श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ४ "उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध चतुर्थ अध्याय

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ३/अध्यायः ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ३ अध्याय ४ हिन्दी अनुवाद सहित

उद्धव उवाच -

(अनुष्टुप्)

अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम् ।

तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥ १ ॥

तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम् ।

निम्लोचति रवावासीत् वेणूनामिव मर्दनम् ॥ २ ॥

भगवान् स्वात्ममायाया गतिं तां अवलोक्य सः ।

सरस्वतीं उपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥ ३ ॥

अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह ।

बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥ ४ ॥

अथापि तदभिप्रेतं जानन् अहं अरिन्दम ।

पृष्ठतोऽन्वगमं भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥ ५ ॥

अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन् दयितं पतिम् ।

श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥ ६ ॥

श्यामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम् ।

दोर्भिश्चतुर्भिः विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥ ७ ॥

वाम ऊरौ अवधिश्रित्य दक्षिणाङ्‌घ्रिसरोरुहम् ।

अपाश्रितार्भकाश्वत्थं अकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥ ८ ॥

तस्मिन् महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा ।

लोकान् अनुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥ ९ ॥

तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दः

     प्रमोदभावानतकन्धरस्य ।

आश्रृण्वतो मां अनुरागहास

     समीक्षया विश्रमयन् उवाच ॥ १० ॥

श्रीभगवानुवाच -

वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते

     ददामि यत्तद् दुरवापमन्यैः ।

सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां

     मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥ ११ ॥

स एष साधो चरमो भवानां

     आसादितस्ते मदनुग्रहो यत् ।

यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं

     दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥ १२ ॥

पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये

     पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे ।

ज्ञानं परं मन्महिमावभासं

     यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥ १३ ॥

इत्यादृतोक्तः परमस्य पुंसः

     प्रतिक्षणानुग्रहभाजनोऽहम् ।

स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तं

     मुञ्चञ्छुचः प्राञ्जलिराबभाषे ॥ १४ ॥

को न्वीश ते पादसरोजभाजां

     सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह ।

तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्

     भवत्पदाम्भोज निषेवणोत्सुकः ॥ १५ ॥

उद्धवजी ने कहा ;- फिर ब्राम्हणों की आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनों से एक-दूसरे के ह्रदय को चोट पहुँचाने लगे। मदिरा के नशे से उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपस की रगड़ से बाँसों में आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी। भगवान् अपनी माया की उस विचित्र गति को देखकर सरस्वती के जल से आचमन करके एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। इससे पहले ही शरणागतों का दुःख दूर करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ। विदुरजी! इससे यद्यपि मैं उनका आशय समझ गया था, तो भी स्वामी के चरणों का वियोग न सह सकने के कारण मैं उनके पीछे-पीछे प्रभास क्षेत्र में पहुँच गया।

वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभि शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तट पर अकेले ही बैठे हैं। दिव्य विशुद्ध-सत्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्ति से भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूर से ही पहचान लिया। वे एक पीपल के छोटे-से वृक्ष का सहारा लिये बायीं जाँघ पर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पान का त्याग कर देने पर भी वे आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे थे। इसी समय व्यासजी के प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकों में स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे। मैत्रेय मुनि भगवान् के अनुरागी भक्त हैं। आनन्द और भक्तिभाव से उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरि ने प्रेम एवं मुसकान युक्त चितवन से मुझे आनन्दित करते हुए कहा।

श्रीकृष्ण भगवान् कहते हैं ;- मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ; इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। उद्धव! तुम पूर्वजन्म में वसु थे। विश्व की रचना करने वाले प्रजापतियों और वसुओं के यज्ञ में मुझे पाने की इच्छा सही तुमने मेरी आराधना की थी। साधुस्वभाव उद्धव! संसार में तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मर्त्यलोक को छोड़कर अपने धाम में जाना चाहता हूँ।

 इस समय यहाँ एकान्त में तुमने अपनी अनन्य भक्ति के कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है। पूर्वकाल (पाद्मकल्प)के आरम्भ में मैंने अपने नाभिकमल पर बैठे हुए ब्रम्हा को अपनी महिमा के प्रकट करने वाले जिस श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग भागवतकहते हैं, वही मैं तुम्हें देता हूँ।

विदुरजी! मुझ पर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुष की कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदर पूर्वक कहने से स्नेहवश मुझे रोमांच हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उस समय मैंने हाथ जोड़कर उनसे कहास्वामिन्! आपके चरणकमलों की सेवा करने वाले पुरुषों को इस संसार में अर्थ, धर्म, काम, मोक्षइस चारों में से कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमें से किसी की इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलों की सेवा के लिये ही लालायित रहता हूँ।

कर्माण्यनीहस्य भवोऽभवस्य

     ते दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम् ।

कालात्मनो यत्प्रमदायुताश्रयः

     स्वात्मन् रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥ १६ ॥

मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्वं

     अकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः ।

पृच्छेः प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तः

     तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥ १७ ॥

ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं

     प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम् ।

अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः

     वदाञ्जसा यद् वृजिनं तरेम ॥ १८ ॥

(अनुष्टुप्)

इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान् परः ।

आदिदेश अरविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥ १९ ॥

स एवं आराधितपादतीर्थाद्

     अधीततत्त्वात्मविबोधमार्गः ।

प्रणम्य पादौ परिवृत्य देवं

     इहागतोऽहं विरहातुरात्मा ॥ २० ॥

(अनुष्टुप्)

सोऽहं तद्दर्शनाह्लाद वियोगार्तियुतः प्रभो ।

गमिष्ये दयितं तस्य बदर्याश्रममण्डलम् ॥ २१ ॥

यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवान् ऋषिः ।

मृदु तीव्रं तपो दीर्घं तेपाते लोकभावनौ ॥ २२ ॥

श्रीशुक उवाच -

इति उद्धवाद् उपाकर्ण्य सुहृदां दुःसहं वधम् ।

ज्ञानेनाशमयत् क्षत्ता शोकं उत्पतितं बुधः ॥ २३ ॥

स तं महाभागवतं व्रजन्तं कौरवर्षभः ।

विश्रम्भाद् अभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥ २४ ॥

विदुर उवाच -

ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं

     यदाह योगेश्वर ईश्वरस्ते ।

वक्तुं भवान्नोऽर्हति यद्धि विष्णोः

     भृत्याः स्वभृत्यार्थकृतश्चरन्ति ॥ २५ ॥

उद्धव उवाच ।

(अनुष्टुप्)

ननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्ति मे ।

साक्षाद् भगवतादिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥ २६ ॥

श्रीशुक उवाच -

इति सह विदुरेण विश्वमूर्तेः

     गुणकथया सुधया प्लावितोरुतापः ।

क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तां

     समुषित औपगविर्निशां ततोऽगात् ॥ २७ ॥

राजोवाच -

निधनमुपगतेषु वृष्णिभोजेषु

     अधिरथयूथपयूथपेषु मुख्यः ।

स तु कथमवशिष्ट उद्धवो

     यद्धरिरपि तत्यज आकृतिं त्र्यधीशः ॥ २८ ॥

प्रभो! आप निःस्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, काल रूप होकर भी शत्रु के डर से भागते हैं और द्वारका के किले में जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियों एक साथ रमण करते हैंइन विचित्र चरित्रों को देखकर विद्वानों की बुद्धि भी चक्कर में पड़ जाती है। देव! आपका स्वरुप ज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेने के लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानी से मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो! आपकी वह लीला मेरे मन को मोहित-सा कर देती है।

स्वामिन्! अपने स्वरुप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रम्हाजी को बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी संसार-दुःख को सुगमता से पार कर जाऊँ। जब मैंने इस प्रकार अपने ह्रदय का भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे अपने स्वरुप की परम स्थिति का उपदेश दिया। इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्ण से आत्म तत्व की उपलब्धि का साधन सुनकर तथा उन प्रभु के चरणों की वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरह से मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। विदुरजी! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे ह्रदय को उनकी विरह व्यथा अत्यन्त पीड़ित कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रम को जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नरये दोनों ऋषि लोगों पर अनुग्रह करने के लिये दीर्घकालीन सौम्य, दूसरों को सुख पहुँचाने वाली एवं कठिन तपस्या कर रहे हैं।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- इस प्रकार उद्धवजी के मुख से अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञान द्वारा शान्त कर दिया। जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा।

विदुरजी ने कहा ;- उद्धवजी! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरुप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करने वाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं। उद्धवजी ने कहा ;- उस तत्व ज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोक को छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान् ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होने से उस कथामृत के द्वारा उद्धवजी का वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुनाजी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। फिर प्रातःकाल होते ही वे वहाँ से चल दिये।

राजा परीक्षित् ने पूछा ;- भगवन्! वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे। यहाँ तक कि त्रिलोकीनाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोड़ना पड़ा था। फिर उन सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ?

श्रीशुक उवाच -

(अनुष्टुप्)

ब्रह्मशापापदेशेन कालेनामोघवाञ्छितः ।

संहृत्य स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन् देहमचिन्तयत् ॥ २९ ॥

अस्मात् लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम् ।

अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥ ३० ॥

नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्‍गुणैर्नार्दितः प्रभुः ।

अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन् इह तिष्ठतु ॥ ३१ ॥

एवं त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्टः शब्दयोनिना ।

बदर्याश्रममासाद्य हरिमीजे समाधिना ॥ ३२ ॥

विदुरोऽप्युद्धवात् श्रुत्वा कृष्णस्य परमात्मनः ।

क्रीडयोपात्तदेहस्य कर्माणि श्लाघितानि च ॥ ३३ ॥

देहन्यासं च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम् ।

अन्येषां दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम् ॥ ३४ ॥

आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम् ।

ध्यायन् गते भागवते रुरोद प्रेमविह्वलः ॥ ३५ ॥

कालिन्द्याः कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ ।

प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनिः ॥ ३६ ॥

श्रीशुकदेवजी ने कहा ;- जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरि ने ब्राम्हणों के शाप रूप काल के बहाने अपने कुल का संहार कर अपने श्रीविग्रह को त्यागते समय विचार किया। अब इस लोक से मेरे चले जाने पर संयमी शिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं। उद्धव मुझसे अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए। अतः लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहे। वेदों के मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधियोग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे।

कुरुश्रेष्ठ परीक्षित्! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ाने वाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषों के लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजी के मुख से उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होने का समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान् ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजी के चले जाने पर प्रेम से विह्वल होकर रोने लगे। इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुना तट से चलकर कुछ दिनों में गंगाजी के किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

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