श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ९
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ९ "भगीरथ-चरित्र और गंगावतरण"
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
९
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः ९
श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध
नवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
नवमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥
श्रीशुक उवाच
अंशुमांश्च तपस्तेपे
गङ्गानयनकाम्यया ।
कालं महान्तं नाशक्नोत्ततः कालेन
संस्थितः ॥ १॥
दिलीपस्तत्सुतस्तद्वदशक्तः
कालमेयिवान् ।
भगीरथस्तस्य पुत्रस्तेपे स
सुमहत्तपः ॥ २॥
दर्शयामास तं देवी प्रसन्ना
वरदास्मि ते ।
इत्युक्तः स्वमभिप्रायं शशंसावनतो
नृपः ॥ ३॥
कोऽपि धारयिता वेगं पतन्त्या मे
महीतले ।
अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये
रसातलम् ॥ ४॥
किं चाहं न भुवं यास्ये नरा
मय्यामृजन्त्यघम् ।
मृजामि तदघं कुत्र राजंस्तत्र
विचिन्त्यताम् ॥ ५॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! अंशुमान् ने गंगा जी को लाने की कामना से बहुत वर्षों तक
घोर तपस्या की; परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आने पर उनकी मृत्यु हो गयी। अंशुमान् के पुत्र दिलीप ने भी वैसी ही
तपस्या की; परन्तु वे भी असफल ही रहे, समय
पर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीप के पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या
की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गंगा ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि- ‘मैं तुम्हें वर देने के लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा
कहने पर राजा भगीरथ ने बड़ी नम्रता से अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मर्त्यलोक में चलिये’।
[गंगा जी ने कहा] ‘जिस समय मैं स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरूँ, उस समय
मेरे वेग को कोई धारण करने वाला होना चाहिये। भगीरथ! ऐसा न होने पर मैं पृथ्वी को
फोड़कर रसातल में चली जाऊँगी। इसके अतिरिक्त इस कारण से भी मैं पृथ्वी पर नहीं
जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पाप को कहाँ धोऊँगी। भगीरथ! इस
विषय में तुम स्वयं विचार कर लो’।
भगीरथ उवाच
साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा
लोकपावनाः ।
हरन्त्यघं तेऽङ्गसङ्गात्तेष्वास्ते
ह्यघभिद्धरिः ॥ ६॥
धारयिष्यति ते वेगं रुद्रस्त्वात्मा
शरीरिणाम् ।
यस्मिन्नोतमिदं प्रोतं विश्वं शाटीव
तन्तुषु ॥ ७॥
इत्युक्त्वा स नृपो देवं
तपसातोषयच्छिवम् ।
कालेनाल्पीयसा राजंस्तस्येशः
समतुष्यत ॥ ८॥
तथेति राज्ञाभिहितं सर्वलोकहितः
शिवः ।
दधारावहितो गङ्गां पादपूतजलां हरेः
॥ ९॥
भगीरथः स राजर्षिर्निन्ये
भुवनपावनीम् ।
यत्र स्वपितॄणां देहा भस्मीभूताः
स्म शेरते ॥ १०॥
रथेन वायुवेगेन प्रयान्तमनुधावती ।
देशान् पुनन्ती
निर्दग्धानासिञ्चत्सगरात्मजान् ॥ ११॥
यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्मदण्डहता
अपि ।
सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं
देहभस्मभिः ॥ १२॥
भस्मीभूताङ्गसङ्गेन स्वर्याताः
सगरात्मजाः ।
किं पुनः श्रद्धया देवीं ये सेवन्ते
धृतव्रताः ॥ १३॥
भगीरथ ने कहा ;-
‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और
स्त्री-पुरुष की कामना का संन्यास कर दिया है, जो संसार से
उपरत होकर अपने-आप में शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों
को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं-वे अपने अंगस्पर्श से तुम्हारे पापों को
नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदय में अघरूप अघासुर को मारने वाले भगवान सर्वदा
निवास करते हैं। समस्त प्राणियों के आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे।
क्योंकि जैसे साड़ी सूतों में ओत-प्रोत है, वैसे ही यह सारा
विश्व भगवान रुद्र में ही ओत-प्रोत है’।
परीक्षित! गंगा जी से इस प्रकार
कहकर राजा भगीरथ ने तपस्या के द्वारा भगवान शंकर को प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनों
में महादेव जी उन पर प्रसन्न हो गये। भगवान शंकर तो सम्पूर्ण विश्व के हितैषी हैं,
राजा की बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिव जी ने सावधान होकर गंगा जी को अपने सिर पर
धारण किया। क्यों न हो, भगवान के चरणों का सम्पर्क होने के
कारण गंगा जी का जल परम पवित्र जो है। इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गंगा
जी को वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरों के शरीर राख के ढेर बने
पड़े थे। वे वायु के समान वेग से चलने वाले रथ पर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और
उनके पीछे-पीछे मार्ग में पड़ने वाले देशों को पवित्र करती हुई गंगा जी दौड़ रही
थीं। इस प्रकार गंगासागर-संगम पर पहुँचकर उन्होंने सगर के जले हुए पुत्रों को अपने
जल में डुबा दिया। यद्यपि सगर के पुत्र ब्राह्मण के तिरस्कार के कारण भस्म हो गये
थे, इसलिये उनके उद्धार का कोई उपाय न था-फिर भी केवल शरीर
की राख के साथ गंगाजल का स्पर्श हो जाने से ही वे स्वर्ग में चले गये।
परीक्षित! जब गंगाजल से शरीर की राख
का स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गयी,
तब जो लोग श्रद्धा के साथ नियम लेकर श्रीगंगा जी का सेवन करते हैं,
उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।
न ह्येतत्परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या
यदिहोदितम् ।
अनन्तचरणाम्भोजप्रसूताया भवच्छिदः ॥
१४॥
सन्निवेश्य मनो यस्मिञ्छ्रद्धया
मुनयोऽमलाः ।
त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो
यातास्तदात्मताम् ॥ १५॥
श्रुतो भगीरथाज्जज्ञे तस्य
नाभोऽपरोऽभवत् ।
सिन्धुद्वीपस्ततस्तस्मादयुतायुस्ततोऽभवत्
॥ १६॥
ऋतुपर्णो नलसखो
योऽश्वविद्यामयान्नलात् ।
दत्त्वाक्षहृदयं चास्मै सर्वकामस्तु
तत्सुतः ॥ १७॥
ततः सुदासस्तत्पुत्रो
मदयन्तीपतिर्नृपः ।
आहुर्मित्रसहं यं वै
कल्माषाङ्घ्रिमुत क्वचित् ।
वसिष्ठशापाद्रक्षोऽभूदनपत्यः
स्वकर्मणा ॥ १८॥
मैंने गंगा जी की महिमा के सम्बन्ध
में जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्य की
कोई बात नहीं है। क्योंकि गंगा जी भगवान् के उन चरणकमलों से निकली हैं, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और
तीनों गुणों के कठिन बन्धन को काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गंगा जी
संसार का बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है।
भगीरथ का पुत्र था श्रुत,
श्रुत का नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नाभ से भिन्न है। नाभ का पुत्र था
सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीप का अयुतायु। अयुतायु के पुत्र का नाम था ऋतुपर्ण। वह
नल का मित्र था। उसने नल को पासा फेंकने की विद्या का रहस्य बतलाया था और बदले में
उससे अश्व-विद्या सीखी थी। ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम हुआ।
परीक्षित! सर्वकाम के पुत्र का नाम
था सुदास। सुदास के पुत्र का नाम था सौदास और सौदास की पत्नी का नाम था मदयन्ती।
सौदास को ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है।
वह वसिष्ठ के शाप से राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मों के कारण सन्तानहीन हुआ।
राजोवाच
किं निमित्तो गुरोः शापः सौदासस्य
महात्मनः ।
एतद्वेदितुमिच्छामः कथ्यतां न रहो
यदि ॥ १९॥
राजा परीक्षित ने पूछा ;-
भगवन! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदास को गुरु वसिष्ठ जी ने
शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये।
श्रीशुक उवाच
सौदासो मृगयां किञ्चिच्चरन् रक्षो
जघान ह ।
मुमोच भ्रातरं सोऽथ गतः
प्रतिचिकीर्षया ॥ २०॥
स चिन्तयन्नघं राज्ञः सूदरूपधरो
गृहे ।
गुरवे भोक्तुकामाय पक्त्वा निन्ये
नरामिषम् ॥ २१॥
परिवेक्ष्यमाणं भगवान् विलोक्याभक्ष्यमञ्जसा
।
राजानमशपत्क्रुद्धो रक्षो ह्येवं
भविष्यसि ॥ २२॥
रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे
द्वादशवार्षिकम् ।
सोऽप्यपोऽञ्जलिमादाय गुरुं शप्तुं
समुद्यतः ॥ २३॥
वारितो मदयन्त्यापो रुशतीः
पादयोर्जहौ ।
दिशः खमवनीं सर्वं पश्यन् जीवमयं
नृपः ॥ २४॥
राक्षसं भावमापन्नः पादे कल्माषतां
गतः ।
व्यवायकाले ददृशे वनौकोदम्पती
द्विजौ ॥ २५॥
क्षुधार्तो जगृहे विप्रं
तत्पत्न्याहाकृतार्थवत् ।
न भवान् राक्षसः
साक्षादिक्ष्वाकूणां महारथः ॥ २६॥
मदयन्त्याः पतिर्वीर नाधर्मं
कर्तुमर्हसि ।
देहि मेऽपत्यकामाया अकृतार्थं पतिं
द्विजम् ॥ २७॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने
किसी राक्षस को मार डाला और उसके भाई को छोड़ दिया। उसने राजा के इस काम को अन्याय
समझ और उनसे भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये वह रसोइये का रूप धारण करके उनके
घर गया। जब एक दिन भोजन करने के लिये गुरु वसिष्ठ जी राजा के यहाँ आये, तब उसने मनुष्य का मांस राँधकर उन्हें परस दिया। जब सर्वसमर्थ वसिष्ठ जी
ने देखा कि परोसी जाने वाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब
उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि ‘जा, इस काम से तू राक्षस हो जायेगा’। जब उन्हें यह बात
मालूम हुई कि यह काम तो राक्षस का है-राजा का नहीं, तब
उन्होंने उस शाप को केवल बारह वर्ष एक लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी
अंजलि में जल लेकर गुरु वसिष्ठ को शाप देने के लिये उद्यत हुए। परन्तु उनकी पत्नी
मदयन्ती ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इस पर सौदास ने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी-सब-के-सब तो जीवमय ही हैं।
तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोडूँ?’ अन्त में उन्होंने उस जल को
अपने पैरों पर डाल दिया। [इसी से उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ]। उस जल से उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये
उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब वे
राक्षस हो चुके थे।
एक दिन राक्षस बने हुए राजा
कल्माषपाद ने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पत्ति को सहवास के समय देख लिया। कल्माषपाद को
भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मण को
पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नी की कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा- राजन! आप
राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्ती के पति और इक्ष्वाकु वंश के वीर महारथी हैं।
आप को ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तान की कामना है और इस ब्राह्मण की भी
कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, इसलिये आप मुझे मेरा यह
ब्राह्मण पति दे दीजिये।
देहोऽयं मानुषो राजन्
पुरुषस्याखिलार्थदः ।
तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध
उच्यते ॥ २८॥
एष हि ब्राह्मणो
विद्वांस्तपःशीलगुणान्वितः ।
आरिराधयिषुर्ब्रह्म
महापुरुषसंज्ञितम् ।
सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वन्तर्हितं
गुणैः ॥ २९॥
सोऽयं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते
राजर्षिप्रवराद्विभो ।
कथमर्हति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मजः
॥ ३०॥
तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिनः
।
कथं वधं यथा बभ्रोर्मन्यते सन्मतो
भवान् ॥ ३१॥
यद्ययं क्रियते भक्षस्तर्हि मां खाद
पूर्वतः ।
न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं
यथा ॥ ३२॥
एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या
अनाथवत् ।
व्याघ्रः पशुमिवाखादत्सौदासः
शापमोहितः ॥ ३३॥
ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषुं
पुरुषादेन भक्षितम् ।
शोचन्त्यात्मानमुर्वीशमशपत्कुपिता
सती ॥ ३४॥
यस्मान्मे भक्षितः पाप कामार्तायाः
पतिस्त्वया ।
तवापि मृत्युराधानादकृतप्रज्ञ
दर्शितः ॥ ३५॥
एवं मित्रसहं शप्त्वा पतिलोकपरायणा
।
तदस्थीनि समिद्धेऽग्नौ प्रास्य
भर्तुर्गतिं गता ॥ ३६॥
विशापो द्वादशाब्दान्ते मैथुनाय
समुद्यतः ।
विज्ञाय ब्राह्मणीशापं महिष्या स
निवारितः ॥ ३७॥
तत ऊर्ध्वं स तत्याज स्त्रीसुखं
कर्मणाप्रजाः ।
वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयन्त्यां
प्रजामधात् ॥ ३८॥
सा वै सप्त समा गर्भमबिभ्रन्न
व्यजायत ।
जघ्नेऽश्मनोदरं तस्याः सोऽश्मकस्तेन
कथ्यते ॥ ३९॥
अश्मकान्मूलको जज्ञे यः स्त्रीभिः
परिरक्षितः ।
नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे
मूलकोऽभवत् ॥ ४०॥
ततो दशरथस्तस्मात्पुत्र ऐडविडिस्ततः
।
राजा विश्वसहो यस्य
खट्वाङ्गश्चक्रवर्त्यभूत् ॥ ४१॥
राजन! यह मनुष्य-शरीर जीव को धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति
कराने वाला है। इसलिये वीर! इस शरीर को नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही
जाती है। फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और
बड़े-बड़े गुणों से सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्म की समस्त प्राणियों के
आत्मा के रूप में आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थों
में विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणों से छिपे हुए हैं। राजन! आप
शक्तिशाली हैं। आप धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिता के हाथों पुत्र की
मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षि के हाथों
मेरे श्रेष्ठ ब्राह्मण पति का वध किसी प्रकार उचित नहीं है। आपका साधु-समाज में
बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पति का वध कैसे ठीक समझ रहे हैं? ये तो गौ के समान निरीह हैं। फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं,
तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पति के बिना मैं मुर्दे के
समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी’।
ब्राह्मण पत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण
वाणी में इस प्रकार कहकर अनाथ की भाँति रोने लगी। परन्तु सौदास ने शाप से मोहित
होने के कारण उसकी प्रार्थना पर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मण को वैसे ही
खा गया,
जैसे बाघ किसी पशु को खा जाये। जब ब्राह्मणी ने देखा कि राक्षस ने
मेरे गर्भाधान के लिये उद्यत पति को खा लिया, तब उसे बड़ा
शोक हुआ। सती ब्राह्मणी ने क्रोध करके राजा को शाप दे दिया। ‘रे पापी! मैं अभी काम से पीड़ित हो रही थी। ऐसी अवस्था में तूने मेरे पति
को खा डाला है। इसलिये मूर्ख! जब तू स्त्री से सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायेगी, यह बात मैं तुझे सुझाये
देती हूँ’। इस प्रकार मित्रसह को शाप देकर ब्राह्मणी अपने
पति की अस्थियों को धधकती हुई चिता में डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति
प्राप्त की, जो उसके पतिदेव को मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पति को छोड़कर और किसी लोक में जाना भी तो नहीं चाहती थी।
बारह वर्ष बीतने पर राजा सौदास शाप
से मुक्त हो गये। जब वे सहवास के लिये अपनी पत्नी के पास गये,
तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणी के शाप का पता
था। इसके बाद उन्होंने स्त्री-सुख का बिक्लुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने
कर्म के फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठ जी ने उनके कहने से मदयन्ती को
गर्भाधान कराया। मदयन्ती सात वर्ष तक गर्भ धारण किये रही, किन्तु
बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठ जी ने पत्थर से उसके पेट पर आघात किया। इससे जो
बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोट से पैदा होने के कारण ‘अश्मक’ कहलाया। अश्मक से मूलक का जन्म हुआ। जब
परशुराम जी पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियों
ने उसे छिपाकर रख लिया था। इसी से उसका एक नाम ‘नारीकवच’
भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वी के क्षत्रियहीन हो
जाने पर उस वंश का मूल (प्रवर्तक) बना। मूलक के पुत्र हुए दशरथ, दशरथ के ऐडविड और ऐडविड के राजा विश्वसह। विश्वसह के पुत्र ही चक्रवर्ती
सम्राट् खट्वांग हुए।
यो देवैरर्थितो दैत्यानवधीद्युधि
दुर्जयः ।
मुहूर्तमायुर्ज्ञात्वैत्य स्वपुरं
सन्दधे मनः ॥ ४२॥
न मे ब्रह्मकुलात्प्राणाः
कुलदैवान्न चात्मजाः ।
न श्रियो न मही राज्यं न
दाराश्चातिवल्लभाः ॥ ४३॥
न बाल्येऽपि मतिर्मह्यमधर्मे रमते
क्वचित् ।
नापश्यमुत्तमश्लोकादन्यत्किञ्चन
वस्त्वहम् ॥ ४४॥
देवैः कामवरो दत्तो मह्यं
त्रिभुवनेश्वरैः ।
न वृणे तमहं कामं भूतभावनभावनः ॥
४५॥
ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते
स्वहृदि स्थितम् ।
न विन्दन्ति प्रियं शश्वदात्मानं
किमुतापरे ॥ ४६॥
अथेशमायारचितेषु सङ्गं
गुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।
रूढं प्रकृत्याऽऽत्मनि विश्वकर्तु-
र्भावेन हित्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ४७॥
इति व्यवसितो बुद्ध्या
नारायणगृहीतया ।
हित्वान्यभावमज्ञानं ततः स्वं
भावमाश्रितः ॥ ४८॥
यत्तद्ब्रह्म परं सूक्ष्ममशून्यं
शून्यकल्पितम् ।
भगवान् वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वताः
॥ ४९॥
युद्ध में उन्हें कोई जीत नहीं सकता
था। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से दैत्यों का वध किया था। जब उन्हें देवताओं
से यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है,
तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मन को उन्होंने भगवान् में लगा
दिया। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘मेरे कुल के इष्ट देवता हैं
ब्राह्मण! उनसे बढ़कर मेरा प्रेम अपने प्राणों पर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और
पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते। मेरा मन बचपन में भी कभी अधर्म की ओर नहीं
गया। मैंने पवित्र कीर्ति भगवान् के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी।
तीनों लोकों के स्वामी देवताओं ने मुझे मुँहमाँगा वर देने को कहा, परन्तु मैंने उन भोगों की लालसा बिल्कुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियों
के जीवनदाता श्रीहरि की भावना में ही मैं मग्न हो रहा था।
जिन देवताओं की इन्द्रियाँ और मन
विषयों में भटक रहे हैं, वे सत्त्वगुण
प्रधान होने पर भी अपने हृदय में विराजमान, सदा-सर्वदा
प्रियतम के रूप में रहने वाले अपने आत्मस्वरूप भगवान् को नहीं जानते। फिर भला जो
रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं। इसलिये
अब इन विषयों में मैं नहीं रमता। ये तो माया के खेल हैं। आकाश में झूठ-मूठ प्रतीत
होने वाले गन्धर्व नगरों से बढ़कर इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्त पर
चढ़ गये थे। संसार के सच्चे रचयिता भगवान् की भावना में लीन होकर मैं विषयों को
छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हीं की शरण ले रहा हूँ।
परीक्षित! भगवान् ने राजा खट्वांग
की बुद्धि को पहले से ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसी से वे अन्त समय में ऐसा
निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थों में जो अज्ञानमूलक आत्मभाव
था,
उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूप में स्थित हो
गये। वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्म भी सूक्ष्म, शून्य के समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम
सत्य है। भक्तजन उसी वस्तु को ‘भगवान् वासुदेव’ इस नाम से वर्णन करते हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे सूर्यवंशानुवर्णने नवमोऽध्यायः ॥ ९॥
जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: दशमोऽध्यायः
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