श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३२

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३२                    

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३२ शुक्र- शोणित के संयोग से जीव का प्रादुर्भाव, गर्भ में जीव का स्वरूप तथा उसकी वृद्धि का क्रम, शरीर के निर्माण में पञ्चतत्त्वादि का अवदान, षाट्कौशिक शरीर, गर्भ से जीव के बाहर निकलने पर विष्णुमाया द्वारा मोहित होना, आतुर व्यक्ति के लिये क्रियमाण कर्म तथा उनका फल, पिण्ड और ब्रह्माण्ड की समान स्थिति का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३२

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 32

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प बत्तीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३२                   

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३२ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३२              

तार्क्ष्य उवाच ।

कथमुत्पद्यते जन्तुर्भूतग्रामे चतुर्विधे ।

त्वचा रक्तं तथा मांसं मेदो मज्जास्थि जीवितम् ॥ २,३२.१ ॥

पादौ पाणी तथा गुह्यं जिह्वाकेशनखाः शिरः ।

सन्धिमार्गाश्च बहुशो रेखा नैकविधास्तथा ॥ २,३२.२ ॥

कामः क्रोधो भयं लज्जा मनो हर्षः सुखासुखम् ।

चित्रितं छिद्रितञ्चापि नानाजालेन वेष्टितम् ॥ २,३२.३ ॥

इन्द्रजालमिदं मन्ये संसारेऽसारसागरे ।

कर्ता कोऽत्र हृषीकेश संसारे दुः खसंकुले ॥ २,३२.४ ॥

तार्क्ष्य ने कहा- हे प्रभो ! उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज, तथा जरायुज ये चार प्रकार के प्राणी किस प्रकार उत्पन्न होते हैं? त्वचा, रक्त, मांस,मेदा, मज्जा और अस्थि में जीव कैसे आता है ? दो पैर, दो हाथ, गुह्यभाग, जिह्वा, केश, नख, सिर, संधिमार्ग तथा नाना प्रकार की बहुत-सी रेखाओं की उत्पत्ति कैसे होती है ? काम, क्रोध, भय, लज्जा, हर्ष, सुख और दुःख का भाव मन में कैसे आता है ? इस शरीर का चित्रण, छिद्रण और विभिन्न प्रकार की नसों से वेष्टन कैसे हुआ है ? हे हृषीकेश ! इस असार भवसागर में शारीरिक रचना को मैं इन्द्रजाल ही मानता हूँ। हे स्वामिन्! नाना दुःखों से भरे हुए इस असार सागररूप संसार का कर्ता कौन है ?

श्रीविष्णुरुवाच ।

कथयामि परं गोप्यं कोशस्यास्य विनिर्णयम् ।

यस्य विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रज्यते ॥ २,३२.५ ॥

साधु पृष्टं त्वया लोके सदयं जीवकारणम् ।

वैनतेय शृणुष्व त्वमेकाग्रकृतमानसः ॥ २,३२.६ ॥

श्रीविष्णु ने कहा- हे गरुड ! कोश के निर्माण की परम गोपनीय प्रक्रिया को मैं कहता हूँ, इसके जाननेमात्र से व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है। हे वैनतेय ! संसार के प्रति दया करते हुए तुमने जीव के कारण- तत्त्व पर अच्छा प्रश्न किया है। एकाग्रचित्त होकर तुम उसे सुनो।

ऋतुकाले च नारीणां वर्ज्यं दिनचतुष्टयम् ।

यतस्तस्मिन् ब्रह्महत्यां पुरा वृत्रसमुत्थिताम् ॥ २,३२.७ ॥

ब्रह्मा शक्रात्समुत्तार्य चतुर्थांशेन दत्तवान् ।

तावन्नालोक्यते वक्त्रं पापं यावद्वपुः स्थितम् ॥ २,३२.८ ॥

स्त्रियाँ ऋतुकाल में चार दिन त्याज्य होती हैं, क्योंकि प्राचीन काल में ब्रह्मा ने वृत्रासुर के मारे जाने पर लगी हुई ब्रह्महत्या को इन्द्र के शरीर से निकालकर एक चौथाई भाग स्त्रियों को दे दिया था, उसी के कारण स्त्रियाँ ऋतुकाल के आरम्भ में चार दिन अपवित्र मानी जाती हैं और उस समय तक इनका मुख नहीं देखना चाहिये, जबतक वह पाप उनके शरीर में विद्यमान रहता है ।

प्रथमेऽहनि चाण्डाली द्वितीये ब्रह्मघातिनी ।

तृतीये रजकी ज्ञेया चतुर्थेऽहनि शुध्यति ॥ २,३२.९ ॥

स्त्री को ऋतुकाल के पहले दिन चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी, तीसरे दिन रजकी मानना चाहिये । चौथे दिन वह शुद्ध होती है।

सप्ताहात्पितृदेवानां भवेद्योग्या कृतार्चने ।

सप्ताहमध्ये यो गर्भस्तत्संम्भूतिर्मलिम्लुचा ॥ २,३२.१० ॥

निषकसमये पित्रोर्यादृक्चित्तविकल्पना ।

तादृग्गर्भसमुत्पत्तिर्जायते नात्र संशयः ॥ २,३२.११ ॥

एक सप्ताह में वह देवता और पितरों के पूजन योग्य हो जाती है। प्रथम सप्ताह के बीच जो गर्भ स्त्री में रुक जाता है, उसकी उत्पत्ति मलिम्लुच् से माननी चाहिये । वीर्यस्थापन के समय माता – पिता के चित्त में जैसी कल्पना होगी, वैसे ही गर्भ का जन्म होगा, इसमें संदेह नहीं है ।

युग्मासु पुत्त्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु ।

पूर्वसप्तममुत्सृज्य तस्माद्युग्मासु संविशेत् ॥ २,३२.१२ ॥

षोडशर्तुर्निशाः स्त्रीणां सामान्यात्समुदाहृतः ।

या चतुर्दशमी रात्रिर्गर्भस्तिष्ठति तत्र चेत् ॥ २,३२.१३ ॥

गुणभाग्यनिधिः पुत्रस्तत्र जायेत धार्मिकः ।

सा निशा तत्र सामान्यैर्न लभ्येत खगाधिप ॥ २,३२.१४ ॥

प्रायशः सम्भवत्यत्र गर्भस्त्वष्टाहमध्यतः ।

पञ्चमेऽहनि नारीणां कार्यं माधुर्यभोजनम् ॥ २,३२.१५ ॥

कटुक्षारञ्च तीक्ष्णञ्च त्याज्यमुष्णञ्च दूरतः ।

तत्क्षेत्रमोषधीपात्रं बीजञ्चाप्यमृतायितम् ॥ २,३२.१६ ॥

तस्मिन्नुप्त्वा नरः स्वामी सम्यक्फलमवाप्नुयात् ।

तस्याश्चैवातपो वर्ज्य शीतलं केवलं चरेत् ॥ २,३२.१७ ॥

ताम्बूलपुष्पश्रीखण्डैः संयुक्तः शुचिवस्त्रभृत् ।

धर्ममादाय मनसि सुतल्पं संविशेत्पुमान् ॥ २,३२.१८ ॥

निषेकसमये यादृङ्नरचित्तविकल्पना ।

तादृक्स्वभावसम्भूतिर्जन्तुर्विशति कुक्षिगः ॥ २,३२.१९ ॥

शुक्रशोणितसंयोगे पिण्डोत्पत्तिः प्रजायते ।

वर्धते जठरे जन्तुस्तारापतिरिवाम्बरे ॥ २,३२.२० ॥

युग्म तिथिवाली रात्रियों में सहवास करने से पुत्र और अयुग्म रात्रियों में सहवास करने से कन्या का जन्म होता है। अतः ऋतुकाल के पहले सप्ताह को छोड़कर दूसरे सप्ताह की युग्म तिथियों में सहवास में प्रवृत्त होना चाहिये । सामान्यतः स्त्रियों का ऋतुकाल सोलह रात्रियों का होता है। यदि चौदहवीं रात्रि में गर्भाधान की क्रिया होती है तो उस गर्भ से गुणवान्, भाग्यवान्, धनवान् तथा धर्मनिष्ठ पुत्र का जन्म होता है। हे पक्षिराज ! वह रात्रि सामान्य लोगों को प्राप्त होना सम्भव नहीं है । प्रायः स्त्री में गर्भोत्पत्ति आठवीं रात्रियों के मध्य में ही हो जाती है। ऋतुकाल के पाँचवें दिन स्त्रियों को कटु, क्षार, तीक्ष्ण और उष्ण भोजन का परित्याग करके मधुर भोजन करना चाहिये; क्योंकि उनकी कोख औषधिपात्र है और पुरुष का बीज अमृततुल्य है। उसमें ( स्त्रीरूप औषधिपात्र में) बीज वपन करके मनुष्य सम्यक् फल प्राप्त कर सकता है, इसलिये उसको क्रोधादि की ज्वाला से बचाकर मधुर भोजन तथा मृदु स्वभाव की शीतलता से अभिसिंचित करना चाहिये । पुरुष को चाहिये कि वह पहले ताम्बूल और पुष्पों की माला तथा चन्दन से सुवासित होकर स्वच्छ एवं सुन्दर वस्त्र धारण करे । तदनन्तर शुद्ध मन से स्त्री की शय्या पर शयन करने के लिये जाय । वीर्य वपन के समय उसके चित्त में जैसी कल्पना होगी, उसी स्वभाववाली संतान जन्म लेगी। प्रारम्भ में शुक्र और रक्त के संयोग से जीव पिण्डरूप में अस्तित्व को प्राप्त करता है और गर्भ में वह उसी प्रकार बढ़ता है, जिस प्रकार आकाश में चन्द्रमा की अभिवृद्धि होती है।

चैतन्यं बीजरूपं हि शुक्रे नित्यं व्यवस्थितम् ।

कामश्चित्तञ्च शुक्रञ्च यदा ह्येकत्वमाप्नुयुः ॥ २,३२.२१ ॥

तदा द्रावमवाप्नोति योषागर्भाशये नरः ।

शुक्र चैतन्य बीजरूप से स्थित रहता है। जब काम चित्त तथा शुक्र ऐक्यभाव को प्राप्त हों, उस समय स्त्री के गर्भाशय में जीव एक निश्चित रूप धारण करने की पूर्वावस्था में आता है।

रक्ताधिक्ये भवेन्नारी शुक्राधिक्ये भवेत्पुमान् ॥ २,३२.२२ ॥

शुक्रशोणितयो साम्ये गर्भाः षण्डत्वमाप्नुयुः ।

रक्ताधिक्य होने पर कन्या और शुक्राधिक्य होने पर पुत्र होता है । जब रक्त तथा शुक्र समान होते हैं तो गर्भ में स्थित संतानें नपुंसक होती हैं।

अहोरात्रेण कलिलं बुद्वदं पञ्चभिर्दिनैः ॥ २,३२.२३ ॥

चतुर्दशे भवेन्मांसं मिश्रधातुसमन्वितम् ।

घनं मांसञ्च विंशाहे गर्भस्थो वर्धते क्रमात् ॥ २,३२.२४ ॥

पञ्चविंशतिमे चाह्नि बलं पुष्टिश्च जायते ।

तथा मासे तु सम्पूर्णे पञ्चतत्त्वं निधारयेत् ॥ २,३२.२५ ॥

मासद्वये तु सञ्जाते त्वचा मेदश्च जायते ।

मज्जास्थीनि त्रिभिर्मासैः केशाङ्गुल्यश्चतुर्थके ॥ २,३२.२६ ॥

कर्णौ च नासिके वक्षो जायेरन्मासि पञ्चमे ।

कण्ठरन्ध्रोदरं षष्ठे गुह्यादिर्मासि सप्तमे ॥ २,३२.२७ ॥

अङ्गप्रत्यङ्गसम्पूर्णो गर्भो मासैरथाष्टभिः ।

अष्टमे चलते जीवो धात्रीगर्भे पुनः पुनः ।

नवमेमासि सम्प्राप्ते गर्भस्थौजौ दृढं भवेत् ॥ २,३२.२८ ॥

चिकित्सा जायते तस्य गर्भवासपरिक्षये ।

नारी वाथ नरो वाथ नपुंस्त्वं वाभिजायते ॥ २,३२.२९ ॥

शक्तित्रयं विशालाक्षं षाट्कौशिकसमायुतम् ।

पञ्चेन्द्रियसमोपेतं दशनाडीविभूषितम् ॥ २,३२.३० ॥

दशप्राणगुणोपेतं यो जानाति स योगवित् ।

मज्जास्थिशुक्रमांसानि रोम रक्तं बलं तथा ॥ २,३२.३१ ॥

षाट्कौशिकमिदं पिण्डं स्याज्जन्तोः पाञ्चभौतिकम् ।

नवमे दशमे मासि जायते पाञ्चभौतिकः ॥ २,३२.३२ ॥

सूतिवातैः समाकृष्टः पीडया विह्वलीकृतः ।

पुष्टो नाड्याः सुषुम्णाया योषिद्गर्भस्थितस्त्वरन् ॥ २,३२.३३ ॥

शुक्र तथा शोणित बीसवें दिन तक पिण्डरूप में बढ़ता है । तदनन्तर पचीसवें दिन उसमें शक्ति और पुष्टता का संचार होने लगता है। एक मास पूरा होते ही वह पञ्चतत्त्वों से युक्त हो जाता है। तत्पश्चात् उस गर्भस्थ जीव के शरीर पर दूसरे मास में त्वचा और मेदा, तीसरे मास में मज्जा तथा अस्थि, चौथे मास में केश एवं अँगुली, पाँचवें मास में कान, नाक तथा वक्षःस्थल का निर्माण होता है। उसके बाद छठे मास में कण्ठ, रन्ध्र और उदर, सातवें मास में गुह्यादि भाग तथा आठवें मास में वह सभी अङ्ग- प्रत्यङ्गों पूर्ण हो जाता है। आठवें मास में ही वह जीव माता के गर्भ में बार-बार चलने लगता है और नवें मास में उस गर्भस्थ शिशु का ओजगुण परिपक्व हो जाता है। उसके बाद गर्भवास का काल बीतने पर पहले दिन और रात में कलल, पाँचवें दिन बुदबुद तथा चौदहवें दिन मांस रूप में हो जाता है। उसके बाद वह घनीभूत मांस गर्भ में रहता हुआ क्रमशः वह गर्भस्थ शिशु गर्भ से निकलना चाहता है। वह चाहे कन्या हो, चाहे पुत्र, चाहे नपुंसक हो, फिर उसका जन्म होता है। इस प्रकार जन्म, पुष्टि तथा संहार - इन तीनों की शक्ति से युक्त षट्कोशों के भीतर विद्यमान पाँच इन्द्रिय, दस नाड़ी, दस प्राण और दस गुण से समन्वित शरीर को जो जान लेता है, वही योगी है। जीव का पाञ्चभौतिक शरीर मज्जा, अस्थि, शुक्र, मांस, रोम तथा रक्त- इन छः कोशों से निर्मित पिण्ड एक है। नवें या दसवें मास में इसका पाञ्चभौतिक स्वरूप अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है । प्रसवकालीन वाय से आकृष्ट, तात्कालिक पीड़ा से बेचैन, माता की सुषुम्णा नाड़ी के द्वारा दी जा रही शक्ति पुष्ट वह जीव गर्भ से निकलने का यथाशीघ्र प्रयास करता है।

पञ्चमहाभूतानि

क्षितिर्वारि हविर्भोक्ता पवनाकाशमेव च ।

एभिर्भूतैः पीडितस्तु निबद्धः स्नायुबन्धनैः ॥ २,३२.३४ ॥

मूलभूता इमे प्रोक्ताः सप्त नाड्यन्तरे स्थिताः ।

त्वचास्थिनाड्यो रोमाणि मांसञ्चैवात्र पञ्चमम् ॥ २,३२.३५ ॥

एते पञ्च गुणाः प्रोक्ता मया भूमेः खगेश्वर ।

पृथ्वी, जल, हवि, भोक्ता, वायु तथा आकाश - इन छः भूतों से पीड़ित होता हुआ जीव स्नायु-तन्त्रिकाओं से आबद्ध रहता है । इन्हीं को विद्वानों ने मूलभूत तत्त्व कहा है, ये शरीर में फैली हुई सात नाड़ियों के बीच में रहते हैं। त्वचा, अस्थि, नाड़ी, रोम और मांस - ये पाँच पृथ्वीतत्त्व के कारण- शरीर में आते हैं।

यथा पञ्च गुणाश्चापस्तथा तच्छृणु काश्यप ॥ २,३२.३६ ॥

लाला मूत्रं तथा शुक्रं मज्जार रक्तञ्च पञ्चमम् ।

आपः पञ्चगुणाः प्रोक्ता ज्ञातव्यास्ते प्रयत्नतः ॥ २,३२.३७ ॥

क्षुधा तृषा तथा निद्रा आलस्यं कान्तिरेव च ।

तेजः पञ्चगुणं प्रोक्तं तार्क्ष्य सर्वत्रयोगिभिः ॥ २,३२.३८ ॥

रागद्वेषौ तथा लज्जा भयं मोहस्तथैव च ।

इत्येतत्कथितं तार्क्ष्य वायुजं गुणपञ्चकम् ॥ २,३२.३९ ॥

आकुञ्चनं धावनञ्च लङ्घनञ्च प्रसारणम् ।

निरोधः पञ्चमः प्रोक्तो वायोः पञ्च गुणाः स्मृताः ॥ २,३२.४० ॥

घोषश्चिन्ता च गाम्भीर्यं श्रवणं सत्यसंक्रमः ।

आकाशस्य गुणाः पञ्च ज्ञातव्यास्तार्क्ष्य यत्नतः ॥ २,३२.४१ ॥

हे काश्यप ! इसी प्रकार लार, मूत्र, शुक्र, मज्जा तथा रक्तये पाँच जलतत्त्व के कारण शरीर में पाये जाते हैं। हे तार्क्ष्य! क्षुधा, तृषा, निद्रा, आलस्य एवं कान्ति—- ये पाँच तेजस्तत्त्व के कारण शरीर में पाये जाते हैं। ऐसे ही राग, द्वेष, लज्जा, भय और मोह - ये पाँच वायुतत्त्व के कारण शरीर में पाये जाते हैं। आकुञ्चन, धावन, लंघन, प्रसारण तथा निरोध ये भी पाँचों वायुतत्त्व के कारण शरीर में ही पाये जाते हैं। हे गरुड ! शब्द, चिन्ता, गाम्भीर्य, श्रवण और सत्यसंक्रम ( सत्य और असत्य का (विवेक) - ये पाँच आकाशतत्त्व के कारण शरीर में आते हैं, ऐसा तुम्हें जानना चाहिये ।

श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासा बुद्धीन्द्रियाणि च ।

पाणी पादौ गुदं प्राक्च गुह्यं कर्मेन्द्रियाणि च ॥ २,३२.४२ ॥

इडाच पिङ्गला चैव सुषुम्णा च तृतीयका ।

गान्धारी गजजिह्वा च पूषा चैव यशा तथा ॥ २,३२.४३ ॥

अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी स्मृता ।

पिण्ड मध्ये स्थिता ह्येताः प्रधाना दश नाडयः ॥ २,३२.४४ ॥

प्राणापानौ समानश्च उदानो व्यान एव च ।

नागः कूर्मश्च कृकरो देवदत्तो धनञ्जयः ॥ २,३२.४५ ॥

इत्येते वायवः प्रोक्ता दश देहेषु सुस्थिताः ।

श्रोत्र, त्वक्, नेत्र, जिह्वा तथा नाक ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जबकि हाथ, पैर, गुदा, वाणी और गुह्य - ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। इडा पिंगला, सुषुम्णा, गान्धारी, गजजिह्वा, पूषा, यशा, अलम्बुषा, कुहू तथा शंखिनी- ये दस नाड़ियाँ मानी गयी हैं । यही प्रधान दस नाड़ियाँ पिण्ड (शरीर ) - के मध्य स्थित रहती हैं। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त तथा धनञ्जय नाम के दस वायु प्राणियों के शरीर में विद्यमान रहते हैं।

केवलं भुक्तमन्नञ्च पुष्टिदं सर्वदेहिनाम् ॥ २,३२.४६ ॥

नयते प्राणदो वायुः शरीरे सर्वसन्धिषु ।

आहारो भुक्तमात्रस्तु वायुना क्रियते द्विधा ॥ २,३२.४७ ॥

स प्रविश्य गुहे सम्यक्पृथगन्नं पृथग्जलम् ।

ऊर्ध्वमग्नेर्जलं कृत्वा तदन्नञ्च जलोपरि ॥ २,३२.४८ ॥

अग्नेश्चाधः स्वयं प्राणस्तमग्निञ्च धमेच्छनैः ।

वायुना धम्यमानोऽग्निः पृथक्किट्टं पृथग्रसम् ॥ २,३२.४९ ॥

मलैर्द्वादशभिः किट्टं भिन्नं देहात्पृथग्भवेत् ।

कर्णाक्षिनासिका जिह्वा दन्तनाभिवपुर्गुदम् ॥ २,३२.५० ॥

नखा मलाश्रया ह्येते विण्मूत्रञ्चेत्यनन्तकम् ।

शुक्रशोणितसंयोगादेतत्षाट्कौशिकं स्मृतम् ॥ २,३२.५१ ॥

केवल खाया गया अन्न ही देहधारियों के शरीर को पुष्ट करता है और इस खाये गये अन्न को प्राणवायु ही शरीर में तथा उसकी सभी संधियों में पहुँचाता है। भोजन के रूप में ग्रहण किया गया आहार वायु के द्वारा दो रूपों में विभक्त किया जाता है। इसके अनन्तर यह प्राणवायु ही गुदाभाग में प्रविष्ट होकर अन्न और जल को पृथक्-पृथक् कर देता है तथा यही प्राणवायु अग्नि के ऊपर जल को एवं जल के ऊपर अन्न को पहुँचाकर स्वयं अग्नि के नीचे रहते हुए अग्नि को धीरे-धीरे उद्दीप्त करता है । तत्पश्चात् वायु उद्दीप्त किया हुआ अग्नि अन्न के रसभाग को अलग और शुष्क भाग को अलग कर देता है। यही शुष्कभाग बारह प्रकार के मलों के रूप में शरीर से बाहर आता है। शरीर में विद्यमान कान, नेत्र, नाक, जिह्वा, दाँत, नाभि, गुदा तथा नख- ये सब मल के आश्रय हैं। ऐसे ही विष्ठा, मूत्र, शुक्र एवं शोणित- रूप से ये मल अनन्त प्रकार के हैं।

रोम्णां कोट्यस्तथा तिस्रोऽप्यर्धकोटि समन्विताः ।

द्वात्रिंशद्दशनाः प्रोक्ताः सामान्याद्विनतासुत ॥ २,३२.५२ ॥

सप्त लक्षाणि केशाः स्युर्नखाः प्रोक्तास्तु विंशतिः ।

मांसं पलसहस्रैकं सामान्याद्देहसंस्थितम् ॥ २,३२.५३ ॥

रक्तं पलशतं तार्क्ष्यं बुद्धमेव पुरातनैः ।

पलानि दश मेदश्च त्वचा चैव तु तत्समा ॥ २,३२.५४ ॥

पलद्वादशकं मज्जा महारक्तं पलत्रयम् ।

शुक्रं द्विकुडवं ज्ञेयं शोणितं कुडवं स्मृतम् ॥ २,३२.५५ ॥

श्लेष्माणश्च षडूर्ध्वञ्च विण्मूत्रं तत्प्रमाणतः ।

अस्थ्नां हि ह्यधिकं प्रोक्तं षष्ट्युत्तरशतत्रयात् ॥ २,३२.५६ ॥

एवं पिण्डः समाख्यातो वैभवं सम्प्रचक्ष्महे ।

हे विनतासुत! मनुष्य के शरीर में सामान्यतः साढ़े तीन करोड़ रोम और बत्तीस दाँत होते हैं । सिर में बालों की संख्या सात लाख तथा नख बीस हैं। हे तार्क्ष्य! पुराने लोगों ने सामान्य रूप से शरीर में एक हजार पल मांस, सौ पल रक्त, दस पल मेदा, दस पल त्वचा, बारह पल मज्जा, तीन पल महारक्त, दो कुडव (अन्न की एक माप जो बारह मुट्ठी के बराबर होती है) शुक्र तथा एक कुडव संतानोत्पत्ति के लिये उपयोगी स्त्री के विद्यमान शोणित (रज) - को माना है। इसी प्रकार मानव- शरीर में छः प्रकार के कफ, छः प्रकार की विष्ठा, छ: प्रकार के मूत्र और तीन सौ साठ से अधिक अस्थियाँ होती हैं। इस प्रकार पिण्ड (शरीर ) - के विषय में बताया गया । इसे ही शरीर का वैभव कहते हैं । इन सबके अतिरिक्त शरीर में कुछ नहीं है ।

सुखं दुः खं भयं क्षेमं कर्मणैव हि प्राप्यते ॥ २,३२.५७ ॥

अधोमुखं चोर्ध्वपादं गर्भाद्वायुः प्रकर्षति ।

तले तु करयोर्न्यस्य वर्धते जानुपार्श्वयोः ॥ २,३२.५८ ॥

अङ्गुष्ठौ चोपरि न्यस्तौ जान्वोरथ कराङ्गुली ।

जानुपृष्ठे तथा नेत्रे जानुमध्ये च नासिका ॥ २,३२.५९ ॥

एवं वृद्धिं क्रमाद्याति जन्तुः स्त्रीगर्भसंस्थितः ।

काठिन्यमस्थीन्यायान्ति भुक्तपीतेन जीवति ॥ २,३२.६० ॥

नाडी वाप्यायनी नाम नाभ्यां तत्र निबध्यते ।

स्त्रीणां तथान्त्रसुषिरे स निबद्धः प्रजायते ॥ २,३२.६१ ॥

क्रामन्ति भुक्तपीतानि स्त्रीणां गर्भोदरे तथा ।

तैराप्यायितदेहोऽसौ जन्तुर्वृद्धिमुपैति च ॥ २,३२.६२ ॥

स्मृत्यस्तत्र प्रयान्त्यस्य बह्व्यः संसारभूतयः ।

ततो निर्वेदमायाति पीड्यमान इतस्ततः ॥ २,३२.६३ ॥

पुनर्नैवं करिष्यामि भुक्तमात्र इहोदरात् ।

तथातथा यतिष्यामि गर्भं नाप्नोम्यहं यथा ॥ २,३२.६४ ॥

इति सञ्चिन्तयञ्जीवो स्मृत्वा जन्मशतानि वै ।

यानि पूर्वानुभूतानि देवभूतात्मजानि वै ॥ २,३२.६५ ॥

ततः कालक्रमाज्जन्तुः परिवर्त्यत्वधोमुखः ।

नवमे दशमे वापि मासि संजायते ततः ॥ २,३२.६६ ॥

कर्मानुसार ही मनुष्य को सुख-दुःख, भय तथा कल्याण प्राप्त होता है। कर्म का अनुष्ठान शरीर के द्वारा ही सम्भव होने से शरीर का महत्त्व है । इस शरीर के द्वारा ही जीव उत्तम - से- उत्तम अथवा अधम-से-अधम गति प्राप्त करता है। इसलिये शरीर की उत्पत्ति की प्रक्रिया यहाँ बतायी जा रही है - वायु जीव को गर्भ से बाहर करता है। उस समय उसके दोनों पैर ऊपर और मुख नीचे की ओर रहता है। ऐसा जीव पहले तो यथाक्रम माँ के गर्भ में रहकर ही धीरे-धीरे बढ़ता है । माता के द्वारा ग्रहण किये गये अन्न, फल, दूध, घृत और जल के आहार से उस जीव के शरीर की हड्डियाँ पुष्ट होती हैं तथा वह जीवित रहता है। उस जीव के नाभिप्रान्त से शक्तिवर्धिनी नाड़ी जुड़ी रहती है, जिसको आप्यायनी कहा जाता है। उसका सम्बन्ध स्त्रियों के आँत- छिद्र से होता है। उनके द्वारा खाया पिया गया पदार्थ गर्भ में स्थित प्राणी के पेट में आप्यायनी नाड़ी के द्वारा पहुँचता है। माँ के द्वारा भुक्त पदार्थों से पुष्ट देहवाला होकर वह जीव प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होता है। इसी वृद्धिक्रम में संसार की पूर्वानुभूत अनेक विषयों की स्मृतियाँ उसे होती हैं और इन्हीं स्मृतियों के कारण दुःखित वह प्राणी खिन्न हो जाता है तथा अनेक प्रकार की पीड़ा का अनुभव कर इधर- उधर गतिमान् होता है एवं 'गर्भ से निकल करके मैं पुनः ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे मुझे पुनः गर्भ की प्राप्ति हो' – यह सोचकर जीव अपने उन सैकड़ों पूर्वजन्मों का स्मरण करता है, जिनमें उसको सांसारिक, देवयोनियों और मृत्युलोक की नाना योनियों के सुख-दुःखका अनुभव प्राप्त हुआ था। उसके बाद समयानुसार वह प्राणी अधोमुख होकर नवें या दसवें मास में गर्भ से बाहर आता है।

निष्क्रम्यमाणो वातेन प्राजापत्येन पीड्यते ।

निष्क्रमते च विलपंस्तदा दुःखनिपीडितः ॥ २,३२.६७ ॥

निष्क्रामंश्चोदरान्मूर्छामसह्यां प्रतिपद्यते ।

प्राप्नोति चेतनां चासौ वायुस्पर्शसुखान्वितः ॥ २,३२.६८ ॥

ततस्तं वैष्णवी माया समास्कन्दति मोहिनी ।

तया विमोहितात्मासौ ज्ञानभ्रंशमवाप्नुते ॥ २,३२.६९ ॥

भ्रष्टज्ञानं बालभावे ततो जन्तुः प्रपद्यते ।

ततः कौमारकावस्थां यौवनं वृद्धतामपि ॥ २,३२.७० ॥

पुनश्च तद्वन्मरणं जन्म प्राप्नोति मानवः ।

ततः संसारचक्रेऽस्मिन् भ्राम्यते घटयन्त्रवत् ॥ २,३२.७१ ॥

कदाचित्स्वर्गमाप्नोति कदाचिन्निरयं नरः ।

स्वर्गं च निरयं चैव स्वकर्मफलमश्नुते ॥ २,३२.७२ ॥

प्राजापत्य वायु के प्रभाव से गर्भ छोड़कर बाहर निकलता हुआ वह जीव दुःखी होता है । उस समय दुःख से पीड़ित वह प्राणी विलाप करता हुआ बाहर निकलता है । उदर से बाहर होते हुए उस जीव को असह्य कष्ट देनेवाली मूर्च्छा आ जाती है, किंतु कुछ ही क्षण में वह जीव पुनः चेतना में आ जाता है। वायु के स्पर्श से उसको सुखानुभूति होती है । तत्पश्चात् संसार को मोहित करनेवाली विष्णु की माया उसके ऊपर अपना प्रभाव जमा लेती है । उस मायाशक्ति से विमोहित जीवात्मा का पूर्व ज्ञान नष्ट हो जाता है। ज्ञान नष्ट होने के बाद वह जीव नष्ट हो जाता है। ज्ञान नष्ट होनेके बाद वह जीव बालभाव को प्राप्त करता है । तदनन्तर उसे कौमार्य, यौवन और वृद्धावस्था भी प्राप्त होती है । उसके बाद मनुष्य पुनः उसी प्रकार मरता है और जन्म लेता है। इस संसार-चक्र में वह घड़ा बनानेवाले चक्रयन्त्र के समान घूमता रहता है। प्राणी कभी स्वर्ग प्राप्त करता है और कभी नरक में जाता है । स्वर्ग तथा नरक मनुष्य को अपने कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं ।

कदाचिद्भुक्तकर्मा च भुवं स्वल्पेन गच्छति ।

स्वर्लोके नरके चैव भुक्तप्राये द्विजोत्तमाः ॥ २,३२.७३ ॥

नरकेषु महद्दुःखमेतद्यत्स्वर्गवासिनः ।

दृश्यते नात्र मोदन्ते पात्यमानास्तु नारकैः ॥ २,३२.७४ ॥

स्वर्गेऽपि दुः खमतुलं यदारोहणकालतः ।

प्रभृत्यहं पतिष्यामीत्येतन्मनसि वर्तते ॥ २,३२.७५ ॥

नारकांश्चैव सम्प्रेक्ष्य महद्दुःखमवाप्यते ।

एवं गतिमहं गन्तेत्यहर्निशमनिर्वृतः ॥ २,३२.७६ ॥

गर्भवासे महद्दुःखं जायमानस्य योनिजम् ।

जातस्य बालभावेऽपि वृद्धत्वे दुःखमेव च ॥ २,३२.७७ ॥

कामेर्ष्याक्रोधसम्बन्धाद्यौवनेऽपि च दुः सहम् ।

दुःस्वप्नं या वृद्धता च मरणे दुःखमुत्कटम् ॥ २,३२.७८ ॥

कृष्यमाणश्च याम्यैः स नरकेऽपि च यात्यधः ।

पुनश्च गर्भाज्जन्म स्यान्मरणं दुष्करं तथा ॥ २,३२.७९ ॥

एवं संसारचक्रेऽस्मिज्जन्तवो घटयन्त्रवत् ।

भ्राम्यन्ते प्राक्तनैर्बधैर्बद्धा विध्यन्ति चासकृत् ॥ २,३२.८० ॥

हे पक्षिश्रेष्ठ! स्वर्ग और नरक में कर्मफल का भोग करके प्राणी कभी थोड़े से शेष पाप-पुण्य का भोग करने के लिये पृथ्वी पर आ जाता है। जो स्वर्ग में निवास करते हैं, उन लोगों को यह दिखायी देता है कि नरकलोकों में प्राणियों को बहुत दुःख है । यहाँ पर यमराज के दूतों से प्रताड़ित वे नरकवासी कभी प्रसन्न नहीं होते हैं, उन्हें तो दुःख ही दुःख झेलना पड़ता है। जब से मनुष्य विमान में चढ़कर ऊपर की ओर प्रस्थान करता है तभी से उसके मन में यह भाव स्थान बना लेता है कि पुण्य के समाप्त होने पर मैं स्वर्ग से नीचे आ जाऊँगा। इसलिये स्वर्ग में भी बहुत दुःख है। नरकवासियों को देख करके जीव को महान् दुःख होता है; क्योंकि मेरी भी इसी प्रकार की गति होगी - इस चिन्ता से वह रात - दिन मुक्त ही नहीं होता है। गर्भवास में प्राणी को योनिजन्य बहुत कष्ट होते हैं। योनि से पैदा होते समय उसे महान् दुःख होता है । उत्पन्न होने के बाद बालपन में भी उसे दुःख है और वृद्धावस्था में भी दुःख है। काम, क्रोध तथा ईर्ष्या का सम्बन्ध होने से युवावस्था में भी उसके लिये असहनीय दुःख है । दुःस्वप्न, वृद्धावस्था में तथा मरण के समय भी उत्कट दुःख उसे होता है। यमदूतों के द्वारा खींचकर नरक में भी ले जाये जा रहे जीव को अधोगति प्राप्त होती है। उसके बाद फिर जीव का गर्भ से जन्म होता है और मृत्यु होती है। ऐसे संसार-चक्र में प्राणी कुम्भकार के चक्र के समान घूमते रहते हैं। पूर्वजन्म में किये गये पुण्य- पाप से बँधे जीव बार-बार इसी संसार के आवागमन का दुःख भोगते हैं ।

नास्ति पक्षिन्सुखं किञ्चित्क्षेत्रे दुः खशताकुले ।

विनतासुत मोक्षाय यतितव्यं ततो नरैः ॥ २,३२.८१ ॥

एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा गर्भस्य संस्थितिः ।

कथयामि क्रमप्रश्रं पृष्टं वा वर्तते स्पृहा ॥ २,३२.८२ ॥

हे पक्षिन्! सैकड़ों प्रकार के दुःख से व्याप्त इस संसार क्षेत्र में रञ्चमात्र भी सुख नहीं है। हे विनतासुत ! इसलिये मनुष्यों को मुक्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। जीव की जैसी स्थिति गर्भ में होती है, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब मैं पूर्वक्रम से पूछे गये प्रश्न का ही उत्तर दूँ या इसी अन्तराल में कुछ अन्य प्रश्न करने की तुम्हारी इच्छा है ?

गरुड उवाच ।

मध्ये कृतमहाप्रश्नद्वयस्याप्तं मयोत्तरम् ।

प्रश्नस्यापि तृतीयस्य उत्तरं च विधीयताम् ॥ २,३२.८३ ॥

गरुड ने कहा- हे देवेश ! पूछे गये प्रश्नों में से दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर तो मुझे प्राप्त हो गये हैं, अब मुझे तीसरे प्रश्न का उत्तर प्रदान करने की कृपा करें।

श्रीकृष्ण उवाच ।

म्रियमाणस्य किं कृत्यमिति त्वं पृष्टवानसि ।

शृणु तत्रोत्तरं तूक्तं कथयामि समासतः ॥ २,३२.८४ ॥

श्रीकृष्ण ने कहा- हे पक्षीन्द्र ! मरणासन्न प्राणी के लिये क्या करना चाहिये ? यह तुमने प्रश्न किया है ? उसका उत्तर सुनो! मैं संक्षेप में उसे कह रहा हूँ।

आसन्नमरणं ज्ञात्वा पुरुषं स्नापयेत्ततः ।

गोमूत्रगोमयसुमृत्तीर्थोदककुशोदकैः ॥ २,३२.८५ ॥

वाससी परिधार्याथ धौते तु शुचिनी शुभे ।

दर्भाण्यादौ समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च ॥ २,३२.८६ ॥

तिलान् गोमयलिप्तायां भूमौ तत्र निवेशयेत् ॥ २,३२.८७ ॥

प्रागुदक्शिरसं वापि मुखे स्वर्णं विनिः क्षेपेत् ।

शालग्रामशिला तत्र तुलसी च खगेश्वर ॥ २,३२.८८ ॥

विधेया सन्निधौ सर्पिर्दीपं प्रज्वालयेत्पुनः ।

नमो भगवते वासुदेवायेति जपस्तथा ॥ २,३२.८९ ॥

आदौ तु प्रणवं कृत्वा पूजादाने ततः स्मृते ।

समभ्यर्च्य हृषीकेशं पुष्पधूपादिभिस्ततः ॥ २,३२.९० ॥

प्रणिपातैः स्तवैः पुण्यैर्ध्या नयोगेन पूजयेत् ।

दत्त्वा दानं च विप्रेभ्यो दीनानाथेभ्य एव च ॥ २,३२.९१ ॥

पुत्त्रे मित्रे कलत्रे च क्षेत्रधान्यधनादिषु ।

निवर्तयेन्ममत्वं च विष्णोः पादौ हृदि स्मरन् ॥ २,३२.९२ ॥

उच्चैः पुरुषसूक्तं च यदि श्रेष्ठापदस्तदा ।

पुत्त्राद्याः प्रपठेयुस्ते म्रियमाणे निजे जने ॥ २,३२.९३ ॥

मृत्यु को संनिकट जानकर मनुष्य को सबसे पहले गोमूत्र, गोमय, तीर्थोदक और कुशोदक से स्नान कराये । तदनन्तर स्वच्छ एवं पवित्र वस्त्र पहना दे और गोमय से लिपी हुई भूमि पर दक्षिणाग्र कुशों का एवं तिल का आस्तरण करके सुला दे । सुलाते समय उस मरणासन्न प्राणी के सिर को पूर्व अथवा उत्तर की ओर करके उसके मुख में सोने का टुकड़ा डाले । हे खगेश ! उसी के संनिकट भगवान् शालग्राम की मूर्ति और तुलसी का वृक्ष लाकर रख दे । तत्पश्चात् वहीं पर घी का एक दीपक जलाये और 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' - इस मन्त्र का जप करे ? पूजा - दान तथा नाम-स्मरण आदि में मन्त्र से 'ॐ का योग करे । पुष्प-धूपादि से भली प्रकार हृषीकेश विष्णुदेव की पूजा करे। तदनन्तर विनम्र भाव से स्तुति - पाठ करते हुए उनका ध्यान करे । उसके बाद ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर भगवान् विष्णु के चरणों को हृदय में स्थान देते हुए पुत्र, मित्र, स्त्री, खेती-बारी तथा धन-धान्यादि के प्रति अपनी ममता का परित्याग कर दे। उस समय जीव को बहुत ही कष्ट होता है। उसके निवारण के लिये पुत्रादि सभी परिजनों को मरणासन्न प्राणी के कल्याण हेतु ऊँचे स्वर में 'पुरुषसूक्त का पाठ करना चाहिये।

एतत्ते सर्वमाख्यातं कृत्यं मृत्यावुपस्थिते ।

फलमप्यस्य कृत्स्नस्य समासात्ते वदाम्यहम् ॥ २,३२.९४ ॥

हे गरुड! मृत्यु के आ जाने पर जो कर्म करना चाहिये, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब इस समस्त कर्म का फल क्या है ? उसको मैं संक्षेप में कहता हूँ, तुम सुनो।

स्नानेन शुचिताप्राप्तिरपावित्र्यहृतिस्ततः ।

ततो विष्णोः स्मृतिस्तस्य ज्ञानात्सर्वफलप्रदा ॥ २,३२.९५ ॥

दर्भतूली नयेत्स्वर्गमातुरं तु न संशयः ।

तिलैर्दर्भैश्च निः क्षिप्तैः स्नानं क्रतुमयं भवेत् ॥ २,३२.९६ ॥

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च श्रीर्हुताशस्तथैव च ।

मण्डले चोपतिष्ठन्ति तस्मात्कुर्वीत मण्डलम् ॥ २,३२.९७ ॥

प्रागुदग्वा कृतेनेह शिरसा लोकमुत्तमम् ।

व्रजते यदि पापस्याल्पत्वं पुंसो भवेत्खग ॥ २,३२.९८ ॥

हे पक्षिराज ! स्नान करने से प्राणी को स्वच्छता प्राप्त होती है। उससे शरीर की अपवित्रता दूर होती है। उसके बाद भगवान् विष्णु का स्मरण होता है और उनका स्मरण सभी प्रकार के उत्तम फल प्रदान करता है। कुश और कपास आतुर प्राणी को स्वर्ग ले जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। तिल तथा कुश जल में डालकर मरणासन्न व्यक्ति को कराया गया स्नान यज्ञ में किये गये अवभृथ – स्नान के समान होता है। ऐसे ही गोमय से लिपी हुई भूमि पर मण्डल बनाकर उस पर तिल, कुश आदि डालकर यदि मरणासन्न व्यक्ति को सुलाया जाय तो विष्णु आदि देव प्रसन्न होते हैं; क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लक्ष्मी और अग्निदेव मण्डल में रहते हैं । इसीलिये मरणासन्न व्यक्ति को जिस भूमि पर शयन कराना है, वहाँ पर मण्डल का निर्माण करना चाहिये । खगेश ! पूर्व अथवा उत्तर की ओर यदि मरणासन्न व्यक्ति का सिर कर दिया जाय, यदि उसके पाप कम हों तो इतने मात्र से उसे उत्तम लोक प्राप्त हो सकते हैं।

पञ्चरत्ने मुखे मुक्ते जिवे ज्ञानं प्ररोहति ।

तुलसी ब्राह्मणा गावो विष्णुरेकादशी खग ॥ २,३२.९९ ॥

पञ्च प्रवहणान्येव भवाब्धौ मज्जतां नृणाम् ।

विष्णुरेकादशी गीता तुलसी विप्रधेनवः ॥ २,३२.१०० ॥

असारे दुर्गसंसारे षट्पदी भक्तिदायिनी ।

आतुर व्यक्ति के मुख में पञ्चरत्न डालने पर उसमें ज्ञान का उदय होता है । हे पक्षिन् ! तुलसी, ब्राह्मण, गौ, विष्णु और एकादशीव्रत - ये पाँच संसार-सागर में डूबते हुए मनुष्यों के लिये नौका समान हैं। विष्णु, एकादशी, गीता, तुलसी, ब्राह्मण एवं गौ- यह षट्पदी इस असार और जटिल संसार में प्राणी को भक्ति प्रदान कराती है।

नमो भगवते वासुदेवायेति जपन्नरः ॥ २,३२.१०१ ॥

ओङ्कारपूर्वं सायुज्यं प्राप्नुयान्नात्र संशयः ।

पूजयापि च मल्लोकप्राप्तिराराद्दिवं व्रजेत् ॥ २,३२.१०२ ॥

बन्धाभावे ममत्वेतु ज्ञानं पुरुषसूक्ततः ।

'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय'इस प्रकार भगवान् विष्णु के मन्त्र का जप करता हुआ मनुष्य निस्संदेह उन्हीं का सायुज्य प्राप्त करता है। पूजा करने से भी मेरे (भगवान् विष्णु) लोक की प्राप्ति होती है, मेरी पूजा करनेवाला साक्षात् स्वर्गलोक को जाता है । हे काश्यप ! 'पुरुषसूक्त' के पाठ से अपने परिजनों के व्यामोह में फँसा हुआ प्राणी बन्धन से मुक्त हो जाता है।

यस्ययस्याधिकत्वं तु साधनेष्वेषु काश्यप ॥ २,३२.१०३ ॥

तत्तत्फलस्याप्याधिक्यं भवतीत्यवधारय ।

दातव्यानि यथाशक्त्या प्रीतोऽसौ सर्वदा भवेत् ॥ २,३२.१०४ ॥

परलोक-प्राप्ति के जितने साधन बताये गये हैं, उनमें जिन साधनों की अधिकता होगी, उन्हीं का फल मनुष्य को अधिकाधिक प्राप्त होगा। यथाशक्ति ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देना चाहिये ऐसा करने से वह सदैव प्रसन्न रहता है ।

एतत्ते सर्वमाख्यातं स्नानादिषु फलं मया ।

ब्रह्माण्डे ये गुणाः सन्ति शरीरे ते व्यवस्थिताः ॥ २,३२.१०५ ॥

हे साधो ! स्नानादि करने पर मनुष्य को प्राप्त होनेवाले समस्त फलों का विवरण यही है, इसको मैंने कह दिया। अब इस ब्रह्माण्ड में जो गुण विद्यमान हैं, उन्हें तुम सुनो ! वे सब तुम्हारे शरीर में भी हैं ।

पातालभूधरा लोकास्तथान्ये द्वीपसागराः ।

आदित्यादिग्रहाः सर्वे पिण्डमध्ये व्यवस्थिताः ॥ २,३२.१०६ ॥

पादाधस्तु तलं ज्ञेयं पादोर्ध्वं वितलं तथा ।

जानुभ्यां सुतलं विद्धि सक्थिदेशे महातलम् ॥ २,३२.१०७ ॥

तथा तलातलञ्चोरौ गुह्यदेशे रसातलम् ।

पातालं कटिसंस्थन्तु पादादौ लक्षयेद्बुधः ॥ २,३२.१०८ ॥

भूर्लोकं नाभिमध्ये तु भुवर्लोकं तदूर्ध्वतः ।

स्वर्गलोकं हृदये विद्यात्कण्ठदेशे महस्तथा ॥ २,३२.१०९ ॥

जनलोकं वक्त्रदेशे तपोलोकं ललाटके ।

सत्यलोकं महारन्ध्रे भुवनानि चतुर्दश ॥ २,३२.११० ॥

पाताल, पर्वत, लोक, द्वीप, सागर, सूर्यादि सभी ग्रह तुम्हारे शरीर में ही स्थित हैं। यथा- पैर के नीचे तललोक, पैर के ऊपर वितललोक दोनों जानुओं में सुतललोक और सक्थि-प्रदेश में महातल नामक लोक समझने चाहिये। वैसे ही ऊरु-भाग में तलातललोक तथा गुह्य स्थान में रसातललोक स्थित है। ऐसे ही प्राणी के कटिप्रदेश में पाताललोक की स्थिति समझे । नाभि के मध्य में भूर्लोक, उसके ऊपर भुवर्लोक, हृदय में स्वर्गलोक, कण्ठदेश में महर्लोक, मुख में जनलोक, मस्तक में तपोलोक एवं महारन्ध्र में सत्यलोक है। इस प्रकार मनुष्य के इसी शरीर में चौदह भुवन विद्यमान हैं।

त्रिकोणे संस्थितो मेरुरधः कोणे च मन्दरः ।

दक्षिणे चेव कैलासो वामभागे हिमाचलः ॥ २,३२.१११ ॥

निषधश्चोर्ध्वभागे च दक्षिणे गन्धमादनः ।

मलयो (रमणो) वामरेखायां सप्तैते कुलपर्वताः ॥ २,३२.११२ ॥

अस्थिस्थाने स्थितो जम्बूः शाको मज्जासु संस्थितः ।

कुशद्वीपः स्थितो मांसे क्रौञ्चद्वीपः शिरास्थितः ॥ २,३२.११३ ॥

त्वचायां शाल्मलिर्द्वीपो प्लक्षः रोम्णां च सञ्चये ।

नखस्थः पुष्करद्वीपः सागरास्तदनन्तरम् ॥ २,३२.११४ ॥

क्षारोदश्च तथा मूत्रे क्षारे क्षीरोदसागरः ।

सुरोदधिश्च श्लेष्मस्थः मज्जायां घृतसागरः ॥ २,३२.११५ ॥

रसोदधिं रसे विद्याच्छोणिते दधिसागरम् ।

स्वादुलं लम्बिकास्थाने गर्भोदं शुक्रसंस्थितम् ॥ २,३२.११६ ॥

नादचक्रे स्थितः सूर्यो बिन्दुचक्रे च चन्द्रमाः ।

लोचनस्थः कुजो ज्ञेयो हृदये च बुधः स्मृतः ॥ २,३२.११७ ॥

विष्णुस्थाने गुरुं विद्याच्छ्रुक्रे शुक्रो व्यवस्थितः ।

नाभिस्थाने स्थितो मन्दो मुखे राहुः स्थितः सदा ॥ २,३२.११८ ॥

पायु (द) स्थाने स्थितः केतुः शरीरे ग्रहमण्डलम् ।

शरीर के त्रिकोण में मेरु, अधः कोण में मन्दर, दक्षिण में कैलास, वामभाग में हिमालय, ऊर्ध्वभाग में निषध, दक्षिण में गन्धमादन और वामरेखा में मलय —- इन सात कुल पर्वतों की स्थिति है । इस देह के अस्थिभाग में जम्बूद्वीप, मज्जा में शाकद्वीप, मांस में कुशद्वीप, शिराओं में क्रौञ्चद्वीप, त्वचा में शाल्मलिद्वीप, रोम- समूह में प्लक्षद्वीप और नखों में पुष्कर नाम का द्वीप है । उसके बाद शरीर में सागरों का स्थान है। जैसे मूत्र में क्षारोदसागर, शरीर के क्षारतत्त्व में क्षीरसागर, श्लेष्मा में सुरोदधिसागर, मज्जा घृतसागर, रस में रसोदधिसागर, रक्त में दधिसागर, काकु में लटकते हुए मांसलभाग में स्वादक - सागर तथा शुक्र में गर्भोदकसागर है। नादचक्र में सूर्य, बिन्दुचक्र में चन्द्रमा, नेत्र में मंगल, हृदय में बुध, विष्णुस्थान में गुरु, शुक्र में शुक्र, नाभिस्थान में शनि, मुख में राहु और पायु में केतु को माना गया है। इस प्रकार शरीर में ग्रहमण्डल की स्थिति है।

विभक्तञ्च समाख्यातमापादतलमस्तकम् ॥ २,३२.११९ ॥

उत्पन्ना ये हि संसारे म्रियन्ते ते न संशयः ।

बुभुक्षा च तृषा रौद्रा दाहोद्भूता च मूर्छना ॥ २,३२.१२० ॥

यत्र पीडास्त्विमा रौद्रास्ता वै वृश्चिकदंशजाः ।

विनाशः पूर्णकाले च जायते सर्वदेहिनाम् ॥ २,३२.१२१ ॥

अग्रे अग्रे हि धावन्ति यमलोकगतस्यवै ।

तप्तवालुकमध्येन प्रज्वलद्वह्निमध्यतः ॥ २,३२.१२२ ॥

केशग्राहैः समाक्रान्ता नीयन्ते यमकिङ्करैः ।

पापिष्ठास्त्वधमास्तार्क्ष्य दयाधर्मविविर्जिताः ॥ २,३२.१२३ ॥

यमलोके वसन्त्येते कुट्यां जन्म न विद्यते ।

मनुष्य का आपादमस्तकसम्पूर्ण शरीर इसी सृष्टि के रूप में विभक्त है। जो लोग इस संसार में उत्पन्न होते हैं, वे मृत्यु को निश्चित ही प्राप्त होते हैं। भूख, प्यास, क्रोध, दाह, मूर्च्छा, बिच्छू के डंक तथा सर्प के दंश से उत्पन्न कष्ट सब इसी शरीर में हैं। समय के पूरा हो जाने पर सभी प्राणियों का विनाश निश्चित है। यमलोक में गये हुए जीव के आगे-आगे वही लोग दौड़ते हैं, जो पापी हैं, अधम हैं और दया – धर्म से दूर हैं । यमदूत उनके बाल पकड़कर घसीटते हुए अत्यन्त संतप्त मरुस्थल तथा दहकते हुए अंगारों के बीच से ले जाते हैं । अत्यन्त दुःख से कातर इन पापियों को यमलोक की एक झोपड़ी में तबतक रहना पड़ता है, जबतक पुनर्जन्म नहीं होता है।

एवं सञ्जायते तार्क्ष्य मर्त्ये जन्तुः स्वकर्मभिः ॥ २,३२.१२४ ॥

उत्पन्ना ये हि संसारे म्रियन्ते ते न संशयः ।

तार्क्ष्य ! इस प्रकार जीव कर्मानुसार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। इस संसार में जो उत्पन्न हुए हैं, वे अवश्य ही मरेंगे इसमें संदेह नहीं है।

आयुः कर्म च वित्तञ्च विद्या निधनमेव च ॥ २,३२.१२५ ॥

पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः ।

'आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्युये पाँचों गर्भ में प्राणी के रहने के समय ही निश्चित हो जाते हैं।

कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते ॥ २,३२.१२६ ॥

सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ।

अधोमुखं चोर्ध्वपादं गर्भाद्वायुः प्रकर्षति ॥ २,३२.१२७ ॥

जन्मतो वैष्णवी माया संमोहयति सत्वरम् ।

स्वकर्मकृतसम्बन्धो जन्तुर्जन्म प्रपद्यते ॥ २,३२.१२८ ॥

सुकृतादुत्तमो भोगभोग्यवान् सुकुले भवेत् ।

यथायथा दुष्कृतं तत्कुले हीने प्रजायते ॥ २,३२.१२९ ॥

दरिद्रो व्याधितो मूर्खः पापकृद्दुःखभाजनम् ।

अतः परं किमर्थं ते कथयामि खगेश्वर ॥ २,३२.१३० ॥

जीव कर्म से ही जन्म लेता है और विनष्ट होता है। सुख-दुःख, भय एवं कल्याण कर्म से ही प्राप्त होते हैं। नीचे की ओर मुख तथा ऊपर की ओर पैर किये हुए प्राणी को गर्भ से वायु ही खींचकर बाहर लाता है । जन्म लेते ही उस देहधारी को सद्यः विष्णु की माया सम्मोहित कर लेती है। अपने द्वारा किये गये पाप- पुण्य से सम्बन्धित योनि में जीव को जन्म प्राप्त होता है। हे खगेश्वर ! उत्तम प्रकृतिवाला व्यक्ति अपने सुकृत से अच्छे भोग भोगता है, उसका जन्म भी सत्कुल में होता है। किंतु जैसे-जैसे उसके द्वारा दुष्कृत होता है, वैसे-ही-वैसे उसका जन्म भी नीच कुल में होने लगता है। वह उसी दुष्कर्म से दरिद्र, रोगी, मूर्ख और अन्यान्य दुःखों का पात्र बन जाता है।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीदृ धर्मदृप्रेतदृश्रीकृष्णगरुडसंवादे जन्तूत्पत्तितद्गधात्वादिविभाग भुवनादिविभागवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 3

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