श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३५
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प अध्याय ३५ सपिण्डीकरण-श्राद्ध में प्रेतपिण्ड के मेलन का
विधान, पितरों की प्रसन्नता का फल, पञ्चक-
मरण तथा शान्तिविधान, पुत्तलिकादाह, प्रेतश्राद्ध
में त्याज्य अठारह पदार्थ, मलिनषोडशी, मध्यमषोडशी
तथा उत्तमषोडशी श्राद्ध, शवयात्रा - विधान का वर्णन है।
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) पञ्चत्रिंशत्तमोऽध्यायः
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 35
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
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प्रेतकल्प पैंतीसवाँ अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३५
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ३५ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः
३५
तर्क्ष्य उवाच ।
अपरं मम सन्देहं कथयस्व जनार्दन ।
पुरुषस्य च कस्यापि मता
पञ्चत्वमागता ॥ २,३५.१ ॥
पितामही जीवति च तथा च प्रपितामही ।
वृद्धप्रपितामही तद्वन्मातृसक्तः
पिता तथा ॥ २,३५.२ ॥
प्रमातामहश्च तथा
वृद्धप्रमातामहस्तथा ।
केन सा मेल्यते माता एतत्कथय मे प्रभो
॥ २,३५.३ ॥
तार्क्ष्य ने कहा- हे जनार्दन ! अब
मुझे दूसरा संदेह उत्पन्न हो गया है। यदि किसी भी पुरुष की माता का देहावसान हो
गया है,
किंतु उसकी पितामही, प्रपितामही, वृद्धप्रपितामही जीवित है और यदि पिता भी जीवित हो, मातामह,
प्रमातामह एवं वृद्धप्रमातामह भी जीवित हों तो उस माता का सपिण्डन
किसके साथ किया जायगा ? हे प्रभो ! इसको बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
पुनरुक्तं प्रवक्ष्यामि सपिण्डीकरणं
खग ।
उमा लक्ष्मीश्च
सावित्रीत्यताभिर्मेलयेद्ध्रुवम् ॥ २,३५.४
॥
त्रयः पिण्डभुजो ज्ञेयास्त्यजाकाश्च
त्रयः स्मृताः ।
त्रयः पिण्डानुलेपाश्च दशमः
पङ्क्तिसंन्निधः ॥ २,३५.५ ॥
इत्येते पुरुषाः ख्याताः
पितृमातृकुलेषु च ।
तारयेद्यजमानस्तु दश पूर्वान्
दशावरान् ॥ २,३५.६ ॥
सपिण्डः स भवेदादौ सपिण्डीकरणे कृते
।
अन्त्यस्तु त्याजको ज्ञेयो यो
वृद्धप्रपितामहः ॥ २,३५.७ ॥
अन्तिमस्त्याजको ज्ञेयो लेपकः
प्रथमो भवेत् ।
लेपकस्त्वन्तिमो यस्तु स
भवेत्पङ्क्तिसन्निधः ॥ २,३५.८ ॥
यजमानो भवेदेको दश पृर्त्वे दशावरे
।
इत्येते पितरो ज्ञेया एकविंशति
संख्यकाः ॥ २,३५.९ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षिन् !
पूर्व में कहे गये सपिण्डीकरणविधान को मैं पुन: कह रहा हूँ । यदि माता के
उपर्युक्त सभी सम्बन्धी जीवित हैं तो माता पिण्ड का सम्मेलन उमा,
लक्ष्मी तथा सावित्री के साथ कर देना चाहिये । इस संसार में तीन पुरुष
पिण्ड का भोग करनेवाले हैं, तीन पुरुष त्याजक हैं, तीन पुरुष पिण्डानुलेप और दसवाँ पुरुष पंक्तिसंनिध होता है। पिता तथा माता
के कुल में इन्हीं पुरुषों की प्रसिद्धि होती है । यजमान अपने से पूर्व दस पुरुषों
एवं अपने से बाद के दस पुरुषों का उद्धार कर सकता है। पहले जो तीन पुरुष बताये गये
हैं अर्थात् पिता, पितामह तथा प्रपितामह - ये सपिण्डीकरण
करने पर सपिण्ड माने गये हैं। जो प्रपितामह के पूर्व वृद्धप्रपितामह और उनसे दो
पूर्व पुरुष हैं, उन्हें त्याजक रूप में स्वीकार करना
चाहिये। इस अन्तिम त्याजक पुरुष के बाद जो पुरुष होता है, वह
प्रथम लेपक होता है, उसके पूर्व में जो अन्य दो पुरुष होते
हैं, उन्हें भी उसी लेपक की कोटि में समझना चाहिये । इस कोटि
के तीसरे पुरुष के पूर्व जो पुरुष होता है, वह पंक्तिसंनिध
है । इस प्रकार दस पुरुषों के बाद स्वयं यजमान एक पुरुष है। भविष्य में जो यथाक्रम
दस पुरुष होते हैं, उन सभी को मिलाकर पितरों की संख्या
इक्कीस होती है।
विधिना कुरुते यस्तु संसारे श्राद्धमुत्तमम्
।
जायतेऽत्र न सन्देहः शृणु तस्यापि
यत्फलम् ॥ २,३५.१० ॥
इस संसार में विधिपूर्वक जो मनुष्य
उक्त श्रेष्ठतम श्राद्ध करता है, उसमें कर्ता की
ओर से कोई संदेह की स्थिति नहीं रह जाती है तो उसका जो फल होता है, उसे भी तुम सुनो।
पिता ददाति पुत्त्रान् वै
विच्छिन्नसन्ततिः खग ।
होमदाता भवेत्सोपि यस्तस्य
प्रपितामहः ॥ २,३५.११ ॥
कृते श्राद्धे गुणा ह्येते पितॄणां
तपेणे स्मृताः ।
दद्याद्विपुलमन्नाद्यं वृद्धस्तु
प्रपितामहः ॥ २,३५.१२ ॥
यस्य पुंसश्च मर्त्ये वै विच्छिन्ना
सन्ततिः खग ।
स वसेन्नरके घोरे पङ्के मग्नः करी
यथा ॥ २,३५.१३ ॥
योन्यन्तरेषु जायते यत्र
वृक्षसरीसृपाः ।
न सन्ततिं विना सोऽत्र मुच्यते
नरकाद्ध्रुवम् ॥ २,३५.१४ ॥
आचार्यस्तस्य शिष्यो वा यो दूरेऽपि
हि गात्रेजः ।
नारायणबलिं कुर्यात्तस्याद्देशेन
भक्तितः ॥ २,३५.१५ ॥
विशुद्धः सर्वपापेभ्यो मुक्तः स नरकाद्ध्रुवम्
।
निवसेन्नाकलोके च नात्र कार्या
विचारणा ॥ २,३५.१६ ॥
हे खगेश ! पिता प्रसन्न होकर
पुत्रों को संतान प्रदान करता है, जिससे उनकी
वंश परम्परा अविच्छिन्न होती है। श्राद्धकर्ता का प्रपितामह प्रसन्न हो करके
स्वर्णदाता हो जाता है। वृद्धप्रपितामह प्रसन्न होकर श्राद्धकर्ता को विपुल
अन्नादि प्रदान करते हैं। श्राद्ध के जो ये फल हैं, ये ही
पितरों के तर्पण से भी प्राप्त होते हैं। हे पक्षिन् ! इस मर्त्यलोक में जिस पुरुष
की संतान- परम्परा नष्ट हो जाती है, वह मृत्यु के बाद उसी
प्रकार नरकलोक में वास करता है, जिस प्रकार कीचड़ में फँसा
हुआ हाथी होता है । (नरक - भोग प्राप्त करने के बाद) वह प्राणी वृक्ष अथवा सरीसृप –
योनि में जन्म लेता है । वह उस नरक से बिना संतान के निश्चित ही मुक्त नहीं होता
है। अत: संतानविहीन मरे हुए प्राणी के लिये आचार्य, शिष्य
अथवा दूर के सगोत्री (अबान्धव)- को उसके उद्देश्य से भक्तिपूर्वक 'नारायणबलि' कर देनी चाहिये। उस कृत्य से पापविमुक्त
होकर वह विशुद्धात्मा निश्चित ही नरक से छुटकारा पा जाता है और स्वर्ग में जाकर
वास करता है। इसमें कुछ विचार करने की आवश्यकता नहीं है।
आदौ कृत्वा धनिष्ठाञ्च एतन्नक्षत्रपञ्चकम्
।
रेवत्यन्तं सदा दूष्यमशुभं सर्वदा
भवेत् ॥ २,३५.१७ ॥
दाह (बलि) स्तत्र न कर्तव्यो
विप्रदिसर्वजातिषु ।
दीयते न जलं तत्र अशुभं जायते
ध्रुवम् ।
लोकयात्रा न कर्तव्या दुः खार्तः
स्वजनो यदि ॥ २,३५.१८ ॥
पञ्चकानन्तरं तस्य कर्तव्यं
सर्वमन्यथा ।
पुत्राणां गोत्रिणां तस्य
सन्तापोऽप्युपजायते ॥ २,३५.१९ ॥
गृहे हानिर्भवेत्तस्य ऋक्षेष्वेषु
मृतश्च यः ।
अथवा ऋक्षमध्येऽपि दाहस्तस्य
विधीयते ॥ २,३५.२० ॥
क्रियते मानुषाणान्तु सद्य
आहुतिकारणात् ।
सद्याहुतिकरं पुण्यं तीर्थे तद्दाह
उत्तमः ॥ २,३५.२१ ॥
विप्रैर्नियमतः कार्यः समन्त्रो
विधिपूर्वकः ।
शवस्य च समीपे तु क्षिप्यन्ते
पुत्तलास्ततः ॥ २,३५.२२ ॥
दर्भमयाश्च चत्वारो विप्रा
मन्त्राभिमन्त्रिताः ।
ततो दाहः प्रकर्तव्यः तैश्च
पुत्तलकैः सह ॥ २,३५.२३ ॥
सूतकान्ते ततः पुत्रः
कुर्याच्छान्तिकमुत्तमम् ॥ २,३५.२४
॥
धनिष्ठा से लेकर रेवतीपर्यन्त जो
पाँच नक्षत्र हैं, ये सभी सदैव अशुभ
होते हैं । उन नक्षत्रों में ब्राह्मण आदि समस्त जातियों का दाह-संस्कार या
बलिकर्म नहीं करना चाहिये । इन नक्षत्रों में मृत प्राणी के लिये जल भी प्रदान करना
उचित नहीं है, ऐसा करने से वह अशुभ हो जाता है। दुःखार्त (मृत)
स्वजन हों तो भी इस काल में लोक (शव) - यात्रा नहीं करनी चाहिये । स्वजन को पञ्चक की
शान्ति के बाद ही मृत का सब संस्कार करना चाहिये, अन्यथा
पुत्र और सगोत्रियों को उस अशुभ पञ्चक के कुप्रभाव से दुःख ही झेलना पड़ता है। जो
मनुष्य इन नक्षत्रों में मृत्यु प्राप्त करता है, उसके घर में
हानि होती है । इस पञ्चक की अवधि में जो प्राणी मर जाता है, उसका
दाह संस्कार तत्सम्बन्धित नक्षत्र के मन्त्र से आहुति प्रदान करके नक्षत्र के
मध्यकाल में भी किया जा सकता है। सद्यः की गयी आहुति पुण्यदायिनी होती है; तीर्थ में किया गया दाह उत्तम होता है । ब्राह्मणों को नियमपूर्वक यह
कार्य मन्त्रसहित विधिपूर्वक करना चाहिये। वे यथाविधि अभिमन्त्रित कुश की चार
पुत्तलिकाओं को बना करके शव के समीप में रख दें। उसके बाद उन पुत्तलिकाओं के सहित
उस शव का दाह संस्कार करें। तदनन्तर सूतक के समाप्त होने पर पुत्र को शान्तिकर्म
भी करना चाहिये ।
पञ्चकेषु मृतो योऽसौ न गतिं लभते
नरः ।
तिलान् गाश्च सुवर्णं च तमुद्दिश्य
घृतं ददेत् ॥ २,३५.२५ ॥
विप्राणां दीयते दानं
सर्वोपद्रवनाशनम् ।
सूतकान्ते च सत्पुत्रैः स प्रेतो
लभते गतिम् ॥ २,३५.२६ ॥
भाजनोपानहौ च्छत्रं हेममुद्राच
वाससी ।
दक्षिणा दीयते विप्र सर्वपातकमोचनी
॥ २,३५.२७ ॥
बालवृद्धातुराणाञ्च मृतानां
पञ्चकेषु हि ।
विधानं यो न कुर्वीत विघ्नस्तस्य
प्रजायते ॥ २,३५.२८ ॥
जो मनुष्य इन धनिष्ठादि पाँच
नक्षत्रों में मरता है, उसको उत्तम गति
नहीं प्राप्त होती है। अतएव उसके उद्देश्य से तिल, गौ,
सुवर्ण और घृत का दान विप्रों को देना चाहिये। ऐसा करने से सभी
प्रकार के उपद्रवों का विनाश हो जाता है। अशौच के समाप्त होने पर मृत प्राणी अपने
सत्पुत्रों से सद्गति प्राप्त करता है। जो पात्र, पादुका,
छत्र, स्वर्ण मुद्रा, वस्त्र
तथा दक्षिणा ब्राह्मण को दी जाती है, वह सभी पापों को दूर
करनेवाली है । पञ्चक में मरे हुए बाल, युवा और वृद्ध
प्राणियों का और्ध्वदेहिक संस्कार प्रायश्चित्तपूर्वक जो मनुष्य नहीं करता है,
उसके लिये नाना प्रकार का विघ्न जन्म लेता है ।
अष्टादशैव वस्तूनि प्रेतश्राद्धे
विवर्जयेत् ।
आशिषो द्विगुणान् दर्भान्
प्रणवान्नैकपिण्डताम् ॥ २,३५.२९ ॥
अग्नौकरणमुच्छिष्टं श्राद्धं वै
वैश्वदैविकम् ।
विकिरं च स्वधाकारं पितृशब्दं न
चोच्चरेत् ॥ २,३५.३० ॥
अनुशब्दं न कुर्वीत
नावाहनमथोल्मुकम् ।
आसीमान्तं न कुर्वीत
प्रदक्षिणविसर्जनम् ॥ २,३५.३१ ॥
न कुर्यात्तिलहोमञ्च द्विजः
पूर्णाहुतिं तथा ।
न कुर्याद्वैश्वदेवं चेत्कर्ता
गच्छत्यधोगतिम् ॥ २,३५.३२ ॥
प्रेतश्राद्ध में अठारह वस्तुएँ
त्याज्य होती हैं । यथा— आशीर्वाद, द्विगुण कुश (मोटक), प्रणव का उच्चारण, एक से अधिक पिण्डदान, अग्नौकरण, उच्छिष्ट श्राद्ध, वैश्वदेवार्चन, विकिरदान, स्वधा का उच्चारण और पितृशब्दोच्चार नहीं
करना चाहिये।* इस श्राद्ध में 'अनु' शब्द का प्रयोग, आवाहन
तथा उल्मुख वर्जित है। आसीमान्तगमन*,
विसर्जन, प्रदक्षिणा, तिल
- होम और पूर्णाहुति तथा बलिवैश्वदेव भी नहीं करना चाहिये । यदि कर्ता ऐसा करता है
तो उसे अधोगति प्राप्त होती है ।
*१-किन्हीं आचार्यों के मत में मृत व्यक्ति के अनन्तर उनके अनुयायियों को
'ये च त्वामनुगच्छन्ति तेभ्यश्च० '– ऐसा उच्चारण करके पिण्डशेषान्न पिण्ड के समीप में दिया जाता है, वह प्रेत- श्राद्ध में नहीं करना चाहिये ।
*२- श्राद्ध में ब्राह्मण-भोजन कराने के अनन्तर ब्राह्मण के पीछे-पीछे
गाँव की सीमा तक जाकर उनकी प्रदक्षिणा करके उनका विसर्जन किया जाता है। यह
आसीमान्तगमन प्रेत- श्राद्ध में नहीं करना चाहिये ।
मलिनश्राद्धसंज्ञानं पूर्वषोडशकं
तथा ।
स्थाने द्वारे चार्धमार्गे चितायां
शवहस्तके ॥ २,३५.३३ ॥
श्मशानवासिभूतेभ्यः पञ्चमं
प्रतिवेश्यकम् ।
षष्ठं सञ्चयने प्रोक्तं दश पिण्डा
दशाहिकाः ।
श्राद्धषोडषकञ्चैतत्प्रथमं
परिकीर्तितम् ॥ २,३५.३४ ॥
अन्यच्च षोडशं मध्ये द्वितीयं
तार्क्ष्य मे शृणु ।
प्रथम षोडशी को मलिन- श्राद्ध के
नाम से अभिहित किया जाता है । यथा— मृत्युस्थान,
द्वार, अर्धमार्ग, चिता में,
(श्मशानवासी प्राणियों एवं पड़ोसियों के उद्देश्य से) शव के हाथ में
तथा छठा श्राद्ध अस्थि- संचय-काल में होता है। उसके बाद दस पिण्ड- श्राद्ध जो
प्रतिदिन एक-एक करके दस दिन किये जाते हैं, वे भी मलिन-
श्राद्ध की कोटि में आते हैं। इस प्रकार इन्हें प्रथम षोडश श्राद्ध कहा गया है। हे
तार्क्ष्य! अन्य मध्यम या द्वितीय षोडशी को भी तुम मुझसे सुनो।
कर्तव्यानीह विधिना
श्राद्धान्येकादशैव तु ॥ २,३५.३५
॥
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यञ्च
तथान्यच्छ्राद्धपञ्चकम् ।
एवं षोडशकं प्राहुरेतत्तत्त्वविदो
जनाः ॥ २,३५.३६ ॥
द्वादश प्रतिमास्यानि
श्राद्धमेकादशे तथा ।
त्रिपक्षसम्भवञ्चैव द्वे रिक्ते खग
षोडश ॥ २,३५.३७ ॥
आद्यं शवविशुद्ध्यर्थं कृत्वान्यच्च
त्रिषोडशम् ।
पितृपाङ्क्तिविशुद्ध्यर्थं
शताद्धैंन तु योजयेत् ॥ २,३५.३८ ॥
शतार्धेन विहीनो यो मिलितः
पङ्क्तिभाङ्न हि ।
चत्वारिंशत्तथैवाष्टश्राद्धं
प्रेतत्वनाशनम् ॥ २,३५.३९ ॥
सकृदूनशतार्धेन
सम्भवेत्पङ्क्तिसन्निधः ।
मेलनीयः शतार्धेन सन्धिः श्राद्धेन
तत्त्वतः ॥ २,३५.४० ॥
इन षोडश श्राद्धों की क्रिया में
सबसे पहले विधिवत् एकादश श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद ब्रह्मा,
विष्णु, शिव, यम और
तत्पुरुष के नाम से पाँच श्राद्ध हों, ऐसा तत्त्वचिन्तकों ने
कहा है । हे खगेश ! इन षोडश श्राद्धों के बाद प्रतिमास एक श्राद्ध के अनुसार बारह
श्राद्ध, ग्यारहवें मास में ऊनाब्दिक श्राद्ध, त्रिपाक्षिक श्राद्ध, ऊनमासिक और ऊनषाण्मासिक
श्राद्ध करने का विधान है। शव–शोधन के लिये आद्य श्राद्ध करके तथा अन्य त्रिषोडश
श्राद्ध करके पितृपंक्ति की विशुद्धि के लिये पचासवें श्राद्ध से मिलाना चाहिये।
जिसका पचासवाँ श्राद्ध नहीं किया गया है, वह पितृपंक्ति में
मिलने योग्य नहीं है । उक्त त्रिषोडश अर्थात् अड़तालीस श्राद्धों से मृत प्राणी के
प्रेतत्व का विनाश होता है। उनचास श्राद्ध हो जाने पर पंक्तिसंनिध (पितृगणों का
सामीप्य) प्राणी को मिल जाता है। पचासवें श्राद्ध से पितृ के साथ संधि-मेलन करना
चाहिये ।
(अथ शवाविधिः) ।
शवस्य शिबिकायां करचरणबन्धनं तत्र
कर्तव्यम् ।
एवं चेन्न विधानं विधीयते
तत्पिशाचपरिभवनम् ॥ २,३५.४१ ॥
संजायते रजन्याञ्च शवनिर्गमने
राष्ट्रं भयशून्यम् ।
शवं न मुञ्चेत मुच्यते चेत्दुः
स्पर्शाद्दुर्गतिर्भवेत् ॥ २,३५.४२
॥
ग्राममध्ये स्थिते प्रेते श्रुते
भुङ्क्ते यदृच्छया ।
तदन्नं मांसवज्ज्ञेयं तत्तोयं
रुधिरोपमम् ॥ २,३५.४३ ॥
ताम्बूलं दन्तकाष्ठञ्च भोजनं
ऋतुसेवनम् ।
ग्राममध्ये स्थिते प्रेते
वर्जयेत्पिण्डपातनम् ॥ २,३५.४२ ॥
स्नानं दानं जपो होमस्तर्पणं
सुरपूजनम् ।
ग्राममध्ये स्थिते प्रेते
शुद्ध्यर्थं ज्ञातिधर्मतः ॥ २,३५.४३
॥
अब शव - विधि बतायी जाती है। शव
यात्रा प्रारम्भ करने के पूर्व बनायी गयी पालकी में शव के हाथ-पैर बाँध देना
चाहिये । यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो वह पिशाच-योनियों के हाथ पहुँच जाता है। शव
को अकेला नहीं छोड़ना चाहिये। यदि उसको अकेला छोड़ दिया जाता है तो दुष्ट योनियों के
स्पर्श से उसकी दुर्गति होती है । गाँव के मध्य शव विद्यमान है - ऐसा सुनने के बाद
इच्छानुसार यदि भोजन कर लिया जाता है तो उस अन्न और जल को क्रमशः मांस तथा रक्त
समझना चाहिये। गाँव के बीच शव के रहने पर ताम्बूल सेवन,
दन्तधावन, भोजन, स्त्री-
सहवास तथा पिण्डदान त्याज्य हैं। स्नान, दान, जप, होम, तर्पण और देवपूजन का
कार्य करना भी व्यर्थ ही हो जाता है।
ज्ञातिसम्बन्धिनामेवं व्यवहारः
खगेश्वर ।
विलुप्य ज्ञातिधर्मञ्च प्रेतपापेन
लिप्यते ॥ २,३५.४४ ॥
हे पक्षिराज ! बन्धु - बान्धव और
सगे- सम्बन्धियों के लिये मृतकाल में ऐसा ही उपर्युक्त व्यवहार अपेक्षित है। इस
धर्म के त्यागने से प्रेत पाप-संलिप्त हो जाता है ।
इति श्रीगारुडे महापुराणे
उत्तरखण्डे द्वितीदृ धदृप्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे सपिण्डनशवविध्योर्निरूपणं
नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥
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