श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १६                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १६ "कश्यप जी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १६

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षोडश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १६                                                               

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ८ अध्यायः १६                                                                  

श्रीमद्भागवत महापुराण आठवाँ स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ८ अध्याय १६ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् अष्टमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ षोडशोऽध्यायः - १६ ॥

श्रीशुक उवाच

एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ।

हृते त्रिविष्टपे दैत्यैः पर्यतप्यदनाथवत् ॥ १॥

एकदा कश्यपस्तस्या आश्रमं भगवानगात् ।

निरुत्सवं निरानन्दं समाधेर्विरतश्चिरात् ॥ २॥

स पत्नीं दीनवदनां कृतासनपरिग्रहः ।

सभाजितो यथान्यायमिदमाह कुरूद्वह ॥ ३॥

अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनाऽऽगतम् ।

न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४॥

अपि वाकुशलं किञ्चिद्गृहेषु गृहमेधिनि ।

धर्मस्यार्थस्य कामस्य यत्र योगो ह्ययोगिनाम् ॥ ५॥

अपि वातिथयोऽभ्येत्य कुटुम्बासक्तया त्वया ।

गृहादपूजिता याताः प्रत्युत्थानेन वा क्वचित् ॥ ६॥

गृहेषु येष्वतिथयो नार्चिताः सलिलैरपि ।

यदि निर्यान्ति ते नूनं फेरुराजगृहोपमाः ॥ ७॥

अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति ।

त्वयोद्विग्नधिया भद्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥ ८॥

यत्पूजया कामदुघान् याति लोकान् गृहान्वितः ।

ब्राह्मणोऽग्निश्च वै विष्णोः सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥ ९॥

अपि सर्वे कुशलिनस्तव पुत्रा मनस्विनि ।

लक्षयेऽस्वस्थमात्मानं भवत्या लक्षणैरहम् ॥ १०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदिति को बड़ा दुःख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं।

एक बार बहत दिनों के बाद जब परम प्रभावशाली कश्यप मुनि की समाधि टूटी, तब वे अदिति के आश्रम पर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकार का उत्साह या सजावट ही। परीक्षित! जब वे वहाँ जाकर आसन पर बैठ गये और अदिति ने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदिति से-जिसके चेहरे पर बड़ी उदासी छायी हुई थी, बोले- कल्याणी! इस समय संसार में ब्राह्मणों पर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है? धर्म का पालन तो ठीक-ठीक होता है? काल के कराल गाल में पड़े हुए लोगों का कुछ अमंगल तो नहीं हो रहा है?

प्रिये! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योग का फल देने वाला है। इस गृहस्थाश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम के सेवन में किसी प्रकार विघ्न तो नहीं हो रह है? यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्ब के भरण-पोषण में व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करने में भी असमर्थ रही हो। इसी से तो तुम उदास नहीं हो रही हो? जिन घरों में आये हुए अतिथि का जल से भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ों के घर के समान हैं।

प्रिये! सम्भव है, मेरे बाहर चले जाने पर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्न रहा हो और समय पर तुमने हविष्य से अग्नियों में हवन न किया हो। सर्वदेवमय भगवान् के मुख हैं-ब्राह्मण और अग्नि। गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनों की पूजा करता है तो उसे उन लोकों की प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। प्रिये! तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परन्तु तुम्हारे बहुत-से लक्षणों से मैं देखा रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है। तुम्हारे सब लड़के तो कुशल-मंगल से हैं न?

अदितिरुवाच

भद्रं द्विजगवां ब्रह्मन् धर्मस्यास्य जनस्य च ।

त्रिवर्गस्य परं क्षेत्रं गृहमेधिन् गृहा इमे ॥ ११॥

अग्नयोऽतिथयो भृत्या भिक्षवो ये च लिप्सवः ।

सर्वं भगवतो ब्रह्मन्ननुध्यानान्न रिष्यति ॥ १२॥

को नु मे भगवन् कामो न सम्पद्येत मानसः ।

यस्या भवान् प्रजाध्यक्ष एवं धर्मान् प्रभाषते ॥ १३॥

तवैव मारीच मनःशरीरजाः

प्रजा इमाः सत्त्वरजस्तमोजुषः ।

समो भवांस्तास्वसुरादिषु प्रभो

तथापि भक्तं भजते महेश्वरः ॥ १४॥

तस्मादीश भजन्त्या मे श्रेयश्चिन्तय सुव्रत ।

हृतश्रियो हृतस्थानान् सपत्नैः पाहि नः प्रभो ॥ १५॥

परैर्विवासिता साहं मग्ना व्यसनसागरे ।

ऐश्वर्यं श्रीर्यशः स्थानं हृतानि प्रबलैर्मम ॥ १६॥

यथा तानि पुनः साधो प्रपद्येरन् ममात्मजाः ।

तथा विधेहि कल्याणं धिया कल्याणकृत्तम ॥ १७॥

अदिति ने कहा ;- भगवन! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी-सब कुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ-आश्रम ही अर्थ, धर्म और काम की साधना में परम सहायक है। प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामना से अग्नि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकों का भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है। भगवन! जब आप-जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म पालन का उपदेश करते हैं; तब भला मेरे मन की ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाये? आर्यपुत्र! समस्त प्रजा-वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो-आपकी ही सन्तान है। कुछ आपके संकल्प से उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीर से। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानों के प्रति-चाहे असुर हों या देवता-एक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं।

मेरे स्वामी! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाई के सम्बनध में विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो! शत्रुओं ने हमारी सम्पत्ति और रहने का स्थान तक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये। बलवान दैत्यों ने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घर से बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दुःख के समुद्र में डूब रही हूँ। आपसे बढ़कर हमारी भलाई करने वाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी! आप सोच-विचार कर अपने संकल्प से ही मेरे कल्याण का कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे कि मेरे पुत्रों को वे वस्तुएँ फिर से प्राप्त हो जायें।

श्रीशुक उवाच

एवमभ्यर्थितोऽदित्या कस्तामाह स्मयन्निव ।

अहो मायाबलं विष्णोः स्नेहबद्धमिदं जगत् ॥ १८॥

क्व देहो भौतिकोऽनात्मा क्व चात्मा प्रकृतेः परः ।

कस्य के पतिपुत्राद्या मोह एव हि कारणम् ॥ १९॥

उपतिष्ठस्व पुरुषं भगवन्तं जनार्दनम् ।

सर्वभूतगुहावासं वासुदेवं जगद्गुरुम् ॥ २०॥

स विधास्यति ते कामान् हरिर्दीनानुकम्पनः ।

अमोघा भगवद्भक्तिर्नेतरेति मतिर्मम ॥ २१॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- 'इस प्रकार अदिति ने जब कश्यप जी से प्रार्थना की, तब वे कुछ विस्मित-से होकर बोले- बड़े आश्चर्य की बात है। भगवान की माया भी कैसी प्रबल है! यह सारा जगत स्नेह की रज्जु से बँधा हुआ है। कहाँ यह पंचभूतों से बना हुआ अनातमा शरीर और कहाँ प्रकृति से परे आत्मा? न किसी का कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही मनुष्यों को नचा रहा है। प्रिये! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में विराजमान, अपने भक्तों के दुःख मिटाने वाले जगद्गुरु भगवान वासुदेव की आराधना करो। वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान की भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है

अदितिरुवाच

केनाहं विधिना ब्रह्मन्नुपस्थास्ये जगत्पतिम् ।

यथा मे सत्यसङ्कल्पो विदध्यात्स मनोरथम् ॥ २२॥

आदिश त्वं द्विजश्रेष्ठ विधिं तदुपधावनम् ।

आशु तुष्यति मे देवः सीदन्त्याः सह पुत्रकैः ॥ २३॥

अदिति ने पूछा ;- 'भगवन! मैं जगदीश्वर भगवान की आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे सत्यसंकल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें। पतिदेव! मैं अपने पुत्रों के साथ बहुत दुःख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझ पर प्रसनन हो जायें, उनकी आराधना की वही विधि मुझे बतलाइये।'

कश्यप उवाच

एतन्मे भगवान् पृष्टः प्रजाकामस्य पद्मजः ।

यदाह ते प्रवक्ष्यामि व्रतं केशवतोषणम् ॥ २४॥

फाल्गुनस्यामले पक्षे द्वादशाहं पयोव्रतः ।

अर्चयेदरविन्दाक्षं भक्त्या परमयान्वितः ॥ २५॥

सिनीवाल्यां मृदाऽऽलिप्य स्नायात्क्रोडविदीर्णया ।

यदि लभ्येत वै स्रोतस्येतं मन्त्रमुदीरयेत् ॥ २६॥

त्वं देव्यादिवराहेण रसायाः स्थानमिच्छता ।

उद्धृतासि नमस्तुभ्यं पाप्मानं मे प्रणाशय ॥ २७॥

निर्वर्तितात्मनियमो देवमर्चेत्समाहितः ।

अर्चायां स्थण्डिले सूर्ये जले वह्नौ गुरावपि ॥ २८॥

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे ।

सर्वभूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे ॥ २९॥

नमोऽव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च ।

चतुर्विंशद्गुणज्ञाय गुणसङ्ख्यानहेतवे ॥ ३०॥

कश्यप जी ने कहा ;- 'देवि! जब मुझे संतान की कामना हुई थी, तब मैंने भगवान ब्रह्मा जी से यही बात पूछी थी। उन्होंने मुझे भगवान को प्रसन्न करने वाले जिस व्रत का उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ। फाल्गुन के शुक्ल पक्ष में बारह दिन तक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्ति से भगवान कमलनयन की पूजा करे। अमावस्या के दिन यदि मिल सके तो सूअर की खोदी हुई मिट्टी से अपना शरीर मलकर नदी में स्नान करे। उस समय यह मंत्र पढ़ना चाहिये।

हे देवि! प्राणियों को स्थान देने की इच्छा से वराह भगवान ने रसातल से तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापों को नष्ट कर दो। इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमों को पूरा करके एकाग्रचित्त से मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेव के रूप में भगवान की पूजा करे। (और इस प्रकार स्तुति करे- ) प्रभो! आप सर्वशक्तिमान हैं। अंतर्यामी और आराधनीय हैं। समस्त प्राणी आप में और आप समस्त प्राणियों में निवास करते हैं। इसी से आपको वासुदेवकहते हैं। आप समस्त चराचर जगत और उसके कारण के भी साक्षी हैं। भगवन! मेरा आपको नमस्कार है। आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुष के रूप में भी आप ही स्थित हैं। आप चौबीस गुणों के जानने वाले और गुणों की संख्या करने वाले सांख्यशास्त्र के प्रवर्तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है।'

नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतुःश्रृङ्गाय तन्तवे ।

सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नमः ॥ ३१॥

नमः शिवाय रुद्राय नमः शक्तिधराय च ।

सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः ॥ ३२॥

नमो हिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने ।

योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे ॥ ३३॥

नमस्त आदिदेवाय साक्षीभूताय ते नमः ।

नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः ॥ ३४॥

नमो मरकतश्यामवपुषेऽधिगतश्रिये ।

केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे ॥ ३५॥

त्वं सर्ववरदः पुंसां वरेण्य वरदर्षभ ।

अतस्ते श्रेयसे धीराः पादरेणुमुपासते ॥ ३६॥

अन्ववर्तन्त यं देवाः श्रीश्च तत्पादपद्मयोः ।

स्पृहयन्त इवामोदं भगवान् मे प्रसीदताम् ॥ ३७॥

एतैर्मन्त्रैर्हृषीकेशमावाहनपुरस्कृतम् ।

अर्चयेच्छ्रद्धया युक्तः पाद्योपस्पर्शनादिभिः ॥ ३८॥

अर्चित्वा गन्धमाल्याद्यैः पयसा स्नपयेद्विभुम् ।

वस्त्रोपवीताभरणपाद्योपस्पर्शनैस्ततः ।

गन्धधूपादिभिश्चार्चेद्द्वादशाक्षरविद्यया ॥ ३९॥

श‍ृतं पयसि नैवेद्यं शाल्यन्नं विभवे सति ।

ससर्पिः सगुडं दत्त्वा जुहुयान्मूलविद्यया ॥ ४०॥

निवेदितं तद्भक्ताय दद्याद्भुञ्जीत वा स्वयम् ।

दत्त्वाऽऽचमनमर्चित्वा ताम्बूलं च निवेदयेत् ॥ ४१॥

जपेदष्टोत्तरशतं स्तुवीत स्तुतिभिः प्रभुम् ।

कृत्वा प्रदक्षिणं भूमौ प्रणमेद्दण्डवन्मुदा ॥ ४२॥

कृत्वा शिरसि तच्छेषां देवमुद्वासयेत्ततः ।

द्व्यवरान् भोजयेद्विप्रान् पायसेन यथोचितम् ॥ ४३॥

भुञ्जीत तैरनुज्ञातः शेषं सेष्टः सभाजितैः ।

ब्रह्मचार्यथ तद्रात्र्यां श्वोभूते प्रथमेऽहनि ॥ ४४॥

स्नातः शुचिर्यथोक्तेन विधिना सुसमाहितः ।

पयसा स्नापयित्वार्चेद्यावद्व्रतसमापनम् ॥ ४५॥

पयोभक्षो व्रतमिदं चरेद्विष्ण्वर्चनादृतः ।

पूर्ववज्जुहुयादग्निं ब्राह्मणांश्चापि भोजयेत् ॥ ४६॥

एवं त्वहरहः कुर्याद्द्वादशाहं पयोव्रतः ।

हरेराराधनं होममर्हणं द्विजतर्पणम् ॥ ४७॥

आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीय-ये दो कर्म सिर हैं। प्रातः, मध्याह्न और सायं-ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदों के द्वारा प्रतिपादित है, इसकी आत्मा हैं स्वयं आप! आपको मेरा नमस्कार है। आप ही लोक कल्याणकारी शिव और आप ही प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियों को धारण करने वाले भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओं के अधिपति एवं भूतों के स्वामी हैं। आपको मेरा नमस्कार। आप ही सबके प्राण और आप ही इस जगत् के स्वरूप भी हैं। आप योग के कारण तो हैं ही, स्वयं योग और उससे मिलने वाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं।

हे हिरण्यगर्भ! आपके लिये मेरे नमस्कार। आप ही आदिदेव हैं। सबके साक्षी हैं। आप ही नर-नारायण ऋषि के रूप में प्रकट स्वयं भगवान हैं। आपको मेरा नमस्कार। आपका शरीर मरकत मणि के समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्य की देवी लक्ष्मी आपकी सेविका हैं। पीताम्बरधारी केशव! आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप सब प्रकार के वर देने वाले हैं। वर देने वालों में श्रेष्ठ हैं। तथा जीवों के एकमात्र वरणीय हैं। यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याण के लिये आपके चरणों की रज की उपासना करते हैं। जिनके चरणकमलों की सुगन्ध प्राप्त करने की लालसा में समस्त देवता और स्वयं लक्ष्मी जी भी सेवा में लगी रहती हैं, वे भगवान मुझ पर प्रसन्न हों

प्रिये! भगवान हृषीकेश का आवाहन पहले ही कर ले। फिर इन मन्त्रों के द्वारा पाद्य, आचमन आदि के साथ श्रद्धापूर्वक मन लगाकर पूजा करे। गन्ध, माला आदि से पूजा करके भगवान को दूध से स्नान करावे। उसके बाद वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पाद्य, आचमन, गन्ध, धूप आदि के द्वारा द्वादशाक्षर मन्त्र से भगवान की पूजा करे। यदि सामर्थ्य हो तो दूध में पकाये हुए तथा घी और गुड़ मिले हुए शालि के चावल का नैवेद्य लगावे और उसी का द्वादशक्षर मन्त्र से हवन करे। उस नैवेद्य को भगवानके भक्तों में बाँट दे या स्वयं पा ले। आसमान और पूजा के बाद ताम्बूल निवेदन करे। एक सौ आठ बार द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करे और स्तुतियों के द्वारा भगवानका स्तवन करे। प्रदक्षिणा करके बड़े प्रेम और आनन्द से भूमि पर लोटकर दण्डवत्-प्रणाम करे। निर्माल्य को सिर से लगाकर देवता का विसर्जन करे। कम-से-कम दो ब्राह्मणों को यथोचित रीति से खीर का भोजन करावे। दक्षिणा आदि से उनका सत्कार करे। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर अपने इष्ट-मित्रों के साथ बचे हुए अन्न को स्वयं ग्रहण करे। उस दिन ब्रह्मचर्य से रहे और दूसरे दिन प्रातःकाल ही स्नान आदि करके पवित्रतापूर्वक पूर्वोक्त विधि से एकाग्र होकर भगवान की पूजा करे। इस प्रकार जब तक व्रत समाप्त न हो, तब तक दूध से स्नान कराकर प्रतिदिन भगवान की पूजा करे। भगवान् की पूजा में आदर-बुद्धि रखते हुए केवल पयोव्रती रहकर यह व्रत करना चाहिये। पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये। इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिन तक प्रतिदिन भगवान की आराधना, होम और पूजा करे तथा ब्राह्मण-भोजन कराता रहे।

प्रतिपद्दिनमारभ्य यावच्छुक्लत्रयोदशी ।

ब्रह्मचर्यमधःस्वप्नं स्नानं त्रिषवणं चरेत् ॥ ४८॥

वर्जयेदसदालापं भोगानुच्चावचांस्तथा ।

अहिंस्रः सर्वभूतानां वासुदेवपरायणः ॥ ४९॥

त्रयोदश्यामथो विष्णोः स्नपनं पञ्चकैर्विभोः ।

कारयेच्छास्त्रदृष्टेन विधिना विधिकोविदैः ॥ ५०॥

पूजां च महतीं कुर्याद्वित्तशाठ्यविवर्जितः ।

चरुं निरूप्य पयसि शिपिविष्टाय विष्णवे ॥ ५१॥

शृतेन तेन पुरुषं यजेत सुसमाहितः ।

नैवेद्यं चातिगुणवद्दद्यात्पुरुषतुष्टिदम् ॥ ५२॥

आचार्यं ज्ञानसम्पन्नं वस्त्राभरणधेनुभिः ।

तोषयेदृत्विजश्चैव तद्विद्ध्याराधनं हरेः ॥ ५३॥

भोजयेत्तान् गुणवता सदन्नेन शुचिस्मिते ।

अन्यांश्च ब्राह्मणान् शक्त्या ये च तत्र समागताः ॥ ५४॥

दक्षिणां गुरवे दद्यादृत्विग्भ्यश्च यथार्हतः ।

अन्नाद्येनाश्वपाकांश्च प्रीणयेत्समुपागतान् ॥ ५५॥

भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान्धकृपणेषु च ।

विष्णोस्तत्प्रीणनं विद्वान् भुञ्जीत सह बन्धुभिः ॥ ५६॥

नृत्यवादित्रगीतैश्च स्तुतिभिः स्वस्तिवाचकैः ।

कारयेत्तत्कथाभिश्च पूजां भगवतोऽन्वहम् ॥ ५७॥

एतत्पयोव्रतं नाम पुरुषाराधनं परम् ।

पितामहेनाभिहितं मया ते समुदाहृतम् ॥ ५८॥

त्वं चानेन महाभागे सम्यक् चीर्णेन केशवम् ।

आत्मना शुद्धभावेन नियतात्मा भजाव्ययम् ॥ ५९॥

अयं वै सर्वयज्ञाख्यः सर्वव्रतमिति स्मृतम् ।

तपःसारमिदं भद्रे दानं चेश्वरतर्पणम् ॥ ६०॥

त एव नियमाः साक्षात्त एव च यमोत्तमाः ।

तपो दानं व्रतं यज्ञो येन तुष्यत्यधोक्षजः ॥ ६१॥

तस्मादेतद्व्रतं भद्रे प्रयता श्रद्धया चर ।

भगवान् परितुष्टस्ते वरानाशु विधास्यति ॥ ६२॥

फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्य से रहे, पृथ्वी पर शयन करे और तीनों समय स्नान करे। झूठ न बोले। पापियों से बात न करे। पाप की बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकार के भोगों का त्याग कर दे। किसी भी प्राणी को किसी प्रकार से कष्ट न पहुँचावे। भगवान की आराधना में लगा ही रहे।

त्रयोदशी के दिन विधि जानने वाले ब्राह्मणों के द्वारा शात्रोक्त विधि से भगवान विष्णु को पंचामृत स्नान करावे। उस दिन धन का संकोच छोड़कर भगवान की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूध में चरु (खीर) पकाकर विष्णु भगवान को अर्पित करना चाहिये। अत्यन्त एकाग्रचित्त से उसी पकाये हुए चरु के द्वारा भगवान का यजन करना चाहिये और उनको प्रसन्न करने वाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये।

प्रिये! आचार्य और ऋत्विजों को शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियों को भी अपनी शक्ति के अनुसार भोजन कराना चाहिये। गुरु और ऋत्विजों को यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभी को तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषों को भी अन्न आदि देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सबके सत्कार को भगवान की प्रसन्नता का साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओं के साथ स्वयं भोजन करे। प्रतिपदा से लेकर त्रयोदशी तक प्रतिदिन नाच-गाना, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत्कथाओं से भगवान की पूजा करे-करावे।

प्रिये! यह भगवान की श्रेष्ठ आराधना है। इसका नाम है पयोव्रत। ब्रह्मा जी ने मुझे जैसा बताया था, वैसा ही मैंने तुम्हें बता दिया।

देवि! तुम भाग्यवती हो। अपनी इन्द्रियों को वश में करके शुद्ध भाव एवं श्रद्धापूर्ण चित्त से इस व्रत का भलीभाँति अनुष्ठान करो और इसके द्वारा अविनाशी भगवान की आराधना करो।

कल्याणी! यह व्रत भगवान को सन्तुष्ट करने वाला है, इसलिये इसका नाम है सर्वयज्ञऔर सर्वव्रत। यह समस्त तपस्याओं का सार और मुख्य दान है। जिनसे भगवान प्रसन्न हों-वे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तव में तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं।

इसलिये देवि! संयम और श्रद्धा से तुम इस व्रत का अनुष्ठान करो। भगवान शीघ्र ही तुम पर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सम्हितायां अष्टमस्कन्धे अदितिपयोव्रतकथनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥

जारी-आगे पढ़े............... अष्टम स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः

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