नरसिंहपुराण अध्याय १४

नरसिंहपुराण अध्याय १४  

नरसिंहपुराण अध्याय १४ में तीर्थसेवन और आराधन से भगवान्‌ की प्रसन्नता; 'अनाश्रमी' रहने से दोष तथा आश्रमधर्म के पालन से भगवत्प्राप्ति का कथन का वर्णन है।

नरसिंहपुराण अध्याय १४

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १४  

Narasingha puran chapter 14

नरसिंह पुराण चौदहवाँ अध्याय

नरसिंहपुराण अध्याय १४    

श्रीनरसिंहपुराण चतुर्दशोऽध्यायः

॥ॐ नमो भगवते श्रीनृसिंहाय नमः॥

व्यास उवाच

श्रृणु वत्स महाबुद्धे शिष्याश्चैतां परां कथाम् ।

मयोच्यमानां श्रृण्वन्तु सर्वपापप्रणाशिनीम् ॥१॥

व्यासजी बोले - महाबुद्धिमान् पुत्र शुकदेव ! तुम और मेरे अन्य शिष्यगण भी मेरे द्वारा कही जानेवाली इस पापहारिणी कथाको सुनो ॥१॥

पुरा द्विजवरः कश्चिद्वेदशास्त्रविशारदः ।

मृतभार्यो गतस्तीर्थं चक्रे स्नानं यथाविधि ॥२॥

तपः सुतप्तं विजने निः स्पृहो दारकर्मणि ।

भिक्षाहारः प्रवसितो जपस्नानपरायणः ॥३॥

स्नात्वा स गङ्गां यमुनां सरस्वतीं

पुण्यां वितस्तामथ गोमतीं च ।

गयां समासाद्य पितृन् पितामहान्

संतर्पयन् सन् गतवान् महेन्द्रम् ॥४॥

तत्रापि कुण्डेषु गिरौ महामतिः

स्नात्वा नु दृष्ट्वा भृगुनन्दनोत्तमम् ।

कृत्वा पितृभ्यस्तु तथैव तृप्तिं

व्रजन् वनं पापहरं प्रविष्टः ॥५॥

पूर्वकालमें कोई वेदशास्त्रविशारद श्रेष्ठ ब्राह्मण अपनी पत्नीकी मृत्यु हो जानेपर तीर्थमें गया और वहाँ उसने विधिपूर्वक स्नान किया और विजन ( एकान्त ) - में रहकर उत्तम तपस्या की । तत्त्पश्चात् दारकर्म ( विवाह ) - की इच्छा न रखकर वह परदेशमें रहता हुआ भिक्षा माँगकर जीवननिर्वाह करने और जप, स्नान आदि उत्तम कर्ममें तत्पर रहने लगा । गङ्गा, यमुना, सरस्वती, पावन वितस्ता ( झेलम ) और गोमती आदिमें स्नान करके वह गयामें पहुँचा और वहाँ अपने पिता - पितामह आदिका तर्पण करके महेन्द्र पर्वतपर गया । वहाँ उस परम बुद्धिमान् द्विजने पर्वतीय कुण्डोंमें स्नान करनेके पश्चात् ऋषिश्रेष्ठ भृगुनन्दन परशुरामजीका दर्शन किया; फिर पूर्ववत् पितरोंके लिये तर्पण करके चलते - चलते एक वनमें प्रवेश किया, जो पापोंका नाश करनेवाला था ॥२ - ५॥

धारां पतन्तीं महतीं शिलोच्चयात्

संधार्य भक्त्या त्वनु नारसिंहे ।

शिरस्यशेषाघविनाशिनीं तदा

विशुद्धदेहः स बभूव विप्रः ॥६॥

विन्ध्याचले सक्तमनन्तमच्युतं

भक्तैर्मुनीन्द्रैरपि पूजितं सदा ।

आराध्य पुष्पैर्गिरिसम्भवैः शुभै -

स्तत्रैव सिद्धिं त्वभिकांक्ष्य संस्थितः ॥७॥

वहाँ एक पर्वतसे बहुत बड़ी धारा गिरती थी, जो निश्शेष पापराशिका विनाश करनेवाली थी । उसके जलको लेकर ब्राह्मणने भक्तिपूर्वक भगवान् नृसिंहके मस्तकपर चढ़ाया । इससे उसी समय उसका शरीर विशुद्ध हो गया। फिर विन्ध्याचल पर्वतपर स्थित होकर भक्तों और मुनीश्वरोंसे सदा पूजित होनेवाले अनन्त अच्युत भगवान् विष्णुकी सुन्दर पर्वतीय पुष्पोंसे पूजा करता हुआ वह ब्राह्मण सिद्धिकी कामनासे वहीं ठहर गया ॥६ - ७॥

स नारसिंहो बहुकालपूजया

तुष्टः सुनिद्रागतमाह भक्तम् ।

अनाश्रमित्वं गृहभङ्गकारणं

ह्यतो गृहाणाश्रममुत्तमं द्विज ॥८॥

अनाश्रमीति द्विजवेदपारगानपि

त्वहं नानुगृह्णामि चात्र ।

तथापि निष्ठां तव वीक्ष्य सत्तम

त्वयि प्रसन्नेन मयेत्युदीरितम् ॥९॥

इस तरह दीर्घकालतक उसने पूजा की । उससे प्रसन्न होकर वे भगवान् नृसिंह गाढ़ निद्रामें सोये हुए अपने उस भक्तसे स्वप्नमें दर्शन देकर बोले - ' ब्रह्मन ! किसी आश्रमधर्मको स्वीकार करके न चलना गृहस्थकी मर्यादाके भङ्गका कारण होता है; अतः यदि तुम्हें गृहस्थ नहीं रहना है तो किसी दूसरे उत्तम आश्रमको ग्रहण करो । ब्रह्मन्! जो किसी आश्रममें स्थित नहीं है, वह यदि वेदोंका पारगामी विद्वान् हो, तो भी मैं यहाँ उसपर अनुग्रह नहीं करता; परंतु साधुवर ! तुम्हारी निष्ठा देखकर मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसीसे मैंने तुमसे यह बात कही हैं ' ॥८ - ९॥

तेनैवमुक्तः परमेश्वरेण द्विजोऽपि बुद्ध्या प्रविचिन्त्य वाक्यम् ।

हरेलङ्घ्यं नरसिंहमूर्तेर्बाधं च कृत्वा स यतिर्बभूव ॥१०॥

उन परमेश्वरके इस प्रकार कहनेपर उस ब्राह्मणने भी अपनी बुद्धिसे नृसिंहस्वरुप श्रीहरिके उस कथनपर विचार करके उसे अलङ्घनीय माना और सम्पूर्ण जगतका बाध ( त्याग ) करके वह संन्यासी हो गया ॥१०॥

त्रिदण्डवृक्षाक्षपवित्रपाणिराप्लुत्य तोये त्वघहारिणि स्थितः ।

जपन् सदा मन्त्रमपास्तदोषं सावित्र्यमीशं हदये स्मरन् हरिम् ॥११॥

यथाकथंचित् प्रतिलभ्य शाकं भैक्ष्याभितुष्टो वनवासवासी ।

अभ्यर्च्य विष्णुं नरसिंहमुर्ति ध्यात्वा च नित्यं हदि शुद्धमाद्यम् ॥१२॥

विविक्तदेशे विपुले कुशासने निवेश्य सर्वं हदयेऽस्य सर्वम् ।

बाह्यं समस्तं गुणमिन्द्रियाणां विलीय भेदं भगवत्यनन्ते ॥१३॥

विज्ञेयमानन्दमजं विशालं सत्यात्मकं क्षेमपदं वरेण्यम् ।

संचिन्त्य तस्मिन् प्रविहाय देहं बभूव मुक्तः परमात्मरुपी ॥१४॥

फिर प्रतिदिन उस पापहारी जलमें डुबकी लगाकर तथा उसीमें खड़ा रहकर त्रिदण्ड और अक्षमाला धारण करनेसे पवित्र हाथोंवाला वह ब्राह्मण मन - ही - मन भगवान् विष्णुका स्मरण करता हुआ निर्दोष गायत्री - मन्त्रका जप करने लगा । नित्यप्रति शुद्ध आदिदेव भगवान् विष्णुका हदयमें ध्यान करके उनके नृसिंह - विग्रहका पूजन करता और वनवासी हो किसी प्रकार शाक आदि खाकर भिक्षावृत्तिसे ही संतोषपूर्वक रहता था । विस्तृत एकान्त प्रदेशमें कुशासनपर बैठकर वह इन्द्रियोंके समस्त बाह्य विषयों तथा भेदबुद्धिको हदयस्थित भगवान् अनन्तमें विलीन करके विज्ञेय, अजन्मा, विराटू, सत्यस्वरुप, श्रेष्ठ, कल्याणधाम आनन्दमय परमेश्वरका चिन्तन करता हुआ आयु पूरी होनेपर शरीर त्यागकर मुक्त एवं परमात्मस्वरुप हो गया ॥११ - १४॥

इमां कथां मुक्तिपरां यथोक्तां पठन्ति ये नारसिंहं स्मरन्तः ।

प्रयागतीर्थप्लवने तु यत्फलं तत् प्राप्य ते यान्ति हरेः पदं महत् ॥१५॥

इत्येतदुक्तं तव पुत्र पृच्छतः पुरातनं पुण्यतमं पवित्रकम् ।

संसारवृक्षस्य विनाशनं परं पुनः कमिच्छस्यभिवाञ्छितं वद ॥१६॥

जो लोग मोक्ष - सम्बन्धिनी अथवा मोक्षको ही उत्कृष्ट बनानेवाली इस कथाको भगवान् नृसिंहका स्मरण करते हुए पढ़ते हैं, वे प्रयागातीर्थमें स्नान करनेसे जो फल होता है, उसे पाकर अन्तमें भगवान् विष्णुके महान् पदको प्राप्त कर लेते हैं । बेटा ! तुम्हारे पूछनेसे मैंने यह उत्तम, पवित्र, पुण्यतम एवं पुरातन उपाख्यान, जो संसारवृक्षका नाश करनेवाला है, तुमसे कहा है; अब और क्या सुनना चाहते हो ? अपना मनोरथ प्रकट करो ॥१५ - १६॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१४॥

आगे जारी- श्रीनरसिंहपुराण अध्याय 15

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