श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ५                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ५ "देवताओं का ब्रह्मा जी के पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान् की स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ५

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पञ्चम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ५                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः ५                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध पाँचवां अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टमस्कन्धः ॥

॥ पञ्चमोऽध्यायः - ५ ॥

श्रीशुक उवाच

राजन्नुदितमेतत्ते हरेः कर्माघनाशनम् ।

गजेन्द्रमोक्षणं पुण्यं रैवतं त्वन्तरं श्रृणु ॥ १॥

पञ्चमो रैवतो नाम मनुस्तामससोदरः ।

बलिविन्ध्यादयस्तस्य सुता अर्जुनपूर्वकाः ॥ २॥

विभुरिन्द्रः सुरगणा राजन् भूतरयादयः ।

हिरण्यरोमा वेदशिरा ऊर्ध्वबाह्वादयो द्विजाः ॥ ३॥

पत्नी विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठैः सुरसत्तमैः ।

तयोः स्वकलया जज्ञे वैकुण्ठो भगवान् स्वयम् ॥ ४॥

वैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः ।

रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ॥ ५॥

तस्यानुभावः कथितो गुणाश्च परमोदयाः ।

भौमान् रेणून् स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद्गुणान् ॥ ६॥

षष्ठश्च चक्षुषः पुत्रश्चाक्षुषो नाम वै मनुः ।

पूरुपूरुषसुद्युम्नप्रमुखाश्चाक्षुषात्मजाः ॥ ७॥

इन्द्रो मन्त्रद्रुमस्तत्र देवा आप्यादयो गणाः ।

मुनयस्तत्र वै राजन् हविष्मद्वीरकादयः ॥ ८॥

तत्रापि देवः सम्भूत्यां वैराजस्याभवत्सुतः ।

अजितो नाम भगवानंशेन जगतः पतिः ॥ ९॥

पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा ।

भ्रममाणोऽम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दरः ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् की यह गजेन्द्र मोक्ष की पवित्र लीला समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो।

पाँचवें मनु का नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओं के प्रधान गण थे। परीक्षित! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे। उनमें शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा। उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया। उन्हीं ने लक्ष्मी देवी की प्रार्थना से उनको प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम की रचना की थी। वह लोक समस्त लोकों में श्रेष्ठ है। उन वैकुण्ठनाथ के कल्याणमय गुण और प्रभाव का वर्णन मैं संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ।

भगवान् विष्णु के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो। छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पुरुस, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे। इन्द्र का नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उन मन्वन्तर में हविष्यामान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे। जगत्पति भगवान् ने उस समय भी वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल की मथानी के आधार बने थे।

राजोवाच

यथा भगवता ब्रह्मन् मथितः क्षीरसागरः ।

यदर्थं वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ॥ ११॥

यथामृतं सुरैः प्राप्तं किं चान्यदभवत्ततः ।

एतद्भगवतः कर्म वदस्व परमाद्भुतम् ॥ १२॥

त्वया सङ्कथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पतेः ।

नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ॥ १३॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! भगवान् ने क्षीरसागर का मन्थन कैसे किया? उन्होंने कच्छप रूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्य से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया? देवताओं को उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्र से निकलीं? भगवान् की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। आप भक्तवत्सल भगवान् की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुनने के लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघाने का तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनों से यह संसार की ज्वालाओं से जलता जो रहा है।

सूत उवाच

सम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजाः ।

अभिनन्द्य हरेर्वीर्यमभ्याचष्टुं प्रचक्रमे ॥ १४॥

सूत जी ने कहा ;- शौनकादि ऋषियों! भगवान् श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान् की समुद्र-मन्थन-लीला का वर्णन आरम्भ किया।

श्रीशुक उवाच

यदा युद्धेऽसुरैर्देवा बाध्यमानाः शितायुधैः ।

गतासवो निपतिता नोत्तिष्ठेरन् स्म भूयशः ॥ १५॥

यदा दुर्वाससः शापात्सेन्द्रा लोकास्त्रयो नृप ।

निःश्रीकाश्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादयः क्रियाः ॥ १६॥

निशाम्यैतत्सुरगणा महेन्द्रवरुणादयः ।

नाध्यगच्छन् स्वयं मन्त्रैर्मन्त्रयन्तो विनिश्चयम् ॥ १७॥

ततो ब्रह्मसभां जग्मुर्मेरोर्मूर्धनि सर्वशः ।

सर्वं विज्ञापयाञ्चक्रुः प्रणताः परमेष्ठिने ॥ १८॥

स विलोक्येन्द्रवाय्वादीन् निःसत्त्वान् विगतप्रभान् ।

लोकानमङ्गलप्रायानसुरानयथा विभुः ॥ १९॥

समाहितेन मनसा संस्मरन् पुरुषं परम् ।

उवाचोत्फुल्लवदनो देवान् स भगवान् परः ॥ २०॥

अहं भवो यूयमथोऽसुरादयो

मनुष्यतिर्यग्द्रुमघर्मजातयः ।

यस्यावतारांशकलाविसर्जिता

व्रजाम सर्वे शरणं तमव्ययम् ॥ २१॥

न यस्य वध्यो न च रक्षणीयो

नोपेक्षणीयादरणीयपक्षः ।

अथापि सर्गस्थितिसंयमार्थं

धत्ते रजःसत्त्वतमांसि काले ॥ २२॥

अयं च तस्य स्थितिपालनक्षणः

सत्त्वं जुषाणस्य भवाय देहिनाम् ।

तस्माद्व्रजामः शरणं जगद्गुरुं

स्वानां स नो धास्यति शं सुरप्रियः ॥ २३॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जिस समय की यह बात है, उस समय असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी, वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके। दुर्वासा के शाप से तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँ तक कि यज्ञ-यागादि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था।

यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओं ने आपस में बहुत कुछ सोचा-विचारा; परन्तु अपने विचारों से वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तब वे सब-के-सब सुमेरु के शिखर पर स्थित ब्रह्मा जी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने बड़ी नम्रता से ब्रह्मा जी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित किया।

ब्रह्मा जी ने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगों की परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इनके विपरीत फल-फूल रहे हैं। समर्थ ब्रह्मा जी ने अपना मन एकाग्र करके परमपुरुष भगवान् का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुख से देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा- देवताओं! मैं, शंकर जी, तुम लोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूप के एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंश से रचे गये हैं-हम लोग उन अविनाशी प्रभु की ही शरण ग्रहण करें। यद्यपि उनकी दृष्टि में न कोई वध का पात्र है और न रक्षा का, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदर का पात्र ही-फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये समय-समय पर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को स्वीकार किया करते हैं। उन्होंने इस समय प्राणियों के कल्याण के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत् की स्थिति और रक्षा का अवसर है। अतः हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओं के प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनों का वे अवश्य ही कल्याण करेंगे।

श्रीशुक उवाच

इत्याभाष्य सुरान् वेधाः सह देवैररिन्दम ।

अजितस्य पदं साक्षाज्जगाम तमसः परम् ॥ २४॥

तत्रादृष्टस्वरूपाय श्रुतपूर्वाय वै विभो ।

स्तुतिमब्रूत दैवीभिर्गीर्भिस्त्ववहितेन्द्रियः ॥ २५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवताओं से यह कहकर ब्रह्मा जी देवताओं को साथ लेकर भगवान् अजित के निजधाम वैकुण्ठ में गये। वह धाम तमोमयी प्रकृति से परे है। इन लोगों ने भगवान् के स्वरूप और धाम के सम्बन्ध में पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जाने पर लोगों को कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्मा जी एकाग्र मन से वेदवाणी के द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे।

ब्रह्मोवाच

अविक्रियं सत्यमनन्तमाद्यं

गुहाशयं निष्कलमप्रतर्क्यम् ।

मनोऽग्रयानं वचसानिरुक्तं

नमामहे देववरं वरेण्यम् ॥ २६॥

विपश्चितं प्राणमनोधियात्मना-

मर्थेन्द्रियाभासमनिद्रमव्रणम् ।

छायातपौ यत्र न गृध्रपक्षौ

तमक्षरं खं त्रियुगं व्रजामहे ॥ २७॥

अजस्य चक्रं त्वजयेर्यमाणं

मनोमयं पञ्चदशारमाशु ।

त्रिनाभि विद्युच्चलमष्टनेमि

यदक्षमाहुस्तमृतं प्रपद्ये ॥ २८॥

य एकवर्णं तमसः परं त-

दलोकमव्यक्तमनन्तपारम् ।

आसां चकारोपसुपर्णमेन-

मुपासते योगरथेन धीराः ॥ २९॥

ब्रह्मा जी बोले ;- भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहले ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओं के आराधनीय और स्वयं प्रकाश हैं। हम सब आपके चरणों में नमस्कार करते हैं। आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार के ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृति के विकार मरने-जीने वाले शरीर से भी आप रहित हैं। जीव के दोनों पक्ष-अविद्या और विद्या आप में बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुख स्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में तो आप प्रकट रूप से ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं।

यह शरीर जीव का एक मनोमय चक्र (रथ का पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण-ये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-ये आठ इसमें नेमि (पहिये का घेरा) हैं। स्वयं माया इसका संचालन करती है और यह बिजली से भी अधिक शीग्रगामी है। इस चक्र के धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरण में हैं। जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओं के मूल में स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तु से जिनका पार नहीं पाया जा सकता-वही प्रभु इस जीव के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं की आराधना करते हैं।

न यस्य कश्चातितितर्ति मायां

यया जनो मुह्यति वेद नार्थम् ।

तं निर्जितात्माऽऽत्मगुणं परेशं

नमाम भूतेषु समं चरन्तम् ॥ ३०॥

इमे वयं यत्प्रिययैव तन्वा

सत्त्वेन सृष्टा बहिरन्तराविः ।

गतिं न सूक्ष्मामृषयश्च विद्महे

कुतोऽसुराद्या इतरप्रधानाः ॥ ३१॥

पादौ महीयं स्वकृतैव यस्य

चतुर्विधो यत्र हि भूतसर्गः ।

स वै महापूरुष आत्मतन्त्रः

प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३२॥

अम्भस्तु यद्रेत उदारवीर्यं

सिध्यन्ति जीवन्त्युत वर्धमानाः ।

लोकास्त्रयोऽथाखिललोकपालाः

प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३३॥

सोमं मनो यस्य समामनन्ति

दिवौकसां वै बलमन्ध आयुः ।

ईशो नगानां प्रजनः प्रजानां

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३४॥

अग्निर्मुखं यस्य तु जातवेदा

जातः क्रियाकाण्डनिमित्तजन्मा ।

अन्तःसमुद्रेऽनुपचन् स्वधातून्

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३५॥

यच्चक्षुरासीत्तरणिर्देवयानं

त्रयीमयो ब्रह्मण एष धिष्ण्यम् ।

द्वारं च मुक्तेरमृतं च मृत्युः

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३६॥

प्राणादभूद्यस्य चराचराणां

प्राणः सहो बलमोजश्च वायुः ।

अन्वास्म सम्राजमिवानुगा वयं

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३७॥

श्रोत्राद्दिशो यस्य हृदश्च खानि

प्रजज्ञिरे खं पुरुषस्य नाभ्याः ।

प्राणेन्द्रियात्मासुशरीरकेतं

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३८॥

जिस माया से मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूप को भूल गया है, वह उन्हीं की है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता। परन्तु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणों को अपने वश में करके समस्त प्राणियों के हृदय में समभाव से विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थ से नहीं, उनकी कृपा से हीउन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणों में नमस्कार करते हैं।

यों तो हम देवता और ऋषिगण भी उनके परमप्रिय सत्त्वमय शरीर से ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। तब रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं? उन्हीं प्रभु के चरणों में हम नमस्कार करते हैं। उन्हीं की बनायीं हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वी पर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-ये चार प्रकार के प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों। यह परम शक्तिशाली जल उन्हीं का वीर्य है। इसी से तीनों लोक और समस्त लोकों के लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों।

श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभु का मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओं का अन्न, बल एवं आयु है। वही वृक्षों का सम्राट् एवं प्रजा की वृद्धि करने वाला है। ऐसे मन को स्वीकार करने वाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हम पर प्रसन्न हों। अग्नि प्रभु का मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेद के यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड पूर्ण रूप से सम्पन्न हो सकें। यह अग्नि ही शरीर के भीतर जठराग्नि रूप से और समुद्र के भीतर बड़वानल के रूप से रहकर उनमें रहने वाले अन्न, जल आदि धातुओं का पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्यों की उत्पत्ति भी उसी से हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। जिनके द्वारा जीव देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, जो वेदों की साक्षात् मूर्ति और भगवान् के ध्यान करने योग्य धाम हैं, जो पुण्यलोकस्वरूप होने के कारण मुक्ति के द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होने के कारण मृत्यु भी हैं-ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐशवर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

प्रभु के प्राण ही चराचर का प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देने वाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। जिनके कानों से दिशाएँ, हृदय से इन्द्रियगोलक और नाभि से वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय) एवं शरीर का आश्रय है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

बलान्महेन्द्रस्त्रिदशाः प्रसादा-

न्मन्योर्गिरीशो धिषणाद्विरिञ्चः ।

खेभ्यश्च छन्दांस्यृषयो मेढ्रतः कः

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३९॥

श्रीर्वक्षसः पितरश्छाययाऽऽसन्

धर्मः स्तनादितरः पृष्ठतोऽभूत् ।

द्यौर्यस्य शीर्ष्णोऽप्सरसो विहारा-

त्प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४०॥

विप्रो मुखं ब्रह्म च यस्य गुह्यं

राजन्य आसीद्भुजयोर्बलं च ।

ऊर्वोर्विडोऽजोऽङ्घ्रिरवेदशूद्रौ

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४१॥

लोभोऽधरात्प्रीतिरुपर्यभूद्द्युति-

र्नस्तः पशव्यः स्पर्शेन कामः ।

भ्रुवोर्यमः पक्ष्मभवस्तु कालः

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४२॥

द्रव्यं वयः कर्म गुणान् विशेषं

यद्योगमायाविहितान् वदन्ति ।

यद्दुर्विभाव्यं प्रबुधापबाधं

प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ४३॥

नमोऽस्तु तस्मा उपशान्तशक्तये

स्वाराज्यलाभप्रतिपूरितात्मने ।

गुणेषु मायारचितेषु वृत्तिभि-

र्नसज्जमानाय नभस्वदूतये ॥ ४४॥

स त्वं नो दर्शयात्मानमस्मत्करणगोचरम् ।

प्रपन्नानां दिदृक्षूणां सस्मितं ते मुखाम्बुजम् ॥ ४५॥

तैस्तैः स्वेच्छाधृतै रूपैः काले काले स्वयं विभो ।

कर्म दुर्विषहं यन्नो भगवांस्तत्करोति हि ॥ ४६॥

क्लेशभूर्यल्पसाराणि कर्माणि विफलानि वा ।

देहिनां विषयार्तानां न तथैवार्पितं त्वयि ॥ ४७॥

नावमः कर्मकल्पोऽपि विफलायेश्वरार्पितः ।

कल्पते पुरुषस्यैष स ह्यात्मा दयितो हितः ॥ ४८॥

यथा हि स्कन्धशाखानां तरोर्मूलावसेचनम् ।

एवमाराधनं विष्णोः सर्वेषामात्मनश्च हि ॥ ४९॥

नमस्तुभ्यमनन्ताय दुर्वितर्क्यात्मकर्मणे ।

निर्गुणाय गुणेशाय सत्त्वस्थाय च साम्प्रतम् ॥ ५०॥

जिनके बल से इन्द्र, प्रसन्नता से समस्त देवगण, क्रोध से शंकर, बुद्धि से ब्रह्मा, इन्द्रियों से वेद और ऋषि तथा लिंग से प्रजापति उत्पन्न हुए हैं-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके वक्षःस्थल से लक्ष्मी, छाया से पितृगण, स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, सिर से आकाश और विहार से अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके मुख से ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओं से क्षत्रिय और बल, जंघाओं से वैश्य और उनकी वृत्ति-व्यापार कुशलता तथा चरणों से वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके अधर से लोभ और ओष्ठ से प्रीति, नासिका से कान्ति, स्पर्श से पशुओं का प्रिय काम, भौंहों से यम और नेत्र के रोमों से काल की उत्पत्ति हुई है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

पंचभूत, काल, कर्म, सत्त्वादि गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषों के द्वारा बाधित किये जाने योग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान् की योगमाया से ही बने हैं-ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जो मायानिर्मित गुणों में दर्शनादि वृत्तियों के द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायु के समान सदा-सर्वदा असंग रहते हैं, जिनमें समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं-उन अपने आत्मानन्द के लाभ से परिपूर्ण आत्मस्वरूप भगवान् को हमारे नमस्कार हैं।

प्रभो! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रों से देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये। प्रभो! आप समय-समय पर स्वयं ही अपनी इच्छा से अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहज में कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है। विषयों के लोभ में पड़कर जो देहाभिमानी दुःख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करने में परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परन्तु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांश में तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परन्तु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करने के समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फल रूप ही हैं।

भगवान् को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान् जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं। जैसे वृक्ष की जड़ को पानी से सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान् की आरधना प्राणियों की और अपनी भी आराधना है। जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओं का रहस्य तर्क-वितर्क के परे हैं, जो स्वयं गुणों से परे रहकर भी सब गुणों के स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुण में स्थित हैं-ऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे अमृतमथने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः

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