श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय १ "भगवान के द्वारा पृथ्वी को
आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के
छः पुत्रों की हत्या"
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं प्रथम: अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध
अध्याय १
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः १० पूर्वार्ध अध्यायः १
श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध
पहला अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः
पूर्वार्धं
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥
॥ प्रथमोऽध्यायः - १ ॥
राजोवाच
कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः
।
राज्ञां चोभयवंश्यानां चरितं
परमाद्भुतम् ॥ १॥
यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम
।
तत्रांशेनावतीर्णस्य
विष्णोर्वीर्याणि शंस नः ॥ २॥
अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः
।
कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद
विस्तरात् ॥ ३॥
निवृत्ततर्षैरुपगीयमाना-
द्भवौषधाच्छ्रोत्रमनोभिरामात् ।
क उत्तमश्लोकगुणानुवादा-
त्पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥
४॥
पितामहा मे समरेऽमरञ्जयै-
र्देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्गिलैः ।
दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं
कृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः ॥
५॥
द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्गं
सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।
जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो
मातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥ ६॥
वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजा-
मन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः ।
प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च
मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७॥
रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः
सङ्कर्षणस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्धः कुतो
देहान्तरं विना ॥ ८॥
कस्मान्मुकुन्दो भगवान्
पितुर्गेहाद्व्रजं गतः ।
क्व वासं ज्ञातिभिः सार्धं कृतवान्
सात्वताम्पतिः ॥ ९॥
व्रजे वसन् किमकरोन्मधुपुर्यां च
केशवः ।
भ्रातरं चावधीत्कंसं
मातुरद्धातदर्हणम् ॥ १०॥
देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि
वृष्णिभिः ।
यदुपुर्यां सहावात्सीत्पत्न्यः
कत्यभवन् प्रभोः ॥ ११॥
एतदन्यच्च सर्वं मे मुने
कृष्णविचेष्टितम् ।
वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय
विस्तृतम् ॥ १२॥
नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि
बाधते ।
पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोजच्युतं
हरिकथामृतम् ॥ १३॥
राजा परीक्षित ने पूछा ;-
भगवन! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंश के विस्तार तथा दोनों वंशों के
राजाओं का अत्यंत अद्भुत चरित्र वर्णन किया है। भगवान के परम प्रेमी मुनिवर! आपने
स्वभाव से ही धर्मप्रेमी यदुवंश का भी विशद वर्णन किया। अब कृपा करके उसी वंश में
अपने अंश श्री बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए भगवान श्रीकृष्ण का परम पवित्र चरित्र
भी हमें सुनाइये। भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं।
उन्होंने यदुवंश में अवतार लेकर जो-जो लीलायें कीं, उनका
विस्तार से हम लोगों को श्रवण कराइये। जिनकी तृष्णा की प्यास सर्वदा के लिए बुझ
चुकी हैं, वे जीवन मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेम से
अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनों के लिए जो
भवरोग की रामबाण औषध है तथा विषयी लोगों के लिए भी उनके कान और मन को परम आह्लाद
देने वाला है, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से
पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्य के अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? (श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही
हैं।)
जब कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध
हो रहा था और देवताओं को भी जीत लेने वाले भीष्म पितामह आदि अतिरथियों से मेरे
दादा पाण्डवों का युद्ध हो रहा था, उस
समय कौरवों की सेना उनके लिए अपार समुद्र के सामान थी - जिसमें भीष्म आदि वीर
बड़े-बड़े मच्छों को भी निगल जाने वाले तिमिंगिल मच्छों की भाँति भय उत्पन्न कर
रहे थे। परन्तु मेरे स्वनामधन्य पितामह भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की नौका का
आश्रय लेकर उस समुद्र को अनायास ही पार कर गए - ठीक वैसे ही जैसे कोई मार्ग में
चलता हुआ स्वभाव से ही बछड़े के खुर का गड्ढा पार कर जाय। महाराज! मेरा यह शरीर -
जो आपके सामने है तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशों का एकमात्र सहारा था,
अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल चुका था। उस समय मेरी माता जब
भगवान की शरण में गयीं, तब उन्होंने हाथ में चक्र लेकर मेरी
माता के गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा की। वे समस्त शरीरधारियों के भीतर
आत्मारूप से रहकर अमृत्व का दान कर रहे हैं और बाहर काल रूप से रह कर मृत्यु का। मनुष्य
के रूप में प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हीं
के ऐश्वर्य और माधुर्य से परिपूर्ण लीलाओं का वर्णन कीजिये।
भगवन! आपने अभी बतलाया था कि बलराम
जी रोहिणी के पुत्र थे। इसके बाद देवकी के पुत्रों में भी आपने उनकी गणना की।
दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है?
असुरों को मुक्ति देने वाले और भक्तों को प्रेम वितरण करने वाले
भगवान श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य-स्नेह से भरे हुए पिता का घर छोड़कर ब्रज में क्यों
चले गये? यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल प्रभु ने नन्द आदि
गोप-बंधुओं के साथ कहाँ-कहाँ निवास किया? ब्रह्मा और शंकर का
भी शासन करने वाले प्रभु ने ब्रज में तथा मधुपुरी में रहकर कौन-कौन सी लीलाएँ कीं?
और महाराज! उन्होंने अपनी माँ के भाई मामा कंस को अपने हाथों क्यों
मार डाला? वह मामा होने के कारण उनके द्वारा मारे जाने योग्य
तो नहीं था।
मनुष्याकार सच्चिदानन्दमय विग्रह
प्रकट करके द्वारकापुरी में यदुवंशियों के साथ उन्होंने कितने वर्षों तक निवास
किया?
और उन सर्वशक्तिमान प्रभु की पत्नियाँ कितनी थीं? मुने! मैंने श्रीकृष्ण की जितनी लीलाएँ पूछी हैं और जो नहीं पूछीं हैं,
वे सब आप मुझे विस्तार से सुनाइये; क्योंकि आप
सब कुछ जानते हैं और मैं बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहता हूँ। भगवन! अन्न
की तो बात ही क्या, मैंने जल का भी परित्याग कर दिया है। फिर
भी वह असह्य भूख-प्यास मुझे तनिक भी नहीं सता रही है; क्योंकि
मैं आपके मुखकमल से झरती हुई भगवान की सुधामयी लीला-कथा का पान कर रहा हूँ।
सूत उवाच
एवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं
वैयासकिः स भगवानथ विष्णुरातम् ।
प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं
कलिकल्मषघ्नं
व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः ॥ १४॥
सूत जी कहते हैं ;-
शौनक जी! भगवान के प्रेमियों में अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्री शुकदेव
जी महाराज ने परीक्षित का ऐसा समीचीन प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और भगवान
श्रीकृष्ण की उन लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त
कलिमलों को सदा के लिए धो डालती है।
श्रीशुक उवाच
सम्यग्व्यवसिता बुद्धिस्तव
राजर्षिसत्तम ।
वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी
रतिः ॥ १५॥
वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्
पुनाति हि ।
वक्तारं पृच्छकं
श्रोतॄंस्तत्पादसलिलं यथा ॥ १६॥
भूमिर्दृप्तनृपव्याजदैत्यानीकशतायुतैः
।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं
ययौ ॥ १७॥
गौर्भूत्वाश्रुमुखी खिन्ना
क्रन्दन्ती करुणं विभोः ।
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं
स्वमवोचत ॥ १८॥
ब्रह्मा तदुपधार्याथ सह देवैस्तया
सह ।
जगाम सत्रिनयनस्तीरं क्षीरपयोनिधेः
॥ १९॥
तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं
वृषाकपिम् ।
पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे
समाहितः ॥ २०॥
गिरं समाधौ गगने समीरितां
निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां पौरुषीं मे शृणुतामराः पुन-
र्विधीयतामाशु तथैव मा चिरम् ॥ २१॥
पुरैव पुंसावधृतो धराज्वरो
भवद्भिरंशैर्यदुषूपजन्यताम् ।
स यावदुर्व्या भरमीश्वरेश्वरः
स्वकालशक्त्या क्षपयंश्चरेद्भुवि ॥
२२॥
वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान् पुरुषः
परः ।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु
सुरस्त्रियः ॥ २३॥
वासुदेवकलानन्तः सहस्रवदनः स्वराट्
।
अग्रतो भविता देवो हरेः
प्रियचिकीर्षया ॥ २४॥
विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं
जगत् ।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे
सम्भविष्यति ॥ २५॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
भगवान की लीला-रस के रसिक राजर्षे! तुमने जो कुछ निश्चय किया है,
वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके
हृदयाराध्य श्रीकृष्ण की लीला-कथा श्रवण करने में तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति
प्राप्त हो गयी है। भगवान श्रीकृष्ण की कथा के सम्बन्ध में प्रश्न करने से ही
वक्ता, प्रश्नकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं -
जैसे गंगा जी का जल या भगवान शालिग्राम का चरणामृत सभी को पवित्र कर देता है।
परीक्षित! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी
भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्मा जी की
शरण में गयी।
पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर
रखा था। उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुँह पर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही,
शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वर से रँभा रही थी।
ब्रह्मा जी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी। ब्रह्मा जी ने
बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान शंकर, स्वर्ग के अन्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने
साथ लेकर क्षीर सागर के तट पर गये। भगवान देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने
भक्तों की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं और उनके समस्त क्लेशों को नष्ट कर देते
हैं। वे ही जगत के एक मात्र स्वामी हैं। क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर ब्रह्मा आदि
देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा परम
पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी समाधिस्थ
हो गए। उन्होंने समाधि-अवस्था में आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत के निर्माणकर्ता
ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा - ‘देवताओं! मैंने भगवान की
वाणी सुनी है। तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके
पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिए। भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है।
वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते
हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी
अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो।
वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम
भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण
करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की
कला होने कारण अनंत हैं और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान के
प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण
करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे
जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य
सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी।
श्रीशुक उवाच
इत्यादिश्यामरगणान्
प्रजापतिपतिर्विभुः ।
आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम
परमं ययौ ॥ २६॥
शूरसेनो यदुपतिर्मथुरामावसन् पुरीम्
।
माथुराञ्छूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे
पुरा ॥ २७॥
राजधानी ततः साभूत्सर्वयादवभूभुजाम्
।
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो
हरिः ॥ २८॥
तस्यां तु कर्हिचिच्छौरिर्वसुदेवः
कृतोद्वहः ।
देवक्या सूर्यया सार्धं प्रयाणे
रथमारुहत् ॥ २९॥
उग्रसेनसुतः कंसः स्वसुः
प्रियचिकीर्षया ।
रश्मीन् हयानां जग्राह रौक्मै
रथशतैर्वृतः ॥ ३०॥
चतुःशतं पारिबर्हं गजानां
हेममालिनाम् ।
अश्वानामयुतं सार्धं रथानां च
त्रिषट्शतम् ॥ ३१॥
दासीनां सुकुमारीणां द्वे शते
समलङ्कृते ।
दुहित्रे देवकः प्रादाद्याने
दुहितृवत्सलः ॥ ३२॥
शङ्खतूर्यमृदङ्गाश्च
नेदुर्दुन्दुभयः समम् ।
प्रयाणप्रक्रमे तावद्वरवध्वोः
सुमङ्गलम् ॥ ३३॥
पथि प्रग्रहिणं
कंसमाभाष्याहाशरीरवाक् ।
अस्यास्त्वामष्टमो गर्भो हन्ता यां
वहसेऽबुध ॥ ३४॥
इत्युक्तः स खलः पापो भोजानां
कुलपांसनः ।
भगिनीं हन्तुमारब्धः खड्गपाणिः
कचेऽग्रहीत् ॥ ३५॥
तं जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं
निरपत्रपम् ।
वसुदेवो महाभाग उवाच परिसान्त्वयन्
॥ ३६॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस
प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझा कर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम
धाम को चले गए। प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे सूरसेन। वे मथुरापुरी में रहकर
माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे। उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी
नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा यहाँ विराजमान रहते हैं। एक
बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेव जी विवाह करके अपनी नव-विवाहिता पत्नी देवकी के
साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी
बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिए उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली। वह स्वयं ही
रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोने के बने हुए रथ
चल रहे थे।
देवकी के पिता थे देवक। अपनी पुत्री
पर उनका बड़ा प्रेम था। कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से
अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हज़ार घोड़े,
अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर दासियाँ दहेज में दीं। विदाई के समय
वर-वधू के मंगल के लिए एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर
कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके
कहा - ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है,
उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी।' कंस
बड़ा पापी था। उसकी दुष्टता की सीमा नही थी। वह भोजवंश का कलंक ही था। आकाशवाणी
सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिए तैयार
हो गया। वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते
निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शांत करते हुए
बोले -
वसुदेव उवाच
श्लाघनीयगुणः शूरैर्भवान्
भोजयशस्करः ।
स कथं भगिनीं
हन्यात्स्त्रियमुद्वाहपर्वणि ॥ ३७॥
मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह
जायते ।
अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै
प्राणिनां ध्रुवः ॥ ३८॥
देहे पञ्चत्वमापन्ने देही
कर्मानुगोऽवशः ।
देहान्तरमनुप्राप्य प्राक्तनं
त्यजते वपुः ॥ ३९॥
व्रजंस्तिष्ठन् पदैकेन यथैवैकेन
गच्छति ।
यथा तृणजलूकैवं देही कर्मगतिं गतः ॥
४०॥
स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशं
मनोरथेनाभिनिविष्टचेतनः ।
दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्
प्रपद्यते तत्किमपि ह्यपस्मृतिः ॥
४१॥
यतो यतो धावति दैवचोदितं
मनो विकारात्मकमाप पञ्चसु ।
गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौ
प्रपद्यमानः सह तेन जायते ॥ ४२॥
ज्योतिर्यथैवोदकपार्थिवेष्वदः
समीरवेगानुगतं विभाव्यते ।
एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान्
गुणेषु रागानुगतो विमुह्यति ॥ ४३॥
तस्मान्न कस्यचिद्द्रोहमाचरेत्स
तथाविधः ।
आत्मनः क्षेममन्विच्छन्
द्रोग्धुर्वै परतो भयम् ॥ ४४॥
एषा तवानुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा
।
हन्तुं नार्हसि कल्याणीमिमां त्वं
दीनवत्सलः ॥ ४५॥
वसुदेव जी ने कहा ;-
'राजकुमार! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति
बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं। इधर यह तो एक
स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर! ऐसी
स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? वीरवर! जो जन्म लेते
हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो
या सौ वर्ष के बाद- जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही। जब
शरीर का अंत हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे
शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता
है।'
जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर
ही दूसरा पैर उठाता है जैसे जोंक किसी अगले तिनके को पकड़ लेती है,
तब पहले के पकड़े हुए तिनके को छोड़ती है - वैसे जीव भी अपने कर्म
के अनुसार किसी शरीर को प्राप्त करने के बाद ही इस शरीर को छोड़ता है। जैसे कोई
पुरुष जाग्रत-अवस्था में राजा के ऐश्वर्य को देखकर और इन्द्रादि के ऐश्वर्य को
सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातों में
घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्न में अपने को राजा या इन्द्र के रूप में अनुभव
करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्था के शरीर को भूल जाता
है। कभी-कभी जाग्रत अवस्था में ही मन-ही-मन उन बातों का चिन्तन करते-करते तन्मय हो
जाता है और उसे स्थूल शरीर की सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और
कामनाकृत कर्म के वश होकर दूसरे शरीर को प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीर को
भूल जाता है।
जीव का मन अनेक विकारों का पुंज है।
देहान्त के समय वह अनेक जन्मों के संचित और प्रारब्ध कर्मों की वासनाओं के अधीन
होकर माया के द्वारा रचे हुए अनेक पांचभौतिक शरीरों में से जिस किसी शरीर के चिन्तन
में तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि 'यह
मैं हूँ', उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है। जैसे
सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जल से भरे हुए घड़ों में
या तेल आदि तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होती हैं और हवा के झोंके से उनके जल
आदि में हिलने-डोलने पर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चंचल जान पड़ती हैं - वैसे
ही जीव अपने स्वरूप के अज्ञान द्वारा रचे हुए शरीर में राग करके उन्हें अपना आप
मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जाने को अपना आना-जाना मानने लगता है। इसलिए जो
अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से द्रोह नहीं नहीं करना
चाहिए; क्योंकि जीव कर्म के अधीन हो गया है और जो किसी से भी
द्रोह करेगा, उसको इस जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद
परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा ।
कंस! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची
और बहुत दीन है। यह तो आपकी कन्या के सामान है। इस पर,
अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाह के
मंगलचिह्न भी इसके शरीर से नहीं उतरे हैं। ऐसी दशा में आप-जैसे दीनवत्सल पुरुष को
इस बेचारी का वध करना उचित नहीं है।
श्रीशुक उवाच
एवं स सामभिर्भेदैर्बोध्यमानोऽपि
दारुणः ।
न न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादाननुव्रतः
॥ ४६॥
निर्बन्धं तस्य तं ज्ञात्वा
विचिन्त्यानकदुन्दुभिः ।
प्राप्तं कालं प्रतिव्योढुमिदं
तत्रान्वपद्यत ॥ ४७॥
मृत्युर्बुद्धिमतापोह्यो
यावद्बुद्धिबलोदयम् ।
यद्यसौ न निवर्तेत नापराधोऽस्ति
देहिनः ॥ ४८॥
प्रदाय मृत्यवे पुत्रान् मोचये
कृपणामिमाम् ।
सुता मे यदि जायेरन् मृत्युर्वा न
म्रियेत चेत् ॥ ४९॥
विपर्ययो वा किं न
स्याद्गतिर्धातुर्दुरत्यया ।
उपस्थितो निवर्तेत निवृत्तः
पुनरापतेत् ॥ ५०॥
अग्नेर्यथा दारुवियोगयोगयो-
रदृष्टतोऽन्यन्न निमित्तमस्ति ।
एवं हि जन्तोरपि दुर्विभाव्यः
शरीरसंयोगवियोगहेतुः ॥ ५१॥
एवं विमृश्य तं पापं यावदात्मनिदर्शनम्
।
पूजयामास वै शौरिर्बहुमानपुरःसरम् ॥
५२॥
प्रसन्नवदनाम्भोजो नृशंसं
निरपत्रपम् ।
मनसा दूयमानेन विहसन्निदमब्रवीत् ॥
५३॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! इस प्रकार वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि
भेदनीति से कंस को बहुत समझाया। परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था;
इसलिए उसने अपने घोर संकल्प को नहीं छोड़ा। वसुदेव जी ने कंस का
विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिए। तब वे
इस निश्चय पर पहुँचे। ‘बुद्धिमान पुरुष को, जहाँ तक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्यु को टालने
का प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न करने पर भी वह न टल सके, तो
फिर प्रयत्न करने वाले का कोई दोष नहीं रहता। इसलिए इस मृत्युरूप कंस को अपने
पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूँ। यदि मेरे लड़के
होंगे तब तक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा?
सम्भव है,
उल्टा ही हो। मेरा लड़का ही इसे मार डाले! क्योंकि विधाता के विधान
का पार पाना बहुत कठिन है। मृत्यु सामने आकर भी टल जाती है और टली हुई भी लौट आती
है। जिस समय वन में आग लगती है, उस समय कौन-सी लकड़ी जले और
कौन-सी न जले, दूर की जल जाय और पास की बची रहे - इन सब
बातों में अदृष्ट के सिवा और कोई कारण नहीं होता। वैसे ही किस प्राणी का कौन-सा
शरीर बना रहेगा और किस हेतु से कौन-सा शरीर नष्ट हो जायेगा - इस बात का पता लगा
लेना बहुत ही कठिन है। अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसा निश्चय करके वसुदेव जी ने बहुत
सम्मान के साथ पापी कंस की बड़ी प्रशंसा की। परीक्षित! कंस बड़ा क्रूर और निर्ल्लज
था; अतः ऐसा करते समय वसुदेव जी के मन में बड़ी पीड़ा भी हो
रही थी। फिर भी उन्होंने ऊपर से अपने मुखकमल को प्रफुल्लित करके हँसते हुए कहा।
वसुदेव उवाच
न ह्यस्यास्ते भयं सौम्य
यद्वागाहाशरीरिणी ।
पुत्रान् समर्पयिष्येऽस्या यतस्ते
भयमुत्थितम् ॥ ५४॥
वसुदेवजी ने कहा ;-
'सौम्य! आपको देवकी से तो कोई भय है नहीं, जैसा
कि आकाशवाणी ने कहा है। भय है पुत्रों से, सो इसके पुत्र मैं
आपको लाकर सौंप दूँगा।'
श्रीशुक उवाच
स्वसुर्वधान्निववृते कंसस्तद्वाक्यसारवित्
।
वसुदेवोऽपि तं प्रीतः प्रशस्य
प्राविशद्गृहम् ॥ ५५॥
अथ काल उपावृत्ते देवकी सर्वदेवता ।
पुत्रान् प्रसुषुवे चाष्टौ कन्यां
चैवानुवत्सरम् ॥ ५६॥
कीर्तिमन्तं प्रथमजं
कंसायानकदुन्दुभिः ।
अर्पयामास कृच्छ्रेण
सोऽनृतादतिविह्वलः ॥ ५७॥
किं दुःसहं नु साधूनां विदुषां
किमपेक्षितम् ।
किमकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं
धृतात्मनाम् ॥ ५८॥
दृष्ट्वा समत्वं तच्छौरेः सत्ये चैव
व्यवस्थितिम् ।
कंसस्तुष्टमना राजन्
प्रहसन्निदमब्रवीत् ॥ ५९॥
प्रतियातु कुमारोऽयं न ह्यस्मादस्ति
मे भयम् ।
अष्टमाद्युवयोर्गर्भान्मृत्युर्मे
विहितः किल ॥ ६०॥
तथेति सुतमादाय ययावानकदुन्दुभिः ।
नाभ्यनन्दत
तद्वाक्यमसतोऽविजितात्मनः ॥ ६१॥
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! कंस जानता था कि वसुदेव जी के वचन झूठे नहीं होते और
इन्होंने जो कुछ कहा है, वह युक्तिसंगत भी है। इसलिए उसने
अपनी बहिन देवकी को मारने का विचार छोड़ दिया। इससे वसुदेव जी बहुत प्रसन्न हुए और
उसकी प्रशंसा करके अपने घर चले आये। देवकी बड़ी सती-साध्वी थी। सारे देवता उसके
शरीर में निवास करते थे। समय आने पर देवकी के गर्भ से प्रतिवर्ष एक-एक करके आठ
पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई। पहले पुत्र का नाम था कीर्तिमान। वसुदेव जी ने
उसे लाकर कंस को दे दिया। ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बात का था कि कहीं उनके वचन झूठे न हो
जायँ।
परीक्षित! सत्यसन्ध पुरुष
बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियों
को किसी बात की अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे-से-बुरे
काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिये हैं - जिन्होंने भगवान को हृदय में धारण कर
रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं। जब कंस ने देखा कि वसुदेव
जी का अपने पुत्रों के जीवन और मृत्यु में समान भाव है एवं वे सत्य में पूर्ण
निष्ठावान भी हैं, तब वह प्रसन्न हुआ और उनसे हँसकर बोला ;-
वसुदेवजी! आप इस नन्हे-से सुकुमार बालक को ले जाइये। इससे मुझे कोई
भय नहीं है, क्योंकि आकाशवाणी ने तो ऐसा कहा था कि देवकी के
आठवें गर्भ से उत्पन्न सन्तान के द्वारा मेरी मृत्यु होगी।
वसुदेवजी ने कहा ;-
‘ठीक है’ और उस बालक को लेकर वापस लौट आये।
परन्तु उन्हें मालूम था कि कंस बड़ा दुष्ट है और उसका मन उसके हाथ में नहीं है। वह
किसी भी क्षण बदल सकता है। इसलिए उन्होंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया ।
नन्दाद्या ये व्रजे गोपा
याश्चामीषां च योषितः ।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या
यदुस्त्रियः ॥ ६२॥
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत
।
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च
कंसमनुव्रताः ॥ ६३॥
एतत्कंसाय भगवाञ्छशंसाभ्येत्य नारदः
।
भूमेर्भारायमाणानां दैत्यानां च
वधोद्यमम् ॥ ६४॥
ऋषेर्विनिर्गमे कंसो यदून् मत्वा
सुरानिति ।
देवक्या गर्भसम्भूतं विष्णुं च
स्ववधं प्रति ॥ ६५॥
देवकीं वसुदेवं च निगृह्य
निगडैर्गृहे ।
जातं जातमहन् पुत्रं तयोरजनशङ्कया ॥
६६॥
मातरं पितरं भ्रातॄन् सर्वांश्च
सुहृदस्तथा ।
घ्नन्ति ह्यसुतृपो लुब्धा राजानः
प्रायशो भुवि ॥ ६७॥
आत्मानमिह सञ्जातं जानन् प्राग्विष्णुना
हतम् ।
महासुरं कालनेमिं यदुभिः स
व्यरुध्यत ॥ ६८॥
उग्रसेनं च पितरं यदुभोजान्धकाधिपम्
।
स्वयं निगृह्य बुभुजे
शूरसेनान्महाबलः ॥ ६९॥
परीक्षित! इधर भगवान नारद कंस के
पास आये और उससे बोले कि ‘कंस! ब्रज में रहने
वाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियाँ, वसुदेव
आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंश की स्त्रियाँ और नन्द,
वसुदेव दोनों के सजातीय बन्धु-बान्धव और सगे-सम्बन्धी सब-के-सब
देवता हैं; जो इस समय तुम्हारी सेवा कर रहे हैं, वे भी देवता ही हैं। उन्होंने यह भी बतलाया कि दैत्यों के कारण पृथ्वी का
भार बढ़ गया है, इसलिए देवताओं की ओर से अब उनके वध की
तैयारी की जा रही है।
जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गये,
तब कंस को यह निश्चय हो गया कि यदुवंशी देवता हैं और देवकी के गर्भ
से विष्णु भगवान ही मुझे मारने के लिए पैदा होने वाले हैं। इसलिए उसने देवकी और
वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से जकड़ कर क़ैद में डाल दिया और उन दोनों से जो-जो पुत्र
होते गए, उन्हें मारता गया। उसे हर बार यह शंका बनी रहती कि
कहीं विष्णु ही उस बालक के रूप में न आ गया हो।
परीक्षित! पृथ्वी में यह बात प्रायः
देखी जाती है कि अपने प्राणों का ही पोषण करने वाले लोभी राजा अपने स्वार्थ के लिए
माता-पिता भाई-बन्धु और अपने अत्यन्त हितैषी इष्ट-मित्रों की भी हत्या कर डालते
हैं। कंस जानता था कि मैं पहले कालनेमि असुर था और विष्णु ने मुझे मार डाला था।
इससे उसने यदुवंशियों से घोर विरोध ठान लिया। कंस बड़ा बलवान था। उसने यदु,
भोज और अन्धक वंश के अधिनायक अपने पिता उग्रसेन को क़ैद कर लिया और
शूरसेन- का राज्य वह स्वयं करने लगा।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीकृष्णजन्मोपक्रमे प्रथमोऽध्यायः
॥ १॥
जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 2
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