श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २ "भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय २

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं द्वितीय: अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २                                                                           

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः२

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध दूसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय २ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ द्वितीयोऽध्यायः - २ ॥

श्रीशुक उवाच

प्रलम्बबकचाणूरतृणावर्तमहाशनैः ।

मुष्टिकारिष्टद्विविदपूतनाकेशिधेनुकैः ॥ १॥

अन्यैश्चासुरभूपालैर्बाणभौमादिभिर्युतः ।

यदूनां कदनं चक्रे बली मागधसंश्रयः ॥ २॥

ते पीडिता निविविशुः कुरुपञ्चालकेकयान् ।

शाल्वान् विदर्भान्निषधान् विदेहान् कोसलानपि ॥ ३॥

एके तमनुरुन्धाना ज्ञातयः पर्युपासते ।

हतेषु षट्सु बालेषु देवक्या औग्रसेनिना ॥ ४॥

सप्तमो वैष्णवं धाम यमनन्तं प्रचक्षते ।

गर्भो बभूव देवक्या हर्षशोकविवर्धनः ॥ ५॥

भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।

यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ॥ ६॥

गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कृतम् ।

रोहिणी वसुदेवस्य भार्याऽऽस्ते नन्दगोकुले ।

अन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥ ७॥

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।

तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ॥ ८॥

अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभे ।

प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ॥ ९॥

अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम् ।

धूपोपहारबलिभिः सर्वकामवरप्रदाम् ॥ १०॥

नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुवि ।

दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ॥ ११॥

कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च ।

माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ॥ १२॥

गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि ।

रामेति लोकरमणाद्बलं बलवदुच्छ्रयात् ॥ १३॥

सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः ।

प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ॥ १४॥

गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्रया ।

अहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ॥ १५॥

भगवानपि विश्वात्मा भक्तानामभयङ्करः ।

आविवेशांशभागेन मन आनकदुन्दुभेः ॥ १६॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कंस एक तो स्वयं ही बड़ा बली था और दूसरे मगध नरेश जरासन्ध की उसे बहुत बड़ी सहायता प्राप्त थी। तीसरे उसके साथ थे - प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, बाणासुर और भौमासुर आदि बहुत से दैत्य राजा उसके सहायक थे। उनको साथ लेकर वह यदुवंशियों को नष्ट करने लगा।

वे लोग भयभीत होकर कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, ,निषध, विदेह और कोसल आदि देशों में जा बसे। कुछ लोग ऊपर-ऊपर से उसके मन के अनुसार काम करते हुए उसकी सेवा में लगे रहे। जब कंस ने एक-एक करके देवकी के छः बालक मार डाले, तब देवकी के सातवें गर्भ में भगवान के अंशस्वरूप श्रीशेष जी, जिन्हें अनंत कहते हैं, पधारे। आनन्दस्वरूप शेष जी के गर्भ में आने के कारण देवकी को स्वाभाविक ही हर्ष हुआ। परन्तु कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भय से उनका शोक भी बढ़ गया ।

विश्वात्मा भगवान ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाले यदुवंशी कंस के द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को यह आदेश दिया - 'देवि ! कल्याणी ! तुम ब्रज में जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओं से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती है। उसकी और भी पत्नियाँ कंस से डरकर गुप्त स्थानों में रह रहीं हैं। इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकी के उदर में गर्भ रूप से स्थित है। उसे वहाँ से निकालकर तुम रोहिणी के पेट में रख दो, कल्याणी! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। तुम लोगों को मुँह माँगे वरदान देने में समर्थ होओगी। मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे। पृथ्वी में लोग तुम्हारे लिए बहुत से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत से नामों से पुकारेंगे। देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में संकर्षणकहेंगे, लोकरंजन करने के कारण रामकहेंगे और बलवानों में श्रेष्ठ होने कारण बलभद्रभी कहेंगे।'

जब भगवान ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमाया ने जो आज्ञा’, ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोक में चली आयीं तथा भगवान ने जैसा कहा था वैसे ही किया। जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःख के साथ आपस में कहने लगे ;- 'हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।'

भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये।

स बिभ्रत्पौरुषं धाम भ्राजमानो यथा रविः ।

दुरासदोऽतिदुर्धर्षो भूतानां सम्बभूव ह ॥ १७॥

ततो जगन्मङ्गलमच्युतांशं

समाहितं शूरसुतेन देवी ।

दधार सर्वात्मकमात्मभूतं

काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः ॥ १८॥

सा देवकी सर्वजगन्निवास-

निवासभूता नितरां न रेजे ।

भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा

सरस्वती ज्ञानखले यथा सती ॥ १९॥

तां वीक्ष्य कंसः प्रभयाजितान्तरां

विरोचयन्तीं भवनं शुचिस्मिताम् ।

आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां

ध्रुवं श्रितो यन्न पुरेयमीदृशी ॥ २०॥

किमद्य तस्मिन् करणीयमाशु मे

यदर्थतन्त्रो न विहन्ति विक्रमम् ।

स्त्रियाः स्वसुर्गुरुमत्या वधोऽयं

यशः श्रियं हन्त्यनुकालमायुः ॥ २१॥

स एष जीवन् खलु सम्परेतो

वर्तेत योऽत्यन्तनृशंसितेन ।

देहे मृते तं मनुजाः शपन्ति

गन्ता तमोऽन्धं तनुमानिनो ध्रुवम् ॥ २२॥

इति घोरतमाद्भावात्सन्निवृत्तः स्वयं प्रभुः ।

आस्ते प्रतीक्षंस्तज्जन्म हरेर्वैरानुबन्धकृत् ॥ २३॥

आसीनः संविशंस्तिष्ठन् भुञ्जानः पर्यटन्महीम् ।

चिन्तयानो हृषीकेशमपश्यत्तन्मयं जगत् ॥ २४॥

ब्रह्मा भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः ।

देवैः सानुचरैः साकं गीर्भिर्वृषणमैडयन् ॥ २५॥

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं

सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये ।

सत्यस्य सत्यमतसत्यनेत्रं

सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥ २६॥

उसमें विद्यमान रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया। भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेव सूर्य के सामान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधियां जातीं। कोई भी अपने बल, वाणी प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था। भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को, जो जगत का परम मंगल करने वाला है, वसुदेव जी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व से संपन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया। भगवान सारे जगत के निवास स्थान हैं। देवकी उनका भी निवास स्थान बन गयी। परन्तु घड़े आदि के भीतर बंद किये हुए दीपक का और अपनी विद्या दूसरे को न देने वाले ज्ञानखल की श्रेष्ठ विद्या का प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंस के कारागार में बंद देवकी की भी उतनी शोभा नहीं हुई। देवकी के गर्भ में भगवान विराजमान हो गये थे। उसके मुख पर पवित्र मुस्कान थी और उसके शरीर की कान्ति से बंदीगृह जगमगाने लगा था।

जब कंस ने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा - अबकी बार मेरे प्राणों के ग्राहक विष्णु ने इसके गर्भ में अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि इससे पहले देवकी कभी ऐसी न थी। अब इस विषय में शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना चाहिए? देवकी को मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रम को कलंकित नहीं करते। एक तो यह स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है। इसको मारने से तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायेगी। वह मनुष्य तो जीवित रहने पर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यंत क्रूरता का व्यवहार करता है। उसकी मृत्यु के बाद लोग उसे गाली देते हैं। इतना ही नही, वह देहाभिमानियों के योग्य घोर नरक में भी अवश्य जाता है। यद्यपि कंस देवकी को मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरता के विचार से निवृत हो गया अब भगवान के प्रति दृढ़ वैर का भाव मन में गाँठकर उनके जन्म की प्रतीक्षा करने लगा। वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते-सर्वदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लगा रहता। जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा।

परीक्षित ! भगवान शंकर और ब्रह्मा जी कंस के क़ैदखाने में आये। उनके साथ नारद आदि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे - 'प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात और संसार की स्थिति के समय - इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत के परमार्थस्वरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं। भगवन! आप बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं।

एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूल-

श्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा ।

सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो

दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः ॥ २७॥

त्वमेक एवास्य सतः प्रसूति-

स्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च ।

त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां

पश्यन्ति नाना न विपश्चितो ये ॥ २८॥

बिभर्षि रूपाण्यवबोध आत्मा

क्षेमाय लोकस्य चराचरस्य ।

सत्त्वोपपन्नानि सुखावहानि

सतामभद्राणि मुहुः खलानाम् ॥ २९॥

त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि

समाधिनाऽऽवेशितचेतसैके ।

त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन

कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम् ॥ ३०॥

स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्

भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः ।

भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते

निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥ ३१॥

येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन-

स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः ।

आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः

पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ॥ ३२॥

तथा न ते माधव तावकाः क्वचि-

द्भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः ।

त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया

विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ॥ ३३॥

यह संसार क्या है-

एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है - प्रकृति।

इसके दो फल हैं - सुख और दुःख;

तीन जड़ें हैं - सत्त्व, रज और तम;

चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।

इसके जानने के पाँच प्रकार हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका।

इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना ।

इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ - रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।

आठ शाखाएँ हैं - पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार।

इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं।

प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय - ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं।

इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर।

इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है - वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं। आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं। चराचर जगत के कल्याण के लिए ही अनेकों रूप धारण करते हैं। आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषों को बहुत सुख देते हैं। साथ ही दुष्टों को उनकी दुष्टता का दण्ड भी देते हैं। उनके लिए अमंगलमय भी होते हैं। कमल के सामान कोमल अनुग्रह भरे नेत्रों वाले प्रभो ! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रयस्वरूप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमल रूपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसार सागर को बछड़े के खुर के गड्ढे के समान अनायास ही पार कर जाते हैं। क्यों न हो, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसार-सागर को पार जो किया है।

परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन! आपके भक्तजन सारे जगत के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसार सागर को पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिए भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं। कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। परन्तु भगवन! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन मार्ग से गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं।

सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान् स्थितौ

शरीरिणां श्रेय उपायनं वपुः ।

वेदक्रियायोगतपःसमाधिभि-

स्तवार्हणं येन जनः समीहते ॥ ३४॥

सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवे-

द्विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम् ।

गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान्

प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः ॥ ३५॥

न नामरूपे गुणजन्मकर्मभि-

र्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः ।

मनो वचोभ्यामनुमेयवर्त्मनो

देव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ॥ ३६॥

श‍ृण्वन् गृणन् संस्मरयंश्च चिन्तय-

न्नामानि रूपाणि च मङ्गलानि ते ।

क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयो-

राविष्टचेता न भवाय कल्पते ॥ ३७॥

दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो

भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः ।

दिष्ट्याङ्कितां त्वत्पदकैः सुशोभनै-

र्द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ॥ ३८॥

न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं

विना विनोदं बत तर्कयामहे ।

भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया

कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयात्मनि ॥ ३९॥

मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस-

राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः ।

त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेश

भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥ ४०॥

दिष्ट्याम्ब ते कुक्षिगतः परः पुमा-

नंशेन साक्षाद्भगवान् भवाय नः ।

माभूद्भयं भोजपतेर्मुमूर्षो-

र्गोप्ता यदूनां भविता तवात्मजः ॥ ४१॥

आप संसार की स्थिति के लिये समस्त देहधारियों को परम कल्याण प्रदान करने वाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय, परम दिव्य मंगल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूप के प्रकट होने से ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टांगयोग, तपस्या और समाधि के द्वारा आपकी आराधना करेंगे? प्रभो! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो, तो अज्ञान और उसके द्वारा होने वाले भेदभाव को नष्ट करने वाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसी को न हो। जगत में दिखने वाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परन्तु इन गुणों की प्रकाशक वृत्तियों से आपके स्वरूप का केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता। भगवन! मन और वेद-वाणी के द्वारा केवल आपके स्वरूप का अनुमान मात्र होता है। क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिए आपके गुण, जन्म और कर्म आदि के द्वारा आपके नाम और रूप का निरूपण नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रभो! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगों के द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं।

जो पुरुष आपके मंगलमय नामों और रूपों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलों की सेवा में ही अपना चित्त लगाये रहता है - उसे फिर जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्र में नहीं आना पड़ता है। सम्पूर्ण दुःखों को हरने वाले भगवन आप सर्वेश्वर हैं। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतार से इसका भार दूर हो गया। धन्य हैं! प्रभो! हमारे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हम लोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नों से युक्त चरणकमलों के द्वारा विभूषित पृथ्वी को देखेंगे और स्वर्गलोक को भी आपकी कृपा से कृतार्थ देखेंगे।

प्रभो! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्म के कारण के सम्बन्ध में हम कोई तर्क न करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका लीला-विनोद है। ऐसा कहने का कारण यह है कि आप तो द्वैत के लेश से रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञान के द्वारा आप में आरोपित हैं। प्रभो! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हम लोगों की और तीनों लोकों की रक्षा की है - वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण कीजिये। यदुनन्दन! हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं। देवकीजी को संबोधित करके - 'माताजी! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपकी कोख में हम सबका कल्याण करने के लिये स्वयं भगवान पुरुषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ पधारे हैं। अब आप कंस से तनिक भी मत डरिये। अब तो वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। आपका पुत्र यदुवंश की रक्षा करेगा।'

श्रीशुक उवाच

इत्यभिष्टूय पुरुषं यद्रूपमनिदं यथा ।

ब्रह्मेशानौ पुरोधाय देवाः प्रतिययुर्दिवम् ॥ ४२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ब्रह्मादि देवताओं ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की। उनका रूप यह हैइस प्रकार निश्चित रूप से तो कहा नहीं जा सकता, सब अपनी-अपनी मति के अनुसार उनका निरूपण करते हैं। इसके बाद ब्रह्मा जी और शंकर जी को आगे करके देवगण स्वर्ग में चले गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गर्भगतविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 3  

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