श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २४                                                     

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २४ "विदर्भ के वंश का वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २४

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २४                                                                         

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः २४   

श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध चौबीसवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् नवमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ चतुर्विंशोऽध्यायः - २४ ॥

श्रीशुक उवाच

तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ ।

तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् ॥ १॥

रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत ।

उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृप ॥ २॥

क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्धृष्टिस्तस्याथ निर्वृतिः ।

ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः ॥ ३॥

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः ।

ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ॥ ४॥

करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः ।

देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः ॥ ५॥

पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः ।

भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः ॥ ६॥

सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष ।

भजमानस्य निम्लोचिः किङ्किणो धृष्टिरेव च ॥ ७॥

एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः ।

शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो ॥ ८॥

बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू ।

यथैव शृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ॥ ९॥

बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः ।

पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट् सहस्राणि चाष्ट च ॥ १०॥

येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि ।

महाभोजोऽपि धर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये ॥ ११॥

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप ।

शिनिस्तस्यानमित्रश्च निम्नोऽभूदनमित्रतः ॥ १२॥

सत्राजितः प्रसेनश्च निम्नस्याप्यासतुः सुतौ ।

अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्याथ सत्यकः ॥ १३॥

युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः ।

युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः ॥ १४॥

श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः ।

अक्रूरप्रमुखा आसन् पुत्रा द्वादश विश्रुताः ॥ १५॥

आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः ।

धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः ॥ १६॥

शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश ।

तेषां स्वसा सुचीराख्या द्वावक्रूरसुतावपि ॥ १७॥

देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः ।

पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः ॥ १८॥

कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः ।

कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः ॥ १९॥

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः ।

अन्धको दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ॥ २०॥

तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ ।

देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ॥ २१॥

देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः ।

तेषां स्वसारः सप्तासन् धृतदेवादयो नृप ॥ २२॥

शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता ।

सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ॥ २३॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि। राजन! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए। क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ। दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए। अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।

परीक्षित! सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित। देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं। बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।

परीक्षित! वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था। वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।

कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा ।

राष्ट्रपालोऽथ सृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ॥ २४॥

कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्ट्रपालिका ।

उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ॥ २५॥

शूरो विदूरथादासीद्भजमानः सुतस्ततः ।

शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदीकस्तत्सुतो मतः ॥ २६॥

देवबाहुः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः ।

देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ॥ २७॥

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान् ।

वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ॥ २८॥

सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम् ।

देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ॥ २९॥

वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम् ।

पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ॥ ३०॥

राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः ।

कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ॥ ३१॥

साऽऽप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात् ।

तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिम् ॥ ३२॥

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा ।

प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे ॥ ३३॥

अमोघं दर्शनं देवि आदित्से त्वयि चात्मजम् ।

योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ॥ ३४॥

इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः ।

सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः ॥ ३५॥

तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती ।

प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः ॥ ३६॥

श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत् ।

यस्यामभूद्दन्तवक्त्रः ऋषिशप्तो दितेः सुतः ॥ ३७॥

कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत ।

सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्चासन् कैकयाः सुताः ॥ ३८॥

राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह ।

दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत् ॥ ३९॥

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः ।

देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ॥ ४०॥

कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा ।

कङ्कायामानकाज्जातः सत्यजित्पुरुजित्तथा ॥ ४१॥

उग्रसेन के नौ लड़के थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।

चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए। हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे आनन्ददुन्दुभिभी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।

वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी। पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुलाने की विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान् सूर्य का आवाहन किया। उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया। उसने कहा- भगवन! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं

सूर्यदेव ने कहा ;- ‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिय हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा।' यह कहकर भगवान सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था। पृथा लोकनिन्दा से डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया। परीक्षित! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे।

परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ। वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए। आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।

सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान् ।

हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः ॥ ४२॥

मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन् वत्सकस्तथा ।

तक्षपुष्करशालादीन् दुर्वार्क्ष्यां वृक आदधे ॥ ४३॥

सुमित्रार्जुनपालादीन् शमीकात्तु सुदामिनी ।

कङ्कश्च कर्णिकायां वै ऋतधामजयावपि ॥ ४४॥

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला ।

देवकीप्रमुखा आसन् पत्न्य आनकदुन्दुभेः ॥ ४५॥

बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम् ।

वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत् ॥ ४६॥

सुभद्रो भद्रवाहश्च दुर्मदो भद्र एव च ।

पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन् ॥ ४७॥

नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजाः ।

कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम् ॥ ४८॥

रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः ।

इलायामुरुवल्कादीन् यदुमुख्यानजीजनत् ॥ ४९॥

विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः ।

शान्तिदेवात्मजा राजन् श्रमप्रतिश्रुतादयः ॥ ५०॥

राजानः कल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश ।

वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट् सुताः ॥ ५१॥

देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः ।

वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया ॥ ५२॥

पुरुविश्रुतमुख्यांस्तु साक्षाद्धर्मो वसूनिव ।

वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत् ॥ ५३॥

कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्रसेनमुदारधीः ।

ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं सङ्कर्षणमहीश्वरम् ॥ ५४॥

अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल ।

सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही ॥ ५५॥

यदा यदेह धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः ।

तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः ॥ ५६॥

न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते ।

आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः ॥ ५७॥

यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि ।

अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते ॥ ५८॥

अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः ।

भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः ॥ ५९॥

कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरेश्वरैः ।

सहसङ्कर्षणश्चक्रे भगवान् मधुसूदनः ॥ ६०॥

कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम् ।

अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यशः ॥ ६१॥

सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं। रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।

परीक्षित! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी। उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।

जब-जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं। परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है। उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है। जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।

यस्मिन् सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत् ।

श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम् ॥ ६२॥

भोजवृष्ण्यन्धकमधुशूरसेनदशार्हकैः ।

श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ॥ ६३॥

स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया ।

नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ॥ ६४॥

यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण-

भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम् ।

नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो

नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ॥ ६५॥

जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो

हत्वा रिपून् सुतशतानि कृतोरुदारः ।

उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे

आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन् जनेषु ॥ ६६॥

पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन् कुरूणा-

मन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः ।

दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य

प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ॥ ६७॥

उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।

परीक्षित! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी।

लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया। फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमानुवंशकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४॥

।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध:" के  24 अध्याय समाप्त हुये ।।

॥ इति नवमस्कन्धः समाप्तः ॥

॥ ॐ तत्सत् ॥

                      【नवम स्कन्ध: समाप्त

                         【 हरिः ॐ तत्सत्

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध:       

श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध के पूर्व अंक पढ़ें-

अध्याय 1                           अध्याय 2                 अध्याय 3                          अध्याय 4

अध्याय 5                            अध्याय 6                 अध्याय 7                          अध्याय 8

अध्याय 9                            अध्याय 10               अध्याय 11                        अध्याय 12

अध्याय 13                          अध्याय 14               अध्याय 15                        अध्याय 16

अध्याय 17                         अध्याय 18                  अध्याय 19                     अध्याय 20

अध्याय 21                         अध्याय 22                  अध्याय 23

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