श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १२      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १२ "रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: द्वादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १२                          

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः १२                             

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध बारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय १२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ द्वादशोऽध्यायः ॥

रहूगण उवाच

नमो नमः कारणविग्रहाय

स्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय ।

नमोऽवधूतद्विजबन्धुलिङ्ग-

निगूढनित्यानुभवाय तुभ्यम् ॥ १॥

ज्वरामयार्तस्य यथागदं स-

न्निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भः ।

कुदेहमानाहिविदष्टदृष्टे-

र्ब्रह्मन्वचस्तेऽमृतमौषधं मे ॥ २॥

तस्माद्भवन्तं मम संशयार्थं

प्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम् ।

अध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्त-

माख्याहि कौतूहलचेतसो मे ॥ ३॥

यदाह योगेश्वर दृश्यमानं

क्रियाफलं सद्व्यवहारमूलम् ।

न ह्यञ्जसा तत्त्वविमर्शनाय

भवानमुष्मिन् भ्रमते मनो मे ॥ ४॥

राजा रहूगण ने कहा ;- भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत् का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर! अपने परमानन्दमयस्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूल शरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमयस्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

ब्रह्मन्! जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं।

देव! मैं आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।

योगेश्वर! आपने जो यह कहा कि भार उठाने की क्रिया तथा उससे जो श्रमफल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहार मूल के ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं है-वे तत्त्व विचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते-सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आया रहा है।

ब्राह्मण उवाच

अयं जनो नाम चलन् पृथिव्यां

यः पार्थिवः पार्थिव कस्य हेतोः ।

तस्यापि चाङ्घ्र्योरधिगुल्फजङ्घा-

जानूरुमध्योरशिरोधरांसाः ॥ ५॥

अंसेऽधि दार्वी शिबिका च यस्यां

सौवीरराजेत्यपदेश आस्ते ।

यस्मिन् भवान् रूढनिजाभिमानो

राजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्धः ॥ ६॥

शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्

विष्ट्या निगृह्णन् निरनुग्रहोऽसि ।

जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो

न शोभसे वृद्धसभासु धृष्टः ॥ ७॥

यदा क्षितावेव चराचरस्य

विदाम निष्ठां प्रभवं च नित्यम् ।

तन्नामतोऽन्यद्व्यवहारमूलं

निरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम् ॥ ८॥

एवं निरुक्तं क्षितिशब्दवृत्त-

मसन्निधानात्परमाणवो ये ।

अविद्यया मनसा कल्पितास्ते

येषां समूहेन कृतो विशेषः ॥ ९॥

एवं कृशं स्थूलमणुर्बृहद्य-

दसच्च सज्जीवमजीवमन्यत् ।

द्रव्यस्वभावाशयकालकर्म-

नाम्नाजयावेहि कृतं द्वितीयम् ॥ १०॥

ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेक-

मनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम् ।

प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं

यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ॥ ११॥

रहूगणैतत्तपसा न याति

न चेज्यया निर्वपणाद्गृहाद्वा ।

न छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यै-

र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ॥ १२॥

यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवादः

प्रस्तूयते ग्राम्यकथाविघातः ।

निषेव्यमाणोऽनुदिनं मुमुक्षो-

र्मतिं सतीं यच्छति वासुदेवे ॥ १३॥

अहं पुरा भरतो नाम राजा

विमुक्तदृष्टश्रुतसङ्गबन्धः ।

आराधनं भगवत ईहमानो

मृगोऽभवं मृगसङ्गाद्धतार्थः ॥ १४॥

सा मां स्मृतिर्मृगदेहेऽपि वीर

कृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति ।

अथो अहं जनसङ्गादसङ्गो

विशङ्कमानोऽविवृतश्चरामि ॥ १५॥

तस्मान्नरोऽसङ्गसुसङ्गजात-

ज्ञानासिनेहैव विवृक्णमोहः ।

हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां

लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वनः ॥ १६॥

जड भरत ने कहा ;- पृथ्वीपते! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं। कंधों के ऊपर लकड़ी की पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम मैं सिन्धु देश का राजा हूँइस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो। किन्तु इसी से तुम्हारी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुःखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करने वाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं, अतः उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं-बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है?

इस प्रकार पृथ्वीशब्द का व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादान कारण सूक्ष्म परमाणुओं में लीन हो जाती है और जिनके मिलने से पृथ्वीरूप कार्य की सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मन से ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तव में उनकी भी सत्ता नहीं है। इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणों से युक्त द्वैत-प्रपंच है-उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामों वाली भगवान् की माया का ही कार्य समझो।

विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसी का नाम भगवान्है और उसी को पण्डितजन वासुदेवकहते हैं।

रहूगण! महापुरुषों के चरणों की धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथि सेवा, दीन सेवा आदि गृहस्थोचित, धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्य की उपासना आदि किसी भी साधन से यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती और जब भगवत्कथा का नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान् वासुदेव में लगा देती है।

पूर्वजन्म में मैं भरत नाम का राजा था। एहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान् की आराधना में ही लगा रहता था, तो भी एक मृग में आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृगयोनि में भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसी से अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असंग भाव से गुप्तरूप से ही विचरता रहता हूँ। सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह बन्धन को काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवान् को प्राप्त कर सकता है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के १२ अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय १३   

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