श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३१

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३१ 

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३१ और्ध्वदैहिक क्रिया में विहित पद आदि विविध दानों का फल तथा जीव को प्राप्त देह के स्वरूप का वर्णन है।

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड – प्रेतकल्प अध्याय ३१

श्रीगरुडमहापुराणम् प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः

Garud mahapuran dharmakand pretakalpa chapter 31

श्रीगरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प इकतीसवाँ अध्याय  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३१                  

गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय ३१ का श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित

गरुडपुराणम्  प्रेतकाण्डः (धर्मकाण्डः) अध्यायः ३१             

श्रीविष्णुरुवाच ।

ये नराः पापसंयुक्तास्ते गच्छन्ति यमालयम् ।

नृणां मत्साक्षिकं दत्तमनन्तफलदं भवेत् ॥ २,३१.१ ॥

श्रीविष्णु ने कहा हे गरुड ! जो मनुष्य पापाचार में लगे हुए हैं, वे यमलोक को जाते हैं। यदि मुझको साक्षी बनाकर मनुष्य के द्वारा दान दिया जाता है, तो वह अनन्त फलदायी होता है।

यावद्रजः प्रमाणाब्दंस्वर्गे तिष्ठति भूमिदः ।

अश्वारूढाश्च ते यान्ति ददते ये ह्युपानहौ ॥ २,३१.२ ॥

आतपे श्रमयोगेन न दह्यन्ते च कुत्रचित् ।

छत्त्रदानेन वै प्रेता विचरन्ति सुखं पथि ॥ २,३१.३ ॥

यमुद्दिश्य ददात्यन्नं तेन चाप्यायितो भवेत् ॥ २,३१.४ ॥

अन्धकारे महाघोरे अमूर्ते लक्ष्यवर्जिते ।

उद्द्योतेनैव ते यान्ति दीपदानेन मानवाः ॥ २,३१.५ ॥

भूमिदान देनेवाला प्राणी दान में दी गयी भूमि के रजकणों की जितनी संख्या होती है, उतने वर्षों तक स्वर्ग में निवास करता है। जो जूते का दान देते हैं, घोर यममार्ग में वे घोड़े पर सवार होकर चलते हैं। छत्रदान करने से प्रेत यमलोक में कहीं पर भी धूप से नहीं जलते, वे सुखपूर्वक अपने पथ में चलते चले जाते हैं। जिसके उद्देश्य से मनुष्य जो अन्न-दान देता है, उससे वह संतृप्त हो जाता है। यमलोक के महापथ में एक ऐसा भी स्थान है, जहाँ घनघोर अन्धकार है, वहाँ कुछ भी दिखायी नहीं देता, किंतु दीपदान देने से मनुष्य उस मार्ग में प्रकाश से युक्त प्राणी के समान जाते हैं।

आश्विने कर्तिके वापि माघे मृततिथावपि ।

चतुर्दश्याञ्च दीयेत दीपदानं सुखाय वै ॥ २,३१.६ ॥

प्रत्यहञ्च प्रदातव्यं मार्गे सुविषमे नरैः ।

यावत्संवत्सरं वापि प्रेतस्य सुखलिप्सया ॥ २,३१.७ ॥

कुले द्योतति शुद्धात्मा प्रकाशत्वं स गच्छति ।

ज्योतिर्मयोऽसौ पूज्योऽसौ दीपदानप्रदो नरः ॥ २,३१.८ ॥

आश्विन, कार्तिक तथा माघमास, मृत - तिथि और चतुर्दशी तिथि में दिया गया दान सुखकारक होता है। जबतक वर्ष न पूरा हो जाय, तबतक प्रतिदिन प्रेत को ऊबड़- खाबड़ मार्ग में सुखपूर्वक गमन कराने की इच्छा से लोगों को दीपदान करना चाहिये। जो मनुष्य दीपदान करता है, वह स्वयं प्रकाशमय होकर संसार का पूज्य हो जाता है। वह शुद्धात्मा अपने कुल में द्योतित होता है और प्रकाशस्वरूप को प्राप्त करता है।

प्राङ्मुखोदङ्मुखं दीपं देवागारे द्विजातये ।

कुर्याद्याम्यमुखं पित्रे अद्भिः सङ्कल्प्य सुस्थिरम् ॥ २,३१.९ ॥

हे खगेश! देवालय में पूर्वाभिमुख, ब्राह्मण के लिये उत्तराभिमुख तथा प्रेत के निमित्त दक्षिणाभिमुख होकर सुस्थिर दीपक का दान जल से संकल्पपूर्वक करना चाहिये ।

सर्वोपहारयुक्तानि पदान्यत्र त्रयोदश ।

यो ददाति मृतस्येह जीवन्नप्यात्महेतवे ।

स गच्छति महामार्गे महाकष्टविवर्जितः ॥ २,३१.१० ॥

आसनं भाजनं भोज्यं दीयते यद्द्विजायते ।

सुखे न भुञ्जमानस्तु देन गच्छत्यलं पथि ॥ २,३१.११ ॥

कमण्डलुप्रदानेन तृषितः पिबते जलम् ॥ २,३१.१२ ॥

भाजनं वस्त्रदानञ्च कुसुमञ्चाङ्गुलीयकम् ।

एकादशा हे दातव्यं प्रेतोद्धरणहेतवे ॥ २,३१.१३ ॥

त्रयोदश पदानीत्थं प्रेतस्य शुभमिच्छता ।

दातव्यानि यथाशक्त्या प्रेतोऽसौ प्रीणितो भवेत् ॥ २,३१.१४ ॥

इस संसार में जो सभी प्रकार के उपहारों से युक्त तेरह पददान मृत व्यक्ति के लिये तथा जीवित दशा में अपने लिये करता है, वह महान् कष्टों से मुक्त होकर महापथ की यात्रा करता है । आसन, पात्र और भोजन जो ब्राह्मण को देता है, वह उसी के पुण्य से सुखपूर्वक खाता-पीता हुआ महापथ को पार करता है । कमण्डलु का दान देने से प्यासा प्रेत जल प्राप्त करता है। प्रेत का उद्धार करने के लिये एकादशाह को पात्र, वस्त्र, पुष्प तथा अँगूठी का दान देना चाहिये। इसी प्रकार प्रेत का शुभेच्छु बनकर जो पुत्र यथाशक्ति तेरह पदों का दान करता है, उससे प्रेत को प्रसन्नता प्राप्त होती है।

भोजना नि तिलांश्चैव उदकुम्भांस्त्रयोदश ।

मुद्रिकां वस्त्रयुग्मञ्च तया याति परां गतिम् ॥ २,३१.१५ ॥

योऽश्वं नावं गजं वापि ब्राह्मणे प्रतिपादयेत् ।

स महिम्नोऽनुसारेण तत्तत्सुखमुपाश्नुते ॥ २,३१.१६ ॥

भोजन, तिल, जलपूर्ण तेरह घट, अँगूठी तथा उत्तरीय एवं अधोवस्त्र का जो दान देता है, उस दान के पुण्य से प्रेत परम गति को प्राप्त करता है । जो अश्व, नौका अथवा हाथी का दान ब्राह्मण को देता है वह उसी देय वस्तु की महिमा के अनुसार उन-उन सुखों को प्राप्त करता है।

नानालोकान् विचरति महिषीञ्च ददाति यः ।

यमपुत्त्रस्य या माता महिषी सुगतिप्रदा ॥ २,३१.१७ ॥

ताम्बूलं कुसुमं देयं याम्यानां हर्षवर्धनम् ।

तेन सम्प्रीणिताः सर्वे तस्मिन् क्लेशं न कुर्वते ॥ २,३१.१८ ॥

जो मनुष्य भैंस का दान देता है, वह नाना प्रकार के लोकों में विचरण करता है। यमदूतों के हर्षवर्धन के लिये ताम्बूल और पुष्प का दान देना चाहिये, इससे संतुष्ट होकर वे दूत उस प्रेत को कष्ट नहीं देते।

गोभूतिलहिरण्यानि दानान्याहुः स्वशक्तितः ॥ २,३१.१९ ॥

मृतोद्देशेन यो यद्याज्जलपात्रञ्च मृन्मयम् ।

उदपात्रसहस्रस्य फलमाप्नोति मानवः ॥ २,३१.२० ॥

यमदूता महारौद्राः करालाः कृष्णपिङ्गलाः ।

न भीषयन्ति तं याम्या वस्त्रदाने कृते सति ॥ २,३१.२१ ॥

मार्गे हि गच्छमानस्तु तृष्णार्तः श्रमपीडितः ।

घटान्नदानयोगेन सुखी भवति निश्चितम् ॥ २,३१.२२ ॥

शय्या दक्षिणया युक्ता आयुधाम्बरसंयुता ।

हैमश्रीपतिना युक्ता देया विप्राय शर्मणे ।

तथा प्रेतत्वमुक्तोऽसौ मोदते सह दैवतैः ॥ २,३१.२३ ॥

प्राणी को यथाशक्ति गौ, भूमि, तिल तथा स्वर्ण का दान अवश्य करना चाहिये, ऐसा मनीषियों ने कहा है। जो व्यक्ति मृत प्राणी के लिये जल से परिपूर्ण मिट्टी का पात्र दान करता है, उसे हजार जलपूर्ण पात्र के दान का फल प्राप्त होता है। यमराज के दूत महाक्रोधी, महाभयंकर आकृतिवाले, काले तथा पीले वर्ण के हैं; वे वस्त्र दान किये जाने पर मृत प्राणी को यमलोक में कष्ट नहीं देते। तृषा और श्रम से पीड़ित होकर महापथ में आगे बढ़ता हुआ प्रेत अन्न और जल से पूर्ण घट का दान देने से निश्चित ही सुखी हो जाता है। दक्षिणा, अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र तथा विष्णु की स्वर्ण- प्रतिमा से युक्त शय्या का दान भी ब्राह्मण को देना चाहिये। ऐसा करने से प्रेतयोनि का परित्याग कर प्राणी स्वर्ग में देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक निवास करता है ।

एतत्ते कथितं तार्क्ष्य दानमन्त्येष्टिकर्मजम् ।

अधुना कथयिष्येऽहमन्यदेहप्रवेशनम् ॥ २,३१.२४ ॥

हे तार्क्ष्य ! यह अन्त्येष्टि – कर्म में होनेवाला दान मैंने तुमसे कहा । मृत प्राणी अन्य शरीर में कैसे प्रवेश करता है, अब मैं उसको कहूँगा ।

जातस्य मृत्युलोके वै प्राणिनो मरणं ध्रुवम् ।

मृतिः कुर्यात्स्वधर्मेण यास्यतश्च परन्तप ॥ २,३१.२५ ॥

पूर्वकाले मृतानाञ्च प्राणिनाञ्च खगेश्वर ।

सूक्ष्मोभूत्वा त्वसौ वायुर्निर्गच्छत्यास्यमण्डलात् ॥ २,३१.२६ ॥

नवद्वारै रोमभिश्च जनानां तालुरन्ध्रके ।

पापिष्ठानामपानेन जीवो निष्क्रामति ध्रुवम् ॥ २,३१.२७ ॥

'हे परंतप ! मृत्युलोक में जन्म लेनेवाले प्राणी की मृत्यु निश्चित है, इसलिये अपने-अपने धर्म अनुसार मृत व्यक्ति का श्राद्धादिक कृत्य करना चाहिये। हे खगेश्वर ! मरे हुए प्राणियों के मुखमण्डल से पहले जीवात्मा वायु का सूक्ष्म रूप धारण करके निकल जाता है। लोगों के नेत्र आदि नौ द्वार, रोम तथा तालुरन्ध्र से भी जीवात्मा बाहर हो जाता है; किंतु जो पापी हैं उनका जीवात्मा अपान-मार्ग से शरीर छोड़ता है'

शरीरञ्च पतेत्पश्चान्निर्गते मरुतीश्वरे ।

वाताहतः पतत्येव निराधारो यथा द्रुमः ॥ २,३१.२८ ॥

पृथिव्यां लीयते पृथ्वी आपश्चैव तथाप्सु च ।

तेजस्तेजसि लीयते समीरणः समीरणे ।

आकाशे च तथा काशः सर्वव्यापी च शङ्करे ॥ २,३१.२९ ॥

प्राणवायु के निकल जाने पर शरीर पृथ्वी पर वैसे ही गिर पड़ता है, जैसे वायु के थपेड़ों से आहत होकर निराधार वृक्ष भूमि पर गिर पड़ता है । मृत्यु के बाद शरीर में स्थित पृथ्वीतत्त्व पृथ्वी में, जलतत्त्व जल में, तेजस्तत्त्व तेज में, वायुतत्त्व वायु में, आकाशतत्त्व आकाश तथा सर्वव्यापी आत्मतत्त्व शिव में लीन हो जाता है ।

तत्र कामस्तथा क्रोधः काये पञ्चेन्द्रियाणि च ।

एते तार्क्ष्य समाख्याता देहे तिष्ठन्ति तस्कराः ॥ २,३१.३० ॥

कामः क्रोधो ह्यहङ्कारो मनस्तत्रैव नायकः ।

संहारकश्च कालोऽयं पुण्यपापसमन्वितः ॥ २,३१.३१ ॥

जगतश्च स्वरूपन्तु निर्मितं स्वेन कर्मणा ।

पुनर्देहान्तरं याति सुकृतैर्दुष्कृतैर्नरः ॥ २,३१.३२ ॥

पञ्चेन्द्रियसमायुक्तं सकलैर्विष्यैः सह ।

प्रविशेत्स नवं देहं गृहे दग्धे यथा गृही ॥ २,३१.३३ ॥

शरीरे ये समासीना सम्भवेत्सर्वधातवः ।

षाट्कौशिको ह्ययं कायो माता पित्रोश्च धातवः ॥ २,३१.३४ ॥

सम्भवेयुस्तथा तार्क्ष्य सर्वे वाताश्च देहिनाम् ।

मूत्रं पुरीषं तद्योगा ये चान्ये व्याधयस्तथा ॥ २,३१.३५ ॥

अस्थि शुक्रं तथा स्नायुः देहेन सह दह्यते ।

हे तार्क्ष्य ! काम-क्रोध तथा पञ्चेन्द्रियों का समूह शरीर में चोर के समान स्थित कहा गया है। देह में काम-क्रोध तथा अहंकारसहित मन भी रहता है, वही सबका नायक है । पुण्य-पाप से संयुक्त होकर काल उसका संहारक बन जाता है । संसार में भोग के लिये योग्य शरीर का निर्माण अपने कर्म के अनुसार होता है। मनुष्य अपने सत्कर्म और दुष्कर्म से दूसरे शरीर में प्रविष्ट होता है। जिस प्रकार पुराने घर के जल जाने पर गृही नये घर में जाकर शरण लेता है, उसी प्रकार यह जीव भी विषयों के साथ पञ्चेन्द्रियों से युक्त नौ द्वारवाले एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में आश्रय ग्रहण करता है। शरीर में विद्यमान धातुएँ माता-पिता से ही प्राप्त हैं, इन्हीं से निर्मित यह शरीर षाट्कौशिक * कहलाता है । हे गरुड ! शरीर में सभी प्रकार के वायु रहते हैं, मूत्र - पुरीष तथा उन्हीं के योग से उत्पन्न अन्यान्य व्याधियाँ रहती हैं। अस्थि, शुक्र तथा स्नायु शरीर के साथ ही जल जाते हैं ।

* त्वचा, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा तथा अस्थि- इन षट् धातुओं से निर्मित शरीर 'षाट्कौशिक' कहलाता है।

एष ते कथितस्तार्क्ष्य विनाशः सर्वदेहिनाम् ॥ २,३१.३६ ॥

कथयामि पुनस्तेषां शरीरञ्च यथा भवेत् ।

हे पक्षिन् ! सभी प्राणियों के शरीर का विनाशक्रम यही है, इसे मैंने कह दिया। प्राणियों का शरीर कैसा होता है, उसको अब मैं फिर से कह रहा हूँ।

एकस्तम्भं स्नायुबद्धं स्थूणाद्वयसमुद्धृतम् ॥ २,३१.३७ ॥

इन्द्रियैश्च समायुक्तं नवद्वारं शरीरकम् ।

विषयैश्च समाक्रान्तं कामक्रोधसमाकुलम् ॥ २,३१.३८ ॥

रागद्वेषसमाकीर्णं तृष्णादुर्गसुदुस्तरम् ।

लोभजालसमायुक्तं पुरं पुरुषसंज्ञितम् ॥ २,३१.३९ ॥

एतद्गुणसमायुक्तं शरीरं सर्वदेहिनाम् ।

तिष्ठन्ति देवताः सर्वा भुवनानि चतुर्दश ॥ २,३१.४० ॥

आत्मानं ये न जानन्ति ते नराः पशवः स्मृताः ।

हे गरुड ! पुरुष का शरीर छोटी-बड़ी नसों से बँधा हुआ एक स्तम्भ है, जिसको नीचे से पैररूपी दो अन्य स्तम्भ धारण किये हैं । पञ्चेन्द्रियोंसहित उसमें नौ द्वार हैं। सांसारिक विषयों से युक्त एवं काम-क्रोध से बेचैन जीव इसी शरीर में रहता है। राग-द्वेष से व्याप्त यह शरीर तृष्णा का दुस्तर दुर्ग है। नाना प्रकार के लोभों से भरे हुए जीव का यह शरीर पुर है। यही स्थिति सभी शरीरों की है। इसी शरीर में सभी देवता और चौदहों लोक स्थित हैं । जो लोग अपने को नहीं पहचानते, वे पशु के समान माने गये हैं।

एवमेतन्मयाख्यातं शरीरं ते चतुर्विधम् ॥ २,३१.४१ ॥

चतुरशीतिलक्षाणि निर्मिता योनयः पुरा ।

उद्भिज्जाः स्वेदजाश्चैव अण्डजाश्च जरायुजाः ॥ २,३१.४२ ॥

एतत्ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोहं त्वयानघ ॥ २,३१.४३ ॥

हे पक्षिराज ! इस प्रकार ऊपर बतायी गयी प्रक्रिया से निर्मित शरीर का वर्णन मैंने किया । सृष्टि में चौरासी लाख योनियाँ बतायी गयी हैं, जो उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज- इन चार मुख्य भागों में विभक्त हैं।

इति श्रीगारुडे महापुराणे उत्तरखण्डे द्वितीयांशे प्रेतकल्पे श्रीकृष्णगरुडसंवादे दानफ लान्यदेहप्रवेशादिनिरूपणं नामैकत्रिंशोऽध्यायः॥

जारी-आगे पढ़े............... गरुड महापुराण धर्मकाण्ड प्रेतकल्प अध्याय 32

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