श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ३                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ३ "गजेन्द्र के द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ३

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: तृतीय अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ३                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः ३                                                            

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध तीसरा अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय ३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ अष्टमस्कन्धः ॥

॥ तृतीयोऽध्यायः - ३ ॥

श्रीशुक उवाच

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।

जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥ १॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान की स्तुति करने लगा।

गजेन्द्र उवाच

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।

पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥ २॥

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम् ।

योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥ ३॥

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम् ।

अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते

स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥ ४॥

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो

लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु ।

तमस्तदासीद्गहनं गभीरं

यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ॥ ५॥

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-

र्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम् ।

यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो

दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥ ६॥

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं

विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः ।

चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने

भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ॥ ७॥

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा

न नामरूपे गुणदोष एव वा ।

तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः

स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥ ८॥

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ॥ ९॥

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।

नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥ १०॥

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।

नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥ ११॥

गजेन्द्र ने कहा ;- जो जगत के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतना का विस्तार होता है-उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण-प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। यह विश्वप्रपंच उन्हीं की माया से उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों-एक-सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें।

प्रलय के समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार-ही-अन्धकार रहता है। परन्तु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें। उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही; फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है जो वहाँ तक जा सके और उसका वर्णन कर सके? वे प्रभु मेरी रक्षा करें। जिनके परममंगलमय स्वरूप का दर्शन करने के लिये महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखण्ड भाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं-वे मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं।

न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिये समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं। उन्हीं अनन्त शक्तिमान सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ। स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्त से अत्यन्त दूर हैं-उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। विवेकी पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्युमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरों को कैवल्य-मुक्ति देने की सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में है-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे ।

निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥ १२॥

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।

पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥ १३॥

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।

असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥ १४॥

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय

निष्कारणायाद्भुतकारणाय ।

सर्वागमाम्नायमहार्णवाय

नमोऽपवर्गाय परायणाय ॥ १५॥

गुणारणिच्छन्नचिदूष्मपाय

तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय ।

नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-

स्वयम्प्रकाशाय नमस्करोमि ॥ १६॥

मादृक् प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय

मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय ।

स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-

प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥ १७॥

आत्माऽऽत्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-

र्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय ।

मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय

ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥ १८॥

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा

भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।

किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं

करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥ १९॥

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं

वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।

अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं

गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ॥ २०॥

तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-

मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम् ।

अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-

मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥ २१॥

जो सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमशः शान्त, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। अहंकार आदि छायारूप असत् वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आप में विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। जैसे समस्त नदी-झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बन्धन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परमा कल्याणमय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कबी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अन्तरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वेश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त हैं-उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन हैं। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वेश्वरपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परमदयालु प्रभु मेरा उद्धार करें।

जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु की-यहाँ तक की मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परमदिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनन्दसमुद्र में निमग्न रहते हैं। जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग और भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं-उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ।

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।

नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥ २२॥

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो

निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः ।

तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो

बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥ २३॥

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्-

न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः ।

नायं गुणः कर्म न सन्न चास-

न्निषेधशेषो जयतादशेषः ॥ २४॥

जिजीविषे नाहमिहामुया कि-

मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।

इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-

स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम् ॥ २५॥

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम् ।

विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ॥ २६॥

योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते ।

योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥ २७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-

शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।

प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये

कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥ २८॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहन्धिया हतम् ।

तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ॥ २९॥

जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप भेद-भाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर-जो गुणों के प्रवाहरूप हैं-बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान् न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिये प्रकट हों।

मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर-सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है। इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्वस्वरूप हैं-साथ ही जो विश्व की अन्तरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपदस्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ।

योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्मवासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदय में जिन योगेश्वर भगवान् का साक्षात्कार करते हैं-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आपकी तीन शक्तियों-सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्रप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपकी माया अहं बुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान् की मैं शरण में हूँ।

श्रीशुक उवाच

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं

ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः ।

नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वा-

त्तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥ ३०॥

तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवासः

स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः ।

छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान-

श्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥ ३१॥

सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो

दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् ।

उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रा-

न्नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥ ३२॥

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य

सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।

ग्राहाद्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं

सम्पश्यतां हरिरमूमुचदुच्छ्रियाणाम् ॥ ३३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेष रूप से भगवान् की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूप को अपना स्वरूप मानने वाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करने के लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये। विश्व के एकमात्र आधार भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। अतः उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़ पर सवार हो चक्रधारी भगवान् बड़ी शीघ्रता से वहाँ के लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकट में पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये।

सरोवर के भीतर बलवान् ग्राह ने गजेन्द्र को पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाश में गरुड़ पर सवार होकर हाथ में चक्र लिये भगवान् श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपर को उठाया और बड़े कष्ट से बोला- नारायण! जगद्गुरो! भगवन्! आपको नमस्कार है। जब भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड़ को छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान् श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे मन्वन्तरानुवर्णने गजेन्द्रोपाख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः

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