श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १६

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १६                                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १६ "कालिय पर कृपा"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १६

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं षोडश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १६                                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१०पूर्वार्ध अध्यायः१६ 

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १६ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ षोडशोऽध्यायः १६ ॥

श्रीशुक उवाच

विलोक्य दूषितां कृष्णां कृष्णः कृष्णाहिना विभुः ।

तस्या विशुद्धिमन्विच्छन् सर्पं तमुदवासयत् ॥ १॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुनाजी का जल विषैला कर दिया है। तब यमुना जी को शुद्ध करने के विचार से उन्होंने वहाँ से सर्प को निकाल दिया।

राजोवाच

कथमन्तर्जलेऽगाधे न्यगृह्णाद्भगवानहिम् ।

स वै बहुयुगावासं यथाऽऽसीद्विप्र कथ्यताम् ॥ २॥

ब्रह्मन् भगवतस्तस्य भूम्नः स्वच्छन्दवर्तिनः ।

गोपालोदारचरितं कस्तृप्येतामृतं जुषन् ॥ ३॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- ब्रह्मन्! भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना जी के अगाध जल में किस प्रकार उस सर्प का दमन किया? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था, ऐसी दशा में वह अनेक युगों तक जल में क्यों और कैसे रहा? सो बतलाइये। ब्रह्मस्वरूप महात्मन! भगवान अनन्त हैं। वे अपनी लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं। गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है। भला, उसके सेवन से कौन तृप्त हो सकता है?

श्रीशुक उवाच

कालिन्द्यां कालियस्यासीध्रदः कश्चिद्विषाग्निना ।

श्रप्यमाणपया यस्मिन् पतन्त्युपरिगाः खगाः ॥ ४॥

विप्रुष्मता विषोदोर्मिमारुतेनाभिमर्शिताः ।

म्रियन्ते तीरगा यस्य प्राणिनः स्थिरजङ्गमाः ॥ ५॥

तं चण्डवेगविषवीर्यमवेक्ष्य तेन

दुष्टां नदीं च खलसंयमनावतारः ।

कृष्णः कदम्बमधिरुह्य ततोऽतितुङ्ग-

मास्फोट्य गाढरशनो न्यपतद्विषोदे ॥ ६॥

सर्पह्रदः पुरुषसारनिपातवेग-

सङ्क्षोभितोरगविषोच्छ्वसिताम्बुराशिः ।

पर्यक्प्लुतो विषकषायविभीषणोर्मि-

र्धावन् धनुःशतकमनन्तबलस्य किं तत् ॥ ७॥

तस्य ह्रदे विहरतो भुजदण्डघूर्ण-

वार्घोषमङ्ग वरवारणविक्रमस्य ।

आश्रुत्य तत्स्वसदनाभिभवं निरीक्ष्य

चक्षुःश्रवाः समसरत्तदमृष्यमाणः ॥ ८॥

तं प्रेक्षणीयसुकुमारघनावदातं

श्रीवत्सपीतवसनं स्मितसुन्दरास्यम् ।

क्रीडन्तमप्रतिभयं कमलोदराङ्घ्रिं

सन्दश्य मर्मसु रुषा भुजया चछाद ॥ ९॥

तं नागभोगपरिवीतमदृष्टचेष्ट-

मालोक्य तत्प्रियसखाः पशुपा भृशार्ताः ।

कृष्णेऽर्पितात्मसुहृदर्थकलत्रकामा

दुःखानुशोकभयमूढधियो निपेतुः ॥ १०॥

गावो वृषा वत्सतर्यः क्रन्दमानाः सुदुःखिताः ।

कृष्णे न्यस्तेक्षणा भीता रुदन्त्य इव तस्थिरे ॥ ११॥

अथ व्रजे महोत्पातास्त्रिविधा ह्यतिदारुणाः ।

उत्पेतुर्भुवि दिव्यात्मन्यासन्नभयशंसिनः ॥ १२॥

तानालक्ष्य भयोद्विग्ना गोपा नन्दपुरोगमाः ।

विना रामेण गाः कृष्णं ज्ञात्वा चारयितुं गतम् ॥ १३॥

तैर्दुर्निमित्तैर्निधनं मत्वा प्राप्तमतद्विदः ।

तत्प्राणास्तन्मनस्कास्ते दुःखशोकभयातुराः ॥ १४॥

आबालवृद्धवनिताः सर्वेऽङ्ग पशुवृत्तयः ।

निर्जग्मुर्गोकुलाद्दीनाः कृष्णदर्शनलालसाः ॥ १५॥

तांस्तथा कातरान् वीक्ष्य भगवान् माधवो बलः ।

प्रहस्य किञ्चिन्नोवाच प्रभावज्ञोऽनुजस्य सः ॥ १६॥

तेऽन्वेषमाणा दयितं कृष्णं सूचितया पदैः ।

भगवल्लक्षणैर्जग्मुः पदव्या यमुनातटम् ॥ १७॥

ते तत्र तत्राब्जयवाङ्कुशाशनि-

ध्वजोपपन्नानि पदानि विश्पतेः ।

मार्गे गवामन्यपदान्तरान्तरे

निरीक्षमाणा ययुरङ्ग सत्वराः ॥ १८॥

अन्तर्ह्रदे भुजगभोगपरीतमारा-

त्कृष्णं निरीहमुपलभ्य जलाशयान्ते ।

गोपांश्च मूढधिषणान् परितः पशूंश्च

सङ्क्रन्दतः परमकश्मलमापुरार्ताः ॥ १९॥

गोप्योऽनुरक्तमनसो भगवत्यनन्ते

तत्सौहृदस्मितविलोकगिरः स्मरन्त्यः ।

ग्रस्तेऽहिना प्रियतमे भृशदुःखतप्ताः

शून्यं प्रियव्यतिहृतं ददृशुस्त्रिलोकम् ॥ २०॥

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! यमुना जी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूँदे लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे।

परीक्षित! भगवान का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिये होता ही है। जब उन्होंने देखा कि उस साँप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुना जी भी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण अपनी कमर का फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से ताल ठोककर उस विषैले जल में कूद पड़े।

यमुना जी का जल साँप के विष के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रहीं थीं। पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के कूद पड़ने से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फ़ैल गया। अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान श्रीकृष्ण के लिये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण कालियादह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। इस प्रकार जल-क्रीड़ा करने पर उनकी भुजाओं की टक्कर से जल में बड़े ज़ोर का शब्द होने लगा। आँख से ही सुनने वाले कालिय नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास स्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान श्रीकृष्ण के सामने आ गया।

उसने देखा कि सामने एक साँवला - सलोना बालक है। वर्षाकालीन मेघ के समान अत्यन्त सुकुमार शरीर है, उसमें लगकर आँखें हटने का नाम ही नहीं लेतीं। उसके वक्षःस्थल पर एक सुनहली रेखा - श्रीवत्स का चिह्न है और वह पीले रंग का वस्त्र धारण किये हुए हैं। बड़े मधुर एवं मनोहर मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान अत्यन्त शोभायमान हो रही है। चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं, मानो कमल की गद्दी हो। इतना आकर्षक रूप होने पर भी जब कालिय नाग ने देखा कि बालक तनिक भी न डरकर इस विषैले जल में मौज से खेल रहा है, तब उसका क्रोध और भी बढ़ गया। उसने श्रीकृष्ण को मर्मस्थानों में डसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया।

भगवान श्रीकृष्ण नागपाश में बँधकर निश्चेष्ट हो गये। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीड़ित हुए और उसी समय दुःख, पश्चाताप और भय से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएँ - सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था।

गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दुःख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बँध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गये, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था।

इधर ब्रज में पृथ्वी, आकाश और शरीरों में बड़े भयंकर-भयंकर तीनों प्रकार के उत्पात उठ खड़े हुए, जो इस बात की सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई अशुभ घटना घटने वाली है। नन्दबाबा आदि गोपों ने पहले तो उन अशकुनों को देखा और पीछे से यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलराम के ही गाय चराने चले गये। वे भय से व्याकुल हो गये। वे भगवान का प्रभाव नहीं जानते थे। इसलिये उन अशकुनों को देखकर उनके मन में यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्ण की मृत्यु ही हो गयी होगी। वे उसी क्ष दुःख, शोक और भय से आतुर हो गये। क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, अन और सर्वस्व जो थे।

प्रिय परीक्षित! ब्रज के बालक, वृद्ध और स्त्रियों का स्वभाव गायों-जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मन में ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैया को देखने की उत्कट लालसा से घर-द्वार छोड़कर निकल पड़े। बलराम जी स्वयं भगवान के स्वरूप और सर्वशक्तिमान हैं। उन्होंने जब ब्रजवासियों को इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी आ गयी। परन्तु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे। क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण का प्रभाव भलीभाँति जानते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे श्रीकृष्ण को ढूँढने लगे। कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि मार्ग में उन्हें भगवान के चरणचिह्न मिलते जाते थे। जौ, कमल, अंकुश आदि से युक्त होने के कारण उन्हें पहचान होती जाती थी। इस प्रकार वे यमुना-तट की ओर जाने लगे ।

परीक्षित! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान के चरणचिह्न भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अंकुश, वज्र और ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रता से चले। उन्होंने दूर से ही देखा कि कालिय नाग के शरीर से बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्ड के किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ, बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं।

यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्त में मूर्च्छित हो गये। गोपियों का मन अनन्त गुणगुणनिलय भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रँगा हुआ था। वे तो नित्य-निरन्तर भगवान के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँप ने जकड़ रखा है, तब तो उनके हृदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ जीवन सर्वस्व के बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे।

ताः कृष्णमातरमपत्यमनुप्रविष्टां

तुल्यव्यथाः समनुगृह्य शुचः स्रवन्त्यः ।

तास्ता व्रजप्रियकथाः कथयन्त्य आसन्

कृष्णाननेऽर्पितदृशो मृतकप्रतीकाः ॥ २१॥

कृष्णप्राणान्निर्विशतो नन्दादीन् वीक्ष्य तं ह्रदम् ।

प्रत्यषेधत्स भगवान् रामः कृष्णानुभाववित् ॥ २२॥

इत्थं स्वगोकुलमनन्यगतिं निरीक्ष्य

सस्त्रीकुमारमतिदुःखितमात्महेतोः ।

आज्ञाय मर्त्यपदवीमनुवर्तमानः

स्थित्वा मुहूर्तमुदतिष्ठदुरङ्गबन्धात् ॥ २३॥

तत्प्रथ्यमानवपुषा व्यथितात्मभोग-

स्त्यक्त्वोन्नमय्य कुपितः स्वफणान् भुजङ्गः ।

तस्थौ श्वसञ्छ्वसनरन्ध्रविषाम्बरीष-

स्तब्धेक्षणोल्मुकमुखो हरिमीक्षमाणः ॥ २४॥

तं जिह्वया द्विशिखया परिलेलिहानं

द्वे सृक्किणी ह्यतिकरालविषाग्निदृष्टिम् ।

क्रीडन्नमुं परिससार यथा खगेन्द्रो

बभ्राम सोऽप्यवसरं प्रसमीक्षमाणः ॥ २५॥

एवं परिभ्रमहतौजसमुन्नतांस-

मानम्य तत्पृथुशिरःस्वधिरूढ आद्यः ।

तन्मूर्धरत्ननिकरस्पर्शातिताम्र-

पादाम्बुजोऽखिलकलादिगुरुर्ननर्त ॥ २६॥

तं नर्तुमुद्यतमवेक्ष्य तदा तदीय-

गन्धर्वसिद्धसुरचारणदेववध्वः ।

प्रीत्या मृदङ्गपणवानकवाद्यगीत-

पुष्पोपहारनुतिभिः सहसोपसेदुः ॥ २७॥

यद्यच्छिरो न नमतेऽङ्ग शतैकशीर्ष्ण-

स्तत्तन्ममर्द खरदण्डधरोऽङ्घ्रिपातैः ।

क्षीणायुषो भ्रमत उल्बणमास्यतोऽसृङ्-

नस्तो वमन् परमकश्मलमाप नागः ॥ २८॥

माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियदह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके हृदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुख कमल पर लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे ब्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदा जी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं।

परीक्षित! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान बलराम जी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया।

परीक्षित! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि ब्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये। भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँप का शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा।

घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं। उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होंठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था।

अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैतरा बदलने लगा। इस प्रकार पैतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्श से भगवान के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी।

नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे। भगवान के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओं ने जब देखा कि भगवान नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेम से मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेट ले-लेकर उसी समय भगवान के पास आ पहुँचे।

परीक्षित! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया।

तस्याक्षिभिर्गरलमुद्वमतः शिरस्सु

यद्यत्समुन्नमति निःश्वसतो रुषोच्चैः ।

नृत्यन् पदानुनमयन् दमयाम्बभूव

पुष्पैः प्रपूजित इवेह पुमान् पुराणः ॥ २९॥

तच्चित्रताण्डवविरुग्णफणातपत्रो

रक्तं मुखैरुरु वमन् नृप भग्नगात्रः ।

स्मृत्वा चराचरगुरुं पुरुषं पुराणं

नारायणं तमरणं मनसा जगाम ॥ ३०॥

कृष्णस्य गर्भजगतोऽतिभरावसन्नं

पार्ष्णिप्रहारपरिरुग्णफणातपत्रम् ।

दृष्ट्वाहिमाद्यमुपसेदुरमुष्य पत्न्य

आर्ताः श्लथद्वसनभूषणकेशबन्धाः ॥ ३१॥

तास्तं सुविग्नमनसोऽथ पुरस्कृतार्भाः

कायं निधाय भुवि भूतपतिं प्रणेमुः ।

साध्व्यः कृताञ्जलिपुटाः शमलस्य भर्तु-

र्मोक्षेप्सवः शरणदं शरणं प्रपन्नाः ॥ ३२॥

तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखों से विष उगलने लगता और क्रोध के मारे जोर-जोर से फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरों में से जिस सिर का ऊपर उठाता, उसी को नाचते हुए भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणों की ठोक से झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर जो खून की बूँदे पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पों से उनकी पूजा की जा रही हो।

परीक्षित! भगवान के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्य से कालिय के फण रूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँह से खून की उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत के आदि शिक्षक पुराण पुरुष भगवान नारायण की स्मृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान की शरण में गया। भगवान श्रीकृष्ण के उदर में सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझ से कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एडियों की चोट से उसके छत्र के समान फण छिन्न-भिन्न हो गये।

अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान की शरण में आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भय के मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केश की चोटियाँ भी बिखर रही थीं। उस समय उन साध्वी नागपत्नियों के चित्त में बड़ी घबराहट थी। अपने बालकों को आगे करके वे पृथ्वी पर लोट गयीं और हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त प्राणियों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण को शरणागतवत्सल जानकर अपने अपराधी पति को छुड़ाने की इच्छा से उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की।

नागपत्न्य ऊचुः

न्याय्यो हि दण्डः कृतकिल्बिषेऽस्मिं-

स्तवावतारः खलनिग्रहाय ।

रिपोः सुतानामपि तुल्यदृष्टे-

र्धत्से दमं फलमेवानुशंसन् ॥ ३३॥

अनुग्रहोऽयं भवतः कृतो हि नो

दण्डोऽसतां ते खलु कल्मषापहः ।

यद्दन्दशूकत्वममुष्य देहिनः

क्रोधोऽपि तेऽनुग्रह एव सम्मतः ॥ ३४॥

तपः सुतप्तं किमनेन पूर्वं

निरस्तमानेन च मानदेन ।

धर्मोऽथ वा सर्वजनानुकम्पया

यतो भवांस्तुष्यति सर्वजीवः ॥ ३५॥

कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे

तवाङ्घ्रिरेणुस्पर्शाधिकारः ।

यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाचरत्तपो

विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ॥ ३६॥

न नाकपृष्ठं न च सार्वभौमं

न पारमेष्ठ्यं न रसाधिपत्यम् ।

न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा

वाञ्छन्ति यत्पादरजःप्रपन्नाः ॥ ३७॥

नाग पत्नियों ने कहा ;- प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही। आपने हम लोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है, क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती? इसलिये हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं।

अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मान रहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है तभी तो आप इसके ऊपर संतुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवनस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यही उपाय है।

भगवन! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधना का फल है, जो यह आपके चरण कमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है। आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अर्धांगिनी लक्ष्मी जी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी।

प्रभो! जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्ग का राज्य या पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्मा का पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती। यहाँ तक कि वे जन्म-मृत्यु से छुडाने वाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते।

तदेष नाथाप दुरापमन्यै-

स्तमोजनिःक्रोधवशोऽप्यहीशः ।

संसारचक्रे भ्रमतः शरीरिणो

यदिच्छतः स्याद्विभवः समक्षः ॥ ३८॥

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥ ३९॥

ज्ञानविज्ञाननिधये ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

अगुणायाविकाराय नमस्ते प्राकृताय च ॥ ४०॥

कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे ।

विश्वाय तदुपद्रष्ट्रे तत्कर्त्रे विश्वहेतवे ॥ ४१॥

भूतमात्रेन्द्रियप्राणमनोबुद्ध्याशयात्मने ।

त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥ ४२॥

नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते ।

नानावादानुरोधाय वाच्यवाचकशक्तये ॥ ४३॥

नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये ।

प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नमः ॥ ४४॥

नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।

प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ ४५॥

नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च ।

गुणवृत्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्ट्रे स्वसंविदे ॥ ४६॥

अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये ।

हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने ॥ ४७॥

स्वामी! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है। फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरण रज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छा-मात्र से ही संसार चक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या - मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है।

प्रभो! हम आपको प्रणाम करती हैं। आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के नित्य निधि हैं। आप सबके अन्तःकरणों में विराजमान होने पर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के आश्रय तथा सब पदार्थों के रूप में भी विद्यमान हैं। आप प्रकृति से परे स्वयं परमात्मा हैं। आप सब प्रकार के ज्ञान और अनुभवों के खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृत - दिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारों का आप कभी स्पर्श ही नहीं करते।

आप ही ब्रह्मा हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं। आप प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाले काल हैं, कालशक्ति के आश्रय हैं और काल के क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवों के साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके दृष्टा हैं। आप उसके बनाने वाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूप में बनने वाले उपादान कारण भी हैं।

प्रभो! पंचभूत, उसकी मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्त - ये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्यों में होने वाले अभिमान के द्वारा आपने अपने साक्षात्कार को छिपा रखा है। आप देश, काल और वस्तुओं की सीमा से बाहर - अनन्त हैं। सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और कार्य-कारणों के समस्त विकारों में भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदों के अनुसार आप उन-उन मतवादियों को उन्हीं-उन्हीं रूपों में दर्शन देते हैं।

समस्त शब्दों के अर्थ के रूप में तो आप हैं ही, शब्दों के रूप में भी हैं तथा उन दोनों का सम्बन्ध जोड़ने वाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। प्रयक्ष-अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करने वाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वतःसिद्ध है। आप ही मन को लगाने की विधि के रूप में और उसको सब कहीं से हटा लेने की आज्ञा के रूप में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं। इन दोनों के मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं।

आप शुद्धस्त्वमय वसुदेव के पुत्र वासुदेव, संकर्षण एवं प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुर्व्यूह के रूप में आप भक्तों तथा यादवों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करती हैं। आप अंतःकरण और उसकी वृत्तियों के प्रकाशक हैं और उन्हीं के द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अंतःकरण और वृत्तियों के द्वारा ही आपके स्वरूप का कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी वृत्तियों के साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। आप मूलप्रकृति में नित्य विहार करते रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषिकेश! आप मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वभाव है। आपको नमस्कार है।

परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः ।

अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्ट्रेऽस्य च हेतवे ॥ ४८॥

त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान् प्रभो

गुणैरनीहोऽकृतकालशक्तिधृक् ।

तत्तत्स्वभावान् प्रतिबोधयन् सतः

समीक्षयामोघविहार ईहसे ॥ ४९॥

तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां

शान्ता अशान्ता उत मूढयोनयः ।

शान्ताः प्रियास्ते ह्यधुनावितुं सतां

स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः ॥ ५०॥

अपराधः सकृद्भर्त्रा सोढव्यः स्वप्रजाकृतः ।

क्षन्तुमर्हसि शान्तात्मन् मूढस्य त्वामजानतः ॥ ५१॥

अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति पन्नगः ।

स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम् ॥ ५२॥

विधेहि ते किङ्करीणामनुष्ठेयं तवाज्ञया ।

यच्छ्रद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतोभयात् ॥ ५३॥

आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियों के जानने वाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नाम रूपात्मक विश्वप्रपंच के निषेध की अवधि तथा उसके अधिष्ठान होने के कारण विश्वरूप भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्त्वभ्रान्ति एवं स्वरूप ज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं। आपको हमारा नमस्कार है।

प्रभो! यद्यपि कर्तापन न होने के कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं - तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसंकल्प हैं। इसलिये जीवों के संस्कार रूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत कर देते हैं।

त्रिलोकी में तीन प्रकार की योनियाँ हैं - सत्त्वगुण प्रधान शान्त, रजोगुण प्रधान अशान्त और तमोगुण प्रधान मूढ। वे सब-की-सब आपकी लीला-मूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको सत्त्वगुण प्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिये ही हैं। शान्तात्मन्! स्वामी को एक बार अपनी प्रजा का अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ़ है, आपको पहचानता नहीं हैं, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये। भगवन! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधु पुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं। अतः आप हमें हमारे प्राण स्वरूप पतिदेव को दे दीजिये। हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें? क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन - आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है।

श्रीशुक उवाच

इत्थं स नागपत्नीभिर्भगवान् समभिष्टुतः ।

मूर्च्छितं भग्नशिरसं विससर्जाङ्घ्रिकुट्टनैः ॥ ५४॥

प्रतिलब्धेन्द्रियप्राणः कालियः शनकैर्हरिम् ।

कृच्छ्रात्समुच्छ्वसन् दीनः कृष्णं प्राह कृताञ्जलिः ॥ ५५॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान के चरणों की ठोकरों से कालिय नाग के फण छिन्न-भिन्न हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागपत्नियों ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया। धीरे-धीरे कालिय नाग की इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनता से श्वास लेने लगा और थोड़ी देर के बाद बड़ी दीनता से हाथ जोड़कर भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला।

कालिय उवाच

वयं खलाः सहोत्पत्त्या तामसा दीर्घमन्यवः ।

स्वभावो दुस्त्यजो नाथ लोकानां यदसद्ग्रहः ॥ ५६॥

त्वया सृष्टमिदं विश्वं धातर्गुणविसर्जनम् ।

नानास्वभाववीर्यौजोयोनिबीजाशयाकृति ॥ ५७॥

वयं च तत्र भगवन् सर्पा जात्युरुमन्यवः ।

कथं त्यजामस्त्वन्मायां दुस्त्यजां मोहिताः स्वयम् ॥ ५८॥

भवान् हि कारणं तत्र सर्वज्ञो जगदीश्वरः ।

अनुग्रहं निग्रहं वा मन्यसे तद्विधेहि नः ॥ ५९॥

कालिय नाग ने कहा ;- नाथ! हम जन्म से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेने वाले - बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवों के लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फँस जाते हैं। विश्वविधाता! आपने ही गुणों के भेद से इस जगत में नाना प्रकार के स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियों का निर्माण किया है।

भगवन्! आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं। हम जन्म से ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्न से इस दुस्त्यज माया का त्याग कैसे करें। आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं। अब आप अपनी इच्छा से - जैसा ठीक समझें - कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये।

श्रीशुक उवाच

इत्याकर्ण्य वचः प्राह भगवान् कार्यमानुषः ।

नात्र स्थेयं त्वया सर्प समुद्रं याहि मा चिरम् ।

स्वज्ञात्यपत्यदाराढ्यो गोनृभिर्भुज्यतां नदी ॥ ६०॥

य एतत्संस्मरेन्मर्त्यस्तुभ्यं मदनुशासनम् ।

कीर्तयन्नुभयोः सन्ध्योर्न युष्मद्भयमाप्नुयात् ॥ ६१॥

योऽस्मिन् स्नात्वा मदाक्रीडे देवादींस्तर्पयेज्जलैः ।

उपोष्य मां स्मरन्नर्चेत्सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६२॥

द्वीपं रमणकं हित्वा ह्रदमेतमुपाश्रितः ।

यद्भयात्स सुपर्णस्त्वां नाद्यान्मत्पादलाञ्छितम् ॥ ६३॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- कालिय नाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जल का उपभोग करें। जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञा का स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपों से कभी भय न हो। मैंने इस कालिय दह में क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जल से देवता और पितरों का तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगा - वह सब पापों से मुक्त हो जायगा। मैं जानता हूँ कि तू गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नों से अंकित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड़ तुझे खायेंगे नहीं।

श्रीशुक उवाच

एवमुक्तो भगवता कृष्णेनाद्भुतकर्मणा ।

तं पूजयामास मुदा नागपत्न्यश्च सादरम् ॥ ६४॥

दिव्याम्बरस्रङ्मणिभिः परार्ध्यैरपि भूषणैः ।

दिव्यगन्धानुलेपैश्च महत्योत्पलमालया ॥ ६५॥

पूजयित्वा जगन्नाथं प्रसाद्य गरुडध्वजम् ।

ततः प्रीतोऽभ्यनुज्ञातः परिक्रम्याभिवन्द्य तम् ॥ ६६॥

सकलत्रसुहृत्पुत्रो द्वीपमब्धेर्जगाम ह ।

तदैव सामृतजला यमुना निर्विषाभवत् ।

अनुग्रहाद्भगवतः क्रीडामानुषरूपिणः ॥ ६७॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान श्रीकृष्ण की एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियों ने आनन्द से भरकर बड़े आदर से उनकी पूजा की।

उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलों की माला से जगत के स्वामी गरुडध्वज भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्द से उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की। लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से यमुना जी का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कालियमोक्षणं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 17

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