श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६अध्याय १६
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
१६ "चित्रकेतु का वैराग्य तथा संकर्षणदेव के दर्शन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय
१६
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः १६
श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध
सोलहवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय १६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ षोडशोऽध्यायः - १६ ॥
श्रीशुक उवाच
अथ देवऋषी राजन् सम्परेतं
नृपात्मजम् ।
दर्शयित्वेति होवाच
ज्ञातीनामनुशोचताम् ॥ १
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! तदनन्तर देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को
शोकाकुल स्वजनों के सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा।
नारद उवाच
जीवात्मन् पश्य भद्रं ते मातरं
पितरं च ते ।
सुहृदो बान्धवास्तप्ताः शुचा
त्वत्कृतया भृशम् ॥ २॥
कलेवरं स्वमाविश्य शेषमायुः
सुहृद्वृतः ।
भुङ्क्ष्व भोगान्
पितृप्रत्तानधितिष्ठ नृपासनम् ॥ ३॥
देवर्षि नारद ने कहा ;-
जीवात्मन्! तुम्हारा कल्याण हो। देखो, तुम्हारे
माता-पिता, सुहृद्-सम्बन्धी तुम्हारे वियोग से अत्यन्त
शोकाकुल हो रहे हैं। इसलिये तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष आयु अपने
सगे-सम्बन्धियों के साथ ही रहकर व्यतीत करो। अपने पिता के दिये हुए भोगों को भोगो
और राजसिंहासन पर बैठो।
जीव उवाच
कस्मिन् जन्मन्यमी मह्यं पितरो
मातरोऽभवन् ।
कर्मभिर्भ्राम्यमाणस्य
देवतिर्यङ्नृयोनिषु ॥ ४॥
बन्धुज्ञात्यरिमध्यस्थमित्रोदासीनविद्विषः
।
सर्व एव हि सर्वेषां भवन्ति क्रमशो
मिथः ॥ ५॥
यथा वस्तूनि पण्यानि हेमादीनि
ततस्ततः ।
पर्यटन्ति नरेष्वेवं जीवो योनिषु
कर्तृषु ॥ ६॥
नित्यस्यार्थस्य सम्बन्धो ह्यनित्यो
दृश्यते नृषु ।
यावद्यस्य हि सम्बन्धो ममत्वं
तावदेव हि ॥ ७॥
एवं योनिगतो जीवः स नित्यो
निरहङ्कृतः ।
यावद्यत्रोपलभ्येत तावत्स्वत्वं हि
तस्य तत् ॥ ८॥
एष नित्योऽव्ययः सूक्ष्म एष
सर्वाश्रयः स्वदृक् ।
आत्ममायागुणैर्विश्वमात्मानं सृजति
प्रभुः ॥ ९॥
न ह्यस्यातिप्रियः कश्चिन् नाप्रियः
स्वः परोऽपि वा ।
एकः सर्वधियां द्रष्टा कर्तॄणां
गुणदोषयोः ॥ १०॥
नादत्त आत्मा हि गुणं न दोषं न
क्रियाफलम् ।
उदासीनवदासीनः परावरदृगीश्वरः ॥ ११॥
जीवात्मा ने कहा ;-
देवर्षि जी! मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने
जन्मों से भटक रहा हूँ। उनमें से ये लोग किस जन्म में मेरे माता-पिता हुए? विभिन्न जन्मों में सभी एक-दूसरे के भाई-बन्धु, नाती-गोती,
शत्रु-मित्र, मध्यस्थ, उदासीन
और द्वेषी होते रहते हैं। जैसे सुवर्ण आदि क्रय-विक्रय की वस्तुएँ एक व्यापारी से
दूसरे के पास जाती-आती रहती हैं, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न
योनियों में उत्पन्न होता रहता है। इस प्रकार विचार करने से पता लगता है कि
मनुष्यों की अपेक्षा अधिक दिन ठहरने वाले सुवर्ण आदि पदार्थों का सम्बन्ध भी
मनुष्यों के साथ स्थायी नहीं, क्षणिक ही होता है; और जब तक जिसका जिस वस्तु से सम्बन्ध रहता है, तभी
तक उसकी उस वस्तु से ममता भी रहती है। जीव नित्य और अहंकार रहित है। वह गर्भ आकर
जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता
है। यह जीव नित्य अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित), सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है। इसमें स्वरूपतः जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी
नहीं हैं। फिर भी यह ईश्वररूप होने के कारण अपनी माया के गुणों से ही अपने-आपको
विश्व के रूप में प्रकट कर देता है। इसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय है और न अप्रिय,
न अपना और न पराया। क्योंकि गुण-दोष (हित-अहित) करने वाले
मित्र-शत्रु आदि की भिन्न-भिन्न बुद्धि-वृत्तियों का यह अकेला ही साक्षी हैं;
वास्तव में यह अद्वितीय है। यह आत्मा कार्य-कारण का साक्षी और
स्वतन्त्र है। इसलिये यह शरीर आदि के गुण-दोष अथवा कर्म फल को ग्रहण नहीं करता,
सदा उदासीन भाव से स्थित रहता है।
श्रीशुक उवाच
इत्युदीर्य गतो जीवो ज्ञातयस्तस्य
ते तदा ।
विस्मिता मुमुचुः शोकं
छित्त्वाऽऽत्मस्नेहश्रृङ्खलाम् ॥ १२॥
निर्हृत्य ज्ञातयो ज्ञातेर्देहं कृत्वोचिताः
क्रियाः ।
तत्यजुर्दुस्त्यजं स्नेहं
शोकमोहभयार्तिदम् ॥ १३॥
बालघ्न्यो व्रीडितास्तत्र
बालहत्याहतप्रभाः ।
बालहत्याव्रतं
चेरुर्ब्राह्मणैर्यन्निरूपितम् ।
यमुनायां महाराज स्मरन्त्यो
द्विजभाषितम् ॥ १४॥
स इत्थं प्रतिबुद्धात्मा
चित्रकेतुर्द्विजोक्तिभिः ।
गृहान्धकूपान्निष्क्रान्तः
सरःपङ्कादिव द्विपः ॥ १५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
वह जीवात्मा इस प्रकार कहकर चला गया। उसके सगे-सम्बन्धी उसकी बात
सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उनका स्नेह-बन्धन कट गया और उसके मरने का शोक भी जाता
रहा। इसके बाद जाति वालों ने बालक की मृत देह को ले जाकर तत्कालोचित संस्कार
और्ध्वदैहिक क्रियाएँ पूर्ण कीं और उस दुस्त्यज स्नेह को छोड़ दिया, जिसके कारण शोक, मोह, भय और
दुःख की प्राप्ति होती है।
परीक्षित! जिन रानियों ने बच्चे को
विष दिया था, वे बालहत्या के कारण श्रीहीन हो
गयी थीं और लज्जा के मारे आँख तक नहीं उठा सकती थीं। उन्होंने अंगिरा ऋषि के उपदेश
को याद करके (मात्सर्यहीन हो) यमुना जी के तट पर ब्राह्मणों के आदेशानुसार
बालहत्या का प्रायश्चित किया। परीक्षित! इस प्रकार अंगिरा और नारद जी के उपदेश के
विवेकबुद्धि जाग्रत् हो जाने के कारण राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थी के अँधेरे कुएँ से
उसी प्रकार बाहर निकल पड़े, जैसे कोई हाथी तालाब के कीचड़ से
निकल आये।
कालिन्द्यां विधिवत्स्नात्वा
कृतपुण्यजलक्रियः ।
मौनेन संयतप्राणो
ब्रह्मपुत्राववन्दत ॥ १६॥
अथ तस्मै प्रपन्नाय भक्ताय
प्रयतात्मने ।
भगवान्नारदः प्रीतो विद्यामेतामुवाच
ह ॥ १७॥
ओं नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय
धीमहि ।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः
सङ्कर्षणाय च ॥ १८॥
नमो विज्ञानमात्राय परमानन्दमूर्तये
।
आत्मारामाय शान्ताय
निवृत्तद्वैतदृष्टये ॥ १९॥
आत्मानन्दानुभूत्यैव
न्यस्तशक्त्यूर्मये नमः ।
हृषीकेशाय महते नमस्ते विश्वमूर्तये
॥ २०॥
वचस्युपरतेऽप्राप्य य एको मनसा सह ।
अनामरूपश्चिन्मात्रः सोऽव्यान्नः
सदसत्परः ॥ २१॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं
तिष्ठत्यप्येति जायते ।
मृण्मयेष्विव मृज्जातिस्तस्मै ते
ब्रह्मणे नमः ॥ २२॥
यन्न स्पृशन्ति न
विदुर्मनोबुद्धीन्द्रियासवः ।
अन्तर्बहिश्च विततं
व्योमवत्तन्नतोऽस्म्यहम् ॥ २३॥
देहेन्द्रियप्राणमनोधियोऽमी
यदंशविद्धाः प्रचरन्ति कर्मसु ।
नैवान्यदा लोहमिवाप्रतप्तं
स्थानेषु तद्द्रष्ट्रपदेशमेति ॥ २४॥
ओं नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय
महाविभूतिपतये सकलसात्वतपरिवृढ-
निकरकरकमलकुड्मलोपलालितचरणा-
रविन्दयुगल परम परमेष्ठिन् नमस्ते ॥
२५॥
उन्होंने यमुना जी में विधिपूर्वक
स्नान करके तर्पण आदि धार्मिक क्रियाएँ कीं। तदनन्तर संयतेन्द्रिय और मौन होकर
उन्होंने देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा के चरणों की वन्दना की। भगवान् नारद ने
देखा कि चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त और
शरणागत हैं। अतः उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें इस विद्या का उपदेश किया।
(देवर्षि नारद ने यों उपदेश
किया-) ‘ॐकार स्वरूप भगवन्! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में क्रमशः
चित्त, बुद्धि, मन और अहंकार के
अधिष्ठाता हैं। मैं आपके इस चतुर्व्यूहरूप का बार-बार नमस्कारपूर्वक ध्यान करता
हूँ। आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप हैं। आपकी मूर्ति परमानन्दमयी है। आप अपने
स्वरूपभूत आनन्द में ही मग्न और परमशान्त हैं। द्वैतदृष्टि आपको छू तक नहीं सकती।
मैं आपको नमस्कार करता हूँ। अपने स्वरूपभूत आनन्द की अनुभूति से ही मायाजनित
राग-द्वेष आदि दोषों का तिरस्कार कर रखा है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबकी
समस्त इन्द्रियों के प्रेरक, परम महान् और विराट्स्वरूप हैं।
मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मन सहित वाणी आप तक न पहुँचकर बीच से ही लौट आती है।
उसके उपरत हो जाने पर जो अद्वितीय, नामरूप रहित, चेतनमात्र और कार्य-कारण से परे की वस्तु रह जाती है-वह हमारी रक्षा करे।
यह कार्य-कारणरूप जगत् जिनसे
उत्पन्न होता है, जिनमें स्थित है और
जिनमें लीन होता है तथा जो मिट्टी की वस्तुओं में व्याप्त मृत्तिका के समान सबमें
ओत-प्रोत हैं-उन परब्रह्मस्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ। यद्यपि आप आकाश के
समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त हैं, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्ति से नहीं जान सकतीं और प्राण
तथा कर्मेन्द्रियाँ अपनी क्रियारूप शक्ति से स्पर्श भी नहीं कर सकतीं। मैं आपको
नमस्कार करता हूँ। शरीर, इन्द्रिय, प्राण,
मन और बुद्धि जाग्रत् तथा स्वप्न अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से
युक्त होकर ही अपना-अपना काम करते हैं तथा सुषुप्ति और मूर्च्छा की अवस्थाओं में
आपके चैतन्यांश से युक्त न होने के कारण अपना-अपना काम करने में असमर्थ हो जाते हैं-ठीक
वैसे ही जैसे लोहा अग्नि से तप्त होने पर जला सकता है, अन्यथा
नहीं। जिसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं,
वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि
अवस्थाओं में आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तव में आपसे पृथक् उनका कोई
अस्तित्व नहीं है। ॐकारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुष को
नमस्कार है। श्रेष्ठ भक्तों का समुदाय अपने करकमलों की कलियों से आपके युगल
चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहता है। प्रभो! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं आपको
बार-बार नमस्कार करता हूँ’।
श्रीशुक उवाच
भक्तायैतां प्रपन्नाय विद्यामादिश्य
नारदः ।
ययावङ्गिरसा साकं धाम स्वायम्भुवं
प्रभो ॥ २६॥
चित्रकेतुस्तु विद्यां तां यथा
नारदभाषिताम् ।
धारयामास सप्ताहमब्भक्षः सुसमाहितः
॥ २७॥
ततः स सप्तरात्रान्ते विद्यया
धार्यमाणया ।
विद्याधराधिपत्यं स लेभेऽप्रतिहतं
नृप ॥ २८॥
ततः कतिपयाहोभिर्विद्ययेद्धमनोगतिः
।
जगाम देवदेवस्य शेषस्य चरणान्तिकम्
॥ २९॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! देवर्षि नारद अपने शरणागत भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का
उपदेश करके महर्षि अंगिरा के साथ ब्रह्मलोक को चले गये। राजा चित्रकेतु ने देवर्षि
नारद के द्वारा उपदिष्ट विद्या का उनके आज्ञानुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी
एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया। तदनन्तर उस विद्या के अनुष्ठान से सात रात के
पश्चात् राजा चित्रकेतु को विद्याधरों का अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ। इसके बाद कुछ
ही दिनों में इस विद्या के प्रभाव से उनका मन और भी शुद्ध हो गया। अब वे देवाधिदेव
भगवान् शेषजी के चरणों के समीप पहुँच गये।
मृणालगौरं शितिवाससं स्फुर-
त्किरीटकेयूरकटित्रकङ्कणम् ।
प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनं वृतं
ददर्श सिद्धेश्वरमण्डलैः प्रभुम् ॥
३०॥
तद्दर्शनध्वस्तसमस्तकिल्बिषः
स्वस्थामलान्तःकरणोऽभ्ययान्मुनिः ।
प्रवृद्धभक्त्या प्रणयाश्रुलोचनः
प्रहृष्टरोमाऽऽनमदादिपूरुषम् ॥ ३१॥
स उत्तमश्लोकपदाब्जविष्टरं
प्रेमाश्रुलेशैरुपमेहयन् मुहुः ।
प्रेमोपरुद्धाखिलवर्णनिर्गमो
नैवाशकत्तं प्रसमीडितुं चिरम् ॥ ३२॥
ततः समाधाय मनो मनीषया
बभाष एतत्प्रतिलब्धवागसौ ।
नियम्य सर्वेन्द्रियबाह्यवर्तनं
जगद्गुरुं सात्वतशास्त्रविग्रहम् ॥
३३॥
उन्होंने देखा कि भगवान् शेषजी
सिद्धेश्वरों के मण्डल में विराजमान हैं। उनका शरीर कमलनाल के समान गौरवर्ण है। उस
पर नीले रंग का वस्त्र फहरा रहा है। सिर पर किरीट, बाँहों में बाजूबंद, कमर में करधनी और कलाई में कंगन
आदि आभूषण चमक रहे हैं। नेत्र रतनारे हैं और मुख पर प्रसन्नता छा रही है।
भगवान् शेष का दर्शन करते ही
राजर्षि चित्रकेतु के सारे पाप नष्ट हो गये। उनका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल हो
गया। हृदय में भक्तिभाव की बाढ़ आ गयी। नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। शरीर
का एक-एक रोम खिल उठा। उन्होंने ऐसी ही स्थिति में आदिपुरुष भगवान् शेष को नमस्कार
किया। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू टप-टप गिरते जा रहे थे। इससे भगवान् शेष के
चरण रखने की चौकी भीग गयी। प्रेमोद्रेक के कारण उनके मुँह से एक अक्षर भी न निकल
सका। वे बहुत देर तक शेष भगवान् की कुछ भी स्तुति न कर सके। थोड़ी देर बाद उन्हें
बोलने की कुछ-कुछ शक्ति प्राप्त हुई। उन्होंने विवेक बुद्धि से मन को समाहित किया
और सम्पूर्ण इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को रोका। फिर उन जगद्गुरु की,
जिनके स्वरूप का पांचरात्र आदि भक्तिशास्त्रों में वर्णन किया गया
है, इस प्रकार स्तुति की।
चित्रकेतुरुवाच
अजित जितः सममतिभिः साधुभि-
र्भवान् जितात्मभिर्भवता ।
विजितास्तेऽपि च भजतामकामात्मनां
य आत्मदोऽतिकरुणः ॥ ३४॥
तव विभवः खलु भगवन्
जगदुदयस्थितिलयादीनि ।
विश्वसृजस्तेंऽशांशास्तत्र
मृषा स्पर्धन्ते पृथगभिमत्या ॥ ३५॥
परमाणुपरममहतोस्त्व-
माद्यन्तान्तरवर्ती त्रयविधुरः ।
आदावन्तेऽपि च सत्त्वानां
यद्ध्रुवं तदेवान्तरालेऽपि ॥ ३६॥
क्षित्यादिभिरेष किलावृतः
सप्तभिर्दशगुणोत्तरैरण्डकोशः ।
यत्र पतत्यणुकल्पः
सहाण्डकोटिकोटिभिस्तदनन्तः ॥ ३७॥
विषयतृषो नरपशवो
य उपासते विभूतीर्न परं त्वाम् ।
तेषामाशिष ईश तदनु
विनश्यन्ति यथा राजकुलम् ॥ ३८॥
कामधियस्त्वयि रचिता
न परम रोहन्ति यथा करम्भबीजानि ।
ज्ञानात्मन्यगुणमये
गुणगणतोऽस्य द्वन्द्वजालानि ॥ ३९॥
जितमजित तदा भवता
यदाह भागवतं धर्ममनवद्यम् ।
निष्किञ्चना ये मुनय आत्मारामा
यमुपासतेऽपवर्गाय ॥ ४०॥
चित्रकेतु ने कहा ;-
अजित! जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओं ने आपको जीत लिया है। आपने भी
अपने सौन्दर्य, माधुर्य, कारुण्य आदि
गुणों से उनको अपने वश में कर लिया है। अहो, आप धन्य हैं!
क्योंकि जो निष्कामभाव से आपका भजन करते हैं, उन्हें आप
करुणापरवश होकर अपने-आपको भी दे डालते हैं। भगवन्! जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आपके लीला-विलास हैं। विश्वनिर्माता ब्रह्मा आदि आपके अंश
के भी अंश हैं। फिर भी वे पृथक्-पृथक् अपने को जगत्कर्ता मानकर झूठमूठ एक-दूसरे से
स्पर्धा करते हैं। नन्हे-से नन्हे परमाणु से लेकर बड़े-से-बड़े महत्तत्त्वपर्यन्त
सम्पूर्ण वस्तुओं के आदि, अन्त, मध्य
में आप ही विराजमान हैं तथा स्वयं आप आदि, अन्त और मध्य से
रहित हैं। क्योंकि किसी भी पदार्थ के आदि और अन्त में जो वस्तु रहती है, वही मध्य में भी रहती है। यह ब्रह्माणकोष, जो पृथ्वी
आदि एक-से-एक दस गुने सात आवरणों से घिरा हुआ है, अपने ही
समान दूसरे करोड़ों ब्राह्मणों के सहित आपमें एक परमाणु के समान घूमता रहता है और
फिर भी उसे आपकी सीमा का पता नहीं हैं। इसिलये आप अनन्त हैं। जो नरपशु केवल विषय
भोग ही चाहते हैं, वे आपका भजन न करके आपके विभूतिस्वरूप इन्द्रादि
देवताओं की उपासना करते हैं।
प्रभो! जैसे राजकुल का नाश होने के
पश्चात् उसके अनुयायियों की जीविका भी जाती रहती है, वैसे ही क्षुद्र उपास्यदेवों का नाश होने पर उनके दिये हुए भोग भी नष्ट हो
जाते हैं।
परमात्मन्! आप ज्ञानस्वरूप और
निर्गुण हैं। इसलिये आपके प्रति की हुई सकाम भावना भी अन्यान्य कर्मों के समान
जन्म-मृत्युरूप फल देने वाली नहीं होती, जैसे
भुने हुए बीजों से अंकुर नहीं उगते। क्योंकि जीव को जो सुख-दुःख आदि द्वन्द
प्राप्त होते हैं, वे सत्त्वादि गुणों से ही होते हैं,
निर्गुण से नहीं। हे अजित! जिस समय आपने विशुद्ध भागवत धर्म का
उपदेश किया था, उसी समय आपने सबको जीत लिया। क्योंकि अपने
पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह न रखने वाले, किसी भी वस्तु में
अहंता-ममता न करने वाले आत्माराम सनकादि परमर्षि भी परमसाम्य और मोक्ष प्राप्त
करने के लिये उसी भागवत धर्म का आश्रय लेते हैं।
विषममतिर्न यत्र नृणां
त्वमहमिति मम तवेति च यदन्यत्र ।
विषमधिया रचितो यः
स ह्यविशुद्धः क्षयिष्णुरधर्मबहुलः
॥ ४१॥
कः क्षेमो निजपरयोः
कियानर्थः स्वपरद्रुहा धर्मेण ।
स्वद्रोहात्तव कोपः
परसम्पीडया च तथाधर्मः ॥ ४२॥
न व्यभिचरति तवेक्षा यया
ह्यभिहितो भागवतो धर्मः ।
स्थिरचरसत्त्वकदम्बेष्वपृथग्धियो
यमुपासते त्वार्याः ॥ ४३॥
न हि भगवन्नघटितमिदं
त्वद्दर्शनान्नृणामखिलपापक्षयः ।
यन्नाम सकृच्छ्रवणात्पुल्कसकोऽपि
विमुच्यते संसारात् ॥ ४४॥
अथ भगवन् वयमधुना
त्वदवलोकपरिमृष्टाशयमलाः ।
सुरऋषिणा यदुदितं तावकेन
कथमन्यथा भवति ॥ ४५॥
विदितमनन्त समस्तं तव
जगदात्मनो जनैरिहाचरितम् ।
विज्ञाप्यं परमगुरोः कियदिव
सवितुरिव खद्योतैः ॥ ४६॥
नमस्तुभ्यं भगवते सकलजग-
त्स्थितिलयोदयेशाय ।
दुरवसितात्मगतये
कुयोगिनां भिदा परमहंसाय ॥ ४७॥
यं वै श्वसन्तमनु विश्वसृजः
श्वसन्ति
यं चेकितानमनु चित्तय उच्चकन्ति ।
भूमण्डलं सर्षपायति यस्य मूर्ध्नि
तस्मै नमो भगवतेऽस्तु सहस्रमूर्ध्ने
॥ ४८॥
वह भागवत धर्म इतना शुद्ध है कि
उसमें सकाम धर्मों के समान मनुष्यों की वह विषम बुद्धि नहीं होती कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह तू
है और यह तेरा है।’ इसके विपरीत जिस धर्म के मूल में ही
विषमता का बीज बो दिया जाता है, वह तो अशुद्ध, नाशवान् और अधर्म बहुल होता है। सकाम धर्म अपना और दूसरे का भी अहित करने
वाला है। उससे अपना या पराया-किसी का कोई प्रयोजन और हित सिद्ध नहीं होता।
प्रत्युत सकाम धर्म से जब अनुष्ठान करने वाले का चित्त दु:खता है, तब आप रुष्ट होते हैं और जब दूसरे का चित्त दु:खता है, तब वह धर्म नहीं रहता-अधर्म हो जाता है।
भगवन्! आपने जिस दृष्टि से भागवत
धर्म का निरूपण किया है, वह कभी परमार्थ से
विचलित नहीं होती। इसलिये जो संत पुरुष चर-अचर समस्त प्राणियों में समदृष्टि रखते
हैं, वे ही उसका सेवन करते हैं। भगवन्! आपके दर्शन मात्र से
ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव
बात नहीं है; क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच
चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है। भगवन्! इस समय आपके दर्शनमात्र से ही मेरे
अन्तःकरण का सारा मल धुल गया है, सो ठीक ही है। क्योंकि आपके
अनन्य प्रेमी भक्त देवर्षि नारद जी ने जो कुछ कहा है, वह
मिथ्या कैसे हो सकता है।
हे अनन्त! आप सम्पूर्ण जगत् के
आत्मा हैं। अतएव संसार के प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते हैं। इसलिये जैसे जुगनू सूर्य को प्रकाशित नहीं कर
सकता, वैसे ही परम गुरु आपसे मैं क्या निवेदन करूँ। भगवन!
आपकी ही अध्यक्षता में सारे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और
प्रलय होते हैं। कुयोगीजन भेददृष्टि के कारण आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाते।
आपका स्वरूप वास्तव में अत्यन्त शुद्ध है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी चेष्टा
से शक्ति प्राप्त करके ही ब्रह्मा आदि लोकपालगण चेष्टा करने में समर्थ होते हैं।
आपकी दृष्टि से जीवित होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का ग्रहण करने में
समर्थ होती हैं। यह भूमण्डल आपके सिर पर सरसों के दाने के समान जान पड़ता है। आप
सहस्रशीर्षा भगवान् को बार-बार नमस्कार करता हूँ।
श्रीशुक उवाच
संस्तुतो भगवानेवमनन्तस्तमभाषत ।
विद्याधरपतिं प्रीतश्चित्रकेतुं
कुरूद्वह ॥ ४९॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! जब विद्याधरों के अधिपति चित्रकेतु ने अनन्त भगवान् की इस
प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे कहा।
श्रीभगवानुवाच
यन्नारदाङ्गिरोभ्यां ते व्याहृतं
मेऽनुशासनम् ।
संसिद्धोऽसि तया राजन् विद्यया
दर्शनाच्च मे ॥ ५०॥
अहं वै सर्वभूतानि भूतात्मा
भूतभावनः ।
शब्दब्रह्म परं ब्रह्म ममोभे
शाश्वती तनू ॥ ५१॥
लोके विततमात्मानं लोकं चात्मनि
सन्ततम् ।
उभयं च मया व्याप्तं मयि चैवोभयं
कृतम् ॥ ५२॥
यथा सुषुप्तः पुरुषो विश्वं पश्यति
चात्मनि ।
आत्मानमेकदेशस्थं मन्यते स्वप्न
उत्थितः ॥ ५३॥
एवं जागरणादीनि जीवस्थानानि चात्मनः
।
मायामात्राणि विज्ञाय तद्द्रष्टारं
परं स्मरेत् ॥ ५४॥
श्रीभगवान ने कहा ;-
चित्रकेतो! देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा ने तुम्हें मेरे सम्बन्ध
में जिस विद्या का उपदेश दिया है, उससे और मेरे दर्शन से तुम
भलीभाँति सिद्ध हो चुके हो। मैं ही समस्त प्राणियों के रूप में हूँ, मैं ही उनका आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ। शब्दब्रह्म (वेद) और
परब्रह्म दोनों ही मेरे सनातन रूप हैं। आत्मा कार्य-कारणात्मक जगत् में व्याप्त है
और कार्य-कारणात्मक जगत आत्मा में स्थित है तथा इन दोनों में मैं अधिष्ठान रूप से
व्याप्त हूँ और मुझमें ये दोनों कल्पित हैं। जैसे स्वप्न में सोया हुआ पुरुष
स्वप्नान्तर होने पर समपूर्ण जगत् को अपने में ही देखता है और स्वप्नान्तर टूट
जाने पर स्वप्न में ही जागता है तथा अपने को संसार के एक कोने में स्थित देखता है,
परन्तु वास्तव में वह भी स्वप्न ही है, वैसे
ही जीव की जाग्रत आदि अवस्थाएँ परमेश्वर की ही माया हैं-यों जानकर सबके साक्षी
मायातीत परमात्मा का ही स्मरण करना चाहिये।
येन प्रसुप्तः पुरुषः स्वापं
वेदात्मनस्तदा ।
सुखं च निर्गुणं ब्रह्म
तमात्मानमवेहि माम् ॥ ५५॥
उभयं स्मरतः पुंसः
प्रस्वापप्रतिबोधयोः ।
अन्वेति व्यतिरिच्येत तज्ज्ञानं
ब्रह्म तत्परम् ॥ ५६॥
यदेतद्विस्मृतं पुंसो मद्भावं
भिन्नमात्मनः ।
ततः संसार एतस्य देहाद्देहो
मृतेर्मृतिः ॥ ५७॥
लब्ध्वेह मानुषीं योनिं
ज्ञानविज्ञानसम्भवाम् ।
आत्मानं यो न बुद्ध्येत न
क्वचित्क्षेममाप्नुयात् ॥ ५८॥
स्मृत्वेहायां परिक्लेशं ततः
फलविपर्ययम् ।
अभयं चाप्यनीहायां
सङ्कल्पाद्विरमेत्कविः ॥ ५९॥
सुखाय दुःखमोक्षाय कुर्वाते दम्पती
क्रियाः ।
ततोऽनिवृत्तिरप्राप्तिर्दुःखस्य च
सुखस्य च ॥ ६०॥
एवं विपर्ययं बुद्ध्वा नृणां
विज्ञाभिमानिनाम् ।
आत्मनश्च गतिं सूक्ष्मां
स्थानत्रयविलक्षणाम् ॥ ६१॥
दृष्टश्रुताभिर्मात्राभिर्निर्मुक्तः
स्वेन तेजसा ।
ज्ञानविज्ञानसन्तुष्टो मद्भक्तः
पुरुषो भवेत् ॥ ६२॥
एतावानेव
मनुजैर्योगनैपुण्यबुद्धिभिः ।
स्वार्थः सर्वात्मना ज्ञेयो
यत्परात्मैकदर्शनम् ॥ ६३॥
त्वमेतच्छ्रद्धया राजन्नप्रमत्तो
वचो मम ।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो धारयन्नाशु
सिध्यसि ॥ ६४॥
सोया हुआ पुरुष जिसकी सहायता से
अपनी निद्रा और उसके अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है,
वह ब्रह्म मैं ही हूँ; उसे तुम अपनी आत्मा
समझो। पुरुष निद्रा और जागृति-इन दोनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला है। वह उन
अवस्थाओं में अनुगत होने पर भी वास्तव में उनसे पृथक् है। वह सब अवस्थाओं में रहने
वाला अखण्ड एक रस ज्ञान ही ब्रह्म है, वही परब्रह्म है। जब
जीव मेरे स्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपने को अलग मान
बैठता है; इसी से उसे संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और
जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है। यह मनुष्य योनि ज्ञान और
विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्मा को नहीं जान
लेता, उसे कहीं किसी भी योनि में शान्ति नहीं मिल सकती।
राजन्! सांसारिक सुख के लिये जो
चेष्टाएँ की जाती हैं, उसमें श्रम है,
क्लेश है और जिस परमसुख के उद्देश्य से वे की जाती हैं, उसके ठीक विपरीत परमदुःख देती हैं; किन्तु कर्मों से
निवृत्त हो जाने में किसी प्रकार का भय नहीं है-यह सोचकर बुद्धिमान् पुरुष को
चाहिये कि किसी प्रकार के कर्म अथवा उनके फलों का संकल्प न करे। जगत् के सभी
स्त्री-पुरुष इसलिये कर्म करते हैं कि उन्हें सुख मिले और उनका दुःखों से पिण्ड
छूटे; परन्तु उन कर्मों से न तो दुःख दूर होता है और न
उन्हें सुख की ही प्राप्ति होती है।
जो मनुष्य अपने को बहुत बड़ा
बुद्धिमान् मानकर कर्म के पचड़ों में पड़े हुए हैं, उनको विपरीत फल मिलता है-यह बात समझ लेनी चाहिये; साथ
ही यह भी जान लेना चाहिये कि आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-इन
तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानियों से विलक्षण है। यह जानकर इस लोक में देखे और
परलोक के सुने हुए विषय-भोगों से विवेक बुद्धि के द्वारा अपना पिण्ड छुड़ा ले और
ज्ञान तथा विज्ञान में ही सन्तुष्ट रहकर मेरा भक्त हो जाये। जो लोग योग मार्ग का
तत्त्व समझने में निपुण हैं, उनको भलीभाँति समझ लेना चाहिये
कि जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ और परमार्थ केवल इतना ही है कि वह ब्रह्म और आत्मा की
एकता का अनुभव कर ले।
राजन्! यदि तुम मेरे इस उपदेश को
सावधान होकर श्रद्धाभाव से धारण करोगे तो ज्ञान एवं विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र
ही सिद्ध हो जाओगे।
श्रीशुक उवाच
आश्वास्य भगवानित्थं चित्रकेतुं
जगद्गुरुः ।
पश्यतस्तस्य विश्वात्मा
ततश्चान्तर्दधे हरिः ॥ ६५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
राजन्! जगद्गुरु विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि चित्रकेतु को इस प्रकार
समझा-बुझाकर उनके सामने ही वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चित्रकेतोः परमात्मदर्शनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥
१६॥
शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः
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