श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ११                                         

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ११ "भगवान श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ११

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ११                                                             

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः ११                                                                

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध ग्यारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय ११ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ एकादशोऽध्यायः - ११ ॥

श्रीशुक उवाच

भगवानात्मनाऽऽत्मानं राम उत्तमकल्पकैः ।

सर्वदेवमयं देवमीज आचार्यवान् मखैः ॥ १॥

होत्रेऽददाद्दिशं प्राचीं ब्रह्मणे दक्षिणां प्रभुः ।

अध्वर्यवे प्रतीचीं च उदीचीं सामगाय सः ॥ २॥

आचार्याय ददौ शेषां यावती भूस्तदन्तरा ।

मन्यमान इदं कृत्स्नं ब्राह्मणोऽर्हति निःस्पृहः ॥ ३॥

इत्ययं तदलङ्कारवासोभ्यामवशेषितः ।

तथा राज्ञ्यपि वैदेही सौमङ्गल्यावशेषिता ॥ ४॥

ते तु ब्रह्मण्यदेवस्य वात्सल्यं वीक्ष्य संस्तुतम् ।

प्रीताः क्लिन्नधियस्तस्मै प्रत्यर्प्येदं बभाषिरे ॥ ५॥

अप्रत्तं नस्त्वया किं नु भगवन् भुवनेश्वर ।

यन्नोऽन्तर्हृदयं विश्य तमो हंसि स्वरोचिषा ॥ ६॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय रामायाकुण्ठमेधसे ।

उत्तमश्लोकधुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताङ्घ्रये ॥ ७॥

कदाचिल्लोकजिज्ञासुर्गूढो रात्र्यामलक्षितः ।

चरन् वाचोऽशृणोद्रामो भार्यामुद्दिश्य कस्यचित् ॥ ८॥

नाहं बिभर्मि त्वां दुष्टामसतीं परवेश्मगाम् ।

स्त्रीलोभी बिभृयात्सीतां रामो नाहं भजे पुनः ॥ ९॥

इति लोकाद्बहुमुखाद्दुराराध्यादसंविदः ।

पत्या भीतेन सा त्यक्ता प्राप्ता प्राचेतसाश्रमम् ॥ १०॥

अन्तर्वत्न्यागते काले यमौ सा सुषुवे सुतौ ।

कुशो लव इति ख्यातौ तयोश्चक्रे क्रिया मुनिः ॥ ११॥

अङ्गदश्चित्रकेतुश्च लक्ष्मणस्यात्मजौ स्मृतौ ।

तक्षः पुष्कल इत्यास्तां भरतस्य महीपते ॥ १२॥

सुबाहुः श्रुतसेनश्च शत्रुघ्नस्य बभूवतुः ।

गन्धर्वान् कोटिशो जघ्ने भरतो विजये दिशाम् ॥ १३॥

तदीयं धनमानीय सर्वं राज्ञे न्यवेदयत् ।

शत्रुघ्नश्च मधोः पुत्रं लवणं नाम राक्षसम् ।

हत्वा मधुवने चक्रे मथुरां नाम वै पुरीम् ॥ १४॥

मुनौ निक्षिप्य तनयौ सीता भर्त्रा विवासिता ।

ध्यायन्ती रामचरणौ विवरं प्रविवेश ह ॥ १५॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ जी को अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियों से युक्त यज्ञों के द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्मा का यजन किया। उन्होंने होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण, अध्वर्यु को पश्चिम और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी। उनके बीच में जितनी भूमि बच रही थी, वह उन्होंने आचार्य को दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डल का एकमात्र अधिकारी निःस्पृह ब्राह्मण ही है। इस प्रकार सारे भूमण्डल दान करके उन्होंने अपने शरीर के वस्त्र और अलंकार ही अपने पास रखे। इसी प्रकार महारानी सीता जी के पास भी केवल मांगलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे।

जब आचार्य आदि ब्राह्मणों ने देखा कि भगवान श्रीराम तो ब्राह्मणों को ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदय में ब्राह्मणों के प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेम से द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान को लौटा दी और कहा- प्रभो! आप सब लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदय के भीतर रहकर अपनी ज्योति से अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है। आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्ति वाले पुरुषों में आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओं को, जो किसी को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होने पर भी आप ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन्! आपके इस राम रूप को हम नमस्कार करते हैं

परीक्षित! एक बार अपनी प्रजा की स्थिति जानने के लिये भगवान श्रीराम जी रात के समय छिपकर बिना किसी को बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसी की यह बात सुनी। वह अपनी पत्नी से कह रहा था- अरी! तू दुष्ट और कुलटा है। तू पराये घर में रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीता को रख लें, परन्तु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता। सचमुच सब लोगों को प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खों की तो कमी नहीं है। जब भगवान श्रीराम ने बहुतों के मुँह से ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवाद से कुछ भयभीत-से हो गये। उन्होंने श्रीसीता जी का परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। सीता जी उस समय गर्भवती थीं। समय आने पर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए- कुश और लव। वाल्मीकि मुनि ने उनके जात-कर्मादि संस्कार किये।

लक्ष्मण जी के दो पुत्र हुए- अंगद और चित्रकेतु। परीक्षित! इसी प्रकार भरत जी के भी दो ही पुत्र थे- तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्न के भी दो पुत्र हुए- सुबाहु और श्रुतसेन। भरत जी ने दिग्विजय में करोड़ों गन्धर्वों का संहार किया। उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान श्रीराम की सेवा में निवेदन किया। शत्रुघ्न ने मधुवन में मधु के पुत्र लवण नामक राक्षस को मारकर वहाँ मथुरा नाम की पुरी बसायी। भगवान श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीता जी ने अपने पुत्रों को वाल्मीकि जी के हाथों में सौंप दिया और भगवान श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवी के लोक में चली गयीं।

तच्छ्रुत्वा भगवान् रामो रुन्धन्नपि धिया शुचः ।

स्मरंस्तस्या गुणांस्तांस्तान्नाशक्नोद्रोद्धुमीश्वरः ॥ १६॥

स्त्रीपुम्प्रसङ्ग एतादृक् सर्वत्र त्रासमावहः ।

अपीश्वराणां किमुत ग्राम्यस्य गृहचेतसः ॥ १७॥

तत ऊर्ध्वं ब्रह्मचर्यं धारयन्नजुहोत्प्रभुः ।

त्रयोदशाब्दसाहस्रमग्निहोत्रमखण्डितम् ॥ १८॥

स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकैः ।

स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात्ततः ॥ १९॥

नेदं यशो रघुपतेः सुरयाच्ञयात्त-

लीलातनोरधिकसाम्यविमुक्तधाम्नः ।

रक्षोवधो जलधिबन्धनमस्त्रपूगैः

किं तस्य शत्रुहनने कपयः सहायाः ॥ २०॥

यस्यामलं नृपसदःसु यशोऽधुनापि

गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम् ।

तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्ट-

पादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये ॥ २१॥

स यैः स्पृष्टोऽभिदृष्टो वा संविष्टोऽनुगतोऽपि वा ।

कोसलास्ते ययुः स्थानं यत्र गच्छन्ति योगिनः ॥ २२॥

पुरुषो रामचरितं श्रवणैरुपधारयन् ।

आनृशंस्यपरो राजन् कर्मबन्धैर्विमुच्यते ॥ २३॥

यह समाचार सुनकर भगवान श्रीराम ने अपने शोकावेश को बुद्धि के द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होने पर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकी जी के पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे।

परीक्षित! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दुःख का कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

इसके बाद भगवान श्रीराम ने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्ष तक अखण्ड रूप से अग्निहोत्र किया। तदनन्तर अपना स्मरण करने वाले भक्तों के हृदय में अपने उन चरणकमलों को स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वयं प्रकाश परमज्योतिर्मय धाम में चले गये। परीक्षित! भगवान के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थिति में रघुवंश-शिरोमणि भगवान श्रीराम के लिये यह कोई बड़े गौरव की बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों को मार डाला या समुद्र पर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओं को मारने के लिये बंदरों की सहायता की भी आवश्यकता थी क्या? यह सब उनकी लीला ही है।

भगवान श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देने वाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि राजाओं की सभा में उसका गान करते रहते हैं। स्वर्ग के देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान श्रीरामचन्द्र की शरण ग्रहण करता हूँ। जिन्होंने भगवान श्रीराम का दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया-वे सब-के-सब तथा कोसल देश के निवासी भी उसी लोक में गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योग-साधना के द्वारा जाते हैं। जो पुरुष अपने कानों से भगवान श्रीराम का चरित्र सुनता है-उसे सरलता, कोमलता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। परीक्षित! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है।

राजोवाच

कथं स भगवान् रामो भ्रातॄन् वा स्वयमात्मनः ।

तस्मिन् वा तेऽन्ववर्तन्त प्रजाः पौराश्च ईश्वरे ॥ २४॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवान श्रीराम स्वयं अपने भाइयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान श्रीराम के प्रति कैसा बर्ताव करते थे?

श्रीशुक उवाच

अथादिशद्दिग्विजये भ्रातॄंस्त्रिभुवनेश्वरः ।

आत्मानं दर्शयन् स्वानां पुरीमैक्षत सानुगः ॥ २५॥

आसिक्तमार्गां गन्धोदैः करिणां मदशीकरैः ।

स्वामिनं प्राप्तमालोक्य मत्तां वा सुतरामिव ॥ २६॥

प्रासादगोपुरसभाचैत्यदेवगृहादिषु ।

विन्यस्तहेमकलशैः पताकाभिश्च मण्डिताम् ॥ २७॥

पूगैः सवृन्तै रम्भाभिः पट्टिकाभिः सुवाससाम् ।

आदर्शैरंशुकैः स्रग्भिः कृतकौतुकतोरणाम् ॥ २८॥

तमुपेयुस्तत्र तत्र पौरा अर्हणपाणयः ।

आशिषो युयुजुर्देव पाहीमां प्राक् त्वयोद्धृताम् ॥ २९॥

ततः प्रजा वीक्ष्य पतिं चिरागतं

दिदृक्षयोत्सृष्टगृहाः स्त्रियो नराः ।

आरुह्य हर्म्याण्यरविन्दलोचन-

मतृप्तनेत्राः कुसुमैरवाकिरन् ॥ ३०॥

अथ प्रविष्टः स्वगृहं जुष्टं स्वैः पूर्वराजभिः ।

अनन्ताखिलकोषाढ्यमनर्घ्योरुपरिच्छदम् ॥ ३१॥

विद्रुमोदुम्बरद्वारैर्वैदूर्यस्तम्भपङ्क्तिभिः ।

स्थलैर्मारकतैः स्वच्छैर्भातस्फटिकभित्तिभिः ॥ ३२॥

चित्रस्रग्भिः पट्टिकाभिर्वासोमणिगणांशुकैः ।

मुक्ताफलैश्चिदुल्लासैः कान्तकामोपपत्तिभिः ॥ ३३॥

धूपदीपैः सुरभिभिर्मण्डितं पुष्पमण्डनैः ।

स्त्रीपुम्भिः सुरसङ्काशैर्जुष्टं भूषणभूषणैः ॥ ३४॥

तस्मिन् स भगवान् रामः स्निग्धया प्रिययेष्टया ।

रेमे स्वारामधीराणामृषभः सीतया किल ॥ ३५॥

बुभुजे च यथाकालं कामान् धर्ममपीडयन् ।

वर्षपूगान् बहून् नॄणामभिध्याताङ्घ्रिपल्लवः ॥ ३६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- त्रिभुवनपति महाराज श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद अपने भाइयों को दिग्विजय की आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनों को दर्शन देते हुए अपने अनुचरों के साथ वे पुरी की देख-रेख करने लगे। उस समय अयोध्यापुरी के मार्ग सुगन्धित जल और हाथियों के मदकणों से सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान श्रीराम को देखकर अत्यन मतवाली हो रही है। उसके महल, फाटक, सभा भवन, विहार और देवालय आदि में सुवर्ण के कलश रखे हुए थे और स्थान-स्थान पर पताकाएँ फहरा रही थीं। वह डंठल समेत सुपारी, केले के खंभे और सुन्दर वस्त्रों के पट्टों से सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओं से तथा मांगलिक चित्रकारियों और बंदनवारों से सारी नगरी जगमगा रही थी।

नगरवासी अपने हाथों में तरह-तरह की भेंटे लेकर भगवान् के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि देव! पहले आपने ही वराह रूप से पृथ्वी का उद्धार किया था; अब आप इसका पालन कीजिये।

परीक्षित! उस समय जब प्रजा को मालूम होता कि बहुत दिनों के बाद भगवान् श्रीराम इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन की लालसा से घर-द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रों से कमलनयन भगवान् को देखते हुए उन पर पुष्पों की वर्षा करते। इस प्रकार प्रजा का निरिक्षण करके भगवान् फिर अपने महलों में आ जाते। उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओं के द्वारा सेवित थे। उनमें इतने बड़े-बड़े सब प्रकार के खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे। वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियों से सुसज्जित थे।

महलों के द्वार तथा देहलियाँ मूँगे की बनी हुई थीं। उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्य मणि के थे। मरकत मणि के बड़े सुन्दर-सुन्दर फर्श थे, तथा स्फटिक मणि की दीवारें चमकती रहती थीं। रंग-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियों की चमक, शुद्ध चेतन के समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग-सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलों के गहनों से वे महल खूब सजाये हुए थे। आभूषणों को भूषित करने वाले देवताओं के समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवा में लगे रहते थे।

परीक्षित! भगवान् श्रीराम आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषों के शिरोमणि थे। उसी महल में अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीता जी के साथ विहार करते थे। सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान् श्रीराम बहुत वर्षों तक धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए समयानुसार भोगों का उपभोग करते थे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीरामोपाख्याने एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥

जारी-आगे पढ़े............... नवम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः

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