रणयन्नुपस्थितः ॥ ३२॥

दृष्ट्वाद्भुतानि बहुशो नन्दगोपो बृहद्वने ।

वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मितः ॥ ३३॥

एकदार्भकमादाय स्वाङ्कमारोप्य भामिनी ।

प्रस्नुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता ॥ ३४॥

पीतप्रायस्य जननी सा तस्य रुचिरस्मितम् ।

मुखं लालयती राजञ्जृम्भतो ददृशे इदम् ॥ ३५॥

खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः

सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च ।

द्वीपान् नगांस्तद्दुहितॄर्वनानि

भूतानि यानि स्थिरजङ्गमानि ॥ ३६॥

सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन् सञ्जातवेपथुः ।

सम्मील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत्सुविस्मिता ॥ ३७॥

वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाश से एक चट्टान पर गिर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया - ठीक वैसे ही, जैसे भगवान शंकर के बाणों से आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं। उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया। बालक मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आया। यद्यपि उसे राक्षस आकाश में उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया। इस प्रकार बालक श्रीकृष्ण को फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपों को अत्यन्त आनन्द हुआ।

वे कहने लगे ;- ‘अहो! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। देखो तो सही, यह कितनी अद्भुत घटना घट गयी! यह बालक राक्षस के द्वारा मृत्यु के मुख में डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्ट को उसके पाप ही खा गये! सच है, साधु पुरुष अपनी समता से ही सम्पूर्ण भयों से बच जाता है। हमने ऐसा कौन-सा, तप, भगवान की पूजा, प्याऊ-पौसला, कुआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवों की भलाई की थी, जिसके फल से हमारा यह बालक मर कर भी अपने स्वजनों को सुखी करने के लिए लौट आया? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की बात है।'

जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेव जी की बात का बार-बार समर्थन किया। एक दिन की बात है, यशोदा जी अपने प्यारे शिशु को अपनी गोद में लेकर बड़े प्रेम से स्तन पान करा रहीं थीं। वे वात्सल्य-स्नेह से इस प्रकार सराबोर हो रहीं थीं कि उनके स्तनों से अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था। जब वे प्रायः दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुस्कान से युक्त मुख को चूम रहीं थीं उसी समय श्रीकृष्ण को जँभाई आ गयी और माता ने उनके मुख में यह देखा कि उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाऐं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं।

परीक्षित! अपने पुत्र के मुँह में इस प्रकार सहसा सारा जगत देखकर मृगशावक-नयनी यशोदा जी का शरीर काँप उठा। उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं। वे अत्यन्त आशचर्य चकित हो गयीं।

इति श्रीमद्भागवते महापुरणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 8  

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box