श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २३
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
२३ "अनु, द्रह्यु, तुर्वसु और यदु
के वंश का वर्णन"
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय:
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय
२३
श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ९ अध्यायः २३
श्रीमद्भागवत महापुराण नौवाँ स्कन्ध तेइसवाँ अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ९ अध्याय २३ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीमद्भागवतम् –
नवमस्कन्धः
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः - २३ ॥
श्रीशुक उवाच
अनोः सभानरश्चक्षुः परोक्षश्च त्रयः
सुताः ।
सभानरात्कालनरः सृञ्जयस्तत्सुतस्ततः
॥ १॥
जनमेजयस्तस्य पुत्रो महाशीलो
महामनाः ।
उशीनरस्तितिक्षुश्च महामनस आत्मजौ ॥
२॥
शिबिर्वनः
शमिर्दक्षश्चत्वारोशीनरात्मजाः ।
वृषादर्भः सुवीरश्च मद्रः कैकेय
आत्मजाः ॥ ३॥
शिबेश्चत्वार एवासंस्तितिक्षोश्च
रुषद्रथः ।
ततो हेमोऽथ सुतपा बलिः सुतपसोऽभवत्
॥ ४॥
अङ्गवङ्गकलिङ्गाद्याः
सुह्मपुण्ड्रान्ध्रसंज्ञिताः ।
जज्ञिरे दीर्घतमसो बलेः क्षेत्रे
महीक्षितः ॥ ५॥
चक्रुः स्वनाम्ना विषयान् षडिमान्
प्राच्यकांश्च ते ।
खनपानोऽङ्गतो जज्ञे
तस्माद्दिविरथस्ततः ॥ ६॥
सुतो धर्मरथो यस्य जज्ञे
चित्ररथोऽप्रजाः ।
रोमपाद इति ख्यातस्तस्मै दशरथः सखा
॥ ७॥
शान्तां स्वकन्यां प्रायच्छदृष्यशृङ्ग
उवाह ताम् ।
देवेऽवर्षति यं रामा
आनिन्युर्हरिणीसुतम् ॥ ८॥
नाट्यसङ्गीतवादित्रैर्विभ्रमालिङ्गनार्हणैः
।
स तु राज्ञोऽनपत्यस्य निरूप्येष्टिं
मरुत्वतः ॥ ९॥
प्रजामदाद्दशरथो येन लेभेऽप्रजाः प्रजाः
।
चतुरङ्गो रोमपादात्पृथुलाक्षस्तु
तत्सुतः ॥ १०॥
बृहद्रथो बृहत्कर्मा बृहद्भानुश्च
तत्सुताः ।
आद्याद्बृहन्मनास्तस्माज्जयद्रथ
उदाहृतः ॥ ११॥
विजयस्तस्य सम्भूत्यां ततो
धृतिरजायत ।
ततो धृतव्रतस्तस्य
सत्कर्माधिरथस्ततः ॥ १२॥
योऽसौ गङ्गातटे क्रीडन् मञ्जूषान्तर्गतं
शिशुम् ।
कुन्त्यापविद्धं
कानीनमनपत्योऽकरोत्सुतम् ॥ १३॥
वृषसेनः सुतस्तस्य कर्णस्य जगतीपतेः
।
द्रुह्योश्च तनयो बभ्रुः
सेतुस्तस्यात्मजस्ततः ॥ १४॥
आरब्धस्तस्य गान्धारस्तस्य
धर्मस्ततो धृतः ।
धृतस्य दुर्मदस्तस्मात्प्रचेताः
प्राचेतसं शतम् ॥ १५॥
म्लेच्छाधिपतयोऽभूवन्नुदीचीं
दिशमाश्रिताः ।
तुर्वसोश्च सुतो
वह्निर्वह्नेर्भर्गोऽथ भानुमान् ॥ १६॥
त्रिभानुस्तत्सुतोऽस्यापि करन्धम
उदारधीः ।
मरुतस्तत्सुतोऽपुत्रः पुत्रं
पौरवमन्वभूत् ॥ १७॥
दुष्यन्तः स पुनर्भेजे स्वं वंशं
राज्यकामुकः ।
ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं
नरर्षभ ॥ १८॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं
नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः
प्रमुच्यते ॥ १९॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा
नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो
रिपुरिति श्रुताः ॥ २०॥
चत्वारः सूनवस्तत्र
शतजित्प्रथमात्मजः ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः
॥ २१॥
धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः
पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत्कुन्तेर्महिष्मान्
भद्रसेनकः ॥ २२॥
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;-
परीक्षित! ययातिनन्दन अनु के तीन पुत्र हुए- सभानर, चक्षु और परोक्ष। सभानर के कालनर, कालनर का सृंजय,
सृंजय का जनमेजय, जनमेजय का महाशील, महाशील का पुत्र हुआ महामना। महामना के दो पुत्र हुए- उशीनर एवं तितिक्षु।
उशीनर के चार पुत्र थे- शिबि, वन, शमी
और दक्ष। शिबि के चार पुत्र हुए- बृषादर्भ, सुवीर, मद्र और कैकय। उशीनर के भाई तितिक्षु के रुशद्रथ, रुशद्रथ
के हेम, हेम के सुतपा और सुतपा के बलि नामक पुत्र हुआ।
राजा बलि की पत्नी के गर्भ से
दीर्घतमा मुनि ने छः पुत्र उत्पन्न किये- अंग, वंग,
कलिंग, सुह्म, पुण्ड्र
और अन्ध्र। इन लोगों ने अपने-अपने नाम से पूर्व दिशा में छः देश बसाये। अंग का
पुत्र हुआ खनपान, खनपान का दिविरथ, दिविरथ
का धर्मरथ और धर्मरथ का चित्ररथ। यह चित्ररथ ही रोमपाद के नाम से प्रसिद्ध था।
इसके मित्र थे अयोध्यापति महाराज दशरथ। रोमपाद को कोई सन्तान न थी। इसलिये दशरथ ने
उन्हें अपनी शान्ता नाम की कन्या गोद दे दी। शान्ता का विवाह ऋष्यश्रृंग मुनि से
हुआ। ऋष्यश्रृंग विभाण्डक ऋषि के द्वारा हरिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
एक बार राजा रोमपाद के राज्य में
बहुत दिनों तक वर्षा नहीं हुई। तब गणिकाएँ अपने नृत्य,
संगीत, वाद्य, हाव-भाव
आलिंगन और विविध उपहारों से मोहित करके ऋष्यश्रृंग को वहाँ ले आयीं। उनके आते ही
वर्षा हो गयी। उन्होंने ही इन्द्र देवता का यज्ञ कराया, तब
सन्तानहीन राजा रोमपाद को भी पुत्र हुआ और पुत्रहीन दशरथ ने भी उन्हीं के प्रयत्न
से चार पुत्र प्राप्त किये। रोमपाद का पुत्र हुआ चतुरंग और चतुरंग का पृथुलाक्ष।
पृथुलाक्ष के बृहद्रथ, बृहत्कर्मा और बृहद्भानु-तीन पुत्र
हुए। बृहद्रथ का पुत्र हुआ बृहन्मना और बृहन्मना का जयद्रथ।
जयद्रथ की पत्नी का नाम था सम्भूति।
उसके गर्भ से विजय का जन्म हुआ। विजय का धृति, धृति
का धृतव्रत, धृतव्रत का सत्कर्मा, सत्कर्मा
का पुत्र था अधिरथ। अधिरथ को कोई सन्तान न थी। किसी दिन वह गंगा तट पर क्रीड़ा कर
रहा था कि देखा एक पिटारी में नन्हा-सा शिशु बहा चला जा रहा है। वह बालक कर्ण था,
जिसे कुन्ती ने कन्यावस्था में उत्पन्न होने के कारण उस प्रकार बहा
दिया था। अधिरथ ने उसी को अपना पुत्र बना लिया।
परीक्षित! राजा कर्ण के पुत्र का
नाम था वृषसेन। ययाति के पुत्र द्रह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु,
सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गान्धार, गान्धार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के सौ पुत्र हुए,
ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु
का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का
भानुमान्, भानुमान् का त्रिभानु, त्रिभानु
का उदारबुद्धि करन्धम और करन्धम का पुत्र हुआ मरुत। मरुत सन्तानहीन था। इसलिये
उसने पूरुवंशी दुष्यन्त को अपना पुत्र बनाकर रखा था। परन्तु दुष्यन्त राज्य की
कामना से अपने ही वंश में लौट गये। परीक्षित! अब मैं राजा ययाति के बड़े पुत्र यदु
के वंश का वर्णन करता हूँ।
परीक्षित! महाराज यदु का वंश परम
पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण
करेगा,
वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान्
परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के-से रूप में अवतार लिया था। यदु के चार पुत्र थे-
सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु।
सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र,
नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।
दुर्मदो भद्रसेनस्य धनकः
कृतवीर्यसूः ।
कृताग्निः कृतवर्मा च कृतौजा
धनकात्मजाः ॥ २३॥
अर्जुनः कृतवीर्यस्य
सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।
दत्तात्रेयाद्धरेरंशात्प्राप्तयोगमहागुणः
॥ २४॥
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं
यास्यन्ति पार्थिवाः ।
यज्ञदानतपोयोगश्रुतवीर्यदयादिभिः ॥
२५॥
पञ्चाशीति सहस्राणि ह्यव्याहतबलः
समाः ।
अनष्टवित्तस्मरणो
बुभुजेऽक्षय्यषड्वसु ॥ २६॥
तस्य पुत्रसहस्रेषु पञ्चैवोर्वरिता
मृधे ।
जयध्वजः शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जितः
॥ २७॥
जयध्वजात्तालजङ्घस्तस्य पुत्रशतं
त्वभूत् ।
क्षत्रं यत्तालजङ्घाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम्
॥ २८॥
तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णिः
पुत्रो मधोः स्मृतः ।
तस्य पुत्रशतं
त्वासीद्वृष्णिज्येष्ठं यतः कुलम् ॥ २९॥
माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति
संज्ञिताः ।
यदुपुत्रस्य च क्रोष्टोः पुत्रो
वृजिनवांस्ततः ॥ ३०॥
श्वाहिस्ततो रुशेकुर्वै तस्य
चित्ररथस्ततः ।
शशबिन्दुर्महायोगी महाभोजो महानभूत्
॥ ३१॥
चतुर्दशमहारत्नश्चक्रवर्त्यपराजितः
।
तस्य पत्नीसहस्राणां दशानां
सुमहायशाः ॥ ३२॥
दशलक्षसहस्राणि पुत्राणां
तास्वजीजनत् ।
तेषां तु षट् प्रधानानां पृथुश्रवस
आत्मजः ॥ ३३॥
धर्मो नामोशना तस्य हयमेधशतस्य याट्
।
तत्सुतो रुचकस्तस्य
पञ्चासन्नात्मजाः शृणु ॥ ३४॥
पुरुजिद्रुक्मरुक्मेषुपृथुज्यामघसंज्ञिताः
।
ज्यामघस्त्वप्रजोऽप्यन्यां भार्यां
शैब्यापतिर्भयात् ॥ ३५॥
नाविन्दच्छत्रुभवनाद्भोज्यां
कन्यामहारषीत् ।
रथस्थां तां निरीक्ष्याह शैब्या
पतिममर्षिता ॥ ३६॥
केयं कुहक मत्स्थानं रथमारोपितेति
वै ।
स्नुषा तवेत्यभिहिते स्मयन्ती
पतिमब्रवीत् ॥ ३७॥
अहं वन्ध्यासपत्नी च स्नुषा मे
युज्यते कथम् ।
जनयिष्यसि यं राज्ञि
तस्येयमुपयुज्यते ॥ ३८॥
अन्वमोदन्त तद्विश्वेदेवाः पितर एव
च ।
शैब्या गर्भमधात्काले कुमारं सुषुवे
शुभम् ।
स विदर्भ इति प्रोक्त उपयेमे
स्नुषां सतीम् ॥ ३९॥
भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और
धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि,
कृतवर्मा और कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप
का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या
और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसमें सन्देह नहीं कि
संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या,
योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों
में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा। सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष
तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर
का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा।
उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि
उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। उसके हजार पुत्रों में से
केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम जी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये। बचे
हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ।
तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’
नामक क्षत्रिय कहलाये। महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका
संहार कर डाला। उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु
हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि। परीक्षित! इन्हीं मधु,
वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय
और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान।
वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी,
महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का
स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी
शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस
प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र
प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ
अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।
पुरुजित्,
रुक्म, रुक्मेषु, पृथु
और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान
न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं
किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने
पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से
बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ
रहे हो?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो
तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा-
‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है।
फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर
क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर
बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या
से विवाह किया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे यदुवंशानुवर्णने त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥
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