श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय "विराट् शरीर की उत्पत्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ६

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध षष्ठ अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ३/अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय हिन्दी अनुवाद सहित

ऋषिरुवाच -

(अनुष्टुप्)

इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।

प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥ १ ॥

कालसञ्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रत् शक्तिमुरुक्रमः ।

त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥ २ ॥

सोऽनुप्रविष्टो भगवान् चेष्टारूपेण तं गणम् ।

भिन्नं संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ३ ॥

प्रबुद्धकर्म दैवेन त्रयोविंशतिको गणः ।

प्रेरितोऽजनयत्स्वाभिः मात्राभिः अधिपूरुषम् ॥ ४ ॥

परेण विशता स्वस्मिन् मात्रया विश्वसृग्गणः ।

चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन् लोकाश्चराचराः ॥ ५ ॥

हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सरान् ।

आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ६ ॥

स वै विश्वसृजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।

विबभाजात्मनात्मानं एकधा दशधा त्रिधा ॥ ७ ॥

एष ह्यशेषसत्त्वानां आत्मांशः परमात्मनः ।

आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥ ८ ॥

साध्यात्मः साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।

विराट्प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥ ९ ॥

स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं अधोक्षजः ।

विराजं अतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥ १० ॥

अथ तस्याभितप्तस्य कति चायतनानि ह ।

निरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः श्रृणु ॥ ११ ॥

तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोऽविशत्पदम् ।

वाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १२ ॥

निर्भिन्नं तालु वरुणो लोकपालोऽविशद्धरेः ।

जिह्वयांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १३ ॥

निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोः आविशतां पदम् ।

घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १४ ॥

निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोऽविशद्विभोः ।

चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १५ ॥

निर्भिन्नान्यस्य चर्माणि लोकपालोऽनिलोऽविशत् ।

प्राणेनांशेन संस्पर्शं येनासौ प्रतिपद्यते ॥ १६ ॥

कर्णौ अस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिशः ।

श्रोत्रेणांशेन शब्दस्य सिद्धिं येन प्रपद्यते ॥ १७ ॥

मैत्रेयजी ऋषि ने कहा ;- सर्वशक्तिमान्! भगवान् ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महतत्व आदि शक्तियाँ विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे काल शक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महतत्व, अहंकार, पंचभूत, पंचतन्मात्रा और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँइन तेईस तत्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गये।

उसमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया। इस प्रकार जब भगवान् ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्वों के समूह ने भगवान् की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुषविराट् को उत्पन्न किया। अर्थात् जब भगवान् ने अंश रूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्व रचना करने वाला महतत्वादि समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्वों का परिणाम हो विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है। जल के भीतर जो अण्ड रुप आश्रय स्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा।

वह विश्व रचना करने वाले तत्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमशः एक (ह्रदय रूप), दस (प्राण रूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव रूप होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीव रूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान् का आदि-अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है। यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव रूप से तीन प्रकार का, प्राण रूप से दस प्रकार का और ह्रदय रूप से एक प्रकार का है।   

फिर विश्व की रचना करने वाले महतत्वादि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतन रूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया। उसके जाग्रत् होते ही देवताओं के लिये कितने स्थान प्रकट हुएयह मैं बतलाता हूँ, सुनो। विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है। फिर विराट् पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता । इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उसमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जब उस विराट् देह में आँखें प्रकट हुईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहितलोकपति सूर्य ने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रिय से पुरुष विविध रूपों का ज्ञान होता है ।

 फिर उस विराट् विग्रह में त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता । जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उसमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है।

त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधीः ।

अंशेन रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥ १८ ॥

मेढ्रं तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत् ।

रेतसांशेन येनासौ आनन्दं प्रतिपद्यते ॥ १९ ॥

गुदं पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत् ।

पायुनांशेन येनासौ विसर्गं प्रतिपद्यते ॥ २० ॥

हस्तावस्य विनिर्भिन्नौ इन्द्रः स्वर्पतिराविशत् ।

वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्तिं प्रपद्यते ॥ २१ ॥

पादौ अस्य विनिर्भिन्नौ लोकेशो विष्णुराविशत् ।

गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥ २२ ॥

बुद्धिं चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो धिष्ण्यमाविशत् ।

बोधेनांशेन बोद्धव्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ २३ ॥

हृदयं चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्ण्यमाविशत् ।

मनसांशेन येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥ २४ ॥

आत्मानं चास्य निर्भिन्नं अभिमानोऽविशत्पदम् ।

कर्मणांशेन येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥

सत्त्वं चास्य विनिर्भिन्नं महान् धिष्ण्यमुपाविशत् ।

चित्तेनांशेन येनासौ विज्ञानं प्रतिपद्यते ॥ २६ ॥

शीर्ष्णोऽस्य द्यौर्धरा पद्‍भ्यां खं नाभेरुदपद्यत ।

गुणानां वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥ २७ ॥

आत्यन्तिकेन सत्त्वेन दिवं देवाः प्रपेदिरे ।

धरां रजःस्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥ २८ ॥

तार्तीयेन स्वभावेन भगवन् नाभिमाश्रिताः ।

उभयोरन्तरं व्योम ये रुद्रपार्षदां गणाः ॥ २९ ॥

मुखतोऽवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।

यस्तून्मुखत्वाद् वर्णानां मुख्योऽभूद् ब्राह्मणो गुरुः ॥ ३० ॥

बाहुभ्योऽवर्तत क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुव्रतः ।

यो जातस्त्रायते वर्णान् पौरुषः कण्टकक्षतात् ॥ ३१ ॥

विशोऽवर्तन्त तस्योर्वोः लोकवृत्तिकरीर्विभोः ।

वैश्यस्तदुद्‍भवो वार्तां नृणां यः समवर्तयत् ॥ ३२ ॥

पद्‍भ्यां भगवतो जज्ञे शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।

तस्यां जातः पुरा शूद्रो यद्‌वृत्त्या तुष्यते हरिः ॥ ३३ ॥

एते वर्णाः स्वधर्मेण यजन्ति स्वगुरुं हरिम् ।

श्रद्धया आत्मविशुद्ध्यर्थं यज्जाताः सह वृत्तिभिः ॥ ३४ ॥

फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुईं, जिन रोमों से जीव खुजली आदि का अनुभव करता है। अब उसके लिंग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है। फिर विराट् के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मल त्याग करता है। इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्याग रूपा शक्ति के सहित देवराज इन्द्र ने प्रवेश किया, इस शक्ति से जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है। जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णु ने प्रवेश कियाइस गति शक्ति द्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है। फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थान में अपने अंश बुद्धि शक्ति के साथ वाक्पति ब्रम्हा ने प्रवेश किया, इस बुद्धि शक्ति से जीव ज्ञातव्य विषयों को जान सकता । फिर इसमें ह्रदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मन के सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मनःशक्ति के द्वारा जीव संकल्प-विकल्पादि रूप विकारों को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विराट् पूरुष में अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रय में क्रिया शती सहित अभिमान (रूद्र)-ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्य को स्वीकार करता है। अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्त शक्ति के सहित महतत्व (ब्रम्हा) स्थित हुआ; इस चित्त शक्ति से जीव विज्ञान (चेतना)-को उपलब्ध करता है। इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्ग लोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्व, रज और तमइन तीन गुणों के परिणाम रूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं।

इनमें देवता लोग सत्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्ग लोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाव वाले होने से रूद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेम आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान् के नाभि स्थानीय अन्तरिक्ष लोक में रहते हैं।

विदुरजी! वेद और ब्राम्हण भगवान् के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राम्हण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सबका गुरु है। उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करने वाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है। भगवान् की दोनों जाँघों से सब लोगों का निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हीं से वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब जीवों की जीविका चलाता है। फिर सब धर्मों की सिद्धि के लिये भगवान् के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्र वर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं। ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियों के सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरि का अपने-अपने धर्मों से चित्त शुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं।

एतत् क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिणः ।

कः श्रद्दध्यादुपाकर्तुं योगमायाबलोदयम् ॥ ३५ ॥

तथापि कीर्तयाम्यङ्ग यथामति यथाश्रुतम् ।

कीर्तिं हरेः स्वां सत्कर्तुं गिरमन्याभिधासतीम् ॥ ३६ ॥

एकान्तलाभं वचसो नु पुंसां

     सुश्लोकमौलेर्गुणवादमाहुः ।

श्रुतेश्च विद्वद्‌भिरुपाकृतायां

     कथासुधायां उपसम्प्रयोगम् ॥ ३७ ॥

आत्मनोऽवसितो वत्स महिमा कविनाऽऽदिना ।

संवत्सरसहस्रान्ते धिया योगविपक्वया ॥ ३८ ॥

अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।

यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥ ३९ ॥

यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।

अहं चान्य इमे देवाः तस्मै भगवते नमः ॥ ४० ॥

विदुरजी! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभाव शक्ति से युक्त भगवान् की योगमाया के प्रभाव को प्रकट करने वाला है। इसके स्वरुप का पूरा-पूरा वर्णन करने का कौन साहस कर सकता है। तथापि प्यारे विदुजी! अन्य व्यावहारिक चर्चाओं से अपवित्र हुई अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरु मुख से सुना है वैसा, श्रीहरि का सुयश वर्णन करता हूँ। महापुरुषों का मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरि के गुणों का गान करना ही मनुष्यों की वाणी का तथा विद्वानों के मुख से भगवत्कथामृत का पान करना ही उनके कानों का सबसे बड़ा लाभ है।

वत्स! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रम्हाजी ने एक हजार दिव्य वर्षों तक अपनी योग परिपक्व बुद्धि से विचार किया; तो भी क्या वे भगवान् की अमित महिमा का पार पा सके ? अतः भगवान् की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देने वाली है। उसकी चक्कर में डालने वाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। जहाँ न पहुँचकर मन के सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रूद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान् को हम नमस्कार करते हैं।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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