श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १६
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय १६ "वन्दीजन द्वारा महाराज पृथु की स्तुति"
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षोडश अध्यायः
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय १६
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४
अध्यायः १६
श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध सोलहवाँ
अध्याय
चतुर्थ
स्कन्ध: श्रीमद्भागवत महापुराण
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४
अध्याय १६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
मैत्रेय उवाच -
(अनुष्टुप्)
इति ब्रुवाणं नृपतिं गायका मुनिचोदिताः
।
तुष्टुवुस्तुष्टमनसः तद् वाग्
अमृतसेवया ॥ १ ॥
नालं वयं ते महिमानुवर्णने
यो देववर्योऽवततार मायया ।
वेनाङ्गजातस्य च पौरुषाणि ते
वाचस्पतीनामपि बभ्रमुर्धियः ॥ २ ॥
अथाप्युदारश्रवसः पृथोर्हरेः
कलावतारस्य कथामृतादृताः ।
यथोपदेशं मुनिभिः प्रचोदिताः
श्लाघ्यानि कर्माणि वयं वितन्महि ॥ ३ ॥
(अनुष्टुप्)
एष धर्मभृतां श्रेष्ठो लोकं
धर्मेऽनुवर्तयन् ।
गोप्ता च धर्मसेतूनां शास्ता
तत्परिपन्थिनाम् ॥ ४ ॥
एष वै लोकपालानां बिभर्त्येकस्तनौ
तनूः ।
काले काले यथाभागं लोकयोः
उभयोर्हितम् ॥ ५ ॥
वसु काल उपादत्ते काले चायं
विमुञ्चति ।
समः सर्वेषु भूतेषु प्रतपन्
सूर्यवद्विभुः ॥ ॥ ६ ॥
तितिक्षत्यक्रमं वैन्य
उपर्याक्रमतामपि ।
भूतानां करुणः शश्वद् आर्तानां
क्षितिवृत्तिमान् ॥ ७ ॥
देवेऽवर्षत्यसौ देवो नरदेववपुर्हरिः
।
कृच्छ्रप्राणाः प्रजा ह्येष
रक्षिष्यति अञ्जसेन्द्रवत् ॥ ८ ॥
आप्याययत्यसौ लोकं वदनामृतमूर्तिना
।
सानुरागावलोकेन विशदस्मितचारुणा ॥ ९
॥
अव्यक्तवर्त्मैष निगूढकार्यो
गम्भीरवेधा उपगुप्तवित्तः ।
अनन्तमाहात्म्यगुणैकधामा
पृथुः प्रचेता इव संवृतात्मा ॥ १० ॥
(अनुष्टुप्)
दुरासदो दुर्विषह आसन्नोऽपि
विदूरवत् ।
नैवाभिभवितुं शक्यो
वेनारण्युत्थितोऽनलः ॥ ११ ॥
अन्तर्बहिश्च भूतानां पश्यन्
कर्माणि चारणैः ।
उदासीन इवाध्यक्षो वायुरात्मेव
देहिनाम् ॥ १२ ॥
नादण्ड्यं दण्डयत्येष
सुतमात्मद्विषामपि ।
दण्डयत्यात्मजमपि दण्ड्यं धर्मपथे
स्थितः ॥ १३ ॥
अस्याप्रतिहतं चक्रं
पृथोरामानसाचलात् ।
वर्तते भगवानर्को यावत्तपति गोगणैः
॥ १४ ॥
रञ्जयिष्यति यल्लोकं अयं
आत्मविचेष्टितैः ।
अथ अमुं आहू राजानं मनोरञ्जनकैः
प्रजाः ॥ १५ ॥
दृढव्रतः सत्यसन्धो ब्रह्मण्यो
वृद्धसेवकः ।
शरण्यः सर्वभूतानां मानदो दीनवत्सलः
॥ १६ ॥
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;-
महाराज पृथु ने जब इस प्रकार कहा, तब उनके
वचनामृत का आस्वादन करके सूत आदि गायक लोग बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे मुनियों की
प्रेरणा से उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे। ‘आप साक्षात्
देवप्रवर श्रीनारायण ही हैं’, जो अपनी माया से अवतीर्ण हुए
हैं; हम आपकी महिमा का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। आपने
जन्म तो राजा वेन के मृतक शरीर से लिया है, किन्तु आपके
पौरुषों का वर्णन करने में साक्षात् ब्रह्मादि की बुद्धि भी चकरा जाती है। तथापि
आपके कथामृत के आस्वादन में आदर-बुद्धि रखकर मुनियों के उपदेश के अनुसार उन्हीं की
प्रेरणा से हम आपके परम प्रशंसनीय कर्मों का कुछ विस्तार करना चाहते हैं, आप साक्षात् श्रीहरि के कलावतार हैं और आपकी कीर्ति बड़ी उदार है।
‘ये धर्मधारियों में श्रेष्ठ
महाराज पृथु लोक को धर्म में प्रवृत्त करके धर्ममर्यादा की रक्षा करेंगे तथा उसके
विरोधियों को दण्ड देंगे। ये अकेले ही समय-समय पर प्रजा के पालन, पोषण और अनुरंजन आदि कार्य के अनुसार अपने शरीर में भिन्न-भिन्न लोकपालों
की मूर्ति को धारण करेंगे तथा यज्ञ आदि के प्रचार द्वरा स्वर्गलोक और वृष्ठि की
व्यवस्था द्वारा भूलोक- दोनों का ही हित साधन करेंगे। ये सूर्य के समान अलौकिक,
महिमान्वित, प्रतापवान् और समदर्शी होंगे। जिस
प्रकार सूर्य देवता आठ महीने तपते रहकर जल खींचते हैं और वर्षा-ऋतु में उसे उड़ेल
देते हैं, उसी प्रकार ये कर आदि के द्वारा कभी धन-संचय
करेंगे और कभी उसका प्रजा के हित के लिये व्यय कर डालेंगे। ये बड़े दयालु होंगे।
यदि कभी कोई दीनपुरुष इनके मस्तक पर पैर भी रख देगा, तो भी
ये पृथ्वी के समान उसके इस अनुचित व्यवहार को सदा सहन करेंगे।
कभी वर्षा न होगी और प्रजा के प्राण
संकट में पड़ जायेंगे, तो ये राजवेषधारी
श्रीहरि इन्द्र की भाँति जल बरसाकर अनायास ही उसकी रक्षा कर लेंगे। ये अपने अमृतमय
मुखचन्द्र की मनोहर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से सम्पूर्ण लोकों को आनन्दमग्न कर
देंगे। इनकी गति को कोई समझ न सकेगा, इनके कार्य भी गुप्त
होंगे तथा उन्हें सम्पन्न करने का ढंग भी बहुत गम्भीर होगा। इनका धन सदा सुरक्षित
रहेगा। ये अनन्त माहात्म्य और गुणों के एकमात्र आश्रय होंगे। इस प्रकार मनस्वी
पृथु साक्षात् वरुण के ही समान होंगे।
‘महाराज पृथु वेनरूप अरणि के
मन्थन से प्रकट हुए अग्नि के समान हैं। शत्रुओं के लिये ये अत्यन्त दुर्धर्ष और
दुःसह होंगे। ये उनके समीप रहने पर भी, सेनादि से सुरक्षित
रहने के कारण, बहुत दूर रहने वाले-से होंगे। शत्रु कभी
इन्हें हरा न सकेंगे। जिस प्रकार प्राणियों के भीतर रहने वाला प्राणरूप सूत्रात्मा
शरीर के भीतर-बाहर के समस्त व्यापारों को देखते रहने पर भी उदासीन रहता है,
उसी प्रकार ये गुप्तचरों के द्वारा प्राणियों के गुप्त और प्रकट सभी
प्रकार के व्यापार देखते हुए भी अपनी निन्दा और स्तुति आदि के प्रति उदासीनवत्
रहेंगे। ये धर्ममार्ग में स्थित रहकर अपने शत्रु के पुत्र को भी, दण्डनीय न होने पर, कोई न दण्ड ने देंगे और दण्डनीय
होने पर तो अपने पुत्र को भी दण्ड देंगे। भगवान् सूर्य मानसोत्तर पर्वत तक जितने
प्रदेश को अपनी किरणों से प्रकाशित करते हैं, उस सम्पूर्ण
क्षेत्र में इनका निष्कण्टक राज्य रहेगा। ये अपने कार्यों से सब लोकों को सुख
पहुँचावेंगे- उनका रंजन करेंगे; इससे उन मनोरंजनात्मक
व्यापारों के कारण प्रजा इन्हें ‘राजा’ कहेगी। ये बड़े दृशसंकल्प, सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मण भक्त, वृद्धों की सेवा करने वाले, शरणागतवत्सल, सब प्राणियों को मान देने वाले और
दीनों पर दया करने वाले होंगे।
मातृभक्तिः परस्त्रीषु पत्न्यामर्ध
इवात्मनः ।
प्रजासु पितृवत् स्निग्धः किङ्करो
ब्रह्मवादिनाम् ॥ १७ ॥
देहिनां आत्मवत्प्रेष्ठः सुहृदां
नन्दिवर्धनः ।
मुक्तसङ्गप्रसङ्गोऽयं दण्डपाणिः
असाधुषु ॥ १८ ॥
अयं तु साक्षाद्भगवान् त्र्यधीशः
कूटस्थ आत्मा कलयावतीर्णः ।
यस्मिन् अविद्यारचितं निरर्थकं
पश्यन्ति नानात्वमपि प्रतीतम् ॥ १९ ॥
अयं भुवो मण्डलमोदयाद्रेः
गोप्तैकवीरो नरदेवनाथः ।
आस्थाय जैत्रं रथमात्तचापः
पर्यस्यते दक्षिणतो यथार्कः ॥ २० ॥
अस्मै नृपालाः किल तत्र तत्र
बलिं हरिष्यन्ति सलोकपालाः ।
मंस्यन्त एषां स्त्रिय आदिराजं
चक्रायुधं तद्यश उद्धरन्त्यः ॥ २१ ॥
अयं महीं गां दुदुहेऽधिराजः
प्रजापतिर्वृत्तिकरः प्रजानाम् ।
यो लीलयाद्रीन् स्वशरासकोट्या
भिन्दन् समां गामकरोद्यथेन्द्रः ॥ २२ ॥
विस्फूर्जयन्नाजगवं धनुः स्वयं
यदाचरत्क्ष्मामविषह्यमाजौ ।
तदा निलिल्युर्दिशि दिश्यसन्तो
लाङ्गूलमुद्यम्य यथा मृगेन्द्रः ॥ २३ ॥
एषोऽश्वमेधान् शतमाजहार
सरस्वती प्रादुरभावि यत्र ।
अहारषीद्यस्य हयं पुरन्दरः
शतक्रतुश्चरमे वर्तमाने ॥ २४ ॥
एष स्वसद्मोपवने समेत्य
सनत्कुमारं भगवन्तमेकम् ।
आराध्य भक्त्यालभतामलं तद्
ज्ञानं यतो ब्रह्म परं विदन्ति ॥ २५ ॥
(अनुष्टुप्)
तत्र तत्र गिरस्तास्ता इति
विश्रुतविक्रमः ।
श्रोष्यत्यात्माश्रिता गाथाः पृथुः
पृथुपराक्रमः ॥ २६ ॥
दिशो विजित्याप्रतिरुद्धचक्रः
स्वतेजसोत्पाटितलोकशल्यः ।
सुरासुरेन्द्रैरुपगीयमान
महानुभावो भविता पतिर्भुवः ॥ २७ ॥
ये परस्त्री में माता के समान भक्ति
रखेंगे,
पत्नी को अपने आधे अंग के समान मानेंगे, प्रजा
पर पिता के समान प्रेम रखेंगे और और ब्रह्मवादियों के सेवक होंगे। दूसरे प्राणी
इन्हें उतना ही चाहेंगे, जितना अपने शरीर को। ये सुहृदों के
आनन्द को बढ़ायेंगे। ये सर्वदा वैराग्यवान् पुरुषों से विशेष प्रेम करेंगे और
दुष्टों को दण्डपाणि यमराज के समान सदा दण्ड देने के लिये उद्यत रहेंगे।
‘तीनों गुणों के अधिष्ठाता और
निर्विकार साक्षात् श्रीनारायण ने ही इनके रूप में अपने अंश से अवतार लिया है,
जिनमें पण्डित लोग अविद्यावश प्रतीत होने वाले इस नानात्व को मिथ्या
ही समझते हैं। ये अद्वितीय वीर और एकच्छत्र सम्राट् होकर अकेले ही उदयाचलपर्यन्त
समस्त भूमण्डल की रक्षा करेंगे तथा अपने जयशील रथ पर चढ़कर धनुष हाथ में लिये
सूर्य के समान सर्वत्र प्रदक्षिणा करेंगे। उस समय जहाँ-तहाँ सभी लोकपाल और
पृथ्वीपाल इन्हें भेंटे समर्पण करेंगे, उनकी स्त्रियाँ इनका
गुणगान करेंगी और इन आदिराज को साक्षात् श्रीहरि ही समझेंगी।
ये प्रजापालक राजाधिराज होकर प्रजा
के जीवन-निर्वाह के लिये गोरूपधारिणी पृथ्वी का दोहन करेंगे और इन्द्र के समान
अपने धनुष के कोनों से बातों-की-बात में पर्वतों को तोड़-फोड़कर पृथ्वी को समतल कर
देंगे। रणभूमि में कोई भी इनका वेग नहीं सह सकेगा। जिस समय वे जंगल में पूँछ उठाकर
विचरते हुए सिंह के समान अपने ‘आजगव’ धनुष का टंकार करते हुए भूमण्डल में विचरेंगे, उस
समय सभी दुष्टजन इधर-उधर छिप जायेंगे। ये सरस्वती के उद्गम स्थान पर सौ अश्वमेध
यज्ञ करेंगे। तब अन्तिम यज्ञानुष्ठान के समय इन्द्र इनके घोड़े को हरकर ले
जायेंगे। अपने महल के बगीचे में इनकी एक बार भगवान् सनत्कुमार से भेंट होगी। अकेले
उनकी भक्तिपूर्वक सेवा करके ये उस निर्मल ज्ञान को प्राप्त करेंगे, जिससे परब्रह्म की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार जब इनके पराक्रम जनता के
सामने आ जायेंगे, अब ये परमपराक्रमी
महाराज जहाँ-तहाँ अपने चरित्र की ही चर्चा सुनेंगे। इनकी आज्ञा का विरोध कोई भी न
कर सकेगा तथा ये सारी दिशाओं को जीतकर और अपने तेज से प्रजा के क्लेशरूप काँटे को
निकालकर सम्पूर्ण भूमण्डल के शासक होंगे। उस समय देवता और असुर भी इनके विपुल
प्रभाव का वर्णन करेंगे’।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण का
परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय १६ समाप्त हुआ ॥ १६ ॥
आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय १७
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