श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १५                                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १५ "धेनुकासुर का उद्धार और ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १५

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं पंचदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १५                                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१० पूर्वार्ध अध्यायः१५ 

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १५ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ पञ्चदशोऽध्यायः - १५ ॥

श्रीशुक उवाच

ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे

बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ ।

गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैः

वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ॥ १॥

तन्माधवो वेणुमुदीरयन् वृतो

गोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः ।

पशून् पुरस्कृत्य पशव्यमाविश-

द्विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् ॥ २॥

तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं

महन्मनःप्रख्यपयःसरस्वता ।

वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना

निरीक्ष्य रन्तुं भगवान् मनो दधे ॥ ३॥

स तत्र तत्रारुणपल्लवश्रिया

फलप्रसूनोरुभरेण पादयोः ।

स्पृशच्छिखान् वीक्ष्य वनस्पतीन् मुदा

स्मयन्निवाहाग्रजमादिपूरुषः ॥ ४॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौंगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया था। अब उन्हें गौएँ चराने की स्वीकृति मिल गयी। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। यह वन गौओं एक लिये हरी-हरी घास से युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पों की खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल - इस प्रकार विहार करने के लिये उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। उस वन में कहीं तो भौरें बड़ी मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हिरन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे। बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था।

उनमें खिले हुए कमलों के सौरभ से सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वन की सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान ने मन-ही-मन उसमें विहार करने का संकल्प किया। पुरुषोत्तम भगवान ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलों के भार से झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलों की लालिमा से उनके चरणों का स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से कुछ मुस्काते हुए-से अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा।

श्रीभगवानुवाच

अहो अमी देव वरामरार्चितं

पादाम्बुजं ते सुमनःफलार्हणम् ।

नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मन-

स्तमोऽपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् ॥ ५॥

एतेऽलिनस्तव यशोऽखिललोकतीर्थं

गायन्त आदिपुरुषानुपदं भजन्ते ।

प्रायो अमी मुनिगणा भवदीयमुख्या

गूढं वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम् ॥ ६॥

नृत्यन्त्यमी शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः

कुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन ।

सूक्तैश्च कोकिलगणा गृहमागताय

धन्या वनौकस इयान् हि सतां निसर्गः ॥ ७।

धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्-

पादस्पृशो द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः ।

नद्योऽद्रयः खगमृगाः सदयावलोकै-

र्गोप्योऽन्तरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः ॥ ८॥

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- देव शिरोमणे! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलों की पूजा करते है; परन्तु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियों से सुन्दर पुष्प और फलों की सामग्री लेकर आपके चरण कमलों में झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं। क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्य के लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करने वालों के अज्ञान का नाश करने के लिये ही तो वृन्दावन धाम में वृक्ष-योनि ग्रहण की है। इनका जीवन धन्य है। आदिपुरुष! यद्यपि आप इस वृन्दावन में अपने ऐश्वर्यरूप को छिपाकर बालकों की-सी लीला कर रहें हैं, फिर भी आप आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेव को पहचानकर यहाँ भी प्रायः भौरों के रूप में आपके भुवन-पावन यश का निरन्तर गान करते हुए आपके भजन में लगे रहते हैं। वे एक क्षण के लिये भी आपको नहीं छोड़ना चाहते।

भाईजी! वास्तव में आप ही स्तुति करने योग्य हैं। देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके आपके दर्शनों से आनन्दित होकर नाच रहे हैं। हिरनियाँ मृगनयनी गोपियों के समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवन से आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनि से आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं! वे वनवासी होने पर भी धन्य हैं। क्योंकि सत्पुरुषों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथि को अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं। आज यहाँ की भूमि अपनी हरी-हरी घास के साथ आपके चरणों का स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही है। यहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ आपकी अँगुलियों का स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं। आपकी दया भरी चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षी - सब कृतार्थ हो रहे हैं और ब्रज की गोपियाँ आपके वक्षःस्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं।

श्रीशुक उवाच

एवं वृन्दावनं श्रीमत्कृष्णः प्रीतमनाः पशून् ।

रेमे सञ्चारयन्नद्रेः सरिद्रोधःसु सानुगः ॥ ९॥

क्वचिद्गायति गायत्सु मदान्धालिष्वनुव्रतैः ।

उपगीयमानचरितः स्रग्वी सङ्कर्षणान्वितः ॥ १०॥

(अनुजल्पति जल्पन्तं कलवाक्यैः शुकं क्वचित् ।

क्वचित्स वल्गु कूजन्तमनुकूजति कोकिलम् ॥)

क्वचिच्च कलहंसानामनुकूजति कूजितम् ।

अभिनृत्यति नृत्यन्तं बर्हिणं हासयन् क्वचित् ॥ ११॥

मेघगम्भीरया वाचा नामभिर्दूरगान् पशून् ।

क्वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया ॥ १२॥

चकोरक्रौञ्चचक्राह्वभारद्वाजांश्च बर्हिणः ।

अनुरौति स्म सत्त्वानां भीतवद्व्याघ्रसिंहयोः ॥ १३॥

क्वचित्क्रीडापरिश्रान्तं गोपोत्सङ्गोपबर्हणम् ।

स्वयं विश्रमयत्यार्यं पादसंवाहनादिभिः ॥ १४॥

नृत्यतो गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथः ।

गृहीतहस्तौ गोपालान् हसन्तौ प्रशशंसतुः ॥ १५॥

क्वचित्पल्लवतल्पेषु नियुद्धश्रमकर्शितः ।

वृक्षमूलाश्रयः शेते गोपोत्सङ्गोपबर्हणः ॥ १६॥

पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः ।

अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥ १७॥

अन्ये तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मनः ।

गायन्ति स्म महाराज स्नेहक्लिन्नधियः शनैः ॥ १८॥

एवं निगूढात्मगतिः स्वमायया

गोपात्मजत्वं चरितैर्विडम्बयन् ।

रेमे रमालालितपादपल्लवो

ग्राम्यैः समं ग्राम्यवदीशचेष्टितः ॥ १९॥

श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा ।

सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन् ॥ २०॥

राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण ।

इतोऽविदूरे सुमहद्वनं तालालिसङ्कुलम् ॥ २१॥

फलानि तत्र भूरीणि पतन्ति पतितानि च ।

सन्ति किन्त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना ॥ २२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावन को देखकर भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गोवर्धन की तराई में, यमुना तट पर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलायें करने लगे। एक ओर ग्वालबाल भगवान श्रीकृष्ण के चरित्रों की मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलराम जी के साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरों की सुरीली गुनगुनाहट में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं।

कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसों के साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूर को उपहासास्पद बना देते हैं। कभी मेघ के समान गम्भीर वाणी से दूर गये हुए पशुओं को उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेम से पुकारते हैं। उनके कण्ठ की मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालों का चित्त भी अपने वश में नहीं रहता।

कभी चकोर, क्रोंच (कराँकुल), चकवा, भरदूल और मोर आदि पक्षियों की-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदि की गर्जना से डरे हुए जीवों के समान स्वयं भी भयभीत की-सी लीला करते। जब बलराम जी खेलते-खेलते थककर किसी ग्वालबाल की गोद के तकिये पर सर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उसके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस प्रकार अपने बड़े भाई की थकावट दूर करते। जब ग्वालबाल नाचने-लगते अथवा ताल ठोंक-ठोंककर एक-दूसरे से कुश्ती लड़ने लगते, तब श्याम और राम दोनों दोनों भाई हाथ में हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर वाह-वाहकरते।

कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वालबालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्ष के नीचे कोमल पल्लवों की सेज पर किसी ग्वालबाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। परीक्षित! उस समय कोई-कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियों से पंखा झलने लगते। किसी-किसी के हृदय में प्रेम की धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदय शिरोमणि परम मनस्वी श्रीकृष्ण की लीलाओं के अनुरूप उनके मन को प्रिय लगने वाले मनोहर गीत गाने लगता।

भगवान ने इस प्रकार अपनी योगमाया से अपने ऐश्वर्यमय स्वरूप को छिपा रखा था। वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठाक गोपबालकों की-सी ही मालूम पड़तीं। स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरण कमलों की सेवा संलग्न रहती हैं, वे ही भगवान इन ग्रामीण बालकों के साथ बड़े प्रेम से ग्रामीण खेल खेला करते थे। परीक्षित! ऐसा होने पर भी कभी-कभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी प्रकट हो जाया करतीं।

बलराम जी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप-बालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोक कृष्ण आदि ग्वालबालों ने श्याम और राम से बड़े प्रेम के साथ कहा - हमलोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी! आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वाभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़ के वृक्ष भरे पड़े हैं। वहाँ बहुत-से ताड़ के फल पक-पकाकर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहले के गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नाम का एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है।

सोऽतिवीर्योऽसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक् ।

आत्मतुल्यबलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिरावृतः ॥ २३॥

तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन् ।

न सेव्यते पशुगणैः पक्षिसङ्घैर्विवर्जितम् ॥ २४॥

विद्यन्तेऽभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च ।

एष वै सुरभिर्गन्धो विषूचीनोऽवगृह्यते ॥ २५॥

प्रयच्छ तानि नः कृष्ण गन्धलोभितचेतसाम् ।

वाञ्छास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते ॥ २६॥

एवं सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया ।

प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्वृतौ तालवनं प्रभू ॥ २७॥

बलः प्रविश्य बाहुभ्यां तालान् सम्परिकम्पयन् ।

फलानि पातयामास मतङ्गज इवौजसा ॥ २८॥

फलानां पततां शब्दं निशम्यासुररासभः ।

अभ्यधावत्क्षितितलं सनगं परिकम्पयन् ॥ २९॥

समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली ।

निहत्योरसि का शब्दं मुञ्चन् पर्यसरत्खलः ॥ ३०॥

पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थितः ।

चरणावपरौ राजन् बलाय प्राक्षिपद्रुषा ॥ ३१॥

स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना ।

चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम् ॥ ३२॥

तेनाहतो महातालो वेपमानो बृहच्छिराः ।

पार्श्वस्थं कम्पयन् भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम् ॥ ३३॥

बलस्य लीलयोत्सृष्टखरदेहहताहताः ।

तालाश्चकम्पिरे सर्वे महावातेरिता इव ॥ ३४॥

नैतच्चित्रं भगवति ह्यनन्ते जगदीश्वरे ।

ओतप्रोतमिदं यस्मिंस्तन्तुष्वङ्ग यथा पटः ॥ ३५॥

ततः कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये ।

क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन् सर्वे संरब्धा हतबान्धवाः ॥ ३६॥

तांस्तानापततः कृष्णो रामश्च नृप लीलया ।

गृहीतपश्चाच्चरणान् प्राहिणोत्तृणराजसु ॥ ३७॥

बलराम जी और भैया श्रीकृष्ण! वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसी के समान बलवान दैत्य उसी रूप में रहते हैं। मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्य ने अब तक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं! यही कारण है कि उसके डर के मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगल में नहीं जाते। उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हीं की मन्द-मन्द सुगन्ध फ़ैल रही है। तनिक-सा ध्यान देने से उसका रस मिलने लगता है। श्रीकृष्ण! उनकी सुगन्ध से हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पाने के लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलों की बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये।

अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके साथ तालवन के लिये चल पड़े। उस वन में पहुँचकर बलराम जी ने अपनी बाँहों से उड़ ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और मतवाले हाथी के बच्चे के समान उन्हें बड़े जोर से हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा। वह बड़ा बलवान था। उसने बड़े वेग से बलराम जी के सामने आकर अपने पिछले पैरों से उनकी छाती में दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोर से रेंकता हुआ वहाँ से हट गया। राजन! वह गधा क्रोध में भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलराम जी के पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोध में अपने पिछले पैरों की दुलत्ती चलायी। बलराम जी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गये थे।

उसके गिरने की चोट से वह महान ताड़ का वृक्ष - जिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल था - स्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्ष को भी उसने तोड़ डाला। उसने तीसरे को, तीसरे ने चौथे को - इस प्रकार एक-दूसरे को गिराते हुए बहुत-से टाल वृक्ष गिर पड़े। बलराम जी के लिये तो यह एक खेल था। परन्तु उनके द्वारा फेंके हुए गधे के शरीर से चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये। ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावात ने झकझोर दिया हो। भगवान बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं। उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओत-प्रोत है, जैसे सूतों में वस्त्र। तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्य की बात है। उस समय धेनुकासुर के भाई-बन्धु अपने भाई के मारे जाने से क्रोध के मारे आगबबूला हो गये। सब-के-सब गधे बलराम जी और श्रीकृष्ण पर बड़े वेग से टूट पड़े। राजन! उनमें से जो-जो पास आया, उसी-उसी को बलराम जी और श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में ही पिछले पैर पकड़कर तालवृक्षों पर दे मारा।

फलप्रकरसङ्कीर्णं दैत्यदेहैर्गतासुभिः ।

रराज भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम् ॥ ३८॥

तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशाम्य विबुधादयः ।

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः ॥ ३९॥

अथ तालफलान्यादन् मनुष्या गतसाध्वसाः ।

तृणं च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने ॥ ४०॥

कृष्णः कमलपत्राक्षः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।

स्तूयमानोऽनुगैर्गोपैः साग्रजो व्रजमाव्रजत् ॥ ४१॥

तं गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबर्ह-

वन्यप्रसूनरुचिरेक्षणचारुहासम् ।

वेणुं क्वणन्तमनुगैरुपगीतकीर्तिं

गोप्यो दिदृक्षितदृशोऽभ्यगमन् समेताः ॥ ४२॥

पीत्वा मुकुन्दमुखसारघमक्षिभृङ्गै-

स्तापं जहुर्विरहजं व्रजयोषितोऽह्नि ।

तत्सत्कृतिं समधिगम्य विवेश गोष्ठं

सव्रीडहासविनयं यदपाङ्गमोक्षम् ॥ ४३॥

तयोर्यशोदारोहिण्यौ पुत्रयोः पुत्रवत्सले ।

यथाकामं यथाकालं व्यधत्तां परमाशिषः ॥ ४४॥

गताध्वानश्रमौ तत्र मज्जनोन्मर्दनादिभिः ।

नीवीं वसित्वा रुचिरां दिव्यस्रग्गन्धमण्डितौ ॥ ४५॥

जनन्युपहृतं प्राश्य स्वाद्वन्नमुपलालितौ ।

संविश्य वरशय्यायां सुखं सुषुपतुर्व्रजे ॥ ४६॥

एवं स भगवान् कृष्णो वृन्दावनचरः क्वचित् ।

ययौ राममृते राजन् कालिन्दीं सखिभिर्वृतः ॥ ४७॥

अथ गावश्च गोपाश्च निदाघातपपीडिताः ।

दुष्टं जलं पपुस्तस्यास्तृषार्ता विषदूषितम् ॥ ४८॥

विषाम्भस्तदुपस्पृश्य दैवोपहतचेतसः ।

निपेतुर्व्यसवः सर्वे सलिलान्ते कुरूद्वह ॥ ४९॥

वीक्ष्य तान् वै तथाभूतान् कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।

ईक्षयामृतवर्षिण्या स्वनाथान् समजीवयत् ॥ ५०॥

ते सम्प्रतीतस्मृतयः समुत्थाय जलान्तिकात् ।

आसन् सुविस्मिताः सर्वे वीक्षमाणाः परस्परम् ॥ ५१॥

अन्वमंसत तद्राजन् गोविन्दानुग्रहेक्षितम् ।

पीत्वा विषं परेतस्य पुनरुत्थानमात्मनः ॥ ५२॥

उस समय वह भूमि ताड़ के फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरों से भर गयी। जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमि की वैसी ही शोभा होने लगी। बलराम जी और श्रीकृष्ण की यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उन पर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे। जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे।

इसके बाद कमल दल लोचन भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम जी के साथ ब्रज में आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है। उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अल्कों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालों में सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे।

उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुस्कान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही ब्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की और भगवान ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके ब्रज में प्रवेश किया।

उधर यशोदा मैया और रोहिणी जी का हृदय वात्सल्य स्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं। माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया तत्पश्चात दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शैय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये।

भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालों के साथ वे यमुना-तट पर गये। राजन! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे। उस समय जेठ-आषाढ़ के घाम से गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुना जी का विषैला जल पी लिया।

परीक्षित! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुना जी के तट पर गिर पड़े। उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अमृत बरसाने वाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे।

परीक्षित! चेतना आने पर वे सब यमुना जी के तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे। राजन! अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से हमें देखकर हमें फिर से जिला दिया है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे धेनुकवधो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 16 

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