श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ७
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध सप्तम अध्याय
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः
३/अध्यायः ७
श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३
अध्याय ७ हिन्दी अनुवाद सहित
श्रीशुक उवाच -
(अनुष्टुप्)
एवं ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो
बुधः ।
प्रीणयन्निव भारत्या विदुरः
प्रत्यभाषत ॥ १ ॥
विदुर उवाच ।
ब्रह्मन् कथं भगवतः
चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया चापि युज्येरन् निर्गुणस्य
गुणाः क्रियाः ॥ २ ॥
क्रीडायां उद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः
।
स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य
सदान्यतः ॥ ३ ॥
अस्राक्षीत् भगवान् विश्वं
गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया संस्थापयत्येतद् भूयः
प्रत्यपिधास्यति ॥ ४ ॥
देशतः कालतो योऽसौ अवस्थातः
स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया
कथम् ॥ ५ ॥
भगवानेक एवैष
सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा
कर्मभिः कुतः ॥ ६ ॥
एतस्मिन्मे मनो विद्वन्
खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं
महत् ॥ ७ ॥
श्रीशुक उवाच -
स इत्थं चोदितः क्षत्त्रा
तत्त्वजिज्ञासुना मुनिः ।
प्रत्याह भगवच्चित्तः स्मयन्निव
गतस्मयः ॥ ८ ॥
मैत्रेय उवाच -
सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते
।
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत
बन्धनम् ॥ ९ ॥
यदर्थेन विनामुष्य पुंस
आत्मविपर्ययः ।
प्रतीयत उपद्रष्टुः
स्वशिरश्छेदनादिकः ॥ १० ॥
यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो
गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुः
आत्मनोऽनात्मनो गुणः ॥ ११ ॥
स वै निवृत्तिधर्मेण
वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्भक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह
॥ १२ ॥
यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्ट्रात्मनि
परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशाः संसुप्तस्येव
कृत्स्नशः ॥ १३ ॥
अशेषसङ्क्लेशशमं विधत्ते
गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
किं वा पुनस्तच्चरणारविन्द
परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥ १४ ॥
विदुर उवाच -
(अनुष्टुप्)
सञ्छिन्नः संशयो मह्यं तव
सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन् मनो मे सम्प्रधावति
॥ १५ ॥
साध्वेतद् व्याहृतं विद्वन्
आत्ममायायनं हरेः ।
आभात्यपार्थं निर्मूलं विश्वमूलं न
यद्बहिः ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;-
मैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने
उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा।
विदुरजी ने पूछा ;-
ब्रह्म्न! भगवान् तो शुद्ध बोधस्वरुप, निर्विकार
और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का
सम्बन्ध कैसे हो सकता। बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है,
इसी से वह खेलने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु
भगवान् तो स्वतः नित्यतृप्त—पूर्णकाम और सर्वदा असंग हैं,
वे क्रीडा के लिये भी क्यों संकल्प करें। भगवान् ने अपनी गुणमयी
माया से जगत् की रचना की है, उसी से वे इसका पालन करते हैं
और फिर उसी से संहार भी करेंगे। जिनके ज्ञान का देश, काल
अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी
लोप नहीं होता, उनका माया के साथ किस प्रकार संयोग हो सकता
है। एकमात्र ये भगवान् ही समस्त क्षेत्रों में उनके साक्षीरूप से स्थित हैं,
फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकार के कर्मजनित कलेश की प्राप्ति
कैसे हो सकता है। भगवन्! इस अज्ञान संकट में पड़कर मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है,
आप मेरे मन के इस महान् मोह को कृपा करके दूर कीजिये।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;-
तत्व जिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्त कर अहंकार हीन
श्रीमैत्रेयजी ने भगवान् का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा।
श्रीमैत्रेयजी ने कहा ;-
जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरुप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो—यह बात युक्ति
विरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान् की माया है।
जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी
अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को
बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं। यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में
इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस
प्रकार जल में होने वाली कम्प आदि क्रिया जल में दीखने वाले चन्द्रमा के
प्रतिबिम्ब में न होने पर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमा में
नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीव में ही देह के मिथ्या
धर्मों की प्रतीति होती है परमात्मा में नहीं। निष्कामभाव से धर्मों का आचरण करने
पर भगवत्कृपा से प्राप्त हुए भक्तियोग के द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो
जाती है। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में
निश्चल भाव से स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में
सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशि को शान्त कर देता है;
फिर यदि हमारे ह्रदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग
पड़े, तब तो कहना ही क्या है ?
विदुरजी ने कहा ;-
भगवन्! आपके युक्तियुक्त वचनों की तलवार से मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न
हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान् की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता—दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है। विद्वान्! आपने यह बात बहुत
ठीक कही कि जीव को जो क्लेशादि की प्रतीति हो रही है, उसका
आधार केवल भगवान् की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्व का मूल कारण ही माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं
गतः ।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो
जनः ॥ १७ ॥
अर्थाभावं विनिश्चित्य प्रतीतस्यापि
नात्मनः ।
तां चापि युष्मच्चरण सेवयाहं
पराणुदे ॥ १८ ॥
यत्सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः
।
रतिरासो भवेत्तीव्रः
पादयोर्व्यसनार्दनः ॥ १९ ॥
दुरापा ह्यल्पतपसः सेवा
वैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते नित्यं देवदेवो
जनार्दनः ॥ २० ॥
सृष्ट्वाग्रे महदादीनि सविकाराणि
अनुक्रमात् ।
तेभ्यो विराजं उद्धृत्य तमनु
प्राविशद्विभुः ॥ २१ ॥
यमाहुराद्यं पुरुषं सहस्राङ्घ्र्यूरुबाहुकम्
।
यत्र विश्व इमे लोकाः सविकाशं
समासते ॥ २२ ॥
यस्मिन् दशविधः प्राणः
सेन्द्रियार्थेन्द्रियः त्रिवृत् ।
त्वयेरितो यतो वर्णाः तद्विभूतीर्वदस्व
नः ॥ २३ ॥
यत्र पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः
सह गोत्रजैः ।
प्रजा विचित्राकृतय आसन्याभिरिदं
ततम् ॥ २४ ॥
प्रजापतीनां स पतिः चकॢपे कान्
प्रजापतीन् ।
सर्गांश्चैवानुसर्गांश्च मनून्
मन्वन्तराधिपान् ॥ २५ ॥
एतेषामपि वंशांश्च वंशानुचरितानि च
।
उपर्यधश्च ये लोका
भूमेर्मित्रात्मजासते ॥ २६ ॥
तेषां संस्थां प्रमाणं च भूर्लोकस्य
च वर्णय ।
तिर्यङ्मानुषदेवानां सरीसृप पतत्त्रिणाम्
।
वद नः सर्गसंव्यूहं
गार्भस्वेदद्विजोद्भिदाम् ॥ २७॥
गुणावतारैर्विश्वस्य
सर्गस्थित्यप्ययाश्रयम् ।
सृजतः श्रीनिवासस्य
व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥ २८ ॥
वर्णाश्रमविभागांश्च रूपशीलस्वभावतः
।
ऋषीणां जन्मकर्माणि वेदस्य च
विकर्षणम् ॥ २९ ॥
यज्ञस्य च वितानानि योगस्य च पथः
प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्य च साङ्ख्यस्य तंत्रं
वा भगवत्स्मृतम् ॥ ३० ॥
पाषण्डपथवैषम्यं प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य गतयो याश्च
यावतीर्गुणकर्मजाः ॥ ३१ ॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां
निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया दण्डनीतेश्च श्रुतस्य च
विधिं पृथक् ॥ ३२ ॥
श्राद्धस्य च विधिं ब्रह्मन्
पितॄणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां
कालावयवसंस्थितिम् ॥ ३३ ॥
इस संसार में दो ही प्रकार के लोग
सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं या जो बुद्धि आदि से अतीत
श्रीभगवान् को प्राप्त कर चुके हैं। बीच की श्रेणी के संशयापन्न लोग तो दुःख ही
भोगते रहते हैं।
भगवन्! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय
हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुतः हैं नहीं, केवल
प्रतीत ही होते हैं। अब मैं आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा
दूँगा। इन श्रीचरणों की सेवा से नित्यसिद्ध भगवान् श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में
उत्कट प्रेम और आनन्द की बुद्धि होती है, जो आवागमन की
यन्त्रणा का नाश कर देती हैं। महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति के साक्षात् मार्ग ही
होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरि के गुणों का गान
होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुष को उनकी सेवा का अवसर मिलना
अत्यन्त कठिन है। भगवन्! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान् ने क्रमशः
महदादि तत्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट् को उत्पन्न किया और
इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो ग। उन विराट् के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हीं को वेद आदि पुरुष कहते
हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृत रूप से स्थित। उन्हीं में
इन्द्रिय, विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओं के सहित दस
प्रकार प्राणों का—जो इन्द्रियबल, मनोबल
और शारीरिक बल रूप से तीन प्रकार के हैं—आपने वर्णन किया है
और उन्हीं से ब्राम्हणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रम्हादि
विभूतियों का वर्णन सुनाइये—जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियों के सहित तरह-तरह की
प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रम्हाण्ड भर गया।
वह विराट् ब्रम्हादि प्रजापतियों का
भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियों को उत्पन्न किया तथा सर्ग,
अनुसर्ग और मन्वन्तरों के अधिपति मनुओं की भी किस क्रम से रचना की ?
मैत्रेयजी! उन मनुओं के वंश और
वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर
और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी वर्णन कीजिये तथा यह भी
बतलाइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता,
सरीसृप (सर्पादि रेंगने वाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज—ये
चार प्रकार के प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए। श्रीहरि ने सृष्टि करते समय जगत् की
उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये अपने गुणावतार ब्रम्हा,
विष्णु और महादेवरूप से जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये। वेष, आचरण और स्वभाव के
अनुसार वर्णाश्रम का विभाग, ऋषियों के जन्म-कर्मादि, वेदों का विभाग, यज्ञों का विस्तार, योग का मार्ग, ज्ञान मार्ग और उसका साधन सांख्य
मार्ग तथा भगवान् के कहे हुए नारद पांचरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्ड मार्गों के प्रचार से होने वाली विषमता, नीच वर्ण के पुरुष से उच्च वर्ण की स्त्री में होने वाली सन्तानों के
प्रकार तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मों के कारण जीव की जैसी और जितनी गतियाँ होती
हैं, वे सब हैं सुनाइये। ब्रह्मन्! धर्म, अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति के परस्पर अविरोधी साधनों का, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्र श्रवण की विधियों का,
श्राद्ध की विधि का, पितृगुणों की सृष्टि का
तथा कालचक्र में ग्रह, नक्षत्र और तारागण की स्थिति का भी
अलग-अलग वर्णन कीजिये।
दानस्य तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयोः
फलम् ।
प्रवासस्थस्य यो धर्मो यश्च पुंस
उतापदि ॥ ३४ ॥
येन वा भगवान् तुस्तुष्येद्
धर्मयोनिर्जनार्दनः ।
सम्प्रसीदति वा येषां एतत् आख्याहि
मेऽनघ ॥ ३५ ॥
अनुव्रतानां शिष्याणां पुत्राणां च
द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि ब्रूयुः गुरवो
दीनवत्सलाः ॥ ३६ ॥
तत्त्वानां भगवन् तेषां कतिधा
प्रतिसङ्क्रमः ।
तत्रेमं क उपासीरन् क उ
स्विदनुशेरते ॥ ३७ ॥
पुरुषस्य च संस्थानं स्वरूपं वा
परस्य च ।
ज्ञानं च नैगमं यत्तद्
गुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥ ३८ ॥
निमित्तानि च तस्येह
प्रोक्तान्यनघसूरिभिः ।
स्वतो ज्ञानं कुतः पुंसां
भक्तिर्वैराग्यमेव वा ॥ ३९ ॥
एतान्मे पृच्छतः प्रश्नान् हरेः
कर्मविवित्सया ।
ब्रूहि मेऽज्ञस्य मित्रत्वात् अजया
नष्टचक्षुषः ॥ ४० ॥
सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि
चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि
॥ ४१ ॥
श्रीशुक उवाच -
स इत्थं आपृष्टपुराणकल्पः
कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ।
प्रवृद्धहर्षो भगवत्कथायां
सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥ ४२ ॥
दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का क्या फल है ? प्रवास
और आपत्ति के समय मनुष्य का क्या धर्म होता है ? निष्पाप
मैत्रेयजी! धर्म के मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान् किस आचरण से सन्तुष्ट होते हैं और
किन पर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये।
द्विजवर! दीनवत्सल गुरुजन अपने
अनुगत शिष्यों और पुत्रों को बिना पूछे भी उनके हित की बात बलता दिया करते हैं।
भगवन्! उन महदादि तत्वों का प्रलय कितने प्रकार का है ?
तथा जब भगवान् योगनिद्रा में शयन करते हैं, तब
उनमें से कौन-कौन तत्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? जीव का तत्व, परमेश्वर का स्वरुप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्य का पारस्परिक प्रयोजन क्या है
? पवित्रात्मन् विद्वानों ने उस ज्ञान की प्राप्ति के
क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ? क्योंकि मनुष्यों को ज्ञान,
भक्ति अथवा वैराग्य की प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती। ब्रह्मन्!
माया-मोह के कारण मेरी विचार दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अतः श्रीहरि लीला का ज्ञान
प्राप्त करने की इच्छा से मैंने जो प्रश्न किये हैं, उनका
उत्तर मुझे दीजिये। पुण्यमय मैत्रेयजी! भगवतत्व के उपदेश द्वारा जीव को
जन्म-मृत्यु से छुड़ाकर उसे अभय कर देने में जो पुण्य होता है, समस्त वेदों के अध्ययन, यज्ञ, तपस्या
और दानादि से होने वाला पुण्य उस पुण्य के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकता।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;-
राजन्! जब कुरु-श्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार
पुराण विषयक प्रश्न किये, तब भगवच्चर्या के लिये प्रेरित
किये जाने के कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
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