श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०  "उत्तम का मारा जाना, ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १०        

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः १०        

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध दसवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १० श्लोक का हिन्दी अनुवाद

चतुर्थ स्कन्ध अध्याय १०

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

प्रजापतेर्दुहितरं शिशुमारस्य वै ध्रुवः ।

उपयेमे भ्रमिं नाम तत्सुतौ कल्पवत्सरौ ॥ १ ॥

इलायामपि भार्यायां वायोः पुत्र्यां महाबलः ।

पुत्रं उत्कलनामानं योषिद् रत्‍नमजीजनत् ॥ २ ॥

उत्तमस्त्वकृतोद्वाहो मृगयायां बलीयसा ।

हतः पुण्यजनेनाद्रौ तन्मातास्य गतिं गता ॥ ३ ॥

ध्रुवो भ्रातृवधं श्रुत्वा कोपामर्षशुचार्पितः ।

जैत्रं स्यन्दनमास्थाय गतः पुण्यजनालयम् ॥ ४ ॥

गत्वोदीचीं दिशं राजा रुद्रानुचरसेविताम् ।

ददर्श हिमवद्द्रोण्यां पुरीं गुह्यकसंकुलाम् ॥ ५ ॥

दध्मौ शङ्‌खं बृहद्‍बाहुः खं दिशश्चानुनादयन् ।

येनोद्विग्नदृशः क्षत्तः उपदेव्योऽत्रसन्भृशम् ॥ ॥ ६ ॥

ततो निष्क्रम्य बलिन उपदेवमहाभटाः ।

असहन्तः तन्निनादं अभिपेतुरुदायुधाः ॥ ७ ॥

स तान् आपततो वीर उग्रधन्वा महारथः ।

एकैकं युगपत्सर्वान् अहन् बाणैस्त्रिभिस्त्रिभिः ॥ ८ ॥

ते वै ललाटलग्नैस्तैः इषुभिः सर्व एव हि ।

मत्वा निरस्तमात्मानं आशंसन्कर्म तस्य तत् ॥ ९ ॥

तेऽपि चामुममृष्यन्तः पादस्पर्शमिवोरगाः ।

शरैरविध्यन् युगपद् द्विगुणं प्रचिकीर्षवः ॥ १० ॥

ततः परिघनिस्त्रिंशैः प्रासशूलपरश्वधैः ।

शक्त्यृष्टिभिर्भुशुण्डीभिः चित्रवाजैः शरैरपि ॥ ११ ॥

अभ्यवर्षन् प्रन्प्रकुपिताः सरथं सहसारथिम् ।

इच्छन्तः तत्प्रतीकर्तुं अयुतानां त्रयोदश ॥ १२ ॥

औत्तानपादिः स तदा शस्त्रवर्षेण भूरिणा ।

न एवादृश्यताच्छन्न आसारेण यथा गिरिः ॥ १३ ॥

हाहाकारस्तदैवासीत् सिद्धानां दिवि पश्यताम् ।

हतोऽयं मानवः सूर्यो मग्नः पुण्यजनार्णवे ॥ १४ ॥

नदत्सु यातुधानेषु जयकाशिष्वथो मृधे ।

उदतिष्ठद् रथस्तस्य नीहारादिव भास्करः ॥ १५ ॥

धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्वहन् ।

अस्त्रौघं व्यधमद्‍बाणैः घनानीकमिवानिलः ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए।

महाबली ध्रुव की दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नाम के पुत्र और एक कन्यारत्न का जन्म हुआ। उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान् यक्ष ने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी। ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेग से भरकर एक विजयप्रद रथ पर सवार हो यक्षों के देश में जा पहुँचे। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर हिमालय की घाटी में यक्षों से भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे।

विदुर जी! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुव ने अपना शंख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओं को गुँजा दिया। उस शंखध्वनि से यक्ष-पत्नियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखें भय से कातर हो उठीं।

वीरवर विदुर जी! महाबलवान् यक्षवीरों को वह शंखनाद सहन न हुआ। इसलिये वे तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर के बाहर निकल आये और ध्रुव पर टूट पड़े। महारथी ध्रुव प्रचण्ड धनुर्धर थे। उन्होंने एक ही साथ उनमें से प्रत्येक को तीन-तीन बाण मारे। उन सभी ने जब अपने-अपने मस्तकों में तीन-तीन बाण लगे देखे, तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारी हार अवश्य होगी। वे ध्रुव जी के इस अद्भुत पराक्रम की प्रशंसा करने लगे। फिर जैसे सर्प किसी के पैरों का आघात नहीं सहते, उसी प्रकार ध्रुव के इस पराक्रम को न सहकर उन्होंने भी उनके बाणों के जवाब में एक ही साथ उनसे दूने- छः-छः बाण छोड़े। यक्षों की संख्या तेरह अच्युत (1,30,000) थी। उन्होंने ध्रुव जी का बदला लेने के लिये अत्यन्त कुपित होकर रथ और सारथी के सहित उन पर परिघ, खड्ग, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा चित्र-विचित्र पंखदार बाणों की वर्षा की।

इस भीषण शस्त्रवर्षा से ध्रुव जी बिलकुल ढक गये। तब लोगों को उनका दीखना वैसे ही बंद हो गया, जैसे भारी वर्षा से पर्वत का। उस समय जो सिद्धगण आकाश में स्थित होकर यह दृश्य देख रहे थे, वे सब हाय-हाय करके कहने लगे- आज यक्ष सेनारूप समुद्र में डूबकर यह मानव-सूर्य अस्त हो गया। यक्ष लोग अपनी विजय की घोषणा करते हुए युद्ध क्षेत्र में सिंह की तरह गरजने लगे। इसी बीच में ध्रुव जी का रथ एकाएक वैसे ही प्रकट हो गया, जैसे कुहरे में से सूर्य भगवान् निकल आते हैं। ध्रुव जी ने अपने दिव्य धनुष की टंकार करके शत्रुओं के दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणों की वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रों को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है।

तस्य ते चापनिर्मुक्ता भित्त्वा वर्माणि रक्षसाम् ।

कायान् आविविशुस्तिग्मा गिरीन् अशनयो यथा ॥ १७ ॥

भल्लैः सञ्छिद्यमानानां शिरोभिश्चारुकुण्डलैः ।

ऊरुभिर्हेमतालाभैः दोर्भिर्वलयवल्गुभिः ॥ १८ ॥

हारकेयूरमुकुटैः उष्णीषैश्च महाधनैः ।

आस्तृतास्ता रणभुवो रेजुर्वीरमनोहराः ॥ १९ ॥

हतावशिष्टा इतरे रणाजिराद्

     रक्षोगणाः क्षत्रियवर्यसायकैः ।

प्रायो विवृक्णावयवा विदुद्रुवुः

     मृगेन्द्रविक्रीडितयूथपा इव ॥ २० ॥

अपश्यमानः स तदाततायिनं

     महामृधे कञ्चन मानवोत्तमः ।

पुरीं दिदृक्षन्नपि नाविशद् द्विषां

     न मायिनां वेद चिकीर्षितं जनः ॥ २१ ॥

इति ब्रुवंश्चित्ररथः स्वसारथिं

     यत्तः परेषां प्रतियोगशङ्‌कितः ।

शुश्राव शब्दं जलधेरिवेरितं

     नभस्वतो दिक्षु रजोऽन्वदृश्यत ॥ २२ ॥

(अनुष्टुप्)

क्षणेनाच्छादितं व्योम घनानीकेन सर्वतः ।

विस्फुरत्तडिता दिक्षु त्रासयत् स्तनयित्‍नुना ॥ २३ ॥

ववृषू रुधिरौघासृक् पूयविण्मूत्रमेदसः ।

निपेतुर्गगनादस्य कबन्धान्यग्रतोऽनघ ॥ २४ ॥

ततः खेऽदृश्यत गिरिः निपेतुः सर्वतोदिशम् ।

गदापरिघनिस्त्रिंश मुसलाः साश्मवर्षिणः ॥ २५ ॥

अहयोऽशनिनिःश्वासा वमन्तोऽग्निं रुषाक्षिभिः ।

अभ्यधावन् गजा मत्ताः सिंहव्याघ्राश्च यूथशः ॥ २६ ॥

समुद्र ऊर्मिभिर्भीमः प्लावयन् सर्वतो भुवम् ।

आससाद महाह्रादः कल्पान्त इव भीषणः ॥ २७ ॥

एवंविधान्यनेकानि त्रासनान्यमनस्विनाम् ।

ससृजुस्तिग्मगतय आसुर्या माययासुराः ॥ २८ ॥

ध्रुवे प्रयुक्तामसुरैः तां मायामतिदुस्तराम् ।

निशम्य तस्य मुनयः शमाशंसन् समागताः ॥ २९ ॥

उनके धनुष से छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसों के कवचों को भेदकर इस प्रकार उनके शरीरों में घुस गये, जैसे इन्द्र के छोड़े हुए वज्र पर्वतों में प्रवेश कर गये थे।

विदुर जी! महाराज ध्रुव के बाणों से कटे हुए यक्षों के सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकों से, सुनहरी तालवृक्ष के समान जाँघों से, वलयविभूषित बाहुओं से, हार, भुजबन्ध, मुकुट और बहुमूल्य पगड़ियों से पटी हुई वह वीरों के मन को लुभाने वाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी। जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुव जी के बाणों से प्रायः अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण युद्धक्रीड़ा में सिंह से परास्त हुए गजराज के समान मैदान छोड़कर भाग गये।

नरश्रेष्ठ ध्रुव जी ने देखा कि उस विस्तृत रणभूमि में अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखने की हुई; किन्तु वे पुरी के भीतर नहीं गये। ये मायावी क्या करना चाहते हैं, इस बात का मनुष्य को पता नहीं लग सकता। सारथि से इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथ में बैठे रहे तथा शत्रु के नवीन आक्रमण की आशंका से सावधान हो गये। इतने में ही उन्हें समुद्र की गर्जना के समान आँधी का भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओं में उठती हुई धूल भी दिखायी दी। एक क्षण में ही सारा आकाश मेघमाला से घिर गया। सब ओर भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बिजली चमकने लगी।

निष्पाप विदुर जी! उन बादलों से खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बी की वर्षा होने लगी और ध्रुव जी के आगे आकाश से बहुत-से धड़ गिरने लगे। फिर आकाश में एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओं में पत्थरों की वर्षा के साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे। उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्र की तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रों से आग की चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं; झुंड-के-झुंड मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे हैं। प्रलयकाल के समान भयंकर समुद्र अपनी उत्ताल तरंगों से पृथ्वी को सब ओर से डूबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जना के साथ उनकी ओर बढ़ रहा है। क्रूरस्वभाव असुरों ने अपनी आसुरी माया से ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरों के मन काँप सकते थे। ध्रुव जी पर असुरों ने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियों ने आकर उनके लिये मंगल कामना की।

मुनय ऊचुः -

औत्तानपाद भगवान् तव शार्ङ्‌गधन्वा

     देवः क्षिणोत्ववनतार्तिहरो विपक्षान् ।

यन्नामधेयमभिधाय निशम्य चाद्धा

     लोकोऽञ्जसा तरति दुस्तरमङ्‌ग मृत्युम् ॥ ३० ॥

मुनियों ने कहा ;- उत्तानपादनन्दन ध्रुव! शरणागत-भयभंजन सारंगपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओं का संहार करे। भगवान् का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करने मात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्यु के मुख से अनायास ही बच जाता है।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

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