सतीखण्ड अध्याय ७
शिवमहापुराण के द्वितीय रुद्रसंहिता
के द्वितीयखण्ड सतीखण्ड के अध्याय ७ में महर्षि मेधातिथि की यज्ञाग्नि में सन्ध्या
द्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धती के
रूप में यज्ञाग्नि से उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनि के साथ उसका विवाह का वर्णन किया
गया है।
रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय ७
Sati
khand chapter 7
शिवपुराणम् संहिता २ (रुद्रसंहिता) खण्डः २ (सतीखण्डः) अध्यायः ७
शिवपुराणम्
रुद्रसंहिता सतीखण्डः सप्तमोऽध्यायः
शिवमहापुराण द्वितीय रुद्रसंहिता द्वितीय-सतीखण्ड सातवाँ अध्याय
शिवमहापुराण –
द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय
७
ब्रह्मोवाच ।।
वरं दत्त्वा मुने तस्मिन्
शंभावंतर्हिते तदा ।।
संध्याप्यगच्छत्तत्रैव यत्र
मेधातिथिर्मुनिः ।। १ ।।
तत्र शंभोः प्रसादेन न
केनाप्युपलक्षिता ।।
सस्मार वर्णिनं तं वै स्वोपदेशकरं
तपः ।। २ ।।
वसिष्ठेन पुरा सा तु वर्णीभूत्वा
महामुने ।।
उपदिष्टा तपश्चर्तुं
वचनात्परमेष्ठिनः ।। ३ ।।
तमेव कृत्वा मनसा तपश्चर्योपदेशकम्
।।
पतित्वेन तदा संध्या ब्राह्मणं
ब्रह्मचारिणम् ।। ४ ।।
समिद्धेग्नौ महायज्ञे
मुनिभिर्नोपलक्षिता ।।
दृष्टा शंभुप्रसादेन सा विवेश विधेः
सुता ।। ५ ।।
ब्रह्माजी बोले —
इस प्रकार भगवान् सदाशिव जब सन्ध्या को वर प्रदानकर अन्तर्धान हो
गये, तब सन्ध्या वहाँ गयी, जहाँ महर्षि
मेधातिथि थे ॥ १ ॥ वहाँ पर भगवान् सदाशिव की कृपा से उसे किसी ने नहीं देखा । उसने
उस समय तपस्या के विषय में उपदेश करनेवाले उन ब्रह्मचारी का स्मरण किया ॥ २ ॥ हे
महामुने ! वे ब्रह्मचारी वसिष्ठ मुनि ही थे, जो ब्रह्माजी की
आज्ञा से ब्रह्मचारी का रूप धारणकर सन्ध्या को तपस्या के सम्बन्ध में उपदेश करने
आये थे ॥ ३ ॥ तपश्चर्या का उपदेश करनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण [वसिष्ठ]-का
पतिरूप से स्मरण करके वह ब्रह्मपुत्री सन्ध्या प्रसन्नमन से सदाशिव की कृपा से
मुनियों द्वारा अलक्षित हो उस महायज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी ॥ ४-५
॥
तस्याः पुरोडाशमयं शरीरं
तत्क्षणात्ततः ।।
दग्धं पुरोडाशगंधं तस्तार
यदलक्षितम् ।।६।।
वह्निस्तस्याः शरीरं तु दग्ध्वा
सूर्यस्य मंडलम् ।।
शुद्धं प्रवेशयामास शंभोरेवाज्ञया
पुनः ।।७।।
सूर्यो त्र्यर्थं विभज्याथ तच्छरीरं
तदा रथे ।।
स्वकेशं स्थापयामास प्रीतये
पितृदेवयोः ।।८।।
तदूर्द्ध्वभागस्तस्यास्तु शरीरस्य
मुनीश्वर।।
प्रातस्संध्याभवत्सा तु
अहोरात्रादिमध्यगा।९।
तच्छेषभागस्तस्यास्तु
अहोरात्रांतमध्यगा ।।
सा सायमभवत्संध्या पितृप्रीतिप्रदा
सदा ।। १०।।
उसका समस्त शरीर पुरोडाश के समान
तत्क्षण ही जलकर राख हो गया, जिससे अलक्षित
रूप से पुरोडाश का गन्ध चारों ओर फैल गया ॥ ६ ॥ पुनः सदाशिव की आज्ञा से अग्नि ने
उसके शुद्ध शरीर को भस्मकर सूर्यमण्डल में प्रविष्ट करा दिया ॥ ७ ॥ तदनन्तर सूर्य
ने उसके शरीर को दो भागों में विभक्तकर पितरों एवं देवताओं की प्रसन्नता के लिये
अपने रथ में स्थापित कर लिया ॥ ८ ॥ हे मुनीश्वर ! उसके शरीर का जो ऊपर का भाग था,
वही रात्रि तथा दिन के बीच में होनेवाली प्रातःसन्ध्या हुई ॥ ९ ॥ जो
उसके शरीर का शेष भाग था, वही दिन तथा रात्रि के बीच में
होनेवाली सायंसन्ध्या हुई, जो सदैव ही पितरों की प्रसन्नता
का कारण होती है ॥ १० ॥
सूर्योदयात्तु प्रथमं यदा
स्यादरुणोदयः ।।
प्रातस्संध्या तदोदेति देवानां
प्रीतिकारिणी ।। ११ ।।
अस्तं गते ततः सूर्य्ये शोणपद्मनिभे
सदा ।।
उदेति सायं संध्यापि पितॄणां
मोदकारिणी ।।१२।।
तस्याः प्राणास्तु मनसा शंभुनाथ
दयालुना ।।
दिव्येन तु शरीरेण चक्रिरे हि
शरीरिणः ।।१३।।
मुनेर्यज्ञावसाने तु संप्राप्ते
मुनिना तु सा ।।
प्राप्ता पुत्री वह्निमध्ये तप्तकांचनसुप्रभा
।। १४ ।।
सूर्योदय के पहले जब अरुणोदय होता
है,
तब देवताओं को प्रसन्न करनेवाली प्रातःसन्ध्या का उदय होता है ॥ ११
॥ जब लाल कमल के समान सूर्य अस्त हो जाता है, तब पितरों को
प्रसन्न करनेवाली सायं-सन्ध्या का उदय होता है ॥ १२ ॥ उसके मन सहित प्राण को परम
दयालु शिव ने शरीरधारियों के दिव्य शरीर से निर्मित किया था ॥ १३ ॥ जब मेधातिथि का
यज्ञ समाप्त हो रहा था, तब उन्हें देदीप्यमान सुवर्ण के समान
कान्तिवाली वह कन्या यज्ञाग्नि में प्राप्त हुई ॥ १४ ॥
तां जग्राह तदा पुत्रीं
मुनुरामोदसंयुतः ।।
यज्ञार्थं तान्तु संस्नाप्य
निजक्रोडे दधौ मुने ।। १५ ।।
अरुंधती तु तस्यास्तु नाम चक्रे
महामुनिः ।।
शिष्यैः परिवृतस्तत्र महामोदमवाप ह
।। १६ ।।
विरुणद्धि यतो धर्मं सा कस्मादपि
कारणात् ।।
अतस्त्रिलोके विदितं नाम संप्राप
तत्स्वयम् ।।१७।।
हे मुने ! महामुनि मेधातिथि ने यज्ञ
से प्राप्त हुई उस कन्या को बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण किया और उसे स्नान कराकर अपनी
गोद में बिठाया ॥ १५ ॥ उन्होंने उसका नाम अरुन्धती रखा । [उस कन्या को प्राप्तकर]
वे शिष्यों के साथ बड़े ही हर्षित हुए ॥ १६ ॥ उसने किसी भी कारण के उपस्थित होने
पर अपने पातिव्रत्यधर्म का परित्याग नहीं किया, इसलिये
त्रिलोकी में उसने स्वयं यह प्रसिद्ध [अरुन्धती] नाम धारण किया ॥ १७ ॥
यज्ञं समाप्य स मुनिः कृतकृत्यभाव-
मासाद्य संपदयुतस्तनया प्रलंभात् ।।
तस्मिन्निजाश्रमपदे सह शिष्यवर्गै-
स्तामेव सततमसौ दयिते सुरर्षे
।।१८।।
ब्रह्माजी बोले —
हे सुरर्षे ! यज्ञ समाप्त करने के उपरान्त वे मुनि कन्यारूप
सम्पत्ति से युक्त हो अपने शिष्यों सहित अत्यन्त कृतकृत्य होकर अपने उस आश्रम में
उसका लालन-पालन करने लगे ॥ १८ ॥
अथ सा ववृधे देवी
तस्मिन्मुनिवराश्रमे ।।
चन्द्रभागानदीतीरे तापसारण्यसंज्ञके
।। १९ ।।
संप्राप्ते पञ्चमे वर्षे
चन्द्रभागां तदा गुणैः ।।
तापसारण्यमपि सा पवित्रमकरोत्सती ।।
२०।।
विवाहं कारयामासुस्तस्या
ब्रह्मसुतेन वै ।।
वसिष्ठेन ह्यरुंधत्या
ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।२१।।
उसके बाद वह कन्या चन्द्रभागा नदी
के तट पर श्रेष्ठ मुनि के तापसारण्य नामक आश्रम में बढ़ने लगी ॥ १९ ॥ वह सती पाँच
वर्ष की अवस्था में अपने गुणों से चन्द्रभागा नदी तथा तापसारण्य को पवित्र करने
लगी ॥ २० ॥ ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ने
ब्रह्मपुत्र वसिष्ठ के साथ उस अरुन्धती का विवाह करवाया ॥ २१ ॥
तद्विवाहे महोत्साहो वभूव
सुखवर्द्धनः।।
सर्वे सुराश्च मुनयस्सुखमापुः परं
मुनो।२२।।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां
करनिस्सृततोयतः ।।
सप्तनद्यस्समुत्पन्नाश्शिप्राद्यास्सुपवित्रकाः
।। २३ ।।
अरुंधती महासाध्वी साध्वीनां
प्रवरोत्तमा ।।
वसिष्ठं प्राप्य संरेजे
मेधातिथिसुता मुने ।। २४ ।।
यस्याः पुत्रास्समुत्पन्नाः
श्रेष्ठाश्शक्त्यादयश्शुभाः ।।
वसिष्ठं प्राप्य तं कांतं संरेजे
मुनिसत्तमाः ।। २५ ।।
हे मुने ! उसके विवाह में सुखदायक
महान् उत्सव हुआ, जिससे सभी देवता
तथा मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २२ ॥ [उस विवाह में] ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के हाथ से गिरे हुए जल से शिप्रा आदि सात पवित्र
नदियाँ उत्पन्न हुईं ॥ २३ ॥ हे मुने ! साध्वी स्त्रियों में सर्वश्रेष्ठ महासाध्वी
वह मेधातिथि की कन्या अरुन्धती वसिष्ठ को [पतिरूप में] प्राप्तकर अत्यन्त शोभित
हुई ॥ २४ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उससे शक्ति आदि श्रेष्ठ तथा सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए
। इस प्रकार वसिष्ठ को पतिरूप में प्राप्तकर वह शोभा पाने लगी ॥ २५ ॥
एवं संध्याचरित्रं ते कथितं
मुनिसत्तम ।।
पवित्रं पावनं दिव्यं
सर्वकामफलप्रदम् ।। २६ ।।
य इदं शृणुयान्नारी पुरुषो वा
शुभव्रतः ।।
सर्वान्कामानवाप्नोति नात्र कार्या
विचारणा ।। २७ ।।
हे मुनिसत्तम ! इस प्रकार मैंने
सन्ध्या का चरित्र कहा, जो अत्यन्त पवित्र,
दिव्य तथा सम्पूर्ण कामनाओं का फल देनेवाला है ॥ २६ ॥ जो शुभ
व्रतवाला पुरुष अथवा नारी इस चरित्र को सुनता है, उसके सभी
मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७ ॥
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां
रुद्रसंहितायां द्वि- सतीखंडे सप्तमोऽध्यायः ।। ७ ।।
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में अरुन्धती तथा वसिष्ठ के
विवाह का वर्णन नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥
शेष जारी .............. शिवमहापुराण रुद्रसंहिता सतीखण्ड अध्याय 8
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