श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ३                          

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ३ "राजा नाभि का चरित्र"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध: तृतीय अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ३                 

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ५ अध्यायः ३                    

श्रीमद्भागवत महापुराण पांचवाँ स्कन्ध तीसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ अध्याय ३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ तृतीयोऽध्यायः ॥

श्रीशुक उवाच

नाभिरपत्यकामोऽप्रजया मेरुदेव्या भगवन्तं

यज्ञपुरुषमवहितात्मायजत ॥ १॥

तस्य ह वाव श्रद्धया विशुद्धभावेन यजतः प्रवर्ग्येषु

प्रचरत्सु द्रव्यदेशकालमन्त्रर्त्विग्दक्षिणाविधानयोगो-

पपत्त्या दुरधिगमोऽपि भगवान् भागवतवात्सल्यतया

सुप्रतीक आत्मानमपराजितं निजजनाभिप्रेतार्थ-

विधित्सया गृहीतहृदयो हृदयङ्गमं मनोनयनानन्दना-

वयवाभिराममाविश्चकार ॥ २॥

अथ ह तमाविष्कृतभुजयुगलद्वयं हिरण्मयं पुरुषविशेषं

कपिशकौशेयाम्बरधरमुरसि विलसच्छ्रीवत्सललामं

दरवरवनरुहवनमालाच्छूर्यमृतमणिगदादिभिरुपलक्षितं

स्फुटकिरणप्रवरमुकुटकुण्डलकटककटिसूत्रहारकेयूर-

नूपुराद्यङ्गभूषणविभूषितमृत्विक्सदस्यगृहपतयोऽधना

इवोत्तमधनमुपलभ्य सबहुमानमर्हणेनावनतशीर्षाण

उपतस्थुः ॥ ३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! आग्नीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुष का यजन किया। यद्यपि सुन्दर अंगों वाले श्रीभगवान् द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज्, दक्षिणा और विधि- इन यज्ञ के साधनों से सहज में नहीं मिलते, तथापि वे भक्तों पर तो कृपा करते ही हैं। इसलिये जब महाराज नाभि ने श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भाव से उनकी आराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्त का अभीष्ट कार्य करने के लिये उत्सुक हो गया। यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवर्ग्यकर्म का अनुष्ठान होते समय उसे मन और नयनों को आनन्द देने वाले अवयवों से युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक मूर्ति में प्रकट किया। उनके श्रीअंग में रेशमी पीताम्बर था, वक्षःस्थल पर सुमनोहर श्रीवत्स चिह्न सुशोभित था; भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा गले में वनमाला और कौस्तुभ मणि की शोभा थी। सम्पूर्ण शरीर अंग-प्रत्यंग की कान्ति को बढ़ाने वाले किरणजालमण्डित मणिमय मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, हार, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणों से विभूषित था। ऐसे परम तेजस्वी चतुर्भुजमूर्ति पुरुष विशेष को प्रकट हुआ देख ऋत्विज्, सदस्य और यजमान आदि सभी लोग ऐसे आह्लादित हुए, जैसे निर्धन पुरुष अपार धनराशि पाकर फूला नहीं समाता। फिर सभी ने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभु की अर्ध्य द्वारा पूजा की और ऋत्विजों ने उनकी स्तुति की।

ऋत्विज ऊचुः

अर्हसि मुहुरर्हत्तमार्हणमस्माकमनुपथानां नमो नम

इत्येतावत्सदुपशिक्षितं कोऽर्हति पुमान् प्रकृतिगुण-

व्यतिकरमतिरनीश ईश्वरस्य परस्य प्रकृतिपुरुषयो-

रर्वाक्तनाभिर्नामरूपाकृतिभी रूपनिरूपणम् ॥ ४॥

सकलजननिकायवृजिननिरसनशिवतमप्रवर-

गुणगणैकदेशकथनादृते ॥ ५॥

परिजनानुरागविरचितशबलसंशब्दसलिलसित-

किसलयतुलसिकादूर्वाङ्कुरैरपि सम्भृतया सपर्यया

किल परम परितुष्यसि ॥ ६॥

अथानयापि न भवत इज्ययोरुभारभरया समुचित-

मर्थमिहोपलभामहे ॥ ७॥

आत्मन एवानुसवनमञ्जसाव्यतिरेकेण बोभूयमा-

नाशेषपुरुषार्थस्वरूपस्य किन्तु नाथाशिष

आशासानानामेतदभिसंराधनमात्रं भवितुमर्हति ॥ ८॥

तद्यथा बालिशानां स्वयमात्मनः श्रेयः पर-मविदुषां

परम परमपुरुष प्रकर्षकरुणया स्वमहिमानं

चापवर्गाख्यमुपकल्पयिष्यन् स्वयं नापचित

एवेतरवदिहोपलक्षितः ॥ ९॥

ऋत्विजों ने कहा ;- पूज्यतम! हम आपके अनुगत भक्त हैं, आप हमारे पुनः-पुनः पूजनीय हैं। किन्तु हम आपकी पूजा करना क्या जानें? हम तो बार-बार आपको नमस्कार करते हैं- इतना ही हमें महापुरुषों ने सिखाया है। आप प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं। फिर प्राकृत गुणों के कार्यभूत इस प्रपंच में बुद्धि फँस जाने से आपके गुणगान में सर्वथा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत नाम, रूप एवं आकृति के द्वारा आपके स्वरूप का निरूपण कर सके? आप साक्षात् परमेश्वर हैं। आपके परममंगलमय गुण सम्पूर्ण जनता के दुःखों का दमन करने वाले हैं। यदि कोई उन्हें वर्णन करने का साहस भी करेगा, तो केवल उनके एक देश का ही वर्णन कर सकेगा।

किन्तु प्रभो! यदि आपके भक्त प्रेम-गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी और दूब के अंकुर आदि सामग्री से ही आपकी पूजा करते हैं, तो भी आप सब प्रकार सन्तुष्ट हो जाते हैं। हमें तो अनुराग के सिवा इस द्रव्य-कालादि अनेकों अंगों वाले यज्ञ से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी देता;। क्योंकि आपके स्वतः ही क्षण-क्षण में जो सम्पूर्ण पुरुषार्थों का फलस्वरूप परमानन्द सवभावतः ही निरन्तर प्रादुर्भूत होता है, आप साक्षात् उसके स्वरूप ही हैं। इस प्रकार यद्यपि आपको इन यज्ञादि से कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकार की कामनाओं की सिद्धि चाहने वाले हम लोगों के लिये तो मनोरथसिद्धि का पर्याप्त साधन यही होना चाहिये।

आप ब्रह्मादि परमपरुषों की अपेक्षा भी परम श्रेष्ठ हैं। हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारा परमकल्याण किसमें है, और न हमसे आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भी केवल करुणावश अज्ञानी पुरुषों के पास चले जाते हैं, उसी प्रकार आप भी हमें मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी यज्ञदर्शकों के समान यहाँ प्रकट हुए हैं।

अथायमेव वरो ह्यर्हत्तम यर्हि बर्हिषि राजर्षेर्वरदर्षभो

भवान् निजपुरुषेक्षणविषय आसीत् ॥ १०॥

असङ्गनिशितज्ञानानलविधूताशेषमलानां

भवत्स्वभावानामात्मारामाणां मुनीनामनवरत-

परिगुणितगुणगणपरममङ्गलायनगुणगण

कथनोऽसि ॥ ११॥

अथ कथञ्चित्स्खलनक्षुत्पतनजृम्भणदुरवस्थानादिषु

विवशानां नः स्मरणाय ज्वरमरणदशायामपि सकल-

कश्मलनिरसनानि तव गुणकृतनामधेयानि

वचनगोचराणि भवन्तु ॥ १२॥

किञ्चायं राजर्षिरपत्यकामः प्रजां भवादृशीमाशासान

ईश्वरमाशिषां स्वर्गापवर्गयोरपि भवन्तमुपधावति

प्रजायामर्थप्रत्ययो धनदमिवाधनः फलीकरणम् ॥ १३॥

को वा इह तेऽपराजितोऽपराजितया मायया-

नवसितपदव्यानावृतमतिर्विषयविषरयानावृत-

प्रकृतिरनुपासितमहच्चरणः ॥ १४॥

यदु ह वाव तव पुनरदभ्रकर्तरिह समाहूत-

स्तत्रार्थधियां मन्दानां नस्तद्यद्देवहेलनं देवदेवार्हसि

साम्येन सर्वान् प्रतिवोढुमविदुषाम् ॥ १५॥

पूज्यतम! हमें सबसे बड़ा वर तो आपने यही दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षि नाभि की इस यज्ञशाला में साक्षात् हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हो गये! अब हम और वर क्या माँगे?

प्रभो! आपके गुणगणों का गान परममंगलमय है। जिन्होंने वैराग्य से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि के द्वारा अपने अन्तःकरण के रागद्वेषादि सम्पूर्ण मलों को जला डाला है, अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त है, वे आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणों का गान ही किया करते हैं। अतः हम आपसे यही वर माँगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जँभाई लेने और संकटादि के समय एवं ज्वर और मरणादि की अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमल-विनाशक भक्तवत्सल’, ‘दीनबन्धुआदि गुणद्योतक नामों का हम उच्चारण कर सकें।

इसके सिवा, कहने योग्य न होने पर भी एक प्रार्थना और है। आप साक्षात् परमेश्वर हैं; स्वर्ग-अपवर्ग आदि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सकें। तथापि जैसे कोई कंगाल किसी धन लुटाने वाले परमउदार पुरुष के पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परमपुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पाने के लिये आपकी आराधना कर रहे हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

आपकी माया का पार कोई नहीं पा सकता और न वह किसी के वश में ही आ सकती है। जिन लोगों ने महापुरुषों के चरणों का आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन है जो उसके वश में नहीं होता, उसकी बुद्धि पर उसका परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विष का वेग उसके स्वभाव को दूषित नहीं कर देता?

देवदेव! आप भक्तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं। हम मन्दमतियों ने कामनावश इस तुच्छ कार्य के लिये आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप समदर्शी हैं, अतः हम अज्ञानियों की इस धृष्टता को आप क्षमा करें।

श्रीशुक उवाच

इति निगदेनाभिष्टूयमानो भगवाननिमिषर्षभो

वर्षधराभिवादिताभिवन्दितचरणः सदयमिदमाह ॥ १६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजों ने प्रभु के चरणों की वन्दना करके जब पूर्वोक्त स्तोत्र से स्तुति की, तब देव श्रेष्ठ श्रीहरि ने करुणावश इस प्रकार कहा।

श्रीभगवानुवाच

अहो बताहमृषयो भवद्भिरवितथगीर्भिर्वरमसुलभ-

मभियाचितो यदमुष्यात्मजो मया सदृशो भूयादिति

ममाहमेवाभिरूपः कैवल्यादथापि ब्रह्मवादो न मृषा

भवितुमर्हति ममैव हि मुखं यद्द्विजदेवकुलम् ॥ १७॥

तत आग्नीध्रीयेंऽशकलयावतरिष्याम्यात्मतुल्य-

मनुपलभमानः ॥ १८॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- ऋषियों! बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभि के मेरे समान पुत्र हो। मुनियों! मेरे समान तो मैं ही हूँ, क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता।

श्रीशुक उवाच

इति निशामयन्त्या मेरुदेव्याः पतिमभिधाया-

न्तर्दधे भगवान् ॥ १९॥

बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः

प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने

मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां

श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया

तनुवावततार ॥॥ २०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

विष्णुदत्त परीक्षित! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान् महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे नाभिचरिते ऋषभावतारो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

।। इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण पञ्चम स्कन्ध के 3 अध्याय समाप्त हुआ ।।

 शेष जारी-आगे पढ़े............... पञ्चम स्कन्ध अध्याय ४   

No comments:

Post a Comment

Please do not enter any spam link in the comment box