श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ४                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ४ "गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ४                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः ४                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध चौथा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टमस्कन्धः ॥

॥ चतुर्थोऽध्यायः - ४ ॥

श्रीशुक उवाच

तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः ।

मुमुचुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः ॥ १॥

नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगुः ।

ऋषयश्चारणाः सिद्धास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ॥ २॥

योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक् ।

मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तमः ॥ ३॥

प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमश्लोकमव्ययम् ।

अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम् ॥ ४॥

सोऽनुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम् ।

लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिषः ॥ ५॥

गजेन्द्रो भगवत्स्पर्शाद्विमुक्तोऽज्ञानबन्धनात् ।

प्राप्तो भगवतो रूपं पीतवासाश्चतुर्भुजः ॥ ६॥

स वै पूर्वमभूद्राजा पाण्ड्यो द्रविडसत्तमः ।

इन्द्रद्युम्न इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः ॥ ७॥

स एकदाऽऽराधनकाल आत्मवान्

गृहीतमौनव्रत ईश्वरं हरिम् ।

जटाधरस्तापस आप्लुतोऽच्युतं

समर्चयामास कुलाचलाश्रमः ॥ ८॥

यदृच्छया तत्र महायशा मुनिः

समागमच्छिष्यगणैः परिश्रितः ।

तं वीक्ष्य तूष्णीमकृतार्हणादिकं

रहस्युपासीनमृषिश्चुकोप ह ॥ ९॥

तस्मा इमं शापमदादसाधु-

रयं दुरात्माकृतबुद्धिरद्य ।

विप्रावमन्ता विशतां तमोऽन्धं

यथा गजः स्तब्धमतिः स एव ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उस समय ब्रह्मा, शंकर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान के इस कर्म की प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान पुरुषोत्तम की स्तुति करने लगे।

इधर वह ग्राह तुरंत ही परमआश्चर्य दिव्य शरीर से सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले हूहूनाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवल के शाप से उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान की कृपा से वह मुक्त हो गया। उसने सर्वेश्वर भगवान के श्रीचरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान के सुयश का गान करने लगा। वास्तव में अविनाशी भगवान ही सर्वश्रेष्ठ कीर्ति से सम्पन्न हैं। उन्हीं के गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने योग्य हैं।

भगवान के कृपापूर्ण स्पर्श से उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान की परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोक की यात्रा की।

गजेन्द्र भी भगवान का स्पर्श होते ही अज्ञान से मुक्त हो गया। उसे भगवान का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया। गजेन्द्र पूर्वजन्म में द्रविड देश का पाण्ड्वंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्न। वह भगवान का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था। एक बार राजा इन्द्रद्युम्न राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वी का वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नान के बाद पूजा के समय मन को एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर सर्वशक्तिमान् भगवान की आरधना कर रहे थे। उसी समय दैवयोग से परमयशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्य मण्डली के साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म का परित्याग करके तपस्वियों की तरह एकान्त में चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्न पर क्रुद्ध हो गये। उन्होंने राजा को यह शाप दिया- इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकार से निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह हाथी के समान जड़बुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो

श्रीशुक उवाच

एवं शप्त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान् नृप सानुगः ।

इन्द्रद्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन् ॥ ११॥

आपन्नः कौञ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम् ।

हर्यर्चनानुभावेन यद्गजत्वेऽप्यनुस्मृतिः ॥ १२॥

एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभ-

स्तेनापिपार्षदगतिं गमितेन युक्तः ।

गन्धर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान-

कर्माद्भुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ॥ १३॥

एतन्महाराज तवेरितो मया

कृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम् ।

स्वर्ग्यं यशस्यं कलिकल्मषापहं

दुःस्वप्ननाशं कुरुवर्य श्रृण्वताम् ॥ १४॥

यथानुकीर्तयन्त्येतच्छ्रेयस्कामा द्विजातयः ।

शुचयः प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये ॥ १५॥

इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम ।

श्रृण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभुः ॥ १६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शाप एवं वरदान देने में समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्य मण्डली के साथ वहाँ से चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्न ने यह समझकर सन्तोष किया कि वह मेरा प्रारब्ध ही था। इसके बाद आत्मा की विस्मृति करा देने वाली हाथी की योनि उन्हें प्राप्त हुई। परन्तु भगवान की आराधना का ऐसा प्रभाव है कि हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी।

भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीला का गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्र को साथ ले गरुड़ पर सवार होकर अपने अलौकिक धाम को चले गये।

कुरुवंश शिरोमणि परीक्षित! मैंने भगवान श्रीकृष्ण की महिमा तथा गजेन्द्र के उद्धार की कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसंग सुनने वालों के कलिमल और दुःस्वप्न को मिटाने वाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देने वाला है।

इसी से कल्याणकामी द्विजगण दुःस्वप्न आदि की शान्ति के लिये प्रातःकाल जागते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं।

परीक्षित! गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान् ने सब लोगों के सामने ही उसे यह बात कही थी।

श्रीभगवानुवाच

ये मां त्वां च सरश्चेदं गिरिकन्दरकाननम् ।

वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान् ॥ १७॥

श‍ृङ्गाणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्य च ।

क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्वेतद्वीपं च भास्वरम् ॥ १८॥

श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम ।

सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ॥ १९॥

शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम् ।

ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्लादमेव च ॥ २०॥

मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारैः कृतानि मे ।

कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्यं सोमं हुताशनम् ॥ २१॥

प्रणवं सत्यमव्यक्तं गोविप्रान् धर्ममव्ययम् ।

दाक्षायणीर्धर्मपत्नीः सोमकश्यपयोरपि ॥ २२॥

गङ्गां सरस्वतीं नन्दां कालिन्दीं सितवारणम् ।

ध्रुवं ब्रह्मऋषीन् सप्त पुण्यश्लोकांश्च मानवान् ॥ २३॥

उत्थायापररात्रान्ते प्रयताः सुसमाहिताः ।

स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते ह्येनसोऽखिलात् ॥ २४॥

ये मां स्तुवन्त्यनेनाङ्ग प्रतिबुध्य निशात्यये ।

तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विमलां मतिम् ॥ २५॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- जो लोग रात के पिछले पहर में उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्त से मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँस एक झुरमुट, यहाँ के दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिख, मेरे, ब्रह्मा जी और शिव जी के निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पांचजन्य शंख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेष जी, मेरे आश्रय में रहने वाली लक्ष्मी जी, ब्रह्मा जी, देवर्षि नारद, शंकर जी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारों में किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातन धर्म, सोम, कश्यप और धर्म की पत्नी दक्षकन्याएँ, गंगा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि और पवित्र कीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषों का स्मरण करते हैं-वे समस्त पापों से छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं।

प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में जगकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, मृत्यु के समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।

श्रीशुक उवाच

इत्यादिश्य हृषीकेशः प्रध्माय जलजोत्तमम् ।

हर्षयन् विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम् ॥ २६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा कहकर देवताओं को आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शंख बजाया और गरुड़ पर सवार हो गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे गजेन्द्रमोक्षणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः

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