श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ४                           

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ४ "ऋषभदेव जी का राज्यशासन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ४                  

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः ४                     

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध चौंथा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

अथ ह तमुत्पत्त्यैवाभिव्यज्यमानभगवल्लक्षणं

साम्योपशमवैराग्यैश्वर्यमहाविभूतिभिरनुदिन-

मेधमानानुभावं प्रकृतयः प्रजा ब्राह्मणा

देवताश्चावनितलसमवनायातितरां जगृधुः ॥ १॥

तस्य ह वा इत्थं वर्ष्मणा वरीयसा बृहच्छ्लोकेन

चौजसा बलेन श्रिया यशसा वीर्यशौर्याभ्यां च

पिता ऋषभ इतीदं नाम चकार ॥ २॥

तस्य हीन्द्रः स्पर्धमानो भगवान् वर्षे न ववर्ष

तदवधार्य भगवान् ऋषभदेवो योगेश्वरः

प्रहस्यात्मयोगमायया स्ववर्षमजनाभं

नामाभ्यवर्षत् ॥ ३॥

नाभिस्तु यथाभिलषितं सुप्रजस्त्वमवरुध्याति-

प्रमोदभरविह्वलो गद्गदाक्षरया गिरा स्वैरं

गृहीतनरलोकसधर्मं भगवन्तं पुराणपुरुषं

मायाविलसितमतिर्वत्स तातेति सानुराग-

मुपलालयन् परां निर्वृतिमुपगतः ॥ ४॥

विदितानुरागमापौरप्रकृतिजनपदो राजा

नाभिरात्मजं समयसेतुरक्षायामभिषिच्य

ब्राह्मणेषूपनिधाय सह मेरुदेव्या विशालायां

प्रसन्ननिपुणेन तपसा समाधियोगेन

नरनारायणाख्यं भगवन्तं वासुदेवमुपासीनः

कालेन तन्महिमानमवाप ॥ ५॥

यस्य ह पाण्डवेय श्लोकावुदाहरन्ति -

को नु तत्कर्म राजर्षेर्नाभेरन्वाचरेत्पुमान् ।

अपत्यतामगाद्यस्य हरिः शुद्धेन कर्मणा ॥ ६॥

ब्रह्मण्योऽन्यः कुतो नाभेर्विप्रा मङ्गलपूजिताः ।

यस्य बर्हिषि यज्ञेशं दर्शयामासुरोजसा ॥ ७॥

अथ ह भगवान् ऋषभदेवः स्ववर्षं कर्मक्षेत्र-

मनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवासो लब्धवरै-

र्गुरुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो

जयन्त्यामिन्द्रदत्तायामुभयलक्षणं कर्म

समाम्नायाम्नातमभियुञ्जन्नात्मजानामात्मसमानानां

शतं जनयामास ॥ ८॥

येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण

आसीद्येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान् विष्णु के वज्र-अंकुश आदि चिह्नों से युक्त थे; समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृतिवर्ग, प्रजा, ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कट अभिलाषा होने लगी कि ये ही पृथ्वी का शासन करें। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ऋषभ’ (श्रेष्ठ) रखा।

एक बार भगवान् इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान् ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हँसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया।

महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त आनन्दमग्न हो गये और अपनी ही इच्छा से मनुष्य शरीर धारण करने वाले पुराणपुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीला-विलास से मुग्ध होकर वत्स! तात!ऐसा गद्गद-वाणी कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे। जब उन्होंने देखा कि मन्त्रिमण्डल, नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें धर्म मर्यादा की रक्षा के लिये राज्याभिषिक्त करके ब्राह्मणों की देख-रेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी मेरुदेवी के सहित बदरिकाश्रम को चले गये। वहाँ अहिंसावृत्ति से, जिससे किसी को उद्वेग न हो, ऐसी कौशलपूर्ण तपस्या और समाधियोग के द्वारा भगवान् वासुदेव के नर-नारायणरूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हीं के स्वरूप में लीन हो गये।

पाण्डुनन्दन! राजा नाभि के विषय में यह लोकिक्ति प्रसिद्ध है-

राजर्षि नाभि के उदार कर्मों का आचरण दूसरा कौन पुरुष कर सकता है- जिनके शुद्ध कर्मों से सन्तुष्ट होकर साक्षात् श्रीहरि उनके पुत्र हो गये थे। महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त भी कौन हो सकता है-जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणों ने अपने मन्त्रबल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् के दर्शन करा दिये।

भगवान् ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोक संग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वास किया। गुरुदेव को यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करने के लिये उनकी आज्ञा ली। फिर लोगों को गृहस्थधर्म की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जयन्ती से विवाह किया तथा श्रौत-स्मार्त्त दोनों प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही समान गुण वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये। उनके महायोगी भरत जी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे। उन्हीं के नाम से लोग इस अजनाभखण्ड को भारतवर्षकहने लगे।

तमनु कुशावर्त इलावर्तो ब्रह्मावर्तो मलयः केतुर्भद्रसेन

इन्द्रस्पृग्विदर्भः कीकट इति नव नवतिप्रधानाः ॥ १०॥

कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।

आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥ ११॥

इति भागवतधर्मदर्शना नव महाभागवतास्तेषां

सुचरितं भगवन् महिमोपबृंहितं वसुदेवनारदसंवाद-

मुपशमायनमुपरिष्टाद्वर्णयिष्यामः ॥ १२॥

यवीयांस एकाशीतिर्जायन्तेयाः पितुरादेशकरा

महाशालीना महाश्रोत्रिया यज्ञशीलाः कर्मविशुद्धा

ब्राह्मणा बभूवुः ॥ १३॥

भगवान् ऋषभसंज्ञ आत्मतन्त्रः स्वयं नित्यनिवृत्तानर्थ-

परम्परः केवलानन्दानुभव ईश्वर एव विपरीतवत्कर्मा-

ण्यारभमाणः कालेनानुगतं धर्ममाचरणेनोपशिक्षय-

न्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्रः कारुणिको धर्मार्थयशः-

प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोकं नियमयत् ॥ १४॥

यद्यच्छीर्षण्याचरितं तत्तदनुवर्तते लोकः ॥ १५॥

यद्यपि स्वविदितं सकलधर्मं ब्राह्मं गुह्यं ब्राह्मणै-

र्दर्शितमार्गेण सामादिभिरुपायैर्जनतामनुशशास ॥ १६॥

द्रव्यदेशकालवयःश्रद्धर्त्विग्विविधोद्देशोपचितैः

सर्वैरपि क्रतुभिर्यथोपदेशं शतकृत्व इयाज ॥ १७॥

भगवतर्षभेण परिरक्ष्यमाण एतस्मिन् वर्षे न कश्चन

पुरुषो वाञ्छत्यविद्यमानमिवात्मनोऽन्यस्मात्

कथञ्चन किमपि कर्हिचिदवेक्षते भर्तर्यनुसवनं

विजृम्भितस्नेहातिशयमन्तरेण ॥ १८॥

स कदाचिदटमानो भगवान् ऋषभो ब्रह्मावर्तगतो

ब्रह्मर्षिप्रवरसभायां प्रजानां निशामयन्तीना-

मात्मजानवहितात्मनः प्रश्रयप्रणयभरसुयन्त्रिता-

नप्युपशिक्षयन्निति होवाच ॥ १९॥

उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इंद्रस्पृक, विदर्भ और कीकट -ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रमिल, चमस और करभाजन -ये नौ राजकुमार भावगत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे।

भगवान् की महिमा से महिमान्वित और परमशान्ति से पूर्ण इनका पवित्र चरित हम नारद-वसुदेव संवाद के प्रसंग से आगे (एकादश स्कन्ध में) कहेंगे। इनसे छोटे जयन्ती के इक्यासी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाले, अति विनीत, महान् वेदज्ञ और निरन्तर यज्ञ करने वाले थे। वे पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे।

भगवान् ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल आनन्दानुभवस्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियों के समान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जानने वाले लोगों को उसकी शिक्षा दी। साथ ही सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान, भोग-सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया। महापुरुष जैसा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। यद्यपि वे सभी धर्मों के साररूप वेद के गूढ़ रहस्य को जानते थे, तो भी ब्राह्मणों की बतलायी हुई विधि से साम-दानादि नीति के अनुसार ही जनता का पालन करते थे। उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज् आदि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये। भगवान् ऋषभदेव के शासनकाल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी की वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था।

एक बार भगवान् ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त देश में पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों की सभा में उन्होंने प्रजा के सामने ही अपने समाहितचित्त तथा विनय और प्रेम के भार से सुसंयत पुत्रों को शिक्षा देने के लिये इस प्रकार कहा।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के 4 अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ५ 

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