श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १०                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १० "भगवान् श्रीराम की लीलाओं का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १०

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १०                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः १०                                                               

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध दसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय १० श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमोऽध्यायः - १० ॥

श्रीशुक उवाच

खट्वाङ्गाद्दीर्घबाहुश्च रघुस्तस्मात्पृथुश्रवाः ।

अजस्ततो महाराजस्तस्माद्दशरथोऽभवत् ॥ १॥

तस्यापि भगवानेष साक्षाद्ब्रह्ममयो हरिः ।

अंशांशेन चतुर्धागात्पुत्रत्वं प्रार्थितः सुरैः ।

रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्ना इति संज्ञया ॥ २॥

(जानकीजीवनस्मरणं जय जय राम राम )

तस्यानुचरितं राजन्नृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।

श्रुतं हि वर्णितं भूरि त्वया सीतापतेर्मुहुः ॥ ३॥

गुर्वर्थे त्यक्तराज्यो व्यचरदनुवनं पद्मपद्भ्यां प्रियायाः

पाणिस्पर्शाक्षमाभ्यां मृजितपथरुजो यो हरीन्द्रानुजाभ्याम् ।

वैरूप्याच्छूर्पणख्याः प्रियविरहरुषाऽऽरोपितभ्रूविजृम्भ-

त्रस्ताब्धिर्बद्धसेतुः खलदवदहनः कोसलेन्द्रोऽवतान्नः ॥ ४॥

विश्वामित्राध्वरे येन मारीचाद्या निशाचराः ।

पश्यतो लक्ष्मणस्यैव हता नैरृतपुङ्गवाः ॥ ५॥

यो लोकवीरसमितौ धनुरैशमुग्रं

सीतास्वयंवरगृहे त्रिशतोपनीतम् ।

आदाय बालगजलील इवेक्षुयष्टिं

सज्जीकृतं नृप विकृष्य बभञ्ज मध्ये ॥ ६॥

जित्वानुरूपगुणशीलवयोऽङ्गरूपां

सीताभिधां श्रियमुरस्यभिलब्धमानाम् ।

मार्गे व्रजन् भृगुपतेर्व्यनयत्प्ररूढं

दर्पं महीमकृत यस्त्रिरराजबीजाम् ॥ ७॥

यः सत्यपाशपरिवीतपितुर्निदेशं

स्त्रैणस्य चापि शिरसा जगृहे सभार्यः ।

राज्यं श्रियं प्रणयिनः सुहृदो निवासं

त्यक्त्वा ययौ वनमसूनिव मुक्तसङ्गः ॥ ८॥

रक्षःस्वसुर्व्यकृत रूपमशुद्धबुद्धे-

स्तस्याः खरत्रिशिरदूषणमुख्यबन्धून् ।

जघ्ने चतुर्दशसहस्रमपारणीय-

कोदण्डपाणिरटमान उवास कृच्छ्रम् ॥ ९॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहु के परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु के अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए। देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि ही अपने अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थे- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न।

परीक्षित! सीतापति भगवान् श्रीराम का चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है।

भगवान श्रीराम ने अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा के लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वन में फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकी जी के करकमलों का स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वन में चलते-चलते थक जाते, तब हनुमान और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखा को नाक-कान काटकर विरूप कर देने के कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकी जी का वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोग के कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्र तक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्र पर पुल बाँधा और लंका में जाकर दुष्ट राक्षसों के जंगल को दावाग्नि के समान दग्ध कर दिया। वे कोसल नरेश हमारी रक्षा करें।

भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र के यज्ञ में लक्ष्मण के सामने ही मरीच आदि राक्षसों को मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसों की गिनती में थे। परीक्षित! जनकपुर में सीता जी का स्वयंवर हो रहा था। संसार के चुने हुए वीरों की सभा में भगवान् शंकर का वह भयंकर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाई से उसे स्वयंवर सभा में ला सके थे। भगवान श्रीराम ने उस धनुष को बात-की-बात में उठाकर उस पर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोंबीच से उसके दो टुकड़े कर दिये-ठीक वैसे ही, जैसे हाथी का बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले। भगवान् ने जिन्हें अपने वक्षःस्थल पर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मी जी ही सीता के नाम से जनकपुर में अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीर की गठन और सौन्दर्य में सर्वथा भगवान् श्रीराम के अनुरूप थीं। भगवान् ने धनुष तोड़कर उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्या को लौटते समय मार्ग में उन परशुराम जी से भेंट हुई जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को राजवंश के बीज से भी रहित कर दिया था। भगवान ने उनके बढ़े हुए गर्व को नष्ट कर दिया।

इसके बाद पिता के वचन को सत्य करने के लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी के अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था, फिर भी वे सत्य के बन्धन में बँध गये थे। इसलिये भगवान् ने अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की। उन्होंने प्राणों के समान प्यारे राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलों को वैसे ही छोड़कर अपनी पत्नी के साथ यात्रा की, जैसे मुक्त संग योगी प्राणों को छोड़ देता है। वन में पहुँचकर भगवान् ने राक्षसराज रावण की बहिन शूर्पणखा को विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, काम वासना के कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयों को-जो संख्या में चौदह हजार थे-हाथ में महान् धनुष लेकर भगवान् श्रीराम ने नष्ट कर डाला; और अनेक प्रकार की कठिनाइयों से परिपूर्ण वन में इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे।

सीताकथाश्रवणदीपितहृच्छयेन

सृष्टं विलोक्य नृपते दशकन्धरेण ।

जघ्नेऽद्भुतैणवपुषाऽऽश्रमतोऽपकृष्टो

मारीचमाशु विशिखेन यथा कमुग्रः ॥ १०॥

रक्षोऽधमेन वृकवद्विपिनेऽसमक्षं

वैदेहराजदुहितर्यपयापितायाम् ।

भ्रात्रा वने कृपणवत्प्रियया वियुक्तः

स्त्रीसङ्गिनां गतिमिति प्रथयंश्चचार ॥ ११॥

दग्ध्वाऽऽत्मकृत्यहतकृत्यमहन् कबन्धं

सख्यं विधाय कपिभिर्दयितागतिं तैः ।

बुद्ध्वाथ वालिनि हते प्लवगेन्द्रसैन्यै-

र्वेलामगात्स मनुजोऽजभवार्चिताङ्घ्रिः ॥ १२॥

यद्रोषविभ्रमविवृत्तकटाक्षपात-

सम्भ्रान्तनक्रमकरो भयगीर्णघोषः ।

सिन्धुः शिरस्यर्हणं परिगृह्य रूपी

पादारविन्दमुपगम्य बभाष एतत् ॥ १३॥

न त्वां वयं जडधियो नु विदाम भूमन्

कूटस्थमादिपुरुषं जगतामधीशम् ।

यत्सत्त्वतः सुरगणा रजसः प्रजेशा

मन्योश्च भूतपतयः स भवान् गुणेशः ॥ १४॥

कामं प्रयाहि जहि विश्रवसोऽवमेहं

त्रैलोक्यरावणमवाप्नुहि वीर पत्नीम् ।

बध्नीहि सेतुमिह ते यशसो वितत्यै

गायन्ति दिग्विजयिनो यमुपेत्य भूपाः ॥ १५॥

बद्ध्वोदधौ रघुपतिर्विविधाद्रिकूटैः

सेतुं कपीन्द्रकरकम्पितभूरुहाङ्गैः ।

सुग्रीवनीलहनुमत्प्रमुखैरनीकै-

र्लङ्कांविभीषणदृशाऽऽविशदग्रदग्धाम् ॥ १६॥

सा वानरेन्द्रबलरुद्धविहारकोष्ठ-

श्रीद्वारगोपुरसदोवलभीविटङ्का ।

निर्भज्यमानधिषणध्वजहेमकुम्भ-

श‍ृङ्गाटका गजकुलैर्ह्रदिनीव घूर्णा ॥ १७॥

परीक्षित! जब रावण ने सीता जी के रूप, गुण, सौन्दर्य आदि की बात सुनी तो उसका हृदय काम वासना से आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिन के वेष में मरीच को उनकी पर्णकुटी के पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान को वहाँ से दूर ले गया। अन्त में भगवान ने अपने बाण से उसे बात-की-बात में वैसे ही मार डाला, जैसे दक्ष प्रजापति को वीरभद्र ने मारा था। जब भगवान श्रीराम जंगल में दूर निकल गये, तब (लक्ष्मण की अनुपस्थिति में) नीच राक्षस रावण ने भेड़िये के समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीता जी को हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीता जी से बिछुड़कर अपने भाई लक्ष्मण के साथ वन-वन में दीन की भाँति घूमने लगे और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि जो स्त्रियों में आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है

इसके बाद भगवान ने उस जटायु का दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्म बन्धन भगवत्सेवारूप कर्म से पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान ने कबन्ध का संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरों से मित्रता करके बालि का वध किया, तदनन्तर वानरों के द्वारा अपनी प्राणप्रिया का पता लगवाया। ब्रह्मा और शंकर जिनके चरणों की वन्दना करते हैं, वे भगवान श्रीराम मनुष्य की-सी लीला करते हुए बंदरों की सेना के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। (वहाँ उपवास और प्रार्थना से जब समुद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान ने क्रोध की लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्र पर डाली। उसी समय समुद्र के बड़े-बड़े मगर और मच्छ खलबला उठे। डर जाने के कारण समुद्र की गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिर पर बहुत-सी भेंटे लेकर भगवान के चरणकमलों की शरण में आया और इस प्रकार कहने लगा ;- ‘अनन्त! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। जानें भी कैसे? आप समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत् के समस्त परिवर्तनों में एकरस रहने वाले हैं। आप समस्त गुणों के स्वामी हैं। इसलिये जब आप सत्त्वगुण को स्वीकार कर लेते हैं, तब देवताओं की, रजोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियों की और तमोगुण को स्वीकार कर लेते हैं, तब आपके क्रोध से रुद्रगण की उत्पत्ति होती है।

वीरशिरोमणे! आप अपनी इच्छा के अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकी को रुलाने वाले विश्रवा के कुपूत रावण को मारकर अपनी पत्नी को फिर से प्राप्त कीजिये। परन्तु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझ पर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आपके यश का विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यश का गान करेंगे

भगवान श्रीराम ने अनेकानेक पर्वतों के शिखरों से समुद्र पर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथों से पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँपने लगती थीं। इसके बाद विभीषण की सलाह से सुग्रीव, नील, हनुमान आदि प्रमुख वीरों और वानरी सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। वह तो श्रीहनुमान जी के द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी। उस समय वानर की सेना ने लंका के सैर करने और खेलने के स्थान, अन्न के गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभा भवन, छज्जे और पक्षियों के रहने के स्थान तक को घेर लिया। उन्होंने वहाँ की वेदी, ध्वजाएँ, सोने के कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लंका ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हाथियों ने किसी नदी को मथ डाल हो।

रक्षःपतिस्तदवलोक्य निकुम्भकुम्भ-

धूम्राक्षदुर्मुखसुरान्तकनरान्तकादीन् ।

पुत्रं प्रहस्तमतिकायविकम्पनादीन्

सर्वानुगान् समहिनोदथ कुम्भकर्णम् ॥ १८॥

तां यातुधानपृतनामसिशूलचाप-

प्रासर्ष्टिशक्तिशरतोमरखड्गदुर्गाम् ।

सुग्रीवलक्ष्मणमरुत्सुतगन्धमाद-

नीलाङ्गदर्क्षपनसादिभिरन्वितोऽगात् ॥ १९॥

तेऽनीकपा रघुपतेरभिपत्य सर्वे

द्वन्द्वं वरूथमिभपत्तिरथाश्वयोधैः ।

जघ्नुर्द्रुमैर्गिरिगदेषुभिरङ्गदाद्याः

सीताभिमर्शहतमङ्गलरावणेशान् ॥ २०॥

रक्षःपतिः स्वबलनष्टिमवेक्ष्य रुष्ट

आरुह्य यानकमथाभिससार रामम् ।

स्वःस्यन्दने द्युमति मातलिनोपनीते

विभ्राजमानमहनन्निशितैः क्षुरप्रैः ॥ २१॥

रामस्तमाह पुरुषादपुरीष यन्नः

कान्तासमक्षमसतापहृता श्ववत्ते ।

त्यक्तत्रपस्य फलमद्य जुगुप्सितस्य

यच्छामि काल इव कर्तुरलङ्घ्यवीर्यः ॥ २२॥

एवं क्षिपन् धनुषि सन्धितमुत्ससर्ज

बाणं स वज्रमिव तद्धृदयं बिभेद ।

सोऽसृग्वमन् दशमुखैर्न्यपतद्विमाना-

द्धाहेति जल्पति जने सुकृतीव रिक्तः ॥ २३॥

ततो निष्क्रम्य लङ्काया यातुधान्यः सहस्रशः ।

मन्दोदर्या समं तस्मिन् प्ररुदत्य उपाद्रवन् ॥ २४॥

स्वान् स्वान् बन्धून् परिष्वज्य लक्ष्मणेषुभिरर्दितान् ।

रुरुदुः सुस्वरं दीना घ्नन्त्य आत्मानमात्मना ॥ २५॥

हा हताः स्म वयं नाथ लोकरावण रावण ।

कं यायाच्छरणं लङ्का त्वद्विहीना परार्दिता ॥ २६॥

नैवं वेद महाभाग भवान् कामवशं गतः ।

तेजोऽनुभावं सीताया येन नीतो दशामिमाम् ॥ २७॥

कृतैषा विधवा लङ्का वयं च कुलनन्दन ।

देहः कृतोऽन्नं गृध्राणामात्मा नरकहेतवे ॥ २८॥

 यह देखकर राक्षसराज रावण ने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्त में भाई कुम्भकर्ण को भी युद्ध करने के लिये भेजा। राक्षसों की वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रों से सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान् श्रीराम ने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान और पनस आदि वीरों को अपने साथ लेकर राक्षसों की सेना का सामना किया।

रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीराम के अंगद आदि सब सेनापति राक्षसों की चतुरंगिणी सेना-हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलों के साथ द्वन्दयुद्ध की रीति से भिड़ गये और राक्षसों को वृक्ष, पर्वत शिखर, गदा और बाणों से मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावण के अनुचर थे, जिसका मंगल श्रीसीता जी को स्पर्श करने के कारण पहले ही नष्ट हो चुका था। जब राक्षसराज रावण ने देखा कि मेरी सेना का तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोध में भरकर पुष्पक विमान पर आरुढ़ हो भगवान् श्रीराम के सामने आया। उस समय इन्द्र का सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उस पर भगवान् श्रीराम जी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणों से उन पर प्रहार करने लगा।

भगवान श्रीराम जी ने रावण से कहा ;- ‘नीच राक्षस! तुम कुत्ते की तरह हमारी अनुपस्थिति में हमारी प्राणप्रिया पत्नी को हर लाये! तुमने दुष्टता की हद कर दी! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे काल को कोई टाल नहीं सकता-कर्तापन के अभिमानी को वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनी का फल चखाता हूँ। इस प्रकार रावण को फटकारते हुए भगवान् श्रीराम ने अपने धनुष पर चढ़ाया हुआ बाण उस पर छोड़ा। उस बाण ने वज्र के समान उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखों से खून उगलता हुआ विमान से गिर पड़ा-ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मा लोग भोग समाप्त हो जाने पर स्वर्ग से गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन हाय-हायकरके चिल्लाने लगे।

तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरी के साथ रोती हुई लंका से निकल पड़ीं और रणभूमि में आयीं। उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मण जी के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियों को हृदय से लगा-लगाकर ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं। हाय-हाय! स्वामी! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भय से समस्त लोकों में त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहने से हमारे शत्रु लंका की दर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्न उठ रहा है कि अब लंका किसके अधीन रहेगी। आप सब प्रकार से सम्पन्न थे, किसी भी बात की कमी न थी। परन्तु आप काम के वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीता जी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशा का कारण बन गयी। कभी आपके कामों से हम सब और समस्त राक्षस वंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लंका नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधों का आहार बन रहा है और अपने आत्मा को आपने नरक का अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकता का फल है।

श्रीशुक उवाच

स्वानां विभीषणश्चक्रे कोसलेन्द्रानुमोदितः ।

पितृमेधविधानेन यदुक्तं साम्परायिकम् ॥ २९॥

ततो ददर्श भगवानशोकवनिकाश्रमे ।

क्षामां स्वविरहव्याधिं शिंशपामूलमास्थिताम् ॥ ३०॥

रामः प्रियतमां भार्यां दीनां वीक्ष्यान्वकम्पत ।

आत्मसन्दर्शनाह्लादविकसन्मुखपङ्कजाम् ॥ ३१॥

आरोप्यारुरुहे यानं भ्रातृभ्यां हनुमद्युतः ।

विभीषणाय भगवान् दत्त्वा रक्षोगणेशताम् ॥ ३२॥

लङ्कामायुश्च कल्पान्तं ययौ चीर्णव्रतः पुरीम् ।

अवकीर्यमाणः सुकुसुमैर्लोकपालार्पितैः पथि ॥ ३३॥

उपगीयमानचरितः शतधृत्यादिभिर्मुदा ।

गोमूत्रयावकं श्रुत्वा भ्रातरं वल्कलाम्बरम् ॥ ३४॥

महाकारुणिकोऽतप्यज्जटिलं स्थण्डिलेशयम् ।

भरतः प्राप्तमाकर्ण्य पौरामात्यपुरोहितैः ॥ ३५॥

पादुके शिरसि न्यस्य रामं प्रत्युद्यतोऽग्रजम् ।

नन्दिग्रामात्स्वशिबिराद्गीतवादित्रनिःस्वनैः ॥ ३६॥

ब्रह्मघोषेण च मुहुः पठद्भिर्ब्रह्मवादिभिः ।

स्वर्णकक्षपताकाभिर्हैमैश्चित्रध्वजै रथैः ॥ ३७॥

सदश्वै रुक्मसन्नाहैर्भटैः पुरटवर्मभिः ।

श्रेणीभिर्वारमुख्याभिर्भृत्यैश्चैव पदानुगैः ॥ ३८॥

पारमेष्ठ्यान्युपादाय पण्यान्युच्चावचानि च ।

पादयोर्न्यपतत्प्रेम्णा प्रक्लिन्नहृदयेक्षणः ॥ ३९॥

पादुके न्यस्य पुरतः प्राञ्जलिर्बाष्पलोचनः ।

तमाश्लिष्य चिरं दोर्भ्यां स्नापयन् नेत्रजैर्जलैः ॥ ४०॥

रामो लक्ष्मणसीताभ्यां विप्रेभ्यो येऽर्हसत्तमाः ।

तेभ्यः स्वयं नमश्चक्रे प्रजाभिश्च नमस्कृतः ॥ ४१॥

धुन्वन्त उत्तरासङ्गान् पतिं वीक्ष्य चिरागतम् ।

उत्तराः कोसला माल्यैः किरन्तो ननृतुर्मुदा ॥ ४२॥

पादुके भरतोऽगृह्णाच्चामरव्यजनोत्तमे ।

विभीषणः ससुग्रीवः श्वेतच्छत्रं मरुत्सुतः ॥ ४३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कोसलाधीश भगवान श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से विभीषण ने अपने स्वजन-सम्बन्धियों का पितृयज्ञ की विधि से शास्त्र के अनुसार अन्त्येष्टि कर्म किया। इसके बाद भगवान श्रीराम ने अशोक वाटिका के आश्रम में अशोक वृक्ष के नीचे बैठी हुई श्रीसीता जी को देखा। वे उन्हीं के विरह की व्यथा से पीड़ित एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं। अपनी प्राणप्रिया अर्द्धांगिनी श्रीसीता जी को अत्यन्त दीन अवस्था में देखकर श्रीराम का हृदय प्रेम और कृपा से भर आया। इधर भगवानका दर्शन पाकर सीता जी का हृदय प्रेम और आनन्द से परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा। भगवान ने विभीषण को राक्षसों का स्वामित्व, लंकापुरी का राज्य और एक कल्प की आयु दी और इसके बाद पहले सीता जी को विमान पर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनुमान जी के साथ स्वयं भी विमान पर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्ष का व्रत पूरा हो जाने पर उन्होंने अपने नगर की यात्रा की। उस समय मार्ग में ब्रह्मा आदि लोकपरायणगण उन पर बड़े प्रेम से पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।

इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्द से भगवान की लीलाओं का गान कर रहे थे और उधर जब भगवान को यह मालूम हुआ कि भरत जी केवल गोमूत्र में पकाया हुआ जौ का दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वी पर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुःखी हुए। उनकी दशा का स्मरण कर परमकरुणाशील भगवान का हृदय भर आया। जब भरत को मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान श्रीराम जी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितों को साथ लेकर एवं भगवान की पादुकाएँ सिर पर रखकर उनकी अगवानी के लिये चले। जब भरत जी अपने रहने के स्थान नन्दिग्राम से चले, तब लोग उनके साथ-साथ मंगलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेद मन्त्रों का उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोने से मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओं से सजे हुए रथ, सुनहले साज से सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सोने के कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वारांगनाएँ, पैदल चलने वाले सेवक और महाराजाओं के योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं।

भगवान को देखते ही प्रेम के उद्रेक से भरत जी का हृदय गद्गद हो गया, नेत्रों में आँसू छलक आये, वे भगवान के चरणों पर गिर पड़े। उन्होंने प्रभु के सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। नेत्रों से आँसू की धारा बहती जा रही थी। भगवान ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर बहुत देर तक भरत जी को हृदय से लगाये रखा। भगवान के नेत्रजल से भरत जी का स्नान हो गया। इसके बाद सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ भगवान श्रीराम जी ने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनों को नमस्कार किया तथा सारी प्रजा ने बड़े प्रेम से सिर झुकाकर भगवान के चरणों में प्रणाम किया। उस समय उत्तर कोसल देश की रहने वाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान को बहुत दिनों के बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पों की वर्षा करती हुई आनन्द से नाचने लगी। भरत जी ने भगवान की पादुकाएँ लीं, विभीषण ने श्वेत चँवर, सुग्रीव ने पंखा और श्रीहनुमान जी ने श्वेत छत्र ग्रहण किया।

धनुर्निषङ्गान् शत्रुघ्नः सीता तीर्थकमण्डलुम् ।

अबिभ्रदङ्गदः खड्गं हैमं चर्मर्क्षराण्नृप ॥ ४४॥

पुष्पकस्थोऽन्वितः स्त्रीभिः स्तूयमानश्च वन्दिभिः ।

विरेजे भगवान् राजन् ग्रहैश्चन्द्र इवोदितः ॥ ४५॥

भ्रातृभिर्नन्दितः सोऽपि सोत्सवां प्राविशत्पुरीम् ।

प्रविश्य राजभवनं गुरुपत्नीः स्वमातरम् ॥ ४६॥

गुरून् वयस्यावरजान् पूजितः प्रत्यपूजयत् ।

वैदेही लक्ष्मणश्चैव यथावत्समुपेयतुः ॥ ४७॥

पुत्रान् स्वमातरस्तास्तु प्राणांस्तन्व इवोत्थिताः ।

आरोप्याङ्केऽभिषिञ्चन्त्यो बाष्पौघैर्विजहुः शुचः ॥ ४८॥

जटा निर्मुच्य विधिवत्कुलवृद्धैः समं गुरुः ।

अभ्यषिञ्चद्यथैवेन्द्रं चतुःसिन्धुजलादिभिः ॥ ४९॥

एवं कृतशिरःस्नानः सुवासाः स्रग्व्यलङ्कृतः ।

स्वलङ्कृतैः सुवासोभिर्भ्रातृभिर्भार्यया बभौ ॥ ५०॥

अग्रहीदासनं भ्रात्रा प्रणिपत्य प्रसादितः ।

प्रजाः स्वधर्मनिरता वर्णाश्रमगुणान्विताः ।

जुगोप पितृवद्रामो मेनिरे पितरं च तम् ॥ ५१॥

त्रेतायां वर्तमानायां कालः कृतसमोऽभवत् ।

रामे राजनि धर्मज्ञे सर्वभूतसुखावहे ॥ ५२॥

वनानि नद्यो गिरयो वर्षाणि द्वीपसिन्धवः ।

सर्वे कामदुघा आसन् प्रजानां भरतर्षभ ॥ ५३॥

नाधिव्याधिजराग्लानिदुःखशोकभयक्लमाः ।

मृत्युश्चानिच्छतां नासीद्रामे राजन्यधोक्षजे ॥ ५४॥

एकपत्नीव्रतधरो राजर्षिचरितः शुचिः ।

स्वधर्मं गृहमेधीयं शिक्षयन् स्वयमाचरत् ॥ ५५॥

प्रेम्णानुवृत्त्या शीलेन प्रश्रयावनता सती ।

भिया ह्रिया च भावज्ञा भर्तुः सीताहरन्मनः ॥ ५६॥

परीक्षित! शत्रुघ्न जी ने धनुष और तरकस, सीता जी ने तीर्थों के जल से भरा हुआ कमण्डलु, अंगद ने सोने का खड्ग और जाम्बवान् ने ढाल ले ली। इन लोगों के साथ भगवान् पुष्पक विमान पर विराजमान हो गये, चारों तरह यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमान पर भगवान् श्रीराम की ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहों के साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों।

इस प्रकार भगवान् ने भाइयों का अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सव से परिपूर्ण हो रही थी। राजमहल में प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबर के मित्रों और छोटों का यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीता जी और लक्ष्मण जी ने भी भगवान् के साथ-साथ सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार किया। उस समय जैसे मृतक शरीर में प्राणों का संचार हो जाये, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रों के आगमन से हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोद में बैठा लिया और अपने आँसुओं से उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया।

इसके बाद वसिष्ठ जी ने दूसरे गुरुजनों के साथ विधिपूर्वक भगवान् की जटा उतरवायी और बृहस्पति ने जैसे इन्द्र का अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रों के जल आदि से उनका अभिषेक किया। इस प्रकार सिर से स्नान करके भगवान् श्रीराम ने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकी जी ने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान् श्रीराम जी अत्यन्त शोभायमान हुए। भरत जी ने उनके चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करने पर भगवान् श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्म में तत्पर तथा वर्णाश्रम के आचार को निभाने वाली प्रजा का पिता के समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी।

परीक्षित! जब समस्त प्राणियों को सुख देने वाले परम धर्मज्ञ भगवान् श्रीराम राजा हुए, तब था तो त्रेतायुग, परन्तु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है। परीक्षित! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र-सब-के-सब प्रजा के लिये कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले बन रहे थे। इन्द्रियातीत भगवान् श्रीराम के राज्य करते समय किसी को मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाम मात्र के लिये भी नहीं थे। यहाँ तक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी। भगवान् श्रीराम ने एक पत्नी का व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अतंत पवित्र एवं राजर्षियों के-से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्म की शिक्षा देने के लिये स्वयं उस धर्म का आचरण करते थे। सतीशिरोमणि सीता जी अपने पति के हृदय का भाव जानती रहतीं। वे प्रेम से, सेवा से, शील से, अत्यन्त विनय से तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणों से अपने पति भगवान् श्रीराम जी का चित्त चुराती रहती थीं।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे रामचरिते दशमोऽध्यायः ॥ १०॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: एकादशोऽध्यायः

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