श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ४
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प अध्याय ४ आसन्नमृत्यु – व्यक्ति के निमित्त किये जानेवाले
प्रायश्चित्त, दस दान आदि विविध कर्म, मृत्यु
के बाद किये जानेवाले कर्म, षट् पिण्डदान, दाह-संस्कार से पूर्व किये जानेवाले कर्म, दाह-संस्कार
के बाद अस्थिसंचयनादिकर्म तथा गृहप्रवेश समय के कर्म, दुर्मृत्यु
की गति, नारायण- बलि का विधान, पुत्तलदाहविधि
तथा पञ्चक मृत्यु के कृत्य
गरुडपुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ४
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४
Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter
4
श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड
–
प्रेतकल्प चौथा अध्याय
गरुड महापुराण धर्मकाण्ड –
प्रेतकल्प अध्याय ४ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) चतुर्थोऽध्यायः
श्रीकृष्ण उवाच ।
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापियन्नरैः कलुषं
कृतम् ।
तस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं विधेया
निष्कृतिर्नरैः ॥ १ ॥
भस्मादिस्नानदशकमादौ
कुर्याद्विचक्षणः ।
यथाशक्ति
षडब्दादिप्रत्याम्नायाच्चरेदपि ॥ २ ॥
तदर्धं वा तदर्धं वा तदर्धार्धमथापि
वा ।
यथाशक्त्या ततः कुर्याद्दश दानानि
वै शृणु ॥ ३ ॥
श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड! जाने में
या अनजान में मनुष्य जो भी पाप करते हैं, उन
पापों की शुद्धि के लिये उन्हें प्रायश्चित्त करना चाहिये जो विद्वान् है वह पहले
पवित्र करनेवाले भस्म आदि दस स्नान करे और पाप के प्रायश्चित्त के रूप में
शास्त्रोक्त कृच्छ्रादि व्रत अथवा तत्प्रतिनिधिभूत गोदानादि क्रिया करे। यदि
मनुष्य उनमें अक्षमता के कारण सफल न हो रहा हो तो आधा ही सही, यदि आधा भी न हो तो उसका ही आधा सही और नहीं तो उस आधे का भी आधा उसे
कुछ-न-कुछ प्रायश्चित्त अवश्य करना चाहिये। तत्पश्चात् यथासामर्थ्य दस प्रकार के
दान देने का विधान है, उसको सुनो।
गोभूतिलहिरण्याज्यवासोधन्यगुडास्तथा
।
रजतं लवणं चैव दानानि दश वै विदुः ॥
४ ॥
गो, भूमि, तिल, हिरण्य, घृत, वस्त्र, धान्य, गुड़, रजत और लवण- ये दस दान हैं-
प्रायश्चित्ते त्वागता ये तेभ्यो
दद्यान्नरो दश ।
ततो यमद्वारपथे पूयशोणितसंकुले ॥ ५
॥
नदीं वैतरणीं तर्तुं दद्याद्वैतरणीं
च गाम् ।
कृष्णस्तनी सकृष्णाङ्गी सा वै
वैतरणी स्मृता ॥ ६ ॥
यमद्वार पर पहुँचने के लिये जो
मार्ग बताये गये हैं, वे अत्यन्त
दुर्गन्धदायक मवादादि तथा रक्तादि से परिव्याप्त हैं। अतः उस मार्ग में स्थित
वैतरणी नदी को पार करने के लिये वैतरणी गौ का दान करना चाहिये जो गौ सर्वाङ्ग में
काली हो, जिसके स्तन भी काले हों, उसे
वैतरणी गौ माना गया है।
तिला लोहं हिरण्यं च कर्पासं लवणं
तथा ।
सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं
स्मृतम् ॥ ७ ॥
एतान्यष्टौ महादानान्युत्तमाय
द्विजातये ।
आतुरेण तु देयानि पदरूपाणि मे शृणु
॥ ८ ॥
तिल, लोहा, स्वर्ण, कपास, लवण, सप्तधान्य, भूमि और गौ-ये
पाप से शुद्धि के लिये पवित्रता में एक से बढ़कर एक हैं। इन आठ दानों को महादान
कहा जाता है। इनका दान उत्तम प्रकृतिवाले ब्राह्मण को ही देना चाहिये-
छत्रो पानहवस्त्राणि मुद्रिका च
कमण्डलुः ।
आसनं भाजनं पदं चाष्टविधं स्मृतम् ॥
९ ॥
अब पददान का वर्णन सुनो। छत्र,
जूता, वस्त्र, अंगूठी,
कमण्डलु, आसन, पात्र और
भोज्यपदार्थ-ये आठ प्रकार के पद हैं-
तिलापात्रं सर्पिः पात्रं शय्या
सोपस्करा तथा ।
एतत्सर्वं प्रदातव्यं यदिष्टं
चात्मनोऽपि तत् ॥ १० ॥
अश्वो रथश्च महीषी व्यञ्जनं
वस्त्रमेव च ।
ब्राह्मणेभ्यः प्रदातव्यं
ब्रह्मपूर्वमपि स्वयम् ॥ ११ ॥
तिलपात्र,
घृतपात्र, शय्या, उपस्कर
तथा और भी जो कुछ अपने को इष्ट हो, वह सब देना चाहिये। अश्व,
रथ, भैंस, भोजन, वस्त्र का दान ब्राह्मणों को करना चाहिये। अन्य दान भी अपनी शक्ति के
अनुसार देना चाहिये।
दाना न्यन्यान्यपि खग
तर्पयेत्स्वीयशक्तितः ।
प्रायाश्चित्तं कृतं येन दश
दानान्यपि क्षितौ ॥ १२ ॥
दानं गोर्वैतरण्याश्च दानान्यष्टौ
तथापि वा ।
तिलपात्रं सर्पिः पात्रं शय्यादानं
तथैव च ॥ १३ ॥
पददानं च विधिवन्नासौ निरयगर्भगः ।
स्वातन्त्र्येणापि लवणदानमिच्छन्ति
सूरयः ॥ १४ ॥
हे पक्षिराज! इस पृथ्वी पर जिसने
पाप का प्रायश्चित्त कर लिया है, वह दस प्रकार के
दान भी दे चुका है, वैतरणी गौ एवं अष्टदान कर चुका है,
तिल से भरा पूर्ण पात्र, घी से भरा हुआ पात्र,
शय्यादान और विधिवत् पददान करता है तो वह नरकरूपी गर्भ में नहीं आता
है अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता-
विष्णुदेहसमुत्पन्नो यतोऽयं लवणो
रसः ।
आतुरस्य यदा प्राणा न यान्ति
वसुधातले ॥ १५ ॥
लवणं च तदा देयं द्वारस्योद्वाटनं
दिवः ।
यानिकानि च दानानि स्वयं दत्तानि
मानवैः ॥ १६ ॥
तानितानि च सर्वाणि उपतिष्ठन्ति
चाग्रतः ।
प्रायश्चित्तं कृतं येन साङ्गं खग स
वै पुमान् ॥ १७ ॥
पापानि भस्मसात्कृत्वा स्वर्गलोके
महीयते ।
पण्डित लोग स्वतन्त्र रूप से भी लवण
दान करने की इच्छा रखते हैं, क्योंकि यह लवण
रस विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुआ है, इस पृथ्वी पर मरणासन्न
प्राणी के प्राण जब न निकल रहे हों तो उस समय लवण रस का दान उसके हाथ से दिलवाना
चाहिये; क्योंकि यह दान उसके लिये स्वर्गलोक के द्वार खोल
देता है। मनुष्य स्वयं जो कुछ दान देता है, परलोक में वह सब
उसे प्राप्त होता है। यहाँ उसके आगे रखा हुआ मिलता है। हे पक्षिन् जिसने यथाविधि
अपने पापों का प्रायश्चित्त कर लिया है, वही पुरुष है। वही
अपने पापों को भस्मसात् करके स्वर्गलोक में सुखपूर्वक निवास करता है।
अमृतं तु गवां क्षीरं यतः पतगसत्तम्
॥ १८ ॥
तस्माद्ददाति यो धेनुममृतत्वं स
गच्छति ।
दानान्यष्टौ तु दत्त्वा वै
गन्धर्वनिलये वसेत् ॥ १९ ॥
आलयस्तत्र रौद्रे हि दह्यते येन
मानवः ।
छत्रदानेन सुच्छाया जायते पथि
तुष्टिदा ॥ २० ॥
असिपत्रवनं धारमतिक्रामति वै सुखम्
।
अश्वारूढश्च व्रजति ददते यद्युपानहौ
॥ २१ ॥
भोजनासनदानेन सुखं मार्गे भुनक्ति
वै ।
प्रदेशे निर्जले दाता सुखी स्याद्वै
कमण्डलोः ॥ २२ ॥
हे खगराज! गौ का दूध अमृत है।
इसलिये जो मनुष्य दूध देनेवाली गौ का दान देता है, वह अमृतत्व को प्राप्त करता है। पहले कहे गये तिलादिक आठ प्रकार के दान
देकर प्राणी गन्धर्वलोक में निवास करता है। यमलोक का मार्ग अत्यधिक भीषण ताप से
युक्त है, अतः छत्रदान करना चाहिये। छत्रदान करने से मार्ग में
सुख प्रदान करनेवाली छाया प्राप्त होती है। जो मनुष्य इस जन्म में पादुकाओं का दान
देता है, वह 'असिपत्रवन' के मार्ग को घोड़े पर सवार होकर सुखपूर्वक पार करता है। भोजन और आसन का
दान देने से प्राणी को परलोकगमन के मार्ग में सुख का उपभोग प्राप्त होता है। जल से
परिपूर्ण कमण्डलु का दान देनेवाला पुरुष सुखपूर्वक परलोकगमन करता है।
यमदूता महारौद्राः करालाः
कृष्णपिङ्गलाः ।
न पीडयन्ति
दाक्षिण्याद्वस्त्राभरणदानतः ॥ २३ ॥
तिलपात्रं तु विप्राय दत्तं पत्ररथ
ध्रुवम् ।
नाशयेत्त्रिविधं षापं वाङ्मनः
कायसम्भवम् ॥ २४ ॥
घृतपात्रप्रदाने रुद्रलोके वसेन्नरः
।
सर्वोपस्करसंयुक्तां शय्यां दत्त्वा
द्विजातये ॥ २५ ॥
नानाप्सरोभिराकीर्णं विमानमधिरोहति
।
षष्टिवर्षसहस्राणि क्रीडित्वा
शक्रमन्दिरे ॥ २६ ॥
इन्द्रलोकात्परिभ्रष्ट इह लोके नृपो
भवेत् ।
सर्वोपस्करणोपेतं युवानं
दोषवर्जितम् ॥ २७ ॥
योऽश्वं ददाति विप्राय स्वर्गलोके च
तिष्ठति ।
यावन्ति रोमाणि हये भवन्ति हि
खगेश्वर ॥ २८ ॥
तावतो राजितांल्लोकानाप्नुवन्ति हि
पुष्कलान् ।
चतुर्भिस्तुरगैर्युक्तं सर्वोपकरणैर्युतम्
॥ २९ ॥
रथं द्विजातये दत्त्वा राजसूयफलं
लभ्त् ॥ ३० ॥
दुग्धाधिकां च महिषीं नवमेघवर्णां
सन्तुष्टतर्णकवलीं जघनाभिरामाम् ।
दत्त्वा सुवर्णतिलकां द्विजपुङ्गवाय
लोकोदयं स जयतीति किमत्र चित्रम् ॥ ३१ ॥
यमराज के दूत महाक्रोधी और महाभयंकर
हैं। काले एवं पीले वर्णवाले उन दूतों को देखनेमात्र से भय लगने लगता है।
उदारतापूर्वक वस्त्र आभूषणादि का दान करने से ये यमदूत प्राणी को कष्ट नहीं देते
हैं। तिल से भरे हुए पात्र का जो दान ब्राह्मण को दिया जाता है,
वह मनुष्य के मन, वाणी और शरीर के द्वारा किये
गये त्रिविध पाप का विनाश कर देता है। मनुष्य घृतपात्र का दान करने से रुद्रलोक
प्राप्त करता है। ब्राह्मण को सभी साधनों से युक्त शय्या का दान करके मनुष्य
स्वर्गलोक में नाना प्रकार की अप्सराओं से युक्त विमान में चढ़कर साठ हजार वर्षतक
अमरावती में क्रीडा करके इन्द्रलोक के बाद गिरकर पुन: इस पृथ्वीलोक में आकर राजा का
पद प्राप्त करता है जो मनुष्य काठी आदि उपकरणों से सजे-धजे दोषरहित जवान घोड़े का
दान ब्राह्मण को देता है, उसको स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
हे खगेश। दान में दिये गये इस घोड़ के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने वर्ष (कालतक) स्वर्ग के लोकों का भोग दानदाता को प्राप्त होता है।
प्राणी ब्राह्मण को सभी उपकरणों से युक्त चार घोड़ोंवाले रथ का दान दे करके राजसूय
यज्ञ का फल प्राप्त करता है। यदि कोई व्यक्ति सुपात्र ब्राह्मण को दुग्धवती,
नवीन मेघ के समान वर्णवाली, सुन्दर जघन प्रदेश
से युक्त और मनमोहक तिलक से समन्वित भैंस का दान देता है तो वह परलोक में जाकर
अभ्युदय को प्राप्त करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
तालवृन्तस्य दानेन वायुना वीज्यते
पथि ।
कान्तियुक्सुभगः श्रीमान्
भवत्यम्बरदानतः ॥ ३२ ॥
रसान्नोपस्करयुतं गृहं विप्राय योर्ऽपयेत्
।
न हीयते तस्य वंशः स्वर्गं
प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ३३ ॥
भवत्यत्र खगश्रेष्ठ फलगौखलाघवम् ।
श्रद्धाश्रद्धाविभेदेन
दानगौरवलाघवात् ॥ ३४ ॥
तालपत्र से बने हुए पंखे का दान
करने से मनुष्य को परलोकगमन के मार्ग में वायु का सुख प्राप्त होता है। वस्त्र-
दान करने से व्यक्ति परलोक में शोभासम्पन्न शरीर और उस लोक के वैभव से सम्पन्न हो
जाता है जो प्राणी ब्राह्मण को रस, अन्न
तथा अन्य सामग्रियों से युक्त घर का दान देता है, उसके वंश का
कभी विनाश नहीं होता है और वह स्वयं स्वर्ग का सुख प्राप्त करता है। हे खगेन्द्र
इन बताये गये सभी प्रकार के दानों में प्राणी की श्रद्धा तथा अश्रद्धा से आयी हुई
दान की अधिकता और कमी के कारण उसके फल में श्रेष्ठता और लघुता आती है।
ततो येनाम्बुदानानि कृतान्यत्र
रसास्तथा ।
तदा खग तथाह्लादमापदि प्रतिपद्यते ॥
३५ ॥
अन्नानि येन दत्तानि श्रद्धापूतेन
चेतसा ।
सोऽपि तृप्तिमवाप्नोति विनाप्यन्नेन
वै तदा ॥ ३६ ॥
आसन्ने मरणे कुर्यात्संन्यासं
चेद्विधानतः ।
आवर्तेत पुनर्नासौ ब्रह्मभूयाय
कल्पते ॥ ३७ ॥
इस लोक में जिस व्यक्ति ने जल एवं
रस का दान किया है, वह आपद्काल में
आह्लाद का अनुभव करता है। जिस मनुष्य ने श्रद्धापूर्वक इस संसार में अन्न-दान दिया
है, वह परलोक में अन्न भक्षण के बिना भी वही तृप्ति प्राप्त
करता है, जो उत्तमोत्तम अन्न के भक्षण से प्राप्त होती है।
मृत्यु के संनिकट आ जानेपर यदि मनुष्य यथाविधि संन्यासाश्रम को ग्रहण कर लेता है
तो वह पुनः इस संसार में नहीं आता, अपितु उसको मोक्ष प्राप्त
हो जाता है।
आसन्नमरणो मत्यश्चेत्तीर्थं
प्रतिनयिते ।
तीर्थप्राप्तौ भवेन्मुक्तिर्म्रियते
यदि मार्गगः ।
पदेपदे क्रतुसमं भवेत्तस्य न संशयः
॥ ३८ ॥
यदि मृत्यु के समीप पहुँचे हुए
मनुष्य को लोग किसी पवित्र तीर्थ में ले जाते हैं और उसकी मृत्यु उसी तीर्थ में हो
जाती है तो उसको मुक्ति प्राप्त होती है तथा यदि प्राणी मार्ग के बीच ही मर जाता
है तो भी मुक्ति प्राप्त करता ही है, साथ
ही उसको तीर्थतक ले जानेवाले लोग पग-पग पर यज्ञ करने के समान फल प्राप्त करते हैं-
गृह्णीयाच्चेदनशनं व्रतं विधिवदागते
।
मृत्यौ न सोऽपि संसारे भूयः पर्यटति
द्विज ॥ ३९ ॥
हे द्विज! मृत्यु के निकट आ जाने पर
जो मनुष्य विधिवत् उपवास करता है, वह भी मृत्यु के
पश्चात् पुन: इस संसार में नहीं लौटता है।
किं दानमिति तुर्यस्य
प्रश्नस्योत्तरमीरितम् ।
दाहमृत्योरन्तरे किमितिप्रश्नोत्तरं
शृणु ॥ ४० ॥
हे खगेश ! मृत्यु के संनिकट होने पर
कौन-सा दान करना चाहिये। इस प्रश्न का उत्तर मैंने बता दिया है। मृत्यु और दाह के
बीच मनुष्य के क्या कर्तव्य हैं? इस प्रश्न का उत्तर
अब तुम सुनो।
गतप्राणं ततो ज्ञात्वा स्नात्वा
पुत्रादिराशु तम् ।
शवं जलेन शुद्धेन क्षालयेदविचारयन्
॥ ४१ ॥
परिधाप्याहते वस्त्रे चन्दनैः
प्रोक्षयेत्तनुम् ।
ततो मृतस्य स्थाने वै एकोद्दिष्टं
समाचरेत् ॥ ४२ ॥
प्रयोगपूर्वं दाहस्य योग्यतादिर्यथा
भवेत् ।
आंसनं प्राक्षण च स्यान्न
स्यादेतच्चतुष्टयम् ॥ ४३ ॥
आवाहनार्चन चैव पान्त्रालम्भावगाहने
।
भवेद्दानान्नसङ्कल्पः पिण्डदानं सदा
भवेत् ॥ ४४ ॥
पदार्थपञ्चकं न स्याद्रेखा
प्रत्यवनेजनम् ।
दद्यादक्षय्यमुदकं न स्यादेतत्त्रयं
पुनः ॥ ४५ ॥
स्वधावाचनमाशीश्च तिलकं च खगोत्तम ।
घटं दद्यात्समाषान्नं दद्याल्लोहस्य
दक्षिणाम् ॥ ४६ ॥
पिण्डस्य चालनं प्रोक्तं नैव
प्रोक्तमिदं त्रिकम् ।
प्रच्छादनविसर्गौ च स्वस्तिवाचनकं
तथा ॥ ४७ ॥
व्यक्ति को मरा हुआ जानकर उसके
पुत्रादिक परिजनों को चाहिये कि वे सभी शव को शुद्ध जल से स्नान कराकर नवीन वस्त्र
से आच्छादित करें। तदनन्तर उसके शरीर में चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों का अनुलेप
भी करें। उसके बाद जहाँ मृत्यु हुई है, उसी
स्थान पर एकोद्दिष्ट श्रद्ध (यहाँ एकोद्दिष्ट का तात्पर्य मरणस्थान पर यथा विधान
एक पिण्ड के दान से है।) करना चाहिये। दाहकर्म के पूर्व शव को दाह के योग्य बनाने के
लिये ऊपर बताये गये कर्म अनिवार्य हैं। इस एकोद्दिष्ट श्राद्ध में आसन तथा
प्रोक्षण क्रिया होनी चाहिये, किंतु आवाहन, अर्चन, पात्रालम्भन और अवगाहन ये चार क्रियाएँ नहीं
करनी चाहिये। उस समय पिण्डदान अनिवार्य है, अन्नदान का
संकल्प भी हो सकता है। रेखाकरण, प्रत्यवनेजन नहीं होता और
दिये गये पदार्थ के अक्षय्य की कामना करनी चाहिये। अक्षय्योदक दान देना चाहिये।
स्वधावाचन, आशीर्वाद और तिलक—ये तीन
नहीं होने चाहिये। उड़द से परिपूर्ण घट और लोहे की दक्षिणा ब्राह्मण को प्रदान
करने का विधान है। तत्पश्चात् पिण्ड हिलाना चाहिये। किंतु उस समय आच्छादन, विसर्जन तथा स्वस्तिवाचन ये तीन वर्जित हैं।
एषु षट्सु विधिः प्रोक्तः
श्राद्धेषु मलिनेषु ते ।
षडेव मरणस्थाने द्वारि चात्वरिके
तथा ॥ ४८ ॥
विश्रामे काष्ठचयने तथा सञ्चयने खग
।
हे खगेश! मरणस्थान,
द्वार, चत्वर, विश्रामस्थान,
काष्ठ चयन और अस्थि संचयन- ये छः पिण्डदान के स्थान हैं।
मृतिस्थाने शवो नाम भूमिस्तुष्यति
देवता ॥ ४९ ॥
पान्थो द्वारि भवेत्तेन प्रीता
स्याद्वास्तुदेवता ।
चत्वरे खेचरस्तेन
तुष्येद्भृतादिदेवता ॥ ५० ॥
विश्रामे भूतसंज्ञोऽयं तुष्टस्तेन
दिशो दश ।
चितायां साधक इति सञ्चितौ प्रेत
उच्यते ॥ ५१ ॥
प्राणी की मृत्यु जिस स्थान पर होती
है,
वहाँ पर दिये जानेवाले पिण्ड का नाम 'शव'
है, उससे भूमिदेवता की तुष्टि होती है।
द्वार पर जो पिण्ड दिया जाता है उसे 'पान्थ' नामक पिण्ड कहते हैं। इस कर्म को करने से वास्तुदेवता को प्रसन्नता
होती है। चत्वर अर्थात् चौराहे पर 'खेचर' नामक पिण्ड का दान करने पर भूतादिक, गगनचारी देवतागण प्रसन्न होते हैं। शव के
विश्राम भूमि में 'भूत-संज्ञक' पिण्ड
का दान करने से दसों दिशाओं को संतुष्टि प्राप्त होती है। चिता में 'साधक' नाम का और अस्थि संचयन में 'प्रेत- संज्ञक' पिण्ड दिया जाता है।
तिलदर्भघृतेधांसि गृहीत्वा तु सुतादयः
।
गाथां यमस्य सूक्तं वाप्यधीयाना
व्रजन्ति हि ॥ ५२ ॥
अहरहर्नीयमानो गामश्वं पुरुषं वृषम्
।
वैवस्वतो न तृप्येत सुरया त्विव
दुर्मतिः ॥ ५३ ॥
शवयात्रा के समय पुत्रादिक परिजन तिल, कुश, घृत और ईंधन लेकर 'यमगाथा' अथवा वेद के 'यमसूक्त' का पाठ करते हुए श्मशानभूमि की ओर जाते हैं। प्रतिदिन गौ, अश्व, पुरुष और बैल आदि चराचर प्राणियों को अपनी ओर खींचते हुए यम संतुष्ट नहीं होते हैं, जिस प्रकार कि मद्य पीनेवाला संतुष्ट नहीं होता।
(अहरहनीयमानो..... दुर्मतिः इसी का नाम यमगाथा है।)
इमां गाथमपेतेति सूक्तं वा पथि संपठेत्
।
दक्षिणस्यां दिश्यरण्यं व्रजेयुः
सर्वबान्धवाः ॥ ५४ ॥
पथि श्राद्धद्वयं
कुर्यात्पूर्वोक्तविधिना खग ।
ततः शनैर्भूतले वै दक्षिणाशिरसं
शवम् ॥ ५५ ॥
स्थापयित्वा चिताभूमौ पूर्वोक्तं
श्राद्धमाचरेत् ।
तृणकाष्ठतिलाज्यादि स्वयं निन्युः
सुतादयः ॥ ५६ ॥
शूद्रानीतैः कृतं कर्म सर्वं भवति
निष्फलम् ।
प्राचीनावीतिना भाव्यं
दक्षिणाभिमुकेन च ॥ ५७ ॥
वेदी तत्र प्रकर्तव्या
यथाशास्त्रमथाण्डज ।
प्रतेवस्त्रं द्विधा कृत्वार्धेन तं
छादयेत्ततः ॥ ५८ ॥
अर्धं श्मशानवासार्थं भूमावेव विनिः
क्षिपेत् ।
ततः पूर्वोक्तविधिना पिण्डं
प्रेतकरे न्यसेत् ॥ ५९ ॥
आज्येनाभ्यञ्जनं कार्यं सर्वाङ्गेषु
शवस्य च ।
दाहमृत्योरन्तराले विधिः पिण्डस्य
तं शृणु ॥ ६० ॥
'ॐ अपेतेति०'
इस यमसूक्त का(यजु०अ० ३५ 'यमसूक्त' कहलाता है।) अथवा 'यमगाथा' का
पाठ शवयात्रा के मार्ग में करना चाहिये। सभी बन्धु- बान्धवों को दक्षिण दिशा में
स्थित श्मशान की वनभूमि में शव को ले जाना चाहिये। हे पक्षिन् ! पूर्वोक्त विधि से
मार्ग में दो श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद श्मशानभूमि में पहुँचकर धीरे से शव को
पृथ्वी पर उतारते हुए दक्षिण दिशा की ओर सिर स्थापित कर चिताभूमि में पूर्वोक्त विधि
के अनुसार श्राद्ध करना चाहिये। शव दाह की क्रिया के लिये पुत्रादिक परिजनों को
स्वयं तृण, काष्ठ, तिल और घृत आदि ले
जाना चाहिये। शूद्रों के द्वारा श्मशान में पहुँचायी गयी वस्तुओं से वहाँ किया गया
सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाता है। वहाँ पर सभी कर्म अपसव्य और दक्षिणाभिमुख होकर
करना चाहिये। हे पक्षिराज ! शास्त्रसम्मत विधि के अनुसार एक वेदी का निर्माण करना
चाहिये। तदनन्तर प्रेतवस्त्र अर्थात् कफन को दो भागों में फाड़ कर उसके आधे भाग से
उस शव को ढक दे और दूसरे भाग को श्मशान में निवास करनेवाले प्राणी के लिये भूमि पर
ही छोड़ दे। उसके बाद पूर्वोक्त विधि के अनुसार मरे हुए व्यक्ति के हाथ में
पिण्डदान करे। तदनन्तर शव के सम्पूर्ण शरीर में घृत का लेप करना चाहिये।
हे खगेश! प्राणी की मृत्यु और
दाह-संस्कार के बीच पिण्डदान की जो विधि है, अब
उसे सुनो।
पूर्वोक्तैः पञ्चभिः पिण्डैः
शवस्याहुतियोग्यता ।
अन्यथा चोपघाताच्च राक्षसाद्या
भवन्ति हि ॥ ६१ ॥
संमृज्य चोपलिप्याथ
उल्लिख्योद्धृत्य वेदिकाम् ।
अभ्युक्ष्योपसमाधाय वह्निं तत्र
विधानतः ॥ ६२ ॥
पुष्पाक्षतैश्च संपूज्य देवं
क्रव्यादसंज्ञकम् ।
श्रौतेन तु विधानेन ह्याहिताग्निं
दहेद्वुधः ॥ ६३ ॥
चण्डालाग्निं चिताग्निं च
पतिताग्निं परित्यजेत् ।
पहले बताये गये मृतस्थान,
द्वार, चौराहे, विश्रामस्थान
तथा काष्ठसंचयनस्थान में प्रदत्त पाँच पिण्डों का दान करने से शव में की आहुति
(अग्निदाह) की योग्यता आ जाती है, अथवा किसी प्रकार के
प्रतिबन्ध के कारण उपर्युक्त पिण्ड नहीं दिये गये तो शव राक्षसों के भक्षण योग्य
हो जाता है। अतः स्वच्छ भूमि पर बनी हुई वेदी को भली-भाँति मार्जन, उपलेपन के द्वारा शुद्ध कर उसके ऊपर यथाविधि अग्नि को स्थापित करना
चाहिये। तदनन्तर पुष्प अक्षत आदि से क्रव्याद नामवाले अग्निदेव की विधिवत् पूजा
करके दाह करे। दाहकार्य में चाण्डाल के घर की अग्नि चिता की अग्नि और पापी के घर की
अग्नि का प्रयोग नहीं करना चाहिये और निम्नलिखित मंत्र से अग्नि की प्रार्थना करनी
चाहिये-
त्वं भूतकृज्जगद्योनिस्त्वं
लोकपरिपालकः ॥ ६४ ॥
उपसंहर तस्मात्त्वमेनं स्वर्गं
नयामृतम् ।
'हे देव! आप भूतकृत् हैं। हे देव!
आप इस संसार के योनिस्वरूप और सभी के पालनहार हैं। इसलिये आप इस शव का अपने में
उपसंहार करके अमृतस्वरूप स्वर्ग में ले जाइये।
इति क्रव्यादमभ्यर्च्य
शरीराहुतिमाचरेत् ॥ ६५ ॥
अर्धदग्धे तथा देहे
दद्यादाज्याहुतिं ततः ।
इस प्रकार क्रव्याद देव की विधिवत्
पूजा कर शव को चिता की अग्नि में जलाने का उपक्रम करना चाहिये। जब शव के शरीर का
आधा भाग उस अग्नि में जल जाय तो उस समय क्रिया करनेवाले व्यक्ति को निम्नलिखित
मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये-
अस्मात्त्वमधिजातोऽसि त्वदयं जायतां
पुनः ॥ 'असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा ॥ (४।६६-६७)
अस्मात्त्वमधिजातोऽसि त्वदयं जायतां
पुनः ॥ ६६ ॥
असौ स्वर्गाय लोकाय
स्वाहेत्युक्त्वा तु नामतः ।
अर्थात् हे देव! आप इसी से उत्पन्न
हुए हैं। यह शरीरी पुनः आपसे उत्पन्न हो । अमुक नामवाला यह प्राणी स्वर्गलोक को
प्राप्त करे-
एवमाज्याहुतिं दत्त्वा तिलमिश्रां
समन्त्रकम् ॥ ६७ ॥
रोदितव्यं ततो गाढमेवं तस्य सुखं
भवेत् ।
ऐसा कहकर तिलमिश्रित आज्याहुति चिता
में जल रहे शव के ऊपर छोड़े। उसके बाद भाव विह्वल होकर उस आत्मीयजन के लिये रोना
चाहिये इस कृत्य को करने से उस मृतक को अत्यधिक सुख प्राप्त होता है।
दाहस्यानन्तरं तत्र कृत्वा
सञ्चयनिक्रियाम् ॥ ६८ ॥
प्रेतपिण्डं प्रदद्याच्च
दाहार्तिशमनं खग ।
ततः प्रदक्षिणं कृक्त्वा
चिताप्रस्थानवीक्षकाः ॥ ६९ ॥
कनिष्ठपूर्वाः स्नानार्थं गच्छेयुः
सूक्तजापकाः ।
ततो जालसमीपे तु गत्वा प्रक्षाल्य
चांशुकम् ॥ ७० ॥
परिधाय पुनस्तच्च ब्रृयुस्तं पुरुषं
प्रति ।
उदकं तु करिष्यामः सचैलं
पुरुषास्ततः ॥ ७१ ॥
कुरुध्वमित्येव वदेच्छतवर्षावरे
मृते ।
पुत्राद्या वृद्धपूर्वास्ते
एकवस्त्राः शिखां विना ॥ ७२ ॥
प्राचीनावीतिनः सर्वे विशेयुर्मौनिनो
जलम् ।
अपनः शोशुचदघमनेन पितृदिङ्मुखाः ॥
७३ ॥
जलावघट्टनं चव न कुर्युः
स्नानकारकाः ।
ततस्तटे समागत्य शिखां बद्ध्वा
ऋजून् कुशान् ॥ ७४ ॥
दक्षिणाग्रहस्तयोस्तु कृत्वाथ सतिलं
जलम् ।
आदायाञ्जलिना याम्यां दुः खी
पैतृकतीर्थतः ॥ ७५ ॥
एकवारं त्रिवारं वा दशवारमथापि वा ।
भूमावश्मनि वा सर्वे
क्षिपेयुर्वाग्यताः खग ॥ ७६ ॥
तृप्यन्तु तृप्यतां वापि
तर्पयाम्युपतिष्ठताम् ।
प्रेतैतदमुकगोत्रेत्युक्तेष्वेवं
समुच्चरेत् ॥ ७७ ॥
दाह-क्रिया करने के पश्चात् अस्थि
संचयन क्रिया करनी चाहिये। हे खगराज! दाह की पीड़ा की शान्ति के लिये प्रेत- पिण्ड
भी प्रदान करे। तत्पश्चात् वहाँ पर गये हुए सभी लोग चिता की प्रदक्षिणा कर
कनिष्ठादि क्रम से सूक्त जपते हुए स्नान के लिये जलाशय आदि पर जायें। वहाँ पहुँचकर
अपने वस्त्रों का प्रक्षालन कर पुनः उन्हें ही पहनकर मृत व्यक्ति का ध्यान करते
हुए उसे जल-दान देने की प्रतिज्ञा करें और मृत व्यक्ति ने प्रेतरूप में जल-दान
देने की आज्ञा दी है-ऐसी भावना करते हुए पुनः जल में मौन धारणपूर्वक प्रवेश करें
और यथाधिकार एक वस्त्र होकर अपनी शिखा खोलकर तथा अपसव्य होकर स्नान करें। यह स्नान
दक्षिणाभिमुख होकर 'अपनः शोशुचदघम्'
(यजु० ३५।६)इस
वेदमन्त्र का उच्चारण करते हुए करना चाहिये। उस समय स्नान करनेवाले लोगों को जल का
आलोडन नहीं करना चाहिये। तत्पश्चात् किनारे आ करके अपनी शिखा को बाँध ले और सीधे
कुश को दक्षिणाग्र करके दोनों हाथों में रखकर अञ्जलि से तिलयुक्त जल लेकर
पितृतीर्थ से दक्षिण दिशा में एक बार, तीन
बार अथवा दस बार भूमि पर या पत्थर पर जल दान करे। इस समय तिलाञ्जलि देनेवाले
परिजनों को कहना चाहिये कि- 'हे अमुक गोत्र में उत्पन्न अमुक
नामवाले प्रेत! तुम मेरे द्वारा दिये जा रहे इस तिलोदक से संतृप्त हो मैं तुम्हें
तिलाञ्जलि दे रहा हूँ, अतः इसको ग्रहण करने के लिये तुम यहाँ
पर उपस्थित होओ।' ( तिलोदक की
अञ्जलि इस प्रकार कहकर देनी चाहिये 'अद्येहामुक गोत्रामुकप्रेतचितादाहजनिततापतृषोपशमाय एष
तिलकुशतोयाञ्जलिर्मद्दत्तस्तवोपतिष्ठताम् ।')
जलाञ्जलौ कृते पश्चाद्विधेयं
दन्तधावनम् ।
त्यजन्ति गोत्रिणः सर्वे दिनानि नव
काश्यप ॥ ७८ ॥
तत उत्तीर्योदकाद्वै वस्त्राणि
परिधाय च ।
स्नानवस्त्रं सकृत्पीड्य विशेयुः
शुचिभूतले ॥ ७९ ॥
अश्रुपातं न कुर्वीत दत्त्वा
दाहजलाञ्जलिम् ।
श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं
प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः ॥ ८० ॥
अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः
स्वशक्तितः ।
ततस्तेषूपविष्टेषु पुराणज्ञः
सुकृत्स्वकः ॥ ८१ ॥
शोकापनोदं कुर्वीत संसारानित्यतां
ब्रुवन् ।
हे कश्यपपुत्र गरुड ! तत्पश्चात् जल
से निकलकर वस्त्र पहनकर स्नान-वस्त्र को एक बार निचोड़कर पवित्र भूमि पर बैठ
जायें। शवदाह तथा तिलाञ्जलि देकर मनुष्य को अश्रुपात नहीं करना चाहिये,
क्योंकि उस समय रोते हुए अपने बन्धुबान्धवों के द्वारा आँख और मुँह से
गिराये आँसू एवं कफ को मरा हुआ व्यक्ति विवश होकर पान करता है। अतः रोना नहीं
चाहिये, अपितु यथाशक्ति क्रिया करनी चाहिये। तदनन्तर कोई
पुराणज्ञ संसार की अनित्यता को बताता हुआ मृतक के परिजनों को इस प्रकार का उपदेश
देकर शोक निवारण करने का प्रयत्न करे–
मानुष्ये कदलीस्तन्भे असारे
सारमार्गणम् ॥ ८२ ॥
करोति यः स संमूढो
जलबुद्वद्रसन्निभे ।
पञ्चधा संभृतः कायो यदि
पञ्चत्वमागतः ॥ ८३ ॥
कर्मभिः स्वशरीरोत्थैस्तत्र का परिदेवना
।
गन्त्री वसुमती नाशमुदधिर्दैवतानि च
॥ ८४ ॥
फेनप्रख्यः कथं नाशं मर्त्यलोको न
यास्यति ।
'मनुष्य का यह शरीर केले के वृक्ष
के समान बड़ा ही सारहीन एवं जल के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर है। इसमें जो
सारतत्त्व को खोजता है, वह महामूर्ख है। यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायुतत्त्व
- इन पांच तत्वों से बना हुआ यह शरीर पुनः अपने किये हुए कर्मों के अनुसार उन्हीं
पञ्चतत्त्वों में जाकर विलीन हो जाता है तो उसके लिये रोना क्या? जब पृथ्वी, समुद्र तथा देवलोक विनष्ट हो जाते हैं तो
फेन के समान प्रसिद्ध यह मर्त्यलोक नष्ट नहीं होगा ?"
एवं संश्रावयेत्तत्र
मृदुशाद्वलसंस्थितान् ॥ ८५ ॥
तेऽयि संश्रुत्य गच्छेयुर्गृहं
बालपुरः सराः ।
विदश्य र्निबपत्राणि नियता द्वारि
वेश्मनः ॥ ८६ ॥
आचम्य वह्निसलिलं गोमयं गौरसर्षपान्
।
दूर्वाप्रवालं वृषभमन्यदप्यथ
मङ्गलम् ॥ ८७ ॥
प्रविशेयुः समालभ्य कृत्वाश्मनि पदं
शनैः ।
इस उपदेश को सुनकर वे सभी परिवार के
सदस्य अपने घर को जायँ पहले से घर के द्वार पर रखी हुई नीम की पत्तियों को चबाकर
आचमन करें। तदनन्तर अग्नि, जल, गोबर श्वेत सरसों, दूर्वा, प्रवाल,
वृषभ तथा अन्य माङ्गलिक वस्तुओं का हाथ से स्पर्श करके पैर से पत्थर
का भी स्पर्श करें और धीरे-धीरे घर में प्रवेश करें।
श्रौतेन तु विधानेन आहिताग्निं
देहद्वधः ॥ ८८ ॥
ऊनद्विवर्षं निखनेन्न कुर्यादुदकं
ततः ।
योषित्पतिव्रता या स्याद्भर्तारं
यानुगच्छति ॥ ८९ ॥
प्रयोग पूर्वं भर्तारं
नमस्कृत्यारुहेच्चितिम् ।
चितिभ्रष्टा तु या मोहात्सा
प्राजापत्यमाचरेत् ॥ ९० ॥
जो व्यक्ति विद्वान् है,
वह अपने अग्निहोत्री परिजन की मृत्यु होने पर उसका दाह संस्कार
श्रौत की अग्नि के द्वारा ही यथाविधि करे। दो वर्ष से कम आयुवाले छोटे बालक की
मृत्यु होने पर उसको श्मशानभूमि में गड्ढा खोदकर मिट्टी से ढक देना चाहिये। उसके
लिये उदक क्रिया का विधान नहीं है। जो स्त्री पतिव्रता है, यदि
वह मरे हुए पति का अनुगमन करना चाहती है तो धर्मविहित नियमों के अनुसार पति को
प्रणाम करके चिता में प्रवेश करे। जो स्त्री जीवन के व्यामोह से चिता पर चढ़कर
पुनः बाहर आ जाती है, उसे 'प्राजापत्यव्रत'
करना चाहिये।
तिस्रः कोट्योर्धकोटी य यानि लोमानि
मानुषे ।
तावत्कालं वसेत्स्वर्गे भर्तारं
यानुगच्छति ॥ ९१ ॥
व्यालग्राही यथा व्यालं
बिलादुद्धरते बलात् ।
तद्वदुद्धृत्य सा नारी तेनैव सह
मोदते ॥ ९२ ॥
तत्र सा भर्तृपरमा
स्तूयमानाप्सरोगणैः ।
क्रीडते पतिना सार्धं
यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ ९३ ॥
ब्रह्मघ्नो वा कृघ्नो वा
मित्त्रिघ्नो वा भवेत्पतिः ।
पुनात्यविधवा नारी तमादाय मृता तु
या ॥ ९४ ॥
मृते भर्तरि या नारी
समारोहेद्धुताशनम् ।
सारन्धतीसमाचारा स्वर्गलोके महीयते
॥ ९५ ॥
मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़
रोयें होते हैं, जो स्त्री पति का अनुगमन करती
है, उतने काल तक वह स्वर्ग में वास करती है जिस प्रकार सर्प को
पकड़नेवाला सपेरा बिल से सर्प को बलात् बाहर निकाल लेता है, उसी
प्रकार पति का अनुगमन करनेवाली सती नारी अपने पति का उद्धार कर उसके साथ स्वर्ग में
सुखपूर्वक निवास करती है। अप्सराएँ उसका सम्मान करती हैं तथा वह पतिव्रता नारी तब तक
पति के साथ सुखोपभोग करती है, जब तक चौदह इन्द्रों की अवधि
पूर्ण नहीं हो जाती है। यदि पति ब्रह्महत्यारा, कृतघ्न या
मित्रघाती हो, फिर भी सधवा स्त्री मृत्यु होने पर पति के साथ
सती होकर उसे पवित्र कर देती है। पति के मर जाने पर जो स्त्री उसी के साथ अग्नि में
अपने शरीर को भेंट कर देती है, वह अरुन्धती के समान आचरण
करती हुई स्वर्गलोक में जाकर सम्मान प्राप्त करती है।
यावच्चाग्नौ मृते पत्यौ स्त्री
नात्मानं प्रदाहयेत् ।
तावन्न मुच्यते सा हि
स्त्रीशरीरात्कथञ्चन ॥ ९६ ॥
मातृकं पैतृकं चैव यत्र चैव
प्रदीयते ।
कुलत्रयं पुनात्येषा भर्तारं
यानुगच्छति ॥ ९७ ॥
आर्तार्ते मुदिते हृष्टा प्रोषिते
मलिना कृशा ।
मृते म्रियेत या पत्यौ सा स्त्री
ज्ञेया पतिव्रता ॥ ९८ ॥
पृथक्चितां समारुह्य न प्रिया
गन्तुमर्हति ।
क्षत्त्रियाद्याः सवर्णाश्च
आरोहेयुरपीह ताः ॥ ९९ ॥
चाण्डालीमवधिं कृत्वा ब्राह्मणीतः
समो विधिः ।
अगर्भिणीनां
सर्वासामबालताक्मे(का)नामपि ॥ १०० ॥
पति की मृत्यु होने पर जबतक स्त्री
अपने को चिता की भेंट नहीं चढ़ा देती है, तबतक
वह स्त्री के शरीर से किसी प्रकार मुक्त नहीं हो सकती है जो स्त्री अपने पति के
साथ सती हो जाती है, वह पितृकुल, मातृकुल
और पतिकुल- इन तीनों कुलों को पवित्र कर देती है जो स्त्री पति के दुःख में दुःखी,
सुख में सुखी, विदेशगमन में मलिनवसना, कृशकाय तथा मृत्यु होने पर चिता में उसी के साथ जलकर मृत्यु का संवरण करती
है, उस स्त्री को पतिव्रता मानना चाहिये। पातिव्रतधर्म का
पालन करनेवाली स्त्री पति की मृत्यु हो जाने पर पृथक् चिता में समारूढ़ होकर
परलोक-गमन के योग्य नहीं होती। क्षत्रियादि सभी सवर्णा स्त्रियों को अपने पति के
साथ ही चिता में आरोहण कर परलोक सुख प्राप्त करना चाहिये। ब्राह्मणवर्ण की स्त्री से
लेकर चाण्डालवर्ण की स्त्री के लिये पति के साथ चिता में जलकर सती होने का विधान
एक समान ही है। पति की मृत्यु के समय जो स्त्रियाँ गर्भ से रहित हैं और जिनके
छोटे-छोटे बच्चे नहीं हैं, उन सभी को सतीधर्म का पालन करना
चाहिये।
दहनस्य विधिः प्रोक्तः सामान्येन
मया खग ।
विशेषमपि तस्यास्य कञ्चित्किं
श्रोतुमिच्छति ॥ १०१ ॥
हे पक्षिन्। मनुष्य के दाह संस्कार की
जो विधि है, उसको सामान्य रूप से मैंने
तुम्हें सुना दिया है। अब और क्या सुनना चाहते हो?
गरुड उवाच ।
प्रोषिते तु मृते
स्वामिन्यस्थ्निनाशमुपेयुषि ।
कथं दाहः प्रकर्तव्यस्तन्मे वद
जगत्पते ॥ १०२ ॥
इस पर गरुड ने कहा- हे संसार के
स्वामिन्! यदि प्रवासकाल में पति को मृत्यु हो जाती है और उसकी अस्थियाँ भी स्त्री
को नहीं प्राप्त होती हैं तो उसका दाह किस प्रकार से करना चाहिये,
यह बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
अस्थीनि चेन्न लभ्यन्ते प्रोषितस्य
नरस्य च ।
तेषाञ्च हि गतिस्थानं विधानं
कथयाम्यहम् ॥ १०३ ॥
शृणु तार्क्ष्य परं गोप्यं
पत्युर्दुर्मरणेषु यत् ।
लङ्घनैर्ये मृता जीवां
दंष्ट्रिभिश्चाभिघातिताः ॥ १०४ ॥
कण्ठग्रहे विलग्नानां क्षीणानां
तुण्डघातिनाम् ।
विषाग्निवृषविप्रेभ्यो विषूच्या
चात्मघातकाः ॥ १०५ ॥
पतनोद्बन्धनजलैर्मृतानां शृणु
संस्थितिम् ।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे गरुड! यदि
प्रवासी पति की अस्थियाँ नहीं प्राप्त होती हैं तो मैं उसकी भी सद्गति का विधान
तुम्हें सुनाता हूँ। उस परम गोपनीय तत्त्व को तुम सुनो। जो प्राणी भूख से पीड़ित
होने के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं, जो
व्याघ्रादि हिंसक प्राणियों के द्वारा मारे जाते हैं, जिनकी
मृत्यु गले में फाँसी का फन्दा लगाने से हो जाती है, शरीर की
क्षीणता के कारण जिनकी मृत्यु होती है, जो हाथी के द्वारा
मारे जाते हैं, जो विष, अग्नि, बैल और ब्राह्मण शाप से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, जिनकी मृत्यु हैजा से होती है, जो आत्मघाती हैं,
जो गिरकर या रस्सी आदि के द्वारा किये गये बन्धन अथवा जल में डूबने से
मर जाते हैं, उनकी स्थिति को तुम सुनो।
सर्पव्याघ्रैः शृङ्गिभिश्च
उपसर्गोपलोदकैः ॥ १०६ ॥
ब्राह्मणैः श्वापदैश्चैव
पतनैर्वृक्षवैद्युतैः ।
नखैर्लोहैर्गिरेः
पातैर्भित्तिपातैर्भृगोस्तथा ॥ १०७ ॥
कट्वायामन्तरिक्षे च
चौरचाण्डालतस्तथा ।
उदक्याशुनकीशूद्ररजकादिविभूषिताः ॥
१०८ ॥
ऊर्ध्वोचछिष्टाधरोच्छिष्टोभयोच्छिष्टास्तु
ये मृताः ।
शस्त्रघातैर्मृता ये
चास्यश्वस्पृष्टास्तथैव च ॥ १०९ ॥
तत्तु दुर्मरणं ज्ञेयं यच्च जातं
विधैं विना ।
तेन पापेन नरकान् भुक्त्वा
प्रेतत्वभागिनः ॥ ११० ॥
न तेषां कारयेद्दाहं सूतकं
नोदकक्रियाम् ।
न विधानं मृताद्यञ्च न कुर्या
दौर्ध्वदैहिकम् ॥ १११ ॥
न पिण्डदानं कर्तव्यं
प्रमादाच्चेत्करोति हि ।
नोपतिष्ठति तत्सर्वमन्तरिक्षे
विनश्यति ॥ ११२ ॥
अतस्तस्य सुतैः पौत्त्रैः सपिण्डैः
शुभमिच्छुभिः ।
नारायणबलिः कार्यो लोकगर्हाभिया खग
॥ ११३ ॥
तथा तेषां भवेच्छौचं
नान्यथेत्यब्रवीद्यमः ।
जो सर्प,
व्याघ्र, श्रृंगधारी पशु, उपसर्ग (चेचक), पत्थर, जल,
ब्राह्मण, जंगली हिंसक पशु, वृक्षपात और विद्युत्पात से और लोहे से, पर्वत पर से
गिरने से अथवा दीवाल के गिरने से, पहाड़ के खड़े कगार से,
खाट या मध्य कक्ष में मृत्यु को प्राप्त होते हैं, ऋतुमती, चाण्डाली, शूद्रा तथा
धोबिन आदि त्याज्य स्त्रियों का संसर्ग, शारीरिक स्पर्श या
अधरों का पान करते हुए जो लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं, जो
शस्त्राघात से मरते हैं, विषैले कुत्ते के मुख का स्पर्श
करने से जिनकी मृत्यु हो जाती है, विधि-विहीन(अकस्मात् किसी ऐसी स्थिति में मरण हो रहा है जब मरणासन्न
व्यक्ति के लिये शास्त्रोक्त विधियाँ सम्पन्न नहीं हो पाती है, तब ऐसा मरण विधि-विहीन मरण माना जाता है।) रूप में जो मृत्यु हो जाती है, उसको दुर्मरण समझना
चाहिये। उसी पाप से नरकों को भोगकर वे पुनः प्रेतत्व को प्राप्त होते हैं। ऐसे
व्यक्ति का दाह, उदक क्रिया और मरणनिमित्तक अन्य कृत्य तथा
और्ध्वदैहिक कर्म नहीं करना चाहिये। इस प्रकार से अपमृत्यु होने पर पिण्डदान का
कर्म भी वर्जित है। यदि प्रमादवश कोई पिण्डदान करता है तो वह उसे प्राप्त नहीं
होता और अन्तरिक्ष में विनष्ट हो जाता है। अतः लोकगर्हा से डरकर उसके शुभेच्छु
पुत्र-पौत्र और सगोत्री जनों को मृतक के लिये 'नारायणबलि'
करनी चाहिये। ऐसा करने पर ही उन्हें शुचिता प्राप्त होती है अन्यथा
नहीं; यह यमराज का वचन है।
कृते नारायणबलावौर्ध्वदेहिकयोग्यता
॥ ११४ ॥
तस्य सुद्धिकरं कर्म तद्भवेन्न
तदन्यथा ।
नारायणबलि किये जाने पर और्ध्वदैहिक
कर्म की योग्यता आ जाती है। अपमृत्यु होने पर ऐसे प्राणी का शुद्धिकरण इसी कर्म
(नारायणबलि) से सम्भव है अन्यथा नहीं।
नारायणबलिं सम्यक्तीर्थे सर्वं
प्रक्पयेत् ॥ ११५ ॥
कृष्णाग्रे कारयेद्बिप्रैर्येन पूतो
भवेन्नरः ।
पूर्वन्तु तर्पणं कार्यं विप्रैः
पौराणवैदिकैः ॥ ११६ ॥
सर्वौषध्यक्षतैर्मिश्रैर्विष्णुमुद्दिश्य
तर्पयेत् ।
कार्यं पुरुषसूक्तेन मन्त्रैर्वा
वैष्णवैरपि ॥ ११७ ॥
दक्षिणाभिमुखो भूत्वा प्रेतं
विष्णुमिति स्मरन् ।
नारायणबलि सम्यक् रूप से तीर्थ में
करना चाहिये। ब्राह्मणों के द्वारा भगवान् कृष्ण के समक्ष नारायणबलि कराने से
मनुष्य पवित्र हो जाता है। पुराण, वेद के ज्ञाता
ब्राह्मण सबसे पहले तर्पण करें। सभी प्रकार की औषधियों को और अक्षत को जल में
मिलाकर 'पुरुषसूक्त' या 'वैष्णवसूक्त' का उच्चारण करते हुए विष्णु के
उद्देश्य से सम्पन्न करना चाहिये। उसके बाद दक्षिणाभिमुख होकर प्रेत और विष्णु का
इस प्रकार स्मरण करे-
अनादिनिधनो देवः शङ्खचक्रगदाधरः ॥
११८ ॥
अक्षयः पुण्डरीकाक्षः
प्रेतमोक्षप्रदो भव ।
'हे देव! आप अनादि, अजर और अमर हैं। हे देव! आप शंख, चक्र एवं गदा से
सुशोभित विष्णु हैं। आप कभी न विनष्ट होनेवाले परमात्मा हैं। हे पुण्डरीकाक्ष ! आप
इस प्रेत को मोक्ष प्रदान करने की कृपा करें।'
तर्पणस्यावसाने स्याद्वीतरागो
विमत्सरः ॥ ११९ ॥
जितेन्द्रियमना भूत्वा
शुचिष्मान्धर्मतत्परः ।
भक्त्या तत्र प्रकुर्वीत
श्राद्धान्येकादशैव तु ॥ १२० ॥
सर्वकर्मविधाने एकैकाग्रे समाहितः ।
तोयव्रीहियवान्दद्याद्गोधूमांश्च
प्रियङ्गवः ॥ १२१ ॥
हविष्यान्नं शुभं मुद्रां
छत्रोष्णीषे च दापयेत् ।
दापयेत्सर्वसंस्यानि क्षीरं
क्षौद्रसमान्वितम् ॥ १२२ ॥
वस्त्रोपानहसंयुक्तं दद्यादष्टविधं
पदम् ।
द्पयेत्सर्वपापेभ्यो न
कुर्यात्पङ्क्तिवञ्चनम् ॥ १२३ ॥
भूमौ स्थितेषु पिण्डेषु
गन्धपुष्पाक्षतान्वितम् ।
दातव्यं सर्वंविप्रेभ्यो
वेदशास्त्रविधानतः ॥ १२४ ॥
शङ्खे खड्गेऽथ वा ताम्रे तर्पणञ्च
पृथक्पृथक् ।
ध्यानधारणसंयुक्तो जानुभ्यामवनीं
गतः ॥ १२५ ॥
ऋचा वै दापयेदर्घमर्घोद्दिष्टं
पृथक्पृथक् ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च यमः
प्रेतश्च पञ्चमः ॥ १२६ ॥
पृथक्कुम्भे ततः स्थाप्याः
पञ्चरत्नसमन्विताः ।
वस्त्रयज्ञोपवीतानि पृथङ्मुद्गाः
पदानि च ॥ १२७ ॥
पञ्च श्राद्धानि कुर्वीत देवतानां
यथाविधि ।
जलधारां ततः कुर्यात्पिण्डेपिण्डे
पृथक्पृथक् ॥ १२८ ॥
शङ्खे वा ताम्रपात्रे वा अलाभे मृन्मये
पि वा ।
तिलोदकं समादाय सर्वोषधिमसन्वितम् ॥
१२९ ॥
ताम्रपात्रं तिलैः पूर्णं सहिरण्यं
सदक्षिणम् ।
दद्याद्ब्राह्मणमुख्याय पददानं तथैच
॥ १३० ॥
यमोद्देशेतिलांल्लौहं ततो दद्याच्च
दक्षिणाम् ।
एवं विष्णुबलिं दत्त्वा यथाशक्त्या
विधानतः ॥ १३१ ॥
समुद्धरति तत्क्षिप्रं नात्र कार्या
विचारण ।
वीतराग,
विमत्सर, जितेन्द्रिय, शुचिष्मान्
और धर्मतत्पर होकर वहीं पर भक्तिपूर्वक एकादश श्राद्ध करे। उसके बाद वह सावधान मन से
विधिवत् जल, अक्षत, यव, गेहूँ और कंगनी का दान दे। उस समय शुभ हविष्यान्न सुन्दर बनी हुई सोने की
अंगूठी, छत्र और पगड़ी का दान देना चाहिये। इन वस्तुओं के
अतिरिक्त दूध-मधु से समन्वित सभी प्रकार के अन्न देना चाहिये वस्त्र और पादुका
समन्वित आठ प्रकार का पददान सुपात्रों को समभाव से दिया जाना चाहिये। पिण्डदान
करने के बाद मन्त्रोच्चारसहित गन्ध, पुष्प और अक्षत से पूजा
करे, तत्पश्चात् ब्राह्मणों को सम्मानसहित दान दे। शंख,
खङ्ग अथवा ताम्रपात्र में पृथक् पृथक् तर्पण करना चाहिये। उसके बाद
ध्यान- धारणा से संयुक्त होकर दोनों घुटनों के बल पृथ्वी पर अवस्थित होकर
मन्त्रोच्चारपूर्वक उद्दिष्ट देवों के लिये पृथक् पृथक् अर्घ्य प्रदान करे। पञ्चरत्न
से युक्त पृथक्- पृथक् पाँच कुम्भों में ब्रह्मा, विष्णु,
रुद्र, यम और प्रेत- इन पाँचों को स्थापित
करना चाहिये। इसके अतिरिक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, मूंग और पददान पृथक् पृथक् स्थापित करे। यथाविधि उन देवों के लिये पाँच
श्राद्ध करना चाहिये। शंख या ताम्रपात्र न मिलने पर मृण्मयपात्र में सर्वोषधि से
युक्त तिलोदक लेकर प्रत्येक पिण्ड पर पृथक्- पृथक् जलधारा देनी चाहिये। तिल से
पूर्ण ताम्रपात्र दक्षिणा और स्वर्ण से युक्त तथा पददान मुख्य ब्राह्मणों को देना
चाहिये। यम के निमित्त दक्षिणासहित तिल और लोहे का दान देना चाहिये। विष्णुदेव के
लिये यथाशक्ति विधिपूर्वक बलि प्रदान करने पर मृत व्यक्ति का नरक लोक से उद्धार हो
जाता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
नागदंशान्मृतो यस्तु विशेषस्तन्तु
मे शृणु ॥ १३२ ॥
जो व्यक्ति सर्पदंश से मर जाता है,
उसके विषय में विशेष बात मुझसे सुनो-
सुवर्णभारनिष्पन्नं नागं कृत्वा
तथैव गाम् ।
विप्राय दत्त्वा
विधिवत्पितुरानृण्यमाप्नुयात् ॥ १३३ ॥
एवं सर्पबलिं दत्त्वा
सर्पदोषाद्विमुच्यते ।
एक भार सोने की नाग प्रतिमा बनवाकर
गौ के सहित विधिवत् उसका दान ब्राह्मण को कर देना चाहिये। ऐसा करके पुत्र अपने
पिता के ऋण से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार सर्पबलि देकर मनुष्य सर्पदोष के पाप से
दूर हो जाता है।
पश्चात्पुत्तलकं कार्यं
सर्वोषधिसमन्वितम् ॥ १३४ ॥
पलाशस्य च वृन्तानां विभागं शृणु
काश्यप ।
हे गरुड! उसके बाद सर्वोषधि से
समन्वित पुत्तल का निर्माण करना चाहिये। पुत्तल के निर्माण में पलाश और वृन्तों का
विभाग सुनो-
कृष्णाजिनं समास्तीर्य कुशैश्च
पुरुषाकृतिम् ॥ १३५ ॥
शतत्रयेण षष्ट्या च वृन्तैः
प्रोक्तोऽस्थिसञ्चयः ।
विन्यस्य तानि वृन्तानि अङ्गेष्वेषु
पृथक्पृथक् ॥ १३६ ॥
चत्वारिंशच्छिरोभागे ग्रीवायां दश
विन्यसेत् ।
विंशत्युरः स्थले
दद्याद्विंशतिञ्जठरे तथा ॥ १३७ ॥
बाहुद्वये शतं दद्यात्कटिदेशे च
विंशतिम् ।
ऊरुद्वये शतञ्चापि
त्रिंशज्जङ्घाद्वये न्यसेत् ॥ १३८ ॥
दद्याच्चतुष्टयं शिश्ने
षड्दद्याद्वृषाणद्वये ।
दश पादाङ्गुलीभागे एवमस्थीनि
विन्यसेत् ॥ १३९ ॥
नारिकेलं शिरः स्थानें तुम्बं
दद्याच्च तालुके ।
पञ्चरत्नं मुखे दद्याज्जिह्वायां
कदलीफलम् ॥ १४० ॥
अन्त्रेषु नालिकं
तद्याद्वालुकाङ्घ्राणे एव च ।
वसायां मृत्तिकां दद्याद्धरितालमनः
शिलाः ॥ १४१ ॥
पारदं रेतसः स्थाने पुरीषे पित्तलं
तथा ।
मनः शिला तथा गात्रे तिलपक्वन्तु
सन्धिषु ॥ १४२ ॥
यवपिष्टं यथा मांसे मधु शोणितमेव च
।
केशेषु च जटाजूटं त्वचायाञ्च
मृगत्वचम् ॥ १४३ ॥
कर्णयोस्तालपत्रञ्च स्तनयोश्चैव
गुञ्जिकाः ।
नासायां शतपत्रञ्च कमलं नाभिमण्डले
॥ १४४ ॥
वृन्ताकं वृषणद्वन्द्वे लिङ्गे
स्याद्गृञ्जनं शुभम् ।
घृतं नाभ्यां प्रदेयं स्यात्कौ पीने
च त्रपुस्मृतम् ॥ १४५ ॥
मौक्तिकं स्तनयोर्मूर्ध्नि
कुङ्कुमेव विलेपनम् ।
कर्पूरागुरुधूपैश्च शुभैर्माल्यैः
सुगन्धिभिः ॥ १४६ ॥
परिधानं पट्टसूत्रंहृदये चैव
विन्यसेत् ।
ऋद्धिवृद्धी भुजौ द्वौ च
चक्षुर्भ्याञ्च कपर्दकम् ॥ १४७ ॥
दन्तेषु दाडिमीबीजान्यङ्गुलीषु च चम्पकम्
।
सिन्दूरं नेत्रकोणे च
ताम्बूलाद्युपहारकम् ॥ १४८ ॥
सर्वौषदियुतं प्रेतं कृत्वा पूजां
यथोदिताम् ।
साग्निके चापि विधिना यज्ञपात्रं
न्यस्येत्क्रमात् ॥ १४९ ॥
स्त्रियः पुनन्तु म शिर इमं मे
वरुणेन च ।
प्रेतस्य पावनं कृत्वा
शालग्रामशिलोदकैः ॥ १५० ॥
विष्णुमुद्दिश्य दातव्या सुशीला गौः
पयस्विनी ।
तिला लौहं हिरण्यञ्च कर्पासं लवणं
तथा ॥ १५१ ॥
सप्तधान्यं क्षितिर्गाव एकैकं पावनं
स्मृतम् ।
तिलपात्रं ततो दद्यात्पददानं तथैव च
॥ १५२ ॥
कर्तव्यं वैष्णवं श्राद्धं
प्रेतमुक्त्यर्थमात्मनः ।
प्रेतमोक्षं ततः कुर्याद्धृदि विष्णुं
प्रकल्प्यच ॥ १५३ ॥
एवं पुत्तलकं कृत्वा
दाहयेद्विधिपूर्वकम् ।
तच्छ्रुद्धये तु संस्कर्ता
पुत्रादिर्निष्कृतिं चरेत् ॥ १५४ ॥
त्रीन्कृच्छ्रान्षड्द्वादश च तथा
पञ्चदशापि च ।
प्रायश्चित्तनिमित्तानुसारेण
विप्रवत्स्मृतः ॥ १५५ ॥
अशक्तौ गोहिरण्यादि प्रत्याम्नायं चरेदपि
।
आत्मनोऽनधिकारित्वे शुद्धिमेवं
चरेद्वुन्धः ॥ १५६ ॥
अशुद्धेन तु
यद्दत्तमुद्दिश्याशुद्धिमेव च ।
नोपतिष्ठति तत्सर्वमन्तरिक्षे
विनश्यति ॥ १५७ ॥
शुद्धिं सम्पाद्य कर्तव्यं
दहनाद्यौर्ध्वदेहिकम् ।
अकृत्वा निष्कृतिं यस्तु कुरुते
दहनादिकम् ॥ १५८ ॥
मतिपूर्वममत्या च क्रमात्तनिष्कृतिं
शृणु ।
कृत्वाग्निमुदकं स्नानं स्पर्शनं
वहनं कथाम् ॥ १५९ ॥
रज्जुच्छेदाश्रुपातञ्च
तप्तकृच्छ्रेण शुध्यति ।
एषामन्यतमं प्रेतं यो वहेत्तु देहत
वा ॥ १६० ॥
कटोदकक्रियां कृत्वा कृच्छ्र
सान्तपनं चरेत् ।
निमित्ते लघुनि स्वल्पं महन्महति
कल्पयेत् ॥ १६१ ॥
काले मृग का चर्म बिछाकर उसके ऊपर
कुश से निर्मित एक पुरुष की आकृति बनानी चाहिये। तीन सौ साठ वृन्तों से मनुष्य की
अस्थियों का निर्माण होता है उन वृन्तों का विन्यास इन अङ्गों में पृथक् पृथक् रूप
से करना चाहिये। चालीस वृन्त शिरोभाग दस वृन्त ग्रीवा,
बीस वृन्त वक्षःस्थल, बीस वृन्त उदर, सौ वृन्त दोनों बाहु, बीस वृन्त, कटि, सौ वृन्त दोनों उरुभाग, तीस
वृत्त दोनों जंघा प्रदेश, चार वृन्त शिश्न, छः वृन्त दोनों अण्डकोश और दस वृन्त पैर की अंगुली भाग में स्थापित करने का
विधान है। इसके बाद शिरोभाग में नारियल, तालु प्रदेश में
लौकी, मुख में पञ्चरत्न, जिह्वा में
कदलीफल, आँतों के स्थान में कमलनाल, नासिका
भाग में बालू, वसा के स्थान में मिट्टी, हरिताल और मनःशिल, वीर्य के स्थान पर पारद, पुरीष के स्थान पर पीतल, शरीर में मनः शील, संधिभागों में तिल का पाक, मांस के स्थान पर पिसा
हुआ यव, रक्त के स्थान पर मधु, केशराशि
के स्थान पर जटाजूट, त्वचा के स्थान पर मृगचर्म, दोनों कान के स्थान पर तालपत्र, दोनों स्तनों के
स्थान पर गुञ्जाफल, नासिका भाग में शतपत्र, नाभिमण्डल में कमल, दोनों अण्डकोशों के स्थान पर
बैगन, लिङ्गभाग में बढ़िया सुन्दर गाजर, नाभि में घी, कौपीन के स्थान पर त्रपु अर्थात् लाह,
स्तनों में मोती, ललाट पर कुंकुम का लेप,
कर्पूर एवं अगुरु धूप, सुगन्धित माला का
अलंकरण, पहनने के लिये हृदय में पट्टसूत्र का विन्यास करना
चाहिये। उसकी दोनों भुजाओं में ऋद्धि एवं वृद्धि, दोनों नेत्रों
में कौड़ी, दाँतों में अनार के बीज, अँगुलियों
के स्थान में चम्पा के पुष्प और नेत्रों के कोण भाग में सिन्दूर भरकर ताम्बूल आदि
शोभादायक अन्य पदार्थ भी भेंट करना चाहिये।
इस प्रकार सर्वोषधियुक्त उस प्रेत की
विधिवत् पूजा कर यदि मृत व्यक्ति अग्निहोत्री रहा हो तो उसके अङ्गों में यथाक्रम
यज्ञपात्र स्थापित करे। तदनन्तर 'स्त्रियः
पुनन्तु मे शिर०' तथा 'इमं मे वरुणेन च०' इन मन्त्रों से अभिमन्त्रित
शालग्रामशिलायुक्त जल से उक्त प्रेत को पवित्र करके भगवान् विष्णु को उद्देश्य कर
सुशीला, दूध देनेवाली गौ का दान देना चाहिये। तत्पश्चात् तिल,
लौह, स्वर्ण, कपास,
लवण, सप्तधान्य, पृथ्वी
तथा गौ, जो एक-से-एक बढ़कर पवित्र बताये गये हैं, उनका भी दान करना चाहिये। उसके बाद तिल पात्र तथा पददान भी करना चाहिये।
तदनन्तर प्रेत की मुक्ति के लिये वैष्णव श्राद्ध करे। उसके बाद श्राद्धकर्ता हृदय में
भगवान् विष्णु का ध्यान करके प्रेतमोक्ष का कार्य सम्पन्न करे।
उक्त विधि से बनाये गये पुत्तल का
विधिपूर्वक दाह करना चाहिये। तत्पश्चात् उसकी शुद्धि के लिये पुत्रादि संस्कर्ता
प्रायश्चित्त करें। जिसमें तीन, छः, बारह तथा
पंद्रह कृच्छ्रव्रत करने का विधान है। प्रायश्चित्त कर्म में असमर्थ होने पर गाय,
सुवर्णादि का दान अथवा तत्प्रतिनिधिभूत द्रव्य का दान करना चाहिये।
विद्वान् को इस प्रकार अपनी शुद्धि करनी चाहिये। अशुद्ध दाता के द्वारा अशुद्ध को
उद्देश्य करके जो कुछ श्राद्ध तथा दानादिक किया जाता है, वह
सब कुछ अन्तरिक्ष में ही विनष्ट हो जाता है। अतः विधिवत् शुद्ध होकर मनुष्य को
दाहादिक और्ध्वदेहिक कर्म करना चाहिये।
हे गरुड जो प्राणी बिना
प्रायश्चित्त किये ही दाहादिक कर्म ज्ञानपूर्वक या अज्ञानपूर्वक करता है,
यह वहन, अग्निदान, जलदान,
स्नान, स्पर्श, रज्जुछेदन
तथा अश्रुपात करके तप्तकृच्छ्रव्रत से शुद्ध होता है जो शव को ले जाता है अथवा दाह
संस्कार करता है, वह कटोदक-क्रिया करके कृच्छ्रसान्तपनव्रत
करे। छोटे दोष को दूर करने के लिये छोटा और बड़े दोष को दूर करने के लिये बड़ा
प्रायचित्त करना चाहिये।
गरुड उवाच ।
कृच्छ्रस्य तप्तकृच्छ्रस्य तथा
सान्तपनस्य च ।
लक्षणं ब्रूहि मे
स्वामिंस्त्रयाणामपि सुव्रत ॥ १६२ ॥
गरुड ने कहा- हे प्रभो! कृच्छ्र,
तप्तकृच्छ्र तथा सान्तपन- ये जो तीन प्रायश्चित व्रत आपने बताये
हैं: इन तीनों के लक्षणों को भी मुझे बताने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण उवाच ।
त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं
त्र्यहमद्यादयाचितम् ।
उपवासस्त्र्यहञ्चैव एष कृच्छ्र
उदाहृतः ॥ १६३ ॥
तप्तक्षीरघृताम्बूनामेकैकं प्रत्यहं
पिबेत् ।
एकरात्रोपवासश्च तप्तकृच्छ्र
उदाहृतः ॥ १६४ ॥
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः
कुशोदकम् ।
जग्ध्वा परेऽह्न्युपवसेत्कृच्छ्रं
सान्तपनञ्चरन् ॥ १६५ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-हे गरुड
तीन दिन प्रात: काल, तीन दिन सायंकाल,
तीन दिन अयाचित हविष्यान्न का आहार और तीन दिन का उपवास क्रमशःजिस
व्रत में किया जाता है, वह 'कृच्छ्रव्रत'
कहलाता है'। जिस व्रत में क्रमश: एक दिन गरम
दूध, दूसरे दिन गरम घी तथा तीसरे दिन गरम जल पान कर चौथे दिन
एक रात्रि का उपवास किया जाता है, उसका नाम 'तप्तकृच्छ्र' व्रत है। जब गोमूत्र, गोमय, गोदधि, गोदुग्ध और
कुशोदक- इन पाँच पदार्थों को क्रमशः एक-एक दिन पान करके पुनः कृच्छ्रव्रत का उपवास
किया जाता है तो उसको 'सान्तपनव्रत' कहा जाता है।
मया तेऽयं समाख्यातो दुर्मृतस्य
विधिः खग ।
तदा मृतं विजानीयाद्दीपनिर्वाणमागतः
॥ १६६ ॥
अग्निदाहं ततः कुर्यात्सूतकञ्च
दिनत्रयम् ।
दशाहं गर्तपिणाडञ्च कर्तव्यं
प्रेतपूर्वकम् ॥ १६७ ॥
एवं विधिं ततः कुर्यात्ततः प्रेतश्च
मुक्तिभाक् ।
मृतभ्रान्त्या प्रतिकृतेः कृते दाहे
स वै यदि ॥ १६८ ॥
आयाति तेन कर्तव्यं मज्जनं
घृकुण्डके ।
जातकर्मादिसंस्काराः कर्तव्याः
पुनरेव तु ॥ १६९ ॥
ऊढामेव स्वकां
भार्यामुद्वहेद्विधिवत्पुमान् ।
वर्षे पञ्चदशे पक्षिन् द्वादशे वा
गते सति ॥ १७० ॥
अज्ञातस्य प्रोषितस्य कृत्वा
प्रतिकृतिं दहेत् ।
हे पक्षिन् ! पापी व्यक्ति के मरने पर
कौन-सी क्रिया करनी चाहिये, यह मैंने तुम्हें
बता दिया है। पुत्तलदाह में (पुत्तल के हृदय पर रखा) जलता हुआ दीपक जब बुझ जाय तो
उस समय उसकी मृत्यु समझनी चाहिये। तदनन्तर अग्निदाह करे और तीन दिन का सूतक करे।
दशाह और गर्तपिण्ड करना चाहिये। इस विधि का सम्यक् पालन करने से प्रेत मुक्ति
प्राप्त करता है। यदि किसी के मरण का भ्रम होने से उसकी प्रतिकृति का दाह-संस्कार
हो जाय और वह मनुष्य उसके बाद आ जाय तो उसे ले जाकर घृतकुण्ड में स्नान कराना
चाहिये। तदनन्तर जातकर्मादि संस्कार पुनः किये जायें ऐसे पुरुष को अपनी विवाहिता
पत्नी से विधिवत् पुनर्विवाह कर लेना चाहिये। हे खग यदि विदेश में गये किसी
व्यक्ति को पंद्रह अथवा बारह वर्ष बीत गये हों और उसका इस अवधि के बीच कोई समाचार
नहीं प्राप्त होता है तो उसकी प्रतिकृति बनाकर उसका दाह संस्कार कर डालना चाहिये।
रजस्वलासूतिकयोर्विशेषं मरणे शृणु ॥
१७१ ॥
हे गरुड! रजस्वला और सूतिका स्त्री के
मरने पर कौन- सा विशेष कर्म करना धर्मसम्मत है, अब
उसको तुम सुनो-
सूतिकायां मृतायान्तु एवं कुर्वन्ति
याज्ञिकाः ।
कुम्भे सलिलमादाय पञ्चगव्यं तथैव च
॥ १७२ ॥
पुण्याभिरभिमन्त्र्यापो वाचा
शुद्धिं लभेत्ततः ।
शतसूर्पोदकेनादौ स्नापयित्वा
यथाविधि ॥ १७३ ॥
तेनैव स्नापयित्वा तु दाहं
कुर्यात्स्वगेश्वर ।
पञ्चभिः स्नापयित्वा तु गव्यैः
प्रेतां रजस्वलाम् ॥ १७४ ॥
वस्त्रान्तराकृतिं कृत्वा
दाहयेद्विधिपूर्वकम् ।
सूतिका स्त्री की मृत्यु होने पर
याज्ञिकजन कुम्भ में जल और पञ्चगव्य लाकर पुण्यजनित मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके
उससे स्वयं को शुद्ध करे। उसके बाद सौ शूपजल से विधिपूर्वक शव को स्नान कराके पुनः
उसको पञ्चगव्य से स्नान कराये। फिर कपड़े से बनायी गयी आकृति के साथ यथाविधि जला
देना चाहिये।
मृतस्य पञ्चके दाहविधिं वच्मि
शृणुष्व मे ॥ १७५ ॥
पचककाल में मृत्यु होने पर
दाह-संस्कार की विधि क्या है ? उसको मैं कहता
हूँ, तुम सुनो-
आदौ कृत्वा
धनिष्ठार्धमेतन्नक्षत्रपञ्चकम् ।
रेवत्यन्तं सदा दूष्यमशुभं सर्वदा
भवेत् ॥ १७६ ॥
दाहस्तत्र न कर्तव्यो विषादः
सर्वजन्तुषु ।
न जलं दीयते तेषु अशुभं सर्वदा
भवेत् ॥ १७७ ॥
पञ्चकानन्तरं सर्वं कार्यं
कर्तव्यमन्यथा ।
पुत्त्राणां गोत्रिणां तस्य
सन्तापोऽप्युपजायते ॥ १७८ ॥
गृहे हानिर्भवत्येव ऋक्षेष्वेषु
मृतस्य च ।
हे खगेश! मास के प्रारम्भ में धनिष्ठा
नक्षत्र के अर्धभाग से लेकर रेवती नक्षत्र तक पञ्चककाल होता है। इसको सदैव
दोषपूर्ण एवं अशुभ मानना चाहिये। इस काल में मरे हुए व्यक्ति का दाह संस्कार करना
उचित नहीं है। यह काल सभी प्राणियों में दुःख उत्पन्न करनेवाला है। ऐसे दिनों में
मृत्यु को प्राप्त होनेवाले लोगों को जल तक नहीं देना चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से सर्वदा अशुभ होता है। अतः पचककाल के समाप्त
होने पर ही मृतक के सभी कर्म करने चाहिये अन्यथा पुत्र और सगोत्र के लिये कष्ट ही
होता है। इन नक्षत्रों में मृतक का दाह-संस्कार करने पर घ रमें किसी-न किसी प्रकार
की हानि होती है।
अथ वा ऋक्षमद्ये च दाहस्तु
विधिपूर्वकः ॥ १७९ ॥
क्रियते मानुषाणान्तु स वा
आहुतिपूर्वकः ।
विप्रैर्विधिरतः कार्यो मन्त्रैस्तु
विधिपूर्वकम् ॥ १८० ॥
शवस्थानसमीपे तु क्षेप्तव्याः
पुत्तलास्ततः ।
दर्भकॢप्तास्तु चत्वार
ऋक्षमन्त्राभिमन्त्रिताः ॥ १८१ ॥
ततो दाहः प्रकर्तव्यस्तैश्च
पुत्तलकैः सह ।
सूतकान्ते तदा पुत्त्रैः कार्यं
शान्तिकपौष्टिकम् ॥ १८२ ॥
पञ्चकेषु मृतो योऽसौ न सतिं लभते
नरः ।
तिलान् गाञ्च सुवर्णञ्च तमुद्दिश्य
घृतं ददेत् ॥ १८३ ॥
विप्राणां दापयेद्दानं
सर्वविघ्नविनाशनम् ।
भोजनोपानहौच्छत्त्रं हेममुद्रा च
वाससी ॥ १८४ ॥
दक्षिणा दीयते विप्रे पातकस्य
प्रमोचनः ।
मयातेऽयं समाख्यातो विधिः पञ्चहरः
स्थितः ।
संयमिन्यां यथायानं यथावर्षं
मृतक्रिया ॥ १८५ ॥
हे गरुड! इन नक्षत्रों के मध्य में
मनुष्यों का दाह- संस्कार आहुति प्रदान करके विधिपूर्वक किया जा सकता है। सुयोग्य
ब्राह्मणों को वैदिक मन्त्रों के द्वारा विधिपूर्वक उसका संस्कार करना चाहिये। अतः
शव स्थान के समीप में कुश से चार पुत्तलक बनाकर नक्षत्र मन्त्रों से उनको
अभिमन्त्रित करके रख दे। तदनन्तर उन्हीं पुत्तलकों के साथ मृतक का दाह संस्कार करे
अशौच के समाप्त हो जाने पर मृतक के पुत्रों द्वारा शान्ति एवं पौष्टिक कर्म भी
होना चाहिये।
जो मनुष्य इन पञ्चक नक्षत्रों में
मर जाता है, उसको सद्गति की प्राप्ति नहीं
होती। अतएव मृतक के पुत्रों को उसके कल्याणहेतु तिल, गौ,
सुवर्ण और घी का दान देना चाहिये। समस्त विघ्नों का विनाश करने के
लिये ब्राह्मणों को भोजन, पादुका, छत्र,
सुवर्णमुद्रा तथा वस्त्र देना चाहिये। यह दान मृतक के समस्त पाप का
विनाशक है और ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिये, इससे समस्त
पाप का विनाश होता है।
इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे
प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे
दहनविधि कृच्छ्रलक्षण दग्धागमन रजस्वलामरणविधि पञ्चकमरण प्रायश्चित्तनिरूपणं नाम
चतुर्थोऽध्यायः।।
शेष जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय 5
No comments:
Post a Comment
Please do not enter any spam link in the comment box