श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १३                                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १३ "ब्रह्मा जी का मोह और उसका नाश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १३

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं त्रयोदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १३                                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१० पूर्वार्ध अध्यायः१३                             

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध तेरहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ त्रयोदशोऽध्यायः - १३ ॥

श्रीशुक उवाच

साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम ।

यन्नूतनयसीशस्य शृण्वन्नपि कथां मुहुः ॥ १॥

सतामयं सारभृतां निसर्गो

यदर्थवाणीश्रुतिचेतसामपि ।

प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्

स्त्रिया विटानामिव साधुवार्ता ॥ २॥

श‍ृणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्यं वदामि ते ।

ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥ ३॥

तथाघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान् ।

सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत् ॥ ४॥

अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः

स्वकेलिसम्पन्मृदुलाच्छवालुकम् ।

स्फुटत्सरोगन्धहृतालिपत्रिक-

ध्वनिप्रतिध्वानलसद्द्रुमाकुलम् ॥ ५॥

अत्र भोक्तव्यमस्माभिर्दिवा रूढं क्षुधार्दिताः ।

वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम् ॥ ६॥

तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले ।

मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजुः समं भगवता मुदा ॥ ७॥

कृष्णस्य विष्वक्पुरुराजिमण्डलै-

रभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः ।

सहोपविष्टा विपिने विरेजु-

श्छदा यथाम्भोरुहकर्णिकायाः ॥ ८॥

केचित्पुष्पैर्दलैः केचित्पल्लवैरङ्कुरैः फलैः ।

शिग्भिस्त्वग्भिर्दृषद्भिश्च बुभुजुः कृतभाजनाः ॥ ९॥

सर्वे मिथो दर्शयन्तः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक् ।

हसन्तो हासयन्तश्चाभ्यवजह्रुः सहेश्वराः ॥ १०॥

बिभ्रद्वेणुं जठरपटयोः शृङ्गवेत्रे च कक्षे

वामे पाणौ मसृणकवलं तत्फलान्यङ्गुलीषु ।

तिष्ठन्मध्ये स्वपरिसुहृदो हासयन् नर्मभिः स्वैः

स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे यज्ञभुग्बालकेलिः ॥ ११॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तुम बड़े भाग्यवान हो। भगवान के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरस और भी नूतन बना देते हो। रसिक संतों की वाणी, कान और हृदय भगवान की लीला के गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैं, उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें। ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नया-नया रस जान पड़ता है।

परीक्षित! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो। यद्यपि भगवान की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं। यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुना जी के पुलिन पर ले आये और उनसे कहने लगे ;- ‘मेरे प्यारे मित्रों! यमुना जी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हम लोगों के लिए खेलने की तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं। अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिए; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें।'

ग्वालबालों ने एक स्वर से कहा ;- ‘ठीक है, ठीक है!उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी घास में छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान के साथ बड़े आनन्द से भोजन करने लगे। सबके बीच में भगवान श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालों ने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें आनन्द से खिल रहीं थीं। वन-भोजन के समय श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमल की कर्णिका के चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पंखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों। कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरों के पात्र बनाकर भोजन करने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचि का प्रदर्शन करते। कोई किसी को हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे। उन्होंने मुरली को तो कमर की फेंट में आगे की ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगल में दबा लिये थे। बायें हाथ में बड़ा ही मधुर घृत मिश्रित दही-भात का ग्रास था और अँगुलियों में अदरक, नीबू आदि के अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओर से घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीच में बैठकर अपनी विनोद भरी बातों से अपने साथी ग्वालबालों को हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान ग्वालबालों के साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्ग के देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे।

भारतैवं वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु ।

वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः ॥ १२॥

तान् दृष्ट्वा भयसन्त्रस्तानूचे कृष्णोऽस्य भीभयम् ।

मित्राण्याशान्मा विरमतेहानेष्ये वत्सकानहम् ॥ १३॥

इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्जगह्वरेष्वात्मवत्सकान् ।

विचिन्वन् भगवान् कृष्णः सपाणिकवलो ययौ ॥ १४॥

अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो मायार्भकस्येशितुः

द्रष्टुं मञ्जु महित्वमन्यदपि तद्वत्सानितो वत्सपान् ।

नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात्खेऽवस्थितो यः पुरा

दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः प्राप्तः परं विस्मयम् ॥ १५॥

ततो वत्सानदृष्ट्वैत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान् ।

उभावपि वने कृष्णो विचिकाय समन्ततः ॥ १६॥

क्वाप्यदृष्ट्वान्तर्विपिने वत्सान् पालांश्च विश्ववित् ।

सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह ॥ १७॥

ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च ।

उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वरः ॥ १८॥

यावद्वत्सपवत्सकाल्पकवपुर्यावत्कराङ्घ्र्यादिकं

यावद्यष्टिविषाणवेणुदलशिग्यावद्विभूषाम्बरम् ।

यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो यावद्विहारादिकं

सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः सर्वस्वरूपो बभौ ॥ १९॥

स्वयमात्माऽऽत्मगोवत्सान् प्रतिवार्यात्मवत्सपैः ।

क्रीडन्नात्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद्व्रजम् ॥ २०॥

तत्तद्वत्सान् पृथङ्नीत्वा तत्तद्गोष्ठे निवेश्य सः ।

तत्तदात्माभवद्राजंस्तत्तत्सद्म प्रविष्टवान् ॥ २१॥

तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता

उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम् ।

स्नेहस्नुतस्तन्यपयःसुधासवं

मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन् ॥ २२॥

भरतवंश शिरोमणे! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान की इस रसमयी लीला में तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घास के लालच से घोर जंगल में बड़ी दूर निकल गये। जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तों के भय को भगा देने वाले श्री भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - मेरे प्यारे मित्रों! तुम लोग भोजन करना बंद मत करो। मैं बछड़ों को लिये आता हूँ।' ग्वालबालों से इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण हाथ में दही-भात का कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुंजों एवं अन्यान्य भयंकर स्थानों में अपने तथा साथियों के बछड़ों को ढूंढने चल दिये।

परीक्षित! ब्रह्मा जी पहले से ही आकाश में उपस्थित थे। प्रभु के प्रभाव से अघासुर का मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि लीला से मनुष्य-बालक बने हुए भगवान श्रीकृष्ण कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ों को और भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर ग्वाल-बालों को भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। अन्ततः वे जड़ कमल की ही तो सन्तान हैं। भगवान श्रीकृष्ण बछड़े न मिलने पर यमुना जी पुलिन पर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं।

तब उन्होंने वन में घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूंढा। परन्तु जब वे ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरन्त जान गये कि यह सब ब्रह्मा की करतूत है। वे तो सारे विश्व के एकमात्र ज्ञाता हैं। अब भगवान श्रीकृष्ण ने बछड़ों और ग्वालबालों की माताओं को तथा ब्रह्मा जी को भी आनन्दित करने के लिए अपने-आप को ही बछड़ों और ग्वालबालों - दोनों के रूप में बना लिया। क्योंकि वे ही सम्पूर्ण विश्व के कर्ता सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं।

परीक्षित! वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वाभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय यह सम्पूर्ण जगत विष्णु रूप है’ - यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी। सर्वात्मा भगवान स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने आत्मस्वरूप बछड़ों को अपने आत्मस्वरूप ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते हुए उन्होंने ब्रज में प्रवेश किया।

परीक्षित! जिस ग्वालबाल के जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप से अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखल में घुसा दिया और विभिन्न बालकों के रूप में उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले गये। ग्वालबालों की माताएँ बाँसुरी की तान सुनते ही जल्दी से दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परब्रह्म श्रीकृष्ण को अपने बच्चे समझकर हाथों से उठाकर उन्होंने जोर से हृदय से लगा लिया। वे अपने स्तनों से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण सुधा से भी मधुर और आसव से भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं।

ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपना-

लङ्काररक्षातिलकाशनादिभिः ।

संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्

सायं गतो यामयमेन माधवः ॥ २३॥

गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं

हुङ्कारघोषैः परिहूतसङ्गतान् ।

स्वकान्स्वकान्वत्सतरानपायय-

न्मुहुर्लिहन्त्यः स्रवदौधसं पयः ॥ २४॥

गोगोपीनां मातृतास्मिन् सर्वा स्नेहर्धिकां विना ।

पुरोवदास्वपि हरेस्तोकता मायया विना ॥ २५॥

व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम् ।

शनैर्निःसीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत् ॥ २६॥

इत्थमात्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः ।

पालयन् वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः ॥ २७॥

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो वनमाविशत् ।

पञ्चषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः ॥ २८॥

ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम् ।

गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो ददृशुस्तृणम् ॥ २९॥

दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा

स गोव्रजोऽत्यात्मपदुर्गमार्गः ।

द्विपात्ककुद्ग्रीव उदास्यपुच्छो-

ऽगाद्धुङ्कृतैरास्रुपया जवेन ॥ ३०॥

समेत्य गावोऽधो वत्सान् वत्सवत्योऽप्यपाययन् ।

गिलन्त्य इव चाङ्गानि लिहन्त्यः स्वौधसं पयः ॥ ३१॥

गोपास्तद्रोधनायासमौघ्यलज्जोरुमन्युना ।

दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान् ॥ ३२॥

तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशया

जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान् ।

उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि

घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते ॥ ३३॥

परीक्षित! इसी प्रकार प्रतिदिन संध्या समय भगवान श्रीकृष्ण उन ग्वालबालों के रूप में वन से लौट आते और अपनी बाल सुलभ लीलाओं से माताओं को आनन्दित करते। वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दन का लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनों से सजातीं। दोनों भौंहों के बीच डीठ से बचाने के लिए काजल का डिठौना लगा देतीं तथा भोजन करातीं और तरह-तरह से बड़े लाड़-प्यार से उनका लालन-पालन करतीं। ग्वालिनों के समान गौएँ भी जब जंगलों में से चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौड़ कर उसके पास आ जाते, अब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभ से चाटतीं और अपना दूध पिलातीं।

उस समय स्नेह की अधिकता के कारण उनके थनों से स्वयं ही दूध की धारा बहने लगती। इन गायों और ग्वालिनों का मातृभाव पहले-जैसा ही ऐश्वर्य ज्ञानरहित और विशुद्ध था। हाँ, अपने असली पुत्रों की अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था। इसी प्रकार भगवान भी उनके पहले पुत्रों के समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परन्तु भगवान में उन बालकों के जैसा मोह का भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ। अपने-अपने बालकों के प्रति ब्रज-वासियों की स्नेह लता दिन-प्रतिदिन एक वर्ष तक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँ तक कि पहले श्रीकृष्ण में उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकों के प्रति भी हो गया। इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े ग्वालबालों के बहाने गोपाल बनकर अपने बालक रूप से वत्सरूप का पालन करते हुए एक वर्ष तक वन और गोष्ठ में क्रीडा करते रहे।

जब एक वर्ष पूरा होने में पाँच-छः रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गये। उस समय गौएँ गोवर्धन की चोटी पर घास चर रहीं थीं। वहाँ उन्होंने ब्रज के पास ही चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ों को देखा। बछड़ों को देखते ही गौओं का वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। वे अपने-आप की सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालों के रोकने की कुछ भी परवा न कर जिस मार्ग से वे न जा सकते थे, उस मार्ग से हुंकार करती हुई बड़े वेग से दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनों से दूध बहता जाता था और उनकी गरदन सिकुड़कर डील से मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेग से दौड़ रहीं थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं।

जिन गौओं के और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धन के नीचे अपने पहले बछड़ों के पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपने-आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चों का एक-एक अंग ऐसे चाव से चाट रहीं थीं, मानों उन्हें अपने पेट में रख लेंगी। गोपों ने उन्हें रोकने का बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलता पर कुछ लज्जा और गायों पर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्ग से उस स्थान पर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ों के साथ अपने बालकों को भी देखा। अपने बच्चों को देखते ही उनका हृदय प्रेमरस से सराबोर हो गया। बालकों के प्रति अनुराग की बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकों को गोद में उठाकर हृदय से लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए।

ततः प्रवयसो गोपास्तोकाश्लेषसुनिर्वृताः ।

कृच्छ्राच्छनैरपगतास्तदनुस्मृत्युदश्रवः ॥ ३४॥

व्रजस्य रामः प्रेमर्धेर्वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम् ।

मुक्तस्तनेष्वपत्येष्वप्यहेतुविदचिन्तयत् ॥ ३५॥

किमेतदद्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि ।

व्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्वं प्रेम वर्धते ॥ ३६॥

केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी ।

प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी ॥ ३७॥

इति सञ्चिन्त्य दाशार्हो वत्सान् सवयसानपि ।

सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः ॥ ३८॥

नैते सुरेशा ऋषयो न चैते

त्वमेव भासीश भिदाश्रयेऽपि ।

सर्वं पृथक्त्वं निगमात्कथं वदे-

त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत् ॥ ३९॥

तावदेत्यात्मभूरात्ममानेन त्रुट्यनेहसा ।

पुरोवदब्दं क्रीडन्तं ददृशे सकलं हरिम् ॥ ४०॥

यावन्तो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि ।

मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः ॥ ४१॥

इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्मायामोहितेतरे ।

तावन्त एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम् ॥ ४२॥

एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभूः ।

सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथञ्चन ॥ ४३॥

एवं सम्मोहयन् विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम् ।

स्वयैव माययाजोऽपि स्वयमेव विमोहितः ॥ ४४॥

बूढ़े गोपों को अपने बालकों के आलिंगन से परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्ट से उन्हें छोड़कर धीरे-धीरे वहाँ से गये। जाने के बाद भी बालकों के और उनके आलिंगन के स्मरण से उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू बहते रहे।

बलराम जी ने देखा कि ब्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनों की उन सन्तानों पर भी, जिन्होंने अपनी माँ का दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण प्रेम-सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कंठा बढती जा रही है, तब वे विचार में पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था। यह कैसी विचित्र बात है! सर्वात्मा श्रीकृष्ण में ब्रजवासियों का और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ों पर ही बढ़ता जा रहा है। यह कौन-सी माया है? कहाँ से आयी है? यह किसी देवता की है, मनुष्य की है अथवा असुरों की?

परन्तु क्या ऐसा भी सम्भव है? नहीं-नहीं, यह तो मेरे प्रभु की माया है। और किसी की माया में ऐसी सामर्थ्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले।' बलराम जी ने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टि से देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में केवल श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं।

तब उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा ;- ‘भगवन! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन भिन्न-भिन्न रूपों का आश्रय लेने पर भी आप अकेले ही इन रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़े में ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े, बालक, सिंगी, रस्सी आदि के रूप में अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं?’ तब भगवान ने ब्रह्मा की सारी करतूत सुनायी और बलराम जी ने सब बातें जान लीं।

परीक्षित! तब तक ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक से ब्रज में लौट आये। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक साल से पहले की भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं। वे सोचने लगे - गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शैय्या पर सो रहे हैं - उनको तो मैंने अपनी माया से अचेत कर दिया था; वे तब से अब तक सचेत नहीं हुए। तब मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँ से आ गये, जो एक साल से भगवान के साथ खेल रहे हैं?

ब्रह्मा जी ने दोनों स्थानों पर दोनों को देखा और बहुत देर तक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टि से उनका सहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनों में कौन-से पहले के ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इसमें से कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी - यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके। भगवान श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्मा जी उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोहित हो गये।

तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि ।

महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युञ्जतः ॥ ४५॥

तावत्सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात् ।

व्यदृश्यन्त घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः ॥ ४६॥

चतुर्भुजाः शङ्खचक्रगदाराजीवपाणयः ।

किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः ॥ ४७॥

श्रीवत्साङ्गददोरत्नकम्बुकङ्कणपाणयः ।

नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्राङ्गुलीयकैः ॥ ४८॥

आङ्घ्रिमस्तकमापूर्णास्तुलसीनवदामभिः ।

कोमलैः सर्वगात्रेषु भूरि पुण्यवदर्पितैः ॥ ४९॥

चन्द्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापाङ्गवीक्षितैः ।

स्वकार्थानामिव रजःसत्त्वाभ्यां स्रष्टृपालकाः ॥ ५०॥

आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैर्मूर्तिमद्भिश्चराचरैः ।

नृत्यगीताद्यनेकार्हैः पृथक्पृथगुपासिताः ॥ ५१॥

अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभिर्विभूतिभिः ।

चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिभिः ॥ ५२॥

कालस्वभावसंस्कारकामकर्मगुणादिभिः ।

स्वमहिध्वस्तमहिभिर्मूर्तिमद्भिरुपासिताः ॥ ५३॥

सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः ।

अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्दृशाम् ॥ ५४॥

एवं सकृद्ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान् ।

यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम् ॥ ५५॥

ततोऽतिकुतुकोद्वृत्तस्तिमितैकादशेन्द्रियः ।

तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका ॥ ५६॥

जिस प्रकार रात के घोर अन्धकार में कुहरे के अन्धकार का और दिन के प्रकाश में जुगनू के प्रकाश का पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषों पर अपनी माया का प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है। ब्रह्मा जी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्ण के रूप में दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधर के समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्म से युक्त - चतुर्भुज। सबके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कण्ठों में मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रहीं थीं।

उनके वक्षःस्थल पर सुवर्ण की सुनहली रेखा - श्रीवत्स, बाहुओं में बाजूबंद, कलाइयों में शंखाकार रत्नों से जड़े कंगन, चरणों में नुपुर और कड़े, कमर में करधनी तथा अँगुलियों में अंगूठियाँ जगमगा रहीं थीं। वे नख से शिख तक समस्त अंगों में कोमल और नूतन तुलसी की मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तों ने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे। उनकी मुस्कान चाँदनी के समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रों की कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस दोनों के द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों के हृदय में शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं।

ब्रह्मा जी ने यह भी देखा कि उन्हीं के जैसे दूसरे ब्रह्मा से लेकर तृण तक सभी चराचर जीव मूर्तिमान होकर नाचते-गाते अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से अलग-अलग भगवान के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं। उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओर से घेरे हुए है। प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाला काल, उसके परिणाम का कारण स्वभाव, वासनाओं को जगाने वाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल - सभी मूर्तिमान होकर भगवान के प्रत्येक रूप की उपासना कर रहें हैं। भगवान की सत्ता और महत्ता के सामने उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी।

ब्रह्मा जी ने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत और वर्तमान काल के द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयं प्रकाश और केवल अनन्त आनन्द स्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतना का भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँ तक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्मा जी ने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाश से यह सारा जगत प्रकाशित हो रहा है।

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्मा जी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो ब्रज के अधिष्ठातृ-देवता के पास एक पुतली खड़ी हो।

इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके

परत्राजातोऽतन्निरसनमुखब्रह्मकमितौ ।

अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति

चच्छादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम् ॥ ५७॥

ततोऽर्वाक्प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः ।

कृच्छ्रादुन्मील्य वै दृष्टीराचष्टेदं सहात्मना ॥ ५८॥

सपद्येवाभितः पश्यन् दिशोऽपश्यत्पुरः स्थितम् ।

वृन्दावनं जनाजीव्यद्रुमाकीर्णं समाप्रियम् ॥ ५९॥

यत्र नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः ।

मित्राणीवाजितावासद्रुतरुट्तर्षकादिकम् ॥ ६०॥

तत्रोद्वहत्पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं

ब्रह्माद्वयं परमनन्तमगाधबोधम् ।

वत्सान् सखीनिव पुरा परितो विचिन्व-

देकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट ॥ ६१॥

दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य

पृथ्व्यां वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य ।

स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुटकोटिभिरङ्घ्रियुग्मं

नत्वा मुदश्रुसुजलैरकृताभिषेकम् ॥ ६२॥

उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन् ।

आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः ॥ ६३॥

शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने

मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः ।

कृताञ्जलिः प्रश्रयवान् समाहितः

सवेपथुर्गद्गदयैलतेलया ॥ ६४॥

परीक्षित! भगवान का स्वरूप तर्क से परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयं प्रकाश, आनन्दस्वरूप और माया से अतीत है। वेदान्त भी साक्षात रूप से उनका वर्णन करने में असमर्थ हैं, इसलिए उससे भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रह्मा जी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि भगवान के दिव्यस्वरूप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँ तक कि वे भगवान के उन महिमामय रूपों को देखने में भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया। इससे ब्रह्मा जी को बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे।

सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्ट से अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत दिखायी पड़ा। फिर ब्रह्मा जी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिए एक-सा प्यारा है। जिधर देखिये, उधर ही जीवों को जीवन देने वाले फल और फूलों से लदे हुए, हरे-हरे पत्तों से लहलहाते हुए वृक्षों की पाँतें शोभा पा रही हैं। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण वृन्दावन धाम में क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभाव से ही परस्पर दुस्त्य्ज बैर रखने वाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रों के सामान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं।

ब्रह्मा जी ने वृन्दावन का दर्शन करने के बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंश के बालक का-सा नाट्य कर रहा है। एक होने पर भी उसके सखा हैं, अनन्त होने पर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होने पर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ों को ढूँढ रहा है। ब्रह्मा जी ने देखा कि जैसे भगवान श्रीकृष्ण पहले अपने हाथ में दही-भात का कौर लिये उन्हें ढूंढ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोज में लगे हैं। भगवान को देखते ही ब्रह्मा जी अपने वाहन हंस पर से कूद पड़े और सोने के समान चमकते हुए अपने शरीर से पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटों के अग्रभाग से भगवान के चरण-कमलों का स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्द के आँसुओं की धारा से उन्हें नहला दिया।

वे भगवान श्रीकृष्ण की पहले देखी हुई महिमा का बार-बार स्मरण करते, उनके चरणों पर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देर तक वे भगवान के चरणों में ही पड़े रहे। फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रों के आँसू पोंछे। प्रेम और मुक्ति के एकमात्र उद्गम भगवान को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अंजलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रता के साथ गद्गद वाणी से वे भगवान की स्तुति करने लगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 1 

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