श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३६

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३६

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३६ तीर्थमरण एवं अनशनव्रत का माहात्म्य, आतुरावस्था के दान का फल, धन की एकमात्र गति दान तथा दान की महिमा का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३६

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) षड्त्रिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 36

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प छत्तीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३६                      

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३६ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३६                 

तार्क्ष्यौवाच ।

कस्मादनशनं पुण्यमक्षय्यगतिदायकम् ।

स्वगृहन्तु परित्यज्य तीर्थे वै म्रियते यदि ॥ २,३६.१ ॥

अप्राप्य तीर्थं म्रियते गृहे वा मृत्यु मागतः ।

बूत्वा कुटीचरो यस्तु स कां गतिमवाप्नुयात् ॥ २,३६.२ ॥

संन्यासं कुरुते यस्तु तीर्थे वापि गृहेऽपि वा ।

कथं तस्य प्रकर्तव्यमप्राप्तनिधनेऽपि वा ॥ २,३६.३ ॥

नियमे चेत्कृते देव चित्तभङ्गो हि जायते ।

केन तस्य भवेत्सिद्धिः कृतेनाप्यकृतेन वा ॥ २,३६.४ ॥

तार्क्ष्य ने कहा- हे प्रभो! अनशनव्रत का * पुण्य किस कारण से मनुष्य को अक्षय गति प्रदान करने में समर्थ है? यदि प्राणी अपने घर को छोड़कर तीर्थ में जाकर मरता है अथवा तीर्थ में न पहुँचकर मार्ग में या घर में ही मर जाता है अथवा कुटीचर अर्थात् संन्यास आश्रम के धर्म को स्वीकार करके प्राण छोड़ देता है तो उसे कौन-सी गति प्राप्त हो सकती है ? जो व्यक्ति तीर्थ अथवा घर में भी रहकर संन्यासी का जीवन व्यतीत करता है, उसकी मृत्यु हुई हो या न हुई हो तो पुत्र को क्या करना चाहिये? हे देव! यदि प्राणी का तत्सम्बन्धी नियम पालन में उसके चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती है तो ऐसी परिस्थिति में उसकी सिद्धि कैसे सम्भव है? यदि उस नियम को पूरा किया जाय अथवा नहीं भी किया जाय तो ऐसी दशा में उस व्यक्ति को सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ?

* मृत्यु का निश्चय होने पर तीन या चार दिन अन्न-जल का सर्वथा परित्याग अनशन है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह अनशन आत्महत्या न होकर व्रत है।

श्रीकृष्ण उवाच ।

कृत्वा निरशनं यो वै मृत्युमाप्नोति कोऽपि चेत् ।

मानुपीं तनुमुत्सृज्य मम तुल्यो विराजते ॥ २,३६.५ ॥

यावन्त्यहानि जीवेत्व्रते निरशने कृते ।

क्रतुभिस्तानि तुल्यानि समग्रवदक्षिणैः ॥ २,३६.६ ॥

तीर्थे गृहे वा संन्यासं नीत्वा चेन्म्रियते यदि ।

प्रत्यहं लभते सोऽपि पूर्वोक्तं द्विगुणं फलम् ॥ २,३६.७ ॥

महारोगोपपत्तौ च गृहीतेऽनशने कृते ।

पुनर्न जायते रोगो देववद्धि विराजते ॥ २,३६.८ ॥

य आतुरः सन् सन्न्यासं गृह्णाति यदि मानवः ।

पुनर्न जायते भूमौ संसारे दुः खसागरे ॥ २,३६.९ ॥

अहन्यहनि दातव्यं ब्राह्मणानाञ्च भोजनम् ।

तिलपात्रं यथाशक्ति दीपदानं सुरार्चनम् ॥ २,३६.१० ॥

एवं वृत्तस्य दह्यन्ते पापान्युच्चावचानि च ।

मृतो मुक्तिमवाप्नोति यथा सर्वे महर्षयः ॥ २,३६.११ ॥

तस्मादनशनं नॄणां वैकुण्ठपददायकम् ।

तस्मात्स्वस्थे चोत्तरे वा साधयेन्मोक्षलक्षणम् ॥ २,३६.१२ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड ! यदि जो कोई भी प्राणी अनशनव्रत करके मृत्यु का वरण करता है तो वह मानव-शरीर छोड़कर मेरे समान हो जाता है । निराहारव्रत करते हुए वह जितने दिन जीवित रहेगा, उतने दिन उसके लिये समग्र श्रेष्ठ दक्षिणासहित सम्पन्न किये गये यज्ञों के समान हैं। यदि मनुष्य संन्यास- धर्म को स्वीकार करके तीर्थ अथवा घर में अपने प्राणोंका परित्याग करता है तो उस अवधि में वह प्रतिदिन पूर्वोक्त पुण्य का दुगुना फल प्राप्त करता है। शरीर में महाभयंकर रोग के हो जाने पर अनशनव्रत करके जो मृत्यु को प्राप्त करता है, पुनर्जन्म होने पर उसके शरीर में रोग की उत्पत्ति नहीं होती है। वह देवतुल्य सुशोभित होता है। जो मनुष्य रुग्णावस्था में संन्यास ग्रहण कर लेता है, वह इस दुःखमय अपार संसार सागर की भूमि पर पुनः जन्म नहीं लेता है । प्रतिदिन यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन, तिल-पात्र और दीपक का दान एवं देवपूजन का कर्म करना चाहिये । इस प्रकार का आचरण जो व्यक्ति करता है, उसके छोटे-बड़े सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं। वह मृत्यु के बाद सभी महर्षियों के द्वारा प्राप्त की जानेवाली मुक्ति का संवरण करता है। अतः यह अनशनव्रत मनुष्यों को वैकुण्ठपद प्रदान करनेवाला है। इसलिये प्राणी स्वस्थ हो या न हो, उसे इस मोक्षदायक व्रत का पालन अवश्य करना चाहिये।

पुत्त्रद्रव्यादि सन्त्यज्य तीर्थं व्रजति यो नरः ।

ब्रह्माद्या देवतास्तस्य भवेयुस्तुष्टिपुष्टिदाः ॥ २,३६.१३ ॥

यस्तीर्थसंमुखो भूत्वा व्रते ह्यनशने कृते ।

चेन्म्रियेतान्तरालेऽपि ऋषीणां मण्डले वसेत् ॥ २,३६.१४ ॥

व्रतं निरशन कृत्वा स्वगृहेऽपि मृतो यदि ।

स्वकुलानि परित्यज्य एकाकी विचरेद्दिवि ॥ २,३६.१५ ॥

अन्नञ्चैव तथा तोयं परित्यज्य नरो यदि ।

पीतमत्पादतोयश्च न पुनर्जायते क्षितौ ॥ २,३६.१६ ॥

कृत्त्यासीनन्तत्तीर्थगतं रक्षन्ति वनदेवताः ।

यमदूता विशेषेण न याम्यास्तस्य पार्श्वगाः ॥ २,३६.१७ ॥

तीर्थसेवी नरो यस्तु सर्वकिल्बिषवर्जितः ।

तत्र म्रियते दह्येत तत्तीर्थफलभाग्भवेत् ॥ २,३६.१८ ॥

सेवितेऽपि सदा तथि ह्यन्यत्र म्रियते यदि ।

शुभे देशे कुले धीमान् स भवेद्वेदविद्द्विजः ॥ २,३६.१९ ॥

कृत्वा निरशनं तार्क्ष्य पुनर्जीवति मानवः ।

ब्राह्मणान् स समाहूय सर्वस्वं यत्परित्यजेत् ॥ २,३६.२० ॥

चान्द्रायणं चरेत्कृत्स्नमनुज्ञातश्च तैर्द्विजैः ।

अनृतं न वदेत्पश्चाद्धर्ममेव समाचरेत् ॥ २,३६.२१ ॥

जो मनुष्य पुत्र और धन-दौलत का परित्याग करके तीर्थयात्रा पर चल देता है, उसके लिये ब्रह्मादि देवगण तुष्टि - पुष्टिदायक बन जाते हैं। जो व्यक्ति तीर्थ के सामने उपस्थित होकर अनशनव्रत करता है, वह यदि उसी मध्यावधि में मृत्यु को भी प्राप्त कर ले तो उसका वास सप्तर्षिमण्डल के बीच निश्चित है। यदि अनशनव्रत करके प्राणी अपने घर में भी मर जाता है तो वह अपने कुलों को छोड़कर अकेले स्वर्गलोक में जाकर विचरण करता है। यदि मनुष्य अन्न और जल का त्याग करके विष्णु के चरणोदक का पान करता है तो वह इस पृथ्वी पर पुनर्जन्म नहीं लेता है। अपने प्रयत्न से तीर्थ में गये हुए उस प्राणी की रक्षा वनदेवता करते हैं। विशेष बात यह है कि यमदूत और यमलोक की यातनाएँ उसके संनिकट तक नहीं आ पाती हैं। जो व्यक्ति पापों से दूर रहता हुआ तीर्थवास करता है, यदि वह वहाँ पर मृत्यु को प्राप्त करे और उसका शवदाह हो तो वह उस तीर्थ के फल का भागीदार होता है। सदैव तीर्थसेवन करने पर भी प्राणी यदि किसी दूसरे स्थान पर मरता है तो वह श्रेष्ठ कुल और उत्तम देश में जन्म लेकर एक विद्वान् वेदज्ञ ब्राह्मण होता है। हे तार्क्ष्य ! यदि निराहारव्रत करके भी मनुष्य पुनः जीवित रहता है तो ब्राह्मणों को बुलाकर जो कुछ उसके पास हो वह सर्वस्व उन्हें दान में दे दे। ब्राह्मणों की आज्ञा लेकर वह चान्द्रायणव्रत का पालन करे, सदा सत्य बोले और धर्म का ही आचरण करे ।

तीर्थे गत्वा च यः कोऽपि पुनरायाति वै गृहम् ।

अनुज्ञातः स वै विप्रैः प्रायश्चित्तमथाचरेत् ॥ २,३६.२२ ॥

दत्त्वा वा स्वर्णदानानि गोमहीगजवाजिनः ।

तीर्थं यदि लभेद्यस्तु मृत्युकाले स भाग्यवान् ॥ २,३६.२३ ॥

गृहात्प्रचलितस्तीर्थं मरणे समुपस्थिते ।

पदेपदे तु गोदानं यदि हिंसा न जायते ॥ २,३६.२४ ॥

गृहे तु यत्कृतं पापं तीर्थस्नानेन शुध्यति ।

कुरुते तत्र पापञ्चेद्वज्रलेपसमं हि तत् ॥ २,३६.२५ ॥

क्लिश्येत्स नात्र सन्देहो यावच्चन्द्रार्कतारकम् ।

तत्र दत्तानि दानानि जायन्ते चाक्षयाणि वै ॥ २,३६.२६ ॥

आतुरे सति दातव्यं निर्धनैरपि मानवैः ।

गावस्तिला हिरण्यञ्च सप्तधान्यं विशेषतः ॥ २,३६.२७ ॥

मृत्यु के उद्देश्य से तीर्थ में जाकर कोई भी मनुष्य पुनः अपने घर वापस आ जाता है तो वह ब्राह्मणों की आज्ञा प्राप्त करके प्रायश्चित्त करे । स्वर्ण, गौ, भूमि, हाथी और घोड़े का दान करके जो मनुष्य मृत्युकाल में तीर्थ में पहुँच जाय, वह भाग्यवान् है । मरण-काल के संनिकट होने पर घर से तीर्थ के लिये प्रस्थान करनेवाले व्यक्ति को पग-पग पर गोदान का फल प्राप्त होता है, यदि उससे हिंसा न हो । घर में जो पाप किया गया वह तीर्थ-स्नान से शुद्ध हो जाता है। परंतु यदि प्राणी तीर्थ में पाप करता है तो वह वज्रलेप के समान हो जाता है ' । जबतक सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्र आकाश में विद्यमान रहते हैं, तबतक वह निस्संदेह कष्ट झेलता है। वहाँ पर दिये गये दानों का फल प्राप्त नहीं होता है। आतुरावस्था में निर्धन प्राणियों को विशेष रूप से गौ, तिल, स्वर्ण तथा सप्तधान्य का दान करना चाहिये ।

दानवन्तं नरं दृष्ट्वा हृष्टाः सर्वे दिवौकसः ।

ऋषिभिः सह धर्मण चित्रगुप्तेन सर्वदा ॥ २,३६.२८ ॥

आत्मायत्तं धनं यावत्तावद्विप्रे समर्पयेत् ।

पराधीनं मृते सर्वं कृपया कः प्रदास्यति ॥ २,३६.२९ ॥

पित्रुद्देशेन यः पुत्त्रैर्धनं विप्रकरेऽर्पितम् ।

आत्मानं सधनं तेन चक्रे पुत्रप्रपौत्रकैः ॥ २,३६.३० ॥

पितुः शतगुणं दत्तं सहस्रं मातुरुच्यते ।

भगिन्या शतसाहस्रं सोदर्ये दत्तमक्षयम् ॥ २,३६.३१ ॥

यदि लोभान्न यच्छन्ति प्रमादान्मोहतोऽपि वा ।

मृताः शोचन्ति ते सर्वे कदर्याः पापिनस्त्विति ॥ २,३६.३२ ॥

अतिक्लेशेन लब्धस्य प्रकृत्या चञ्चलस्य च ।

गतिरेकैव वित्तस्य दानमन्या विपत्तयः ॥ २,३६.३३ ॥

दान देनेवाले पुरुष को देखकर सभी स्वर्गवासी देवता, ऋषि तथा चित्रगुप्त के साथ धर्मराज प्रसन्न होते हैं। जबतक अपने द्वारा अर्जित धन है, तबतक ब्राह्मण को उसका दान देना चाहिये; क्योंकि मरने पर वह सब पराधीन ही हो जायगा। वैसी स्थिति में दयावान् बन करके भला कौन दान देगा? मृत पिता के पारलौकिक सुख के उद्देश्य से जो पुत्र ब्राह्मण को दान देता है, उससे वह पुत्र-पौत्र और प्रपौत्रों के साथ धनवान् हो जाता है । पिता के निमित्त दिया गया दान सौ गुना, माता के लिये हजार गुना, बहन के लिये दस हजार गुना, सहोदर भाई के लिये किया गया दान असंख्य गुना पुण्य प्रदान करनेवाला होता है। यदि लोभ, प्रमाद अथवा व्यामोह से ग्रसित होकर लोग अपने मृतकों के लिये दान नहीं देते हैं तो सभी मरे हुए प्राणी यह सोचते हैं कि मेरे परिवार के सगे सम्बन्धी कंजूस और पापी हैं । अत्यन्त कष्ट से अर्जित और स्वभावतः चञ्चल धन की गति मात्र एक ही है और वह है दान । उसकी दूसरी गति तो विपत्ति ही है।

मृत्युः शरीगोप्तारं वसुरक्षं वसुन्धरा ।

दुश्चारिणीव हसति स्वपतिं पुत्रवत्सलम् ॥ २,३६.३४ ॥

उदासे धार्मिकः सौम्यः प्राप्यापि विपुलं धनम् ।

तृणवन्मन्यते तार्क्ष्य आत्मानं वित्तमप्यथ ॥ २,३६.३५ ॥

न चैवोपद्रवास्तस्य मोहजालो न चैव हि ।

मृत्युकाले न च भयं यमदूतसमुद्भवम् ॥ २,३६.३६ ॥

यह मेरा पुत्र है, ऐसा समझकर पुत्र से प्रेम करनेवाले अपने पति को देख करके जिस प्रकार दुराचारिणी स्त्री उसका उपहास करती है, उसी प्रकार मृत्यु शरीर के रक्षक और पृथ्वी धन के रक्षक का उपहास करती है । हे तार्क्ष्य ! जो मनुष्य उदार, धर्मनिष्ठ तथा सौम्य स्वभाव से युक्त है, वह अपार धन प्राप्त करके भी अपने को तथा धन को तिलकेसमान तुच्छ मानता है। ऐसे उदात्त चरित्रवाले श्रेष्ठ पुरुष को अर्थोपद्रव नहीं होता है, उसको किसी प्रकार का मोहजाल अपने चक्कर में नहीं जकड़ पाता है। मृत्युकाल में यमदूतों के द्वारा उत्पन्न किया गया किसी प्रकार का भय उसके सामने टिकने में समर्थ नहीं होता है।

समाः सहस्राणि च सप्त वै जले दशैकमग्नौ पवने च षोडश ।

महाहवे पष्टिरशीतिर्गोगृहे अनाशके काश्यप चाक्षया गतिः ॥ २,३६.३७ ॥

हे काश्यप ! धर्म की रक्षा या किसी के उद्देश्य से जल में डूब करके प्राणोत्सर्ग करने से सात हजार वर्ष, अग्नि में कूदकर आत्मदाह करने पर ग्यारह हजार वर्ष, वायु के वेग में जीवनलीला समाप्त करने पर सोलह हजार वर्ष, युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त करने पर साठ हजार वर्ष तथा गोरक्षार्थ मरण होने पर अस्सी हजार वर्षतक स्वर्ग की प्राप्ति होती है, किंतु निराहारव्रत का पालन करते हुए प्राणों का परित्याग करने पर व्यक्ति को अक्षयगति का लाभ होता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे धर्मकाण्डे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादेऽनशनमृत गतिनिरूपणं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 3

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