श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २२                                                

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २२ "बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का उस पर प्रसन्न होना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २२

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २२                                                                    

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः २२

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध बाइसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २२ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ द्वाविंशोऽध्यायः - २२ ॥

श्रीशुक उवाच

एवं विप्रकृतो राजन् बलिर्भगवतासुरः ।

भिद्यमानोऽप्यभिन्नात्मा प्रत्याहाविक्लवं वचः ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार भगवान् ने असुरराज बलि का बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्य से विचलित करना चाहा। परन्तु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्य से बोले।

बलिरुवाच

यद्युत्तमश्लोक भवान् ममेरितं

वचो व्यलीकं सुरवर्य मन्यते ।

करोम्यृतं तन्न भवेत्प्रलम्भनं

पदं तृतीयं कुरु शीर्ष्णि मे निजम् ॥ २॥

बिभेमि नाहं निरयात्पदच्युतो

न पाशबन्धाद्व्यसनाद्दुरत्ययात् ।

नैवार्थकृच्छ्राद्भवतो विनिग्रहा-

दसाधुवादाद्भृशमुद्विजे यथा ॥ ३॥

पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम् ।

यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि ॥ ४॥

त्वं नूनमसुराणां नः पारोक्ष्यः परमो गुरुः ।

यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत् ॥ ५॥

यस्मिन् वैरानुबन्धेन व्यूढेन विबुधेतराः ।

बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः ॥ ६॥

तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा ।

बद्धश्च वारुणैः पाशैर्नातिव्रीडे न च व्यथे ॥ ७॥

पितामहो मे भवदीयसम्मतः

प्रह्लाद आविष्कृतसाधुवादः ।

भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं

सम्प्रापितस्त्वत्परमः स्वपित्रा ॥ ८॥

किमात्मनानेन जहाति योऽन्ततः

किं रिक्थहारैः स्वजनाख्यदस्युभिः ।

किं जायया संसृतिहेतुभूतया

मर्त्यस्य गेहैः किमिहायुषो व्ययः ॥ ९॥

इत्थं स निश्चित्य पितामहो महा-

नगाधबोधो भवतः पादपद्मम् ।

ध्रुवं प्रपेदे ह्यकुतोभयं जनाद्-

भीतः स्वपक्षक्षपणस्य सत्तम ॥ १०॥

अथाहमप्यात्मरिपोस्तवान्तिकं

दैवेन नीतः प्रसभं त्याजितश्रीः ।

इदं कृतान्तान्तिकवर्ति जीवितं

ययाध्रुवं स्तब्धमतिर्न बुध्यते ॥ ११॥

दैत्यराज बलि ने कहा ;- 'देवताओं के आराध्यदेव! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बात को असत्य समझते हैं? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखे में नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिये। मुझे नरक में जाने का अथवा राज्य से च्युत होने का भय नहीं है। मैं पाश में बँधने अथवा अपार दुःख में पड़ने से भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें- यह भी मेरे भय का कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्ति से। अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते।

आप छिपे रूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अतः आप हमारे परम गुरु हैं। जब हम लोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हमसे छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं। आपसे हम लोगों का उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ? अनन्य भाव से योग करने वाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत-से असुरों को आपके साथ दृढ़ वैर भाव करने से ही प्राप्त हो गयी है। जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुण पाश से बाँध रहे हैं। इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकार की व्यथा ही।

प्रभो! मेरे पितामह प्रह्लाद जी की कीर्ति सारे जगत् में प्रसिद्ध है। वे आपके भक्तों में श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपु ने आपसे वैर-विरोध रखने के कारण उन्हें अनेकों प्रकार के दुःख दिये। परन्तु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आप पर ही निछावर कर दिया। उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीर को लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन-सम्पत्ति लेने के लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओं से अपना स्वार्थ ही क्या है? पत्नी से भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घर से मोह करने में भी क्या स्वार्थ है? इन सब वस्तुओं में उलझ जाना तो केवल मेरे पितामह प्रह्लाद जी ने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टि से उनके भाई-बन्धुओं के नाश करने वाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी। क्यों न हो-वे संसार से परम विरक्त, अगाध बोध सम्पन्न, उदार हृदय एवं संत-शिरोमणि जो हैं। आप उस दृष्टि से मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाता ने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मी से अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य-लक्ष्मी के कारण जीव की बुद्धि जड़ हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि मेरा यह जीवन मृत्यु के पंजे में पड़ा हुआ और अनित्य है

श्रीशुक उवाच

तस्येत्थं भाषमाणस्य प्रह्लादो भगवत्प्रियः ।

आजगाम कुरुश्रेष्ठ राकापतिरिवोत्थितः ॥ १२॥

तमिन्द्रसेनः स्वपितामहं श्रिया

विराजमानं नलिनायतेक्षणम् ।

प्रांशुं पिशङ्गाम्बरमञ्जनत्विषं

प्रलम्बबाहुं सुभगं समैक्षत ॥ १३॥

तस्मै बलिर्वारुणपाशयन्त्रितः

समर्हणं नोपजहार पूर्ववत् ।

ननाम मूर्ध्नाश्रुविलोललोचनः

सव्रीडनीचीनमुखो बभूव ह ॥ १४॥

स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं

सुनन्दनन्दाद्यनुगैरुपासितम् ।

उपेत्य भूमौ शिरसा महामना

ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लवः ॥ १५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमा के समान भगवान के प्रेमपात्र प्रह्लाद जी वहाँ आ पहुँचे। राजा बलि ने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमल के समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं।

बलि इस समय वरुण पाश में बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लाद जी के आने पर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओं से चंचल हो उठे, लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। प्रह्लाद जी ने देखा कि भक्तवत्सल भगवान वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेम के उद्रेक से प्रह्लाद जी का शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखों में आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदय से सिर झुकाये अपने स्वामी के पास गये और पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।

प्रह्लाद उवाच

त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं

हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम् ।

मन्ये महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो

विभ्रंशितो यच्छ्रिय आत्ममोहनात् ॥ १६॥

यया हि विद्वानपि मुह्यते यत-

स्तत्को विचष्टे गतिमात्मनो यथा ।

तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै

नारायणायाखिललोकसाक्षिणे ॥ १७॥

प्रह्लाह जी ने कहा ;- 'प्रभो! आपने ही बलि को यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी। मैं समझता हूँ कि आपने इस पर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्मा को मोहित करने वाली राज्यलक्ष्मी से इसे अलग कर दिया। प्रभो! लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूप को ठीक-ठीक कौन जान सकता है? अतः उस लक्ष्मी को छीनकर महान् उपकार करने वाले, समस्त जगत् के महान् ईश्वर, सबके हृदय में विराजमान और सबके परमसाक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।'

श्रीशुक उवाच

तस्यानुश‍ृण्वतो राजन् प्रह्लादस्य कृताञ्जलेः ।

हिरण्यगर्भो भगवानुवाच मधुसूदनम् ॥ १८॥

बद्धं वीक्ष्य पतिं साध्वी तत्पत्नी भयविह्वला ।

प्राञ्जलिः प्रणतोपेन्द्रं बभाषेऽवाङ्मुखी नृप ॥ १९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! प्रह्लाद जी अंजलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान ब्रह्मा जी ने वामन भगवान से कुछ कहना चाहा। परन्तु इतने में ही राजा बलि की परमसाध्वी पत्नी विन्ध्यावली ने अपने पति को बँधा देखकर भयभीत हो भगवान के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान से बोली।

विन्ध्यावलिरुवाच

क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत्कृतं ते

स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्युः ।

कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति

त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः ॥ २०॥

विन्ध्यावली ने कहा ;- 'प्रभो! आपने अपनी क्रीड़ा के लिये ही इस सम्पूर्ण जगत् की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपने को इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी माया से मोहित होकर अपने को झूठमूठ कर्ता मानने वाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे?'

ब्रह्मोवाच

भूतभावन भूतेश देवदेव जगन्मय ।

मुञ्चैनं हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम् ॥ २१॥

कृत्स्ना तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाः कर्मार्जिताश्च ये ।

निवेदितं च सर्वस्वमात्माविक्लवया धिया ॥ २२॥

यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय

दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम् ।

अप्युत्तमां गतिमसौ भजते त्रिलोकीं

दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत् ॥ २३॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- 'समस्त प्राणियों के जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्ड का पात्र नहीं है। इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मों से उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मा तक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्य से च्युत नहीं हुआ है। प्रभो! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्ध्य देता है और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करते है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है। फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है?'

श्रीभगवानुवाच

ब्रह्मन् यमनुगृह्णामि तद्विशो विधुनोम्यहम् ।

यन्मदः पुरुषः स्तब्धो लोकं मां चावमन्यते ॥ २४॥

यदा कदाचिज्जीवात्मा संसरन् निजकर्मभिः ।

नानायोनिष्वनीशोऽयं पौरुषीं गतिमाव्रजेत् ॥ २५॥

जन्मकर्मवयोरूपविद्यैश्वर्यधनादिभिः ।

यद्यस्य न भवेत्स्तम्भस्तत्रायं मदनुग्रहः ॥ २६॥

मानस्तम्भनिमित्तानां जन्मादीनां समन्ततः ।

सर्वश्रेयःप्रतीपानां हन्त मुह्येन्न मत्परः ॥ २७॥

एष दानवदैत्यानामग्रणीः कीर्तिवर्धनः ।

अजैषीदजयां मायां सीदन्नपि न मुह्यति ॥ २८॥

क्षीणरिक्थश्च्युतः स्थानात्क्षिप्तो बद्धश्च शत्रुभिः ।

ज्ञातिभिश्च परित्यक्तो यातनामनुयापितः ॥ २९॥

गुरुणा भर्त्सितः शप्तो जहौ सत्यं न सुव्रतः ।

छलैरुक्तो मया धर्मो नायं त्यजति सत्यवाक् ॥ ३०॥

एष मे प्रापितः स्थानं दुष्प्रापममरैरपि ।

सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रयः ॥ ३१॥

तावत्सुतलमध्यास्तां विश्वकर्मविनिर्मितम् ।

यन्नाधयो व्याधयश्च क्लमस्तन्द्रा पराभवः ।

नोपसर्गा निवसतां सम्भवन्ति ममेक्षया ॥ ३२॥

इन्द्रसेन महाराज याहि भो भद्रमस्तु ते ।

सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं ज्ञातिभिः परिवारितः ॥ ३३॥

न त्वामभिभविष्यन्ति लोकेशाः किमुतापरे ।

त्वच्छासनातिगान् दैत्यांश्चक्रं मे सूदयिष्यति ॥ ३४॥

रक्षिष्ये सर्वतोऽहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् ।

सदा सन्निहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान् ॥ ३५॥

तत्र दानवदैत्यानां सङ्गात्ते भाव आसुरः ।

दृष्ट्वा मदनुभावं वै सद्यः कुण्ठो विनङ्क्ष्यति ॥ ३६॥

श्रीभगवान ने कहा ;- ब्रह्मा जी! मैं जिस पर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगों का तिरस्कार करने लगता है। यह जीव अपने कर्मों के कारण विवश होकर अनेक योनियों में भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपा से मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है। मनुष्य योनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि के कारण घमंड न हो जाये तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है।

कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जड़ता आदि उत्पन्न करके मनुष्य को कल्याण के समस्त साधनों से वंचित कर देते हैं; परन्तु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते। यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशों में अग्रगण्य और उनकी कीर्ति को बढ़ाने वाला है। इसने उस माया पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दुःख भोगने पर भी यह मोहित नहीं हुआ।

इसका धन छीन लिया, राजपद से अलग कर दिया, तरह-तरह के आपेक्ष किये, शत्रुओं ने बाँध लिया, भाई-बन्धु छोड़कर चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ी-यहाँ तक कि गुरुदेव ने भी इसको डाँटा-फटकारा और शाप तक दे दिया। परन्तु इस दृढ़व्रती ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छल भरी बातें कीं, मन में छल रखकर धर्म का उपदेश किया; परन्तु इस सत्यवादी ने अपना धर्म न छोड़ा। अतः मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तर में यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा। तब तक यह विश्वकर्मा के बनाये हुए सुतल लोक में रहे। वहाँ रहने वाले लोग मेरी कृपादृष्टि का अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओं से पराजय और किसी प्रकार के विघ्नों का सामना नहीं करना पड़ता।

[बलि को सम्बोधित कर] महाराज इन्द्रसेन! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओं के साथ उस सुतल लोक में जाओ, जिसे स्वर्ग के देवता भी चाहते रहते हैं। बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरों की तो बात ही क्या है। जो दैत्य तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा। मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोग सामग्री की भी सब प्रकार के विघ्नों से रक्षा करूँगा।

वीर बलि! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे। दानव और दैत्यों के संसर्ग से तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा, वह मेरे प्रभाव से तुरंत दब जायेगा और नष्ट हो जायेगा।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे बलिवामनसंवादो नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः

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