श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २३
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
२३ "बलि का बन्धन से छूटकर सुतल लोक को जाना"
श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय
२३
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः २३
श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध
तेइसवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय २३ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
अष्टमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः - २३ ॥
श्रीशुक उवाच
इत्युक्तवन्तं पुरुषं पुरातनं
महानुभावोऽखिलसाधुसम्मतः ।
बद्धाञ्जलिर्बाष्पकलाकुलेक्षणो
भक्त्युद्गलो गद्गदया गिराब्रवीत् ॥
१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
जब सनातन पुरुष भगवान ने इस प्रकार कहा, तो
साधुओं के आदरणीय महानुभाव दैत्यराज के नेत्रों में आँसू छलक आये। प्रेम के उद्रेक
से उनका गला भर आया। वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से भगवान से कहने लगे।
बलिरुवाच
अहो प्रणामाय कृतः समुद्यमः
प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहितः ।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरै-
रलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पितः ॥ २॥
बलि ने कहा ;-
'प्रभो! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करने मात्र की चेष्टा भर की। उसी से मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणों के शरणागत भक्तों को प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और
देवताओं पर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ-जैसे नीच असुर
को सहज ही प्राप्त हो गयी।'
श्रीशुक उवाच
इत्युक्त्वा हरिमानम्य ब्रह्माणं
सभवं ततः ।
विवेश सुतलं प्रीतो बलिर्मुक्तः
सहासुरैः ॥ ३॥
एवमिन्द्राय भगवान् प्रत्यानीय
त्रिविष्टपम् ।
पूरयित्वादितेः काममशासत्सकलं जगत्
॥ ४॥
लब्धप्रसादं निर्मुक्तं पौत्रं
वंशधरं बलिम् ।
निशाम्य भक्तिप्रवणः प्रह्लाद
इदमब्रवीत् ॥ ५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! यों कहते ही बलि वरुण के पाशों से मुक्त हो गये। तब
उन्होंने भगवान, ब्रह्मा जी और शंकर जी को प्रणाम किया और
इसके बाद बड़ी प्रसन्नता से असुरों के साथ सुतल लोक की यात्रा की। इस प्रकार भगवान
ने बलि से स्वर्ग का राज्य लेकर इन्द्र को दे दिया, अदिति की
कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत् का शासन करने लगे। जब
प्रह्लाद ने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धन से छूट गये और उन्हें भगवान
का कृपा-प्रसाद प्राप्त हो गया तो वे भक्ति-भाव से भर गये। उस समय उन्होंने भगवान
की इस प्रकार स्तुति की।
प्रह्लाद उवाच
नेमं विरिञ्चो लभते प्रसादं
न श्रीर्न शर्वः किमुतापरे ते ।
यन्नोऽसुराणामसि दुर्गपालो
विश्वाभिवन्द्यैरभिवन्दिताङ्घ्रिः ॥
६॥
यत्पादपद्ममकरन्दनिषेवणेन
ब्रह्मादयः शरणदाश्नुवते विभूतीः ।
कस्माद्वयं कुसृतयः खलयोनयस्ते
दाक्षिण्यदृष्टिपदवीं भवतः प्रणीताः
॥ ७॥
चित्रं तवेहितमहोऽमितयोगमाया-
लीलाविसृष्टभुवनस्य विशारदस्य ।
सर्वात्मनः समदृशोऽविषमः स्वभावो
भक्तप्रियो यदसि कल्पतरुस्वभावः ॥
८॥
प्रह्लाद जी ने कहा ;-
'प्रभो! यह कृपाप्रसाद तो कभी ब्रह्मा जी, लक्ष्मी
जी और शंकर जी को भी नहीं प्राप्त हुआ, तब दूसरों की तो बात
ही क्या है। अहो! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना करते रहते हैं,
वही आप हम असुरों के दुर्गपाल-किलेदार हो गये। शरणागतवत्सल प्रभो!
ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके चरणकमलों का मकरन्द-रस सेवन करने के कारण सृष्टि रचना की
शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हम लोग तो जन्म से ही खल और
कुमार्गगामी हैं, हम पर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे
हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये। आपने अपनी योगमाया
से खेल-ही-खेल में त्रिभुवन की रचना कर दी। आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा
और समदर्शी हैं। फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव
कल्प-वृक्ष के समान है; क्योंकि आप अपने भक्तों से अत्यन्त
प्रेम करते हैं। इसी से कभी-कभी उपासकों के प्रति पक्षपात और विमुखों के प्रति
निर्दयता भी आपमें देखी जाती है।'
श्रीभगवानुवाच
वत्स प्रह्लाद भद्रं ते प्रयाहि
सुतलालयम् ।
मोदमानः स्वपौत्रेण ज्ञातीनां
सुखमावह ॥ ९॥
नित्यं द्रष्टासि मां तत्र
गदापाणिमवस्थितम् ।
मद्दर्शनमहाह्लादध्वस्तकर्मनिबन्धनः
॥ १०॥
श्रीभगवान ने कहा ;-
'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोक में जाओ।
वहाँ अपने पौत्र बलि के साथ आनन्दपूर्वक रहो और जाति-बन्धुओं को सुखी करो। वहाँ
तुम मुझे नित्य ही गदा हाथ में लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शन के परमानन्द में मग्न
रहने के कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायेंगे।'
श्रीशुक उवाच
आज्ञां भगवतो राजन् प्रह्लादो बलिना
सह ।
बाढमित्यमलप्रज्ञो मूर्ध्न्याधाय
कृताञ्जलिः ॥ ११॥
परिक्रम्यादिपुरुषं सर्वासुरचमूपतिः
।
प्रणतस्तदनुज्ञातः प्रविवेश
महाबिलम् ॥ १२॥
अथाहोशनसं राजन्
हरिर्नारायणोऽन्तिके ।
आसीनमृत्विजां मध्ये सदसि
ब्रह्मवादिनाम् ॥ १३॥
ब्रह्मन् सन्तनु शिष्यस्य
कर्मच्छिद्रं वितन्वतः ।
यत्तत्कर्मसु वैषम्यं ब्रह्मदृष्टं
समं भवेत् ॥ १४॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! समस्त दैत्य सेना के स्वामी विशुद्ध बुद्धि प्रह्लाद जी
ने ‘जो आज्ञा’ कहकर, हाथ जोड़, भगवान का आदेश मस्तक पर चढ़ाया। फिर
उन्होंने बलि के साथ आदिपुरुष भगवान की परिक्रमा की, उन्हें
प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोक की यात्रा की।
परीक्षित! उस समय भगवान श्रीहरि ने
ब्रह्मवादी ऋत्विजों की सभा में अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्य जी से कहा- ‘ब्रह्मन्! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करने में जो कुछ भूल-चूक हो जाती है,
वह ब्राह्मणों की कृपा-दृष्टि से सुधर जाती है’।
शुक्र उवाच
कुतस्तत्कर्मवैषम्यं यस्य
कर्मेश्वरो भवान् ।
यज्ञेशो यज्ञपुरुषः सर्वभावेन
पूजितः ॥ १५॥
मन्त्रतस्तन्त्रतश्छिद्रं
देशकालार्हवस्तुतः ।
सर्वं करोति निश्छिद्रं नामसङ्कीर्तनं
तव ॥ १६॥
तथापि वदतो भूमन्
करिष्याम्यनुशासनम् ।
एतच्छ्रेयः परं पुंसां
यत्तवाज्ञानुपालनम् ॥ १७॥
शुक्राचार्य जी ने कहा- 'भगवन! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकार से यज्ञेश्वर
यज्ञपुरुष आपकी पूजा की है-उसके कर्म में कोई त्रुटि, कोई
विषमता कैसे रह सकती है? क्योंकि मन्त्रों की, अनुष्ठान-पद्धति की, देश, काल,
पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नाम संकीर्तन मात्र से सुधर जाती
है; आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है। तथापि
अनन्त! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा का अवश्य
पालन करूँगा। मनुष्य के लिये सबसे बड़ा कल्याण का साधन यही है कि वह आपकी आज्ञा का
पालन करे।'
श्रीशुक उवाच
अभिनन्द्य हरेराज्ञामुशना भगवानिति
।
यज्ञच्छिद्रं समाधत्त
बलेर्विप्रर्षिभिः सह ॥ १८॥
एवं बलेर्महीं राजन् भिक्षित्वा
वामनो हरिः ।
ददौ भ्रात्रे महेन्द्राय त्रिदिवं
यत्परैर्हृतम् ॥ १९॥
प्रजापतिपतिर्ब्रह्मा
देवर्षिपितृभूमिपैः ।
दक्षभृग्वङ्गिरोमुख्यैः कुमारेण
भवेन च ॥ २०॥
कश्यपस्यादितेः प्रीत्यै
सर्वभूतभवाय च ।
लोकानां लोकपालानामकरोद्वामनं पतिम्
॥ २१॥
वेदानां सर्वदेवानां धर्मस्य यशसः
श्रियः ।
मङ्गलानां व्रतानां च कल्पं
स्वर्गापवर्गयोः ॥ २२॥
उपेन्द्रं कल्पयाञ्चक्रे पतिं
सर्वविभूतये ।
तदा सर्वाणि भूतानि भृशं मुमुदिरे
नृप ॥ २३॥
ततस्त्विन्द्रः पुरस्कृत्य देवयानेन
वामनम् ।
लोकपालैर्दिवं निन्ये ब्रह्मणा
चानुमोदितः ॥ २४॥
प्राप्य त्रिभुवनं चेन्द्र
उपेन्द्रभुजपालितः ।
श्रिया परमया जुष्टो मुमुदे
गतसाध्वसः ॥ २५॥
ब्रह्मा शर्वः कुमारश्च भृग्वाद्या
मुनयो नृप ।
पितरः सर्वभूतानि सिद्धा
वैमानिकाश्च ये ॥ २६॥
सुमहत्कर्म तद्विष्णोर्गायन्तः
परमाद्भुतम् ।
धिष्ण्यानि स्वानि ते जग्मुरदितिं च
शशंसिरे ॥ २७॥
सर्वमेतन्मयाऽऽख्यातं भवतः कुलनन्दन
।
उरुक्रमस्य चरितं श्रोतॄणामघमोचनम्
॥ २८॥
पारं महिम्न उरुविक्रमतो गृणानो
यः पार्थिवानि विममे स रजांसि
मर्त्यः ।
किं जायमान उत जात उपैति मर्त्य
इत्याह मन्त्रदृगृषिः पुरुषस्य यस्य
॥ २९॥
य इदं देवदेवस्य हरेरद्भुतकर्मणः ।
अवतारानुचरितं शृण्वन् याति परां
गतिम् ॥ ३०॥
क्रियमाणे कर्मणीदं दैवे पित्र्येऽथ
मानुषे ।
यत्र यत्रानुकीर्त्येत तत्तेषां
सुकृतं विदुः ॥ ३१॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
भगवान शुक्राचार्य ने भगवान श्रीहरि की यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे
ब्रह्मर्षियों के साथ, बलि के यज्ञ में जो कमी रह गयी थी,
उसे पूर्ण किया।
परीक्षित! इस प्रकार वामन भगवान ने
बलि से पृथ्वी की भिक्षा माँगकर अपने बड़े भाई इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया,
जिसे उनके शत्रुओं ने छीन लिया था। इसके बाद प्रजापतियों के स्वामी
ब्रह्मा जी ने देवर्षि, पितर, मनु,
दक्ष, भृगु, अंगिरा,
सनत्कुमार और शंकर जी के साथ कश्यप एवं अदिति की प्रसन्नता के लिये
तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अभ्युदय के लिये समस्त लोक और लोकपालों के स्वामी के पद
पर वामन भगवान का अभिषेक कर दिया।
परीक्षित! वेद,
समस्त देवता, धर्म, यश,
लक्ष्मी, मंगल, व्रत,
स्वर्ग और अपवर्ग-सबके रक्षक के रूप में सबके परम कल्याण के लिये
सर्वशक्तिमान वामन भगवान को उन्होंने उपेन्द्र का पद दिया। उस समय सभी प्राणियों
को अत्यन्त आनन्द हुआ। इसके बाद ब्रह्मा जी की अनुमति से लोकपालों के साथ देवराज
इन्द्र ने वामन भगवान को सबसे आगे विमान पर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले
गये। इन्द्र को एक तो त्रिभुवन का राज्य मिल गया और दूसरे, वामन
भगवान के करकमलों की छत्रछाया। सर्वश्रेष्ठ ऐशवर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और
वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मनाने लगे। ब्रह्मा, शंकर,
सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और
विमानारोही देवगण भगवान के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्म का गान करते हुए
अपने-अपने लोक को चले गये और सबने अदिति की भी बड़ी प्रशंसा की।
परीक्षित! तुम्हें मैंने भगवान की
यह सब लीला सुनायी। इससे सुनने वालों के सारे पाप छूट जाते हैं। भगवान की लीलाएँ
अनन्त हैं, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य
उसका पार पाना चाहता है, वह मानो पृथ्वी के परमाणुओं को गिन
डालना चाहता है। भगवान के सम्बन्ध में मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठ ने वेदों में
कहा है कि ‘ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है
और न होगा जो भगवान की महिमा का पार पा सके’। देवताओं के
आराध्यदेव अद्भुत लीलाधारी वामन भगवान के अवतार चरित्र का जो श्रवण करता है,
उसे परमगति की प्राप्ति होती है। देवयज्ञ, पितृयज्ञ
और मनुष्य यज्ञ किसी भी कर्म का अनुष्ठान करते समय जहाँ-जहाँ भगवान की इस लीला का
कीर्तन होता है, वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह
बड़े-बड़े महात्माओं का अनुभव है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहिताया- मष्टमस्कन्धे वामनावतारचरिते त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥
जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्यायः
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