श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय ६
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय ६ "पूतना-उद्धार"
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं षष्ठ: अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय ६
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः ६
श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध छठवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय ६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः
पूर्वार्धं
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥
॥ षष्ठोऽध्यायः - ६ ॥
श्रीशुक उवाच
नन्दः पथि वचः शौरेर्न मृषेति विचिन्तयन्
।
हरिं जगाम शरणमुत्पातागमशङ्कितः ॥
१॥
कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी
।
शिशूंश्चचार निघ्नन्ती
पुरग्रामव्रजादिषु ॥ २॥
न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि
स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां
भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि ॥ ३॥
सा खेचर्येकदोपेत्य पूतना नन्दगोकुलम्
।
योषित्वा माययाऽऽत्मानं
प्राविशत्कामचारिणी ॥ ४॥
तां केशबन्धव्यतिषक्तमल्लिकां
बृहन्नितम्बस्तनकृच्छ्रमध्यमाम् ।
सुवाससं कम्पितकर्णभूषण-
त्विषोल्लसत्कुन्तलमण्डिताननाम् ॥
५॥
वल्गुस्मितापाङ्गविसर्गवीक्षितै-
र्मनो हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम् ।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणीं
गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां
पतिम् ॥ ६॥
बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया नन्दगृहेऽसदन्तकम् ।
बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि ॥ ७॥
विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहं
चराचरात्मा स निमीलितेक्षणः ।
अनन्तमारोपयदङ्कमन्तकं
यथोरगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः ॥ ८॥
तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां
वीक्ष्यान्तरा कोशपरिच्छदासिवत् ।
वरस्त्रियं तत्प्रभया च धर्षिते
निरीक्षमाणे जननी ह्यतिष्ठताम् ॥ ९॥
तस्मिन् स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं
घोराङ्कमादाय शिशोर्ददावथ ।
गाढं कराभ्यां भगवान् प्रपीड्य तत्
प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत् ॥
१०॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब
रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेव जी का कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मन
में उत्पात होने की आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान
की शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा
निश्चय किया।
पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी
थी। उसका एक ही काम था - बच्चों को मारना। कंस की आज्ञा से वह नगर,
ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चों को मारने के लिए घूमा करती
थी। जहाँ के लोग अपने प्रतिदिन के कामों में राक्षसों के भय को दूर भगाने वाले
भक्तवत्सल भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते, वहीं ऐसी राक्षसियों का
बल चलता है।
वह पूतना आकाशमार्ग से चल सकती थी
और अपनी इच्छा के अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबा के गोकुल के पास आकर
उसने माया से अपने को एक सुन्दर युवती बना लिया और गोकुल के भीतर घुस गयी। उसने
बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियों में बेले के फूल गुँथे हुए थे। सुन्दर
वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब
उनकी चमक से मुख की ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और
कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी। वह अपनी मधुर मुस्कान और कटाक्षपूर्ण चितवन
से ब्रजवासियों का चित्त चुरा रही थी।
उस रूपवती रमणी को हाथ में कमल लेकर
आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो
स्वयं लक्ष्मी जी अपने पति का दर्शन करने के लिए आ रही हैं। पूतना बालकों के लिए
ग्रह के समान थी। वह इधर-उधर बालकों को ढूंढती हुई अनायास ही नन्दबाबा के घर में
घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं। परन्तु जैसे आग
राख की ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय
उन्होंने अपने प्रचण्ड तेज को छिपा रखा था।
भगवान श्रीकृष्ण चर-अचर सभी
प्राणियों की आत्मा हैं। इसलिए उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चों को मार
डालने वाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये
हुए साँप को रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने
कालरूप भगवान श्रीकृष्ण को पूतना ने अपनी गोद में उठा लिया। मखमली म्यान के भीतर
छिपी हुई तीखी धारवाली तलवार के समान पूतना का हृदय तो बड़ा कुटिल था, किन्तु ऊपर से वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखने में वह एक
भद्र महिला के समान जान पड़ती थी। इसलिये रोहिणी और यशोदा जी ने उसे घर के भीतर
आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभा से हतप्रभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखतीं रहीं। इधर भयानक राक्षसी पूतना ने बालक श्रीकृष्ण
को अपनी गोद में लेकर उनके मुँह में अपना स्तन दे दिया, जिसमें
बड़ा भयंकर और किसी प्रकार भी पच न सकने वाला विष लगा हुआ था। भगवान ने क्रोध को
अपना साथी बनाया और दोनों हाथों से उसके स्तनों को जोर से दबाकर उसके प्राणों के
साथ उसका दूध पीने लगे।
सा मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी
निष्पीड्यमानाखिलजीवमर्मणि ।
विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुः
प्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह ॥
११॥
तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा
साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल सग्रहा ।
रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः
पेतुः क्षितौ वज्रनिपातशङ्कया ॥ १२॥
निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसु-
र्व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि ।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप ॥ १३॥
पतमानोऽपि
तद्देहस्त्रिगव्यूत्यन्तरद्रुमान् ।
चूर्णयामास राजेन्द्र
महदासीत्तदद्भुतम् ॥ १४॥
ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं
गिरिकन्दरनासिकम् ।
गण्डशैलस्तनं रौद्रं
प्रकीर्णारुणमूर्धजम् ॥ १५॥
अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम् ।
बद्धसेतुभुजोर्वङ्घ्रिशून्यतोयह्रदोदरम्
॥ १६॥
सन्तत्रसुः स्म तद्वीक्ष्य गोपा
गोप्यः कलेवरम् ।
पूर्वं तु
तन्निःस्वनितभिन्नहृत्कर्णमस्तकाः ॥ १७॥
बालं च तस्या उरसि
क्रीडन्तमकुतोभयम् ।
गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य
जगृहुर्जातसम्भ्रमाः ॥ १८॥
यशोदारोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य
सर्वतः ।
रक्षां विदधिरे
सम्यग्गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥ १९॥
गोमूत्रेण स्नापयित्वा
पुनर्गोरजसार्भकम् ।
रक्षां चक्रुश्च शकृता
द्वादशाङ्गेषु नामभिः ॥ २०॥
गोप्यः संस्पृष्टसलिला अङ्गेषु
करयोः पृथक् ।
न्यस्यात्मन्यथ बालस्य
बीजन्यासमकुर्वत ॥ २१॥
अब तो पूतना के प्राणों के आश्रयभूत
सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी- ‘अरे
छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर।’ वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटक कर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये।
उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया। उसकी चिल्लाहट का वेग बड़ा भयंकर था। उसके
प्रभाव से पहाड़ों के साथ पृथ्वी और ग्रहों के साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों
पाताल और दिशाऐं गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपात की आशंका से पृथ्वी पर गिर पड़े।
परीक्षित! इस प्रकार निशाचरी पूतना के स्तनों में इतनी पीड़ा हुई कि वह अपने को
छिपा न सकी, राक्षसी रूप में प्रकट हो गयी। उसके शरीर से
प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर
गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्र के वज्र से घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था,
वैसे ही वह बाहर गोष्ठ में आकर गिर पड़ी।
राजेन्द्र! पूतना के शरीर ने
गिरते-गिरते भी छः कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना
हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका
मुँह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफ़ा के
समान गहरे थे और स्तन पहाड़ से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल
बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आँखें अंधे कुएँ के समान गहरी, नितम्ब
नदी के करार की तरह भयंकर; भुजायें, जाँघें
और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भाँति जान पड़ता था। पूतना
के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर
उनके हृदय, कान और सर तो पहले ही फट से रहे थे। जब गोपियों
ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं, तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्ण
को उठा लिया।
इसके बाद यशोदा और रोहिणी के साथ
गोपियों ने गाय की पूँछ घुमाने आदि उपायों से बालक श्रीकृष्ण के अंगों को सब
प्रकार से रक्षा की। उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्ण को गोमूत्र से स्नान कराया,
फिर सब अंगों में गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगों में गोबर लगाकर
भगवान के केशव आदि नामों से रक्षा की। इसके बाद गोपियों ने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रों से अपने शरीर में
अलग-अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालक के अंगों में बीजन्यास किया।
अव्यादजोऽङ्घ्रिमणिमांस्तव
जान्वथोरू
यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः ।
हृत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठं
विष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वरः
कम् ॥ २२॥
चक्र्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्
त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाजनश्च
।
कोणेषु शङ्ख उरुगाय उपर्युपेन्द्र-
स्तार्क्ष्यः क्षितौ हलधरः पुरुषः
समन्तात् ॥ २३॥
इन्द्रियाणि हृषीकेशः प्राणान्
नारायणोऽवतु ।
श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो
योगेश्वरोऽवतु ॥ २४॥
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिमात्मानं
भगवान् परः ।
क्रीडन्तं पातु गोविन्दः शयानं पातु
माधवः ॥ २५॥
व्रजन्तमव्याद्वैकुण्ठ आसीनं त्वां
श्रियःपतिः ।
भुञ्जानं यज्ञभुक्पातु
सर्वग्रहभयङ्करः ॥ २६॥
डाकिन्यो यातुधान्यश्च कूष्माण्डा
येऽर्भकग्रहाः ।
भूतप्रेतपिशाचाश्च
यक्षरक्षोविनायकाः ॥ २७॥
कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना
मातृकादयः ।
उन्मादा ये ह्यपस्मारा
देहप्राणेन्द्रियद्रुहः ॥ २८॥
स्वप्नदृष्टा महोत्पाता
वृद्धबालग्रहाश्च ये ।
सर्वे नश्यन्तु ते
विष्णोर्नामग्रहणभीरवः ॥ २९॥
वे कहने लगीं- ‘अजन्मा भगवान तेरे पैरों की रक्षा करें, मणिमान
घुटनों की, यज्ञपुरुष जाँघों की, अच्युत
कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव हृदय की,
ईश वक्षःस्थल की, सूर्य कन्ठ की, विष्णु बाँहों की, उरुक्रम मुख की और ईश्वर सिर की
रक्षा करें। चक्रधर भगवान रक्षा के लिए तेरे आगे रहें, गदाधारी
श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करने वाले भगवान
मधुसूदन और अजन दोनों बगल में, शंखधारी उरुगाय चारों कोनों
में, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वी पर और
भगवान परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षा के लिये रहें। हृषिकेश भगवान इन्द्रियों की और
नारायण प्राणों की रक्षा करें। श्वेतद्वीप के अधिपति चित्त की और योगेश्वर मन की
रक्षा करें।
पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की और
परमात्मा भगवान तेरे अहंकार की रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें,
सोते समय माधव रक्षा करें। चलते समय श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजन
के समय समस्त ग्रहों को भयभीत करने वाले यज्ञभोक्ता भगवान तेरी रक्षा करें। डाकिनी,
राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत,
प्रेत, पिशाच, यक्ष,
राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना,
मातृका आदि; शरीर, प्राण
तथा इन्द्रियों का नाश करने वाले उन्माद एवं अपस्मार आदि रोग; स्वप्न में देखे हुए महान उत्पात, वृद्धग्रह और
बालग्रह आदि - ये सभी अनिष्ट विष्णु का नामोच्चारण करने से भयभीत होकर नष्ट हो
जायँ।
श्रीशुक उवाच
इति प्रणयबद्धाभिर्गोपीभिः
कृतरक्षणम् ।
पाययित्वा स्तनं माता
सन्न्यवेशयदात्मजम् ॥ ३०॥
तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया व्रजं
गताः ।
विलोक्य पूतनादेहं
बभूवुरतिविस्मिताः ॥ ३१॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! इस प्रकार गोपियों ने प्रेमपाश में बँधकर भगवान श्रीकृष्ण
की रक्षा की। माता यशोदा ने अपने पुत्र को स्तन पिलाया और फिर पालने पर सुला दिया।
इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरा से गोकुल में पहुँचे। जब उन्होंने पूतना
का भयंकर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये।
नूनं बतर्षिः सञ्जातो योगेशो वा
समास सः ।
स एव दृष्टो ह्युत्पातो
यदाहानकदुन्दुभिः ॥ ३२॥
कलेवरं परशुभिश्छित्त्वा तत्ते
व्रजौकसः ।
दूरे क्षिप्त्वावयवशो न्यदहन्
काष्ठधिष्टितम् ॥ ३३॥
दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः
।
उत्थितः
कृष्णनिर्भुक्तसपद्याहतपाप्मनः ॥ ३४॥
पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना
।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाऽऽप
सद्गतिम् ॥ ३५॥
किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय
परमात्मने ।
यच्छन् प्रियतमं किं नु
रक्तास्तन्मातरो यथा ॥ ३६॥
पद्भ्यां भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां
लोकवन्दितैः ।
अङ्गं यस्याः समाक्रम्य
भगवानपिबत्स्तनम् ॥ ३७॥
यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप
जननीगतिम् ।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावो नु
मातरः ॥ ३८॥
पयांसि
यासामपिबत्पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम् ।
भगवान् देवकीपुत्रः
कैवल्याद्यखिलप्रदः ॥ ३९॥
तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां
सुतेक्षणम् ।
न पुनः कल्पते राजन्
संसारोऽज्ञानसम्भवः ॥ ४०॥
वे कहने लगे ;-
‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्य ही
वसुदेव के रूप में किसी ऋषि ने जन्म ग्रहण किया है। अथवा सम्भव है वसुदेव जी
पूर्वजन्म में कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा
कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखने में आ रहा है। तब तक
ब्रजवासियों ने कुल्हाड़ी से पूतना के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुल से
दूर ले जाकर लकड़ियों पर रखकर जला दिया। जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमें से ऐसा धुँआ निकला, जिसमें से अगर की-सी
सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान ने जो उसका दूध पी लिया
था, जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे। पूतना एक
राक्षसी थी। लोगों के बच्चों को मार डालना और उनका खून पी जाना, यही उसका काम था। भगवान को भी उसने मार डालने की इच्छा से ही स्तन पिलाया
था। फिर भी उसे वह परम गति मिली, जो सत्पुरुषों को मिलती है।
ऐसी स्थिति में जो परब्रह्म
परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को श्रद्धा और भक्ति से माता के समान अनुराग पूर्वक अपनी
प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगने वाली वस्तु समर्पित करते हैं उनके
सम्बन्ध में तो कहना ही क्या। भगवान के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा,
शंकर आदि देवताओं के द्वारा भी वन्दित हैं। वे भक्तों के हृदय की
पूँजी हैं। उन्हीं चरणों से भगवान ने पूतना का शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था।
माना कि वह राक्षसी थी, परंतु उसे उत्तम-से-उत्तम गति जो
माता को मिलनी चाहिए, प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तन का दूध
भगवान ने बड़े प्रेम से पिया, उन गौओं और माताओं की बात ही
क्या है।
परीक्षित! देवकीनन्दन भगवान कैवल्य
आदि सब प्रकार की मुक्ति और सब कुछ देने वाले हैं। उन्होंने ब्रज की गोपियों और
गौओं का वह दूध, जो भगवान के प्रति पुत्र-भाव
होने से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया। राजन! वे गौएँ और गोपियाँ, जो
नित्य-निरन्तर भगवान श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के ही रूप में देखतीं थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में कभी नहीं पड़ सकतीं, क्योंकि यह संसार तो अज्ञान के कारण ही है।
कटधूमस्य सौरभ्यमवघ्राय व्रजौकसः ।
किमिदं कुत एवेति वदन्तो व्रजमाययुः
॥ ४१॥
ते तत्र वर्णितं गोपैः
पूतनाऽऽगमनादिकम् ।
श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति
शिशोश्चासन् सुविस्मिताः ॥ ४२॥
नन्दः स्वपुत्रमादाय
प्रेत्यागतमुदारधीः ।
मूर्ध्न्युपाघ्राय परमां मुदं लेभे
कुरूद्वह ॥ ४३॥
य एतत्पूतनामोक्षं
कृष्णस्यार्भकमद्भुतम् ।
शृणुयाच्छ्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे
लभते रतिम् ॥ ४४॥
नन्दबाबा के साथ आने वाले
ब्रजवासियों की नाक में जब चिता के धुएँ की सुगन्ध पहुँची,
तब ‘यह क्या है? कहाँ से
ऐसी सुगन्ध आ रही है?’ इस प्रकार कहते हुए वे ब्रज में
पहुँचे। वहाँ गोपों ने उन्हें पूतना के आने से लेकर, मरने तक
का सारा वृतान्त कह सुनाया। वे लोग पूतना की मृत्यु और श्रीकृष्ण के कुशलपूर्वक बच
जाने की बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए। परीक्षित! उदारशिरोमणि नन्दबाबा ने
मृत्यु के मुख से बचे हुए अपने लाला को गोद में उठा लिया और बार-बार उसका सर
सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए।
यह ‘पूतना-मोक्ष’ भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीला है। जो
मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे भगवान
श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्राप्त होता है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायान्दश्मस्कन्धे पूर्वार्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 7
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