श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ५ "विदुरजी का प्रश्न और मैत्रेयजी का सृष्टि क्रम वर्णन"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ५

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध पञ्चम अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ३/अध्यायः ५

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ५ हिन्दी अनुवाद सहित

श्रीशुक उवाच -

द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरूणां

     मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।

क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्धः

     पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ १ ॥

विदुर उवाच -

सुखाय कर्माणि करोति लोको

     न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।

विन्देत भूयस्तत एव दुःखं

     यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥ २ ॥

जनस्य कृष्णाद् विमुखस्य दैवाद्

     अधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।

अनुग्रहायेह चरन्ति नूनं

     भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३ ॥

तत्साधुवर्यादिश वर्त्म शं नः

     संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।

हृदि स्थितो यच्छति भक्तिपूते

     ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४ ॥

करोति कर्माणि कृतावतारो

     यान्यात्मतंत्रो भगवान् त्र्यधीशः ।

यथा ससर्जाग्र इदं निरीहः

     संस्थाप्य वृत्तिं जगतो विधत्ते ॥ ५ ॥

यथा पुनः स्वे ख इदं निवेश्य

     शेते गुहायां स निवृत्तवृत्तिः ।

योगेश्वराधीश्वर एक एतद्

     अनुप्रविष्टो बहुधा यथाऽऽसीत् ॥ ६ ॥

क्रीडन् विधत्ते द्विजगोसुराणां

     क्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।

मनो न तृप्यत्यपि शृण्वतां नः

     सुश्लोकमौलेश्चरितामृतानि ॥ ७ ॥

यैस्तत्त्वभेदैः अधिलोकनाथो

     लोकानलोकान् सह लोकपालान् ।

अचीकॢपद्यत्र हि सर्वसत्त्व

     निकायभेदोऽधिकृतः प्रतीतः ॥ ८ ॥

येन प्रजानामुत आत्मकर्म

     रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।

नारायणो विश्वसृगात्मयोनिः

     एतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥

परावरेषां भगवन् व्रतानि

     श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।

अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां

     तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १० ॥

कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधानात्

     सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।

यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो

     भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११ ॥

मुनिर्विवक्षुर्भगवद्‍गुणानां

     सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।

यस्मिन् नृणां ग्राम्यसुखानुवादैः

     मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२ ॥

सा श्रद्दधानस्य विवर्धमाना

     विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।

हरेः पदानुस्मृतिनिर्वृतस्य

     समस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वार क्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से शुद्ध हुए ह्रदय वाले विदुरजी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर उन्होंने पूछा।

विदुरजी ने कहा ;- भगवन्! संसार में सब लोग सुख के लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःख की वृद्धि ही होती है। अतः इस विषय में क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये। जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुःखी हैं, उन पर कृपा करने के लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसार में विचरा करते हैं। साधुशिरोमणि! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधन का उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करने से भगवान् अपने भक्तों के भक्तिपूत ह्रदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरुप का अपरोक्ष अनुभव कराने वाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं। त्रिलोकी के नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टि की रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् के जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस ब्रम्हाण में अन्तर्यामी रूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैंवह सब रहस्य आप हमें समझाइये। ब्राम्हण, गौ और देवताओं के कल्याण के लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये।

यशस्वियों के मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता। हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियों के स्वामी श्रीहरि ने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वत से बाहर के भोगों को, जिसमें ये सब प्रकार के प्राणियों के अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्वों से रचा है।

 द्विजवर! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजा के स्वभाव, कर्म, रूप और नामों के भेद की किस प्रकार रचना की है ? भगवन्! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्ण कथामृत के प्रवाह को छोड़कर अन्य स्वल्प-सुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है। उन तीर्थपाद श्रीहरि के गुणानुवाद से तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओं के समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्यों के कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसार चक्र में डालने वाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं। भगवन्! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छा से ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषय सुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है। यह भगवत्कथा की रूचि श्रद्धालु पुरुष के ह्रदय में जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयों से उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणों के निरन्तर चिन्तन से आनन्द मग्न हो जाता है।

तान् शोच्यशोच्यान् अविदोऽनुशोचे

     हरेः कथायां विमुखानघेन ।

क्षिणोति देवोऽनिमिषस्तु येषां

     आयुर्वृथावादगतिस्मृतीनाम् ॥ १४ ॥

तदस्य कौषारव शर्मदातुः

     हरेः कथामेव कथासु सारम् ।

उद्धृत्य पुष्पेभ्य इवार्तबन्धो

     शिवाय नः कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ १५ ॥

स विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थे

     कृतावतारः प्रगृहीतशक्तिः ।

चकार कर्माण्यतिपूरुषाणि

     यानीश्वरः कीर्तय तानि मह्यम् ॥ १६ ॥

श्रीशुक उवाच -

(अनुष्टुप्)

स एवं भगवान् पृष्टः क्षत्त्रा कौषारविर्मुनिः ।

पुंसां निःश्रेयसार्थेन तमाह बहु मानयन् ॥ १७ ॥

मैत्रेय उवाच -

साधु पृष्टं त्वया साधो लोकान् साधु अनुगृह्णता ।

कीर्तिं वितन्वता लोके आत्मनोऽधोक्षजात्मनः ॥ १८ ॥

नैतच्चित्रं त्वयि क्षत्तः बादरायणवीर्यजे ।

गृहीतोऽनन्यभावेन यत्त्वया हरिरीश्वरः ॥ १९ ॥

माण्डव्यशापाद् भगवान् प्रजासंयमनो यमः ।

भ्रातुः क्षेत्रे भुजिष्यायां जातः सत्यवतीसुतात् ॥ २० ॥

भवान् भगवतो नित्यं सम्मतः सानुगस्य ह ।

यस्य ज्ञानोपदेशाय माऽऽदिशद्‍भगवान् व्रजन् ॥ २१ ॥

अथ ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिताः ।

विश्वस्थिति उद्‌भवान्तार्था वर्णयामि अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥

भगवान् एक आसेदं अग्र आत्माऽऽत्मनां विभुः ।

आत्मेच्छानुगतावात्मा नानामत्युपलक्षणः ॥ २३ ॥

स वा एष तदा द्रष्टा नापश्यद् दृश्यमेकराट् ।

मेनेऽसन्तमिवात्मानं सुप्तशक्तिः असुप्तदृक् ॥ २४ ॥

सा वा एतस्य संद्रष्टुः शक्तिः सद् असदात्मिका ।

माया नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभुः ॥ २५ ॥

कालवृत्त्या तु मायायां गुणमय्यामधोक्षजः ।

पुरुषेणात्मभूतेन वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ॥ २६ ॥

ततोऽभवन् महत्तत्त्वं अव्यक्तात् कालचोदितात् ।

विज्ञानात्माऽऽत्मदेहस्थं विश्वं व्यञ्जन् तमोनुदः ॥ २७ ॥

सोऽप्यंशगुणकालात्मा भगवद् दृष्टिगोचरः ।

आत्मानं व्यकरोद् आत्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥ २८ ॥

मुझे तो उन शोचनीयों के भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषों के लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापों के कारण श्रीहरि की कथाओं से विमुख रहते हैं। हाय! काल भगवान् उनके अमूल्य जीवन को काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मन से व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तन में लगे रहते हैं। मैत्रेयजी! आप दीनों पर कृपा करने वाले हैं; अतः भौर जैसे फूलों में से रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओं में से इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्र-कीर्ति श्रीहरि की कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याण के लिये सुनाइये। उन सर्वेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने के लिये अपनी माया शक्ति को स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारों के द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- जब विदुरजी ने जीवों के कल्याण के लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा।

श्रीमैत्रेयजी बोले ;- साधुस्वभाव विदुरजी! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान् में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा। आप श्रीव्यासजी के औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्य भाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं। आप प्रजा को दण्ड देने वाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषि का शाप होने के कारण ही आपने श्रीव्यासजी के वीर्य से उनके भाई विचित्रवीर्य की भोगपत्नी दासी के गर्भ से जन्म लिया ।

आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं। इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये योगमाया के द्वारा विस्तारित हुई भगवान् कि विभिन्न लीलाओं का क्रमशः वर्णन करता हूँ। सृष्टि रचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थेन द्रष्टा था न दृश्य! सृष्टिकाल में अनेक् वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी।

वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझने लगे। वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्त्याँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था। इस द्रष्टा और दृश्य का अनुसन्धान करने वाली शक्ति हीकार्यकारण रूपा माया है।

 महाभाग विदुरजी! इस भावाभाव रूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही भगवान् ने इस विश्व का निर्माण किया है। काल शक्ति से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुष रूप से उसमें चिदाभास रूप बीज स्थापित किया। तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महतत्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञान स्वरुप और अपने में सूक्ष्म रूप से स्थित प्रपंच की अभिव्यक्ति करने वाला था। फिर चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महतत्व ने भगवान् की दृष्टि पड़ने पर इस विश्व की रचना के लिये अपना रूपान्तर किया।

महत्तत्त्वाद् विकुर्वाणाद् अहंतत्त्वं व्यजायत ।

कार्यकारणकर्त्रात्मा भूतेन्द्रियमनोमयः ॥ २९ ॥

वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा ।

अहंतत्त्वाद् विकुर्वाणात् मनो वैकारिकात् अभूत् ।

वैकारिकाश्च ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः ॥ ३० ॥

तैजसानि इन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ।

तामसो भूतसूक्ष्मादिः यतः खं लिङ्गमात्मनः ॥ ३१ ॥

कालमायांशयोगेन भगवद् वीक्षितं नभः ।

नभसोऽनुसृतं स्पर्शं विकुर्वन् निर्ममेऽनिलम् ॥ ३२ ॥

अनिलोऽपि विकुर्वाणो नभसोरुबलान्वितः ।

ससर्ज रूपतन्मात्रं ज्योतिर्लोकस्य लोचनम् ॥ ३३ ॥

अनिलेन अन्वितं ज्योतिः विकुर्वत् परवीक्षितम् ।

आधत्ताम्भो रसमयं कालमायांशयोगतः ॥ ३४ ॥

ज्योतिषाम्भोऽनुसंसृष्टं विकुर्वद् ब्रह्मवीक्षितम् ।

महीं गन्धगुणां आधात् कालमायांशयोगतः ॥ ३५ ॥

भूतानां नभआदीनां यद् यद् यद् भव्यावरावरम् ।

तेषां परानुसंसर्गाद् यथा सङ्ख्यं गुणान् विदुः ॥ ३६ ॥

एते देवाः कला विष्णोः कालमायांशलिङ्‌गिनः ।

नानात्वात् स्वक्रियानीशाः प्रोचुः प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३७ ॥

देवा ऊचुः -

नमाम ते देव पदारविन्दं

     प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।

यन्मूलकेता यतयोऽञ्जसोरु

     संसारदुःखं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३८ ॥

धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवाः

     तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।

आत्मन्लभन्ते भगवंस्तवाङ्‌घ्रि

     च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ३९ ॥

मार्गन्ति यत्ते मुखपद्मनीडै-

     श्छन्दःसुपर्णैः ऋषयो विविक्ते ।

यस्याघमर्षोदसरिद्वरायाः

     पदं पदं तीर्थपदः प्रपन्नाः ॥ ४० ॥

यत् श्रद्धया श्रुतवत्या च भक्त्या

     सम्मृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।

ज्ञानेन वैराग्यबलेन धीरा

     व्रजेम तत्तेऽङ्‌घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४१ ॥

विश्वस्य जन्मस्थितिसंयमार्थे

     कृतावतारस्य पदाम्बुजं ते ।

व्रजेम सर्वे शरणं यदीश

     स्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम् ॥ ४२ ॥

यत्सानुबन्धेऽसति देहगेहे

     ममाहं इति ऊढ दुराग्रहाणाम् ।

पुंसां सुदूरं वसतोऽपि पुर्यां

     भजेम तत्ते भगवन् पदाब्जम् ॥ ४३ ॥

तान् वै ह्यसद्‌वृत्तिभिरक्षिभिर्ये

     पराहृतान्तर्मनसः परेश ।

अथो न पश्यन्ति उरुगाय नूनं

     ये ते पदन्यासविलासलक्ष्याः ॥ ४४ ॥

महतत्व के विकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुईजो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है। वह अहंकार वैकारिक (सात्विक), तैजस (राजस) और तामस-भेद से तीन प्रकार का है; अतः अहंतत्व के विकार होने पर वैकारिक अहंकार से मन और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए। तैजस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द-तन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्त रूप से आत्मा का बोध कराने वाला आकाश उत्पन्न हुआ। भगवान् की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभास के योग से स्पर्श तन्मात्र हुआ और उसके विकृत होने पर उससे वायु की उत्पत्ति हुई। अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूप तन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ। फिर परमात्मा की दृष्टि पड़ने पर वायु युक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया। तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रम्हा का दृष्टिपात होने पर काल, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया। विदुरजी! इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझने चाहिये। ये महतात्वादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगण श्रीभगवान् के ही अंश हैं किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्व रचना रूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे।

देवताओं ने कहा ;- देव! हम आपके चरण-कमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार दुःख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं। जगत्कर्ता जगदीश्वर! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती।

इसलिये भगवन्! हम आपके चरणों की ज्ञानमयी छाया का आश्रय लेते हैं। मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेने वाले वेद मन्त्र रूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगाजी के उद्गम स्थान हैं, आपके उन परम पावन पाद पद्मों का हम आश्रय लेते हैं। हम आपके चरणकमलों की उस चौकी का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादि रूप भक्ति से परमार्जित अन्तःकरण में धारण करके करके वैराग्य पुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं। ईश! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करने वाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं। जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामी रूप से) रहने पर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं। परम यशस्वी परमेश्वर! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामर लोग आपके विलास पूर्ण पाद विन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजनों के दर्शन नहीं कर पाते; इसी से वे आपके चरणों से दूर रहते हैं।

पानेन ते देव कथासुधायाः

     प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।

वैराग्यसारं प्रतिलभ्य बोधं

     यथाञ्जसान् वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४५ ॥

तथापरे चात्मसमाधियोग

     बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।

त्वामेव धीराः पुरुषं विशन्ति

     तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ४६ ॥

तत्ते वयं लोकसिसृक्षयाद्य

     त्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभिः स्म ।

सर्वे वियुक्ताः स्वविहारतन्त्रं

     न शक्नुमस्तत् प्रतिहर्तवे ते ॥ ४७ ॥

यावद्‍बलिं तेऽज हराम काले

     यथा वयं चान्नमदाम यत्र ।

यथोभयेषां त इमे हि लोका

     बलिं हरन्तोऽन्नमदन्त्यनूहाः ॥ ४८ ॥

त्वं नः सुराणामसि सान्वयानां

     कूटस्थ आद्यः पुरुषः पुराणः ।

त्वं देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ

     रेतस्त्वजायां कविमादधेऽजः ॥ ४९ ॥

ततो वयं मत्प्रमुखा यदर्थे

     बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।

त्वं नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या

     देव क्रियार्थे यद् अनुग्रहाणाम् ॥ ५० ॥

देव! आपके कथामृत का पान करने से उमड़ी हुई भक्ति के कारण जिनका अन्तःकरण निर्मल हो गया है, वे लोगवैराग्य ही जिसका सार हैऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधाम को चले जाते हैं। दूसरे धीरे पुरुष चित्त निरोध रूप समाधि के बल से आपकी बलवती माया को जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवा के मार्ग में कुछ भी कष्ट नहीं है। आदिदेव! आपके सृष्टि रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाव वाले होने के कारण हम आपस में मिल नहीं पाते और इसी से आपकी क्रीडा के साधन रूप ब्रम्हाण्ड की रचना करके उसे आपको समर्पण करने में असमर्थ हो रहे हैं।

 अतः जन्मरहित भगवन्! जिससे हम ब्रम्हाण्ड रचकर आपको सब प्रकार के भोग समय पर समर्पण कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी आपनी योग्यता के अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को भोग समर्पण करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजि। आप निर्विकार पुराण पुरुष ही अन्य कार्य वर्ग के सहित हम देवताओं के आदि कारण हैं। देव! पहले आप अजन्मा ही ने सत्ववादि गुण और जन्मादि कर्मों की कारण रूपा माया शक्ति में चिदाभास रूप वीर्य स्थापित किया था। परमात्मादेव! महतत्वादि रूप हम देवगण जिस कार्य के लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव! हम पर आप ही अनुग्रह करने वाले हैं। इसलिये ब्रम्हाण्ड रचना के लिये आप हमें क्रिया शक्ति के सहित अपनी ज्ञान शक्ति भी प्रदान कीजिये।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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