श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १८                                                        

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १८ "प्रलम्बासुर-उद्धार"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १८

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं अष्टादश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १८                                                                            

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१० पूर्वार्ध अध्यायः१८   

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ अष्टादशोऽध्यायः॥

श्रीशुक उवाच

अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः ।

अनुगीयमानो न्यविशद्व्रजं गोकुलमण्डितम् ॥ १॥

व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया ।

ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम् ॥ २॥

स च वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः ।

यत्रास्ते भगवान् साक्षाद्रामेण सह केशवः ॥ ३॥

यत्र निर्झरनिर्ह्रादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम् ।

शश्वत्तच्छीकरर्जीषद्रुममण्डलमण्डितम् ॥ ४॥

सरित्सरःप्रस्रवणोर्मिवायुना

कह्लारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा ।

न विद्यते यत्र वनौकसां दवो

निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले ॥ ५॥

अगाधतोयह्रदिनी तटोर्मिभि-

र्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समन्ततः ।

न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा

भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते ॥ ६॥

वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम् ।

गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम् ॥ ७॥

क्रीडिष्यमाणस्तत्कृष्णो भगवान् बलसंयुतः ।

वेणुं विरणयन् गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत् ॥ ८॥

प्रवालबर्हस्तबकस्रग्धातुकृतभूषणाः ।

रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः ॥ ९॥

कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन् ।

वेणुपाणितलैः शृङ्गैः प्रशशंसुरथापरे ॥ १०॥

गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ ।

ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ॥ ११॥

भ्रामणैर्लङ्घनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः ।

चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित् ॥ १२॥

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियों से घिरे हुए एवं उनके मुख से अपनी कीर्ति का गान सुनते हुए श्रीकृष्ण ने गोकुलमण्डित गोष्ठ में प्रवेश किया। इस प्रकार अपनी योगमाया से ग्वाल का-वेष बनाकर राम और श्याम व्रज में क्रीड़ा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियों को बहुत प्रिय नहीं है।

परन्तु वृन्दावन के स्वाभाविक गुणों से वहाँ वसन्त की ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावन में परम मधुर भगवान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलराम जी निवास जो करते थे। झींगुरों की तीखी झंकार झरनों के मधुर झर-झरने छिप गयी थी। उन झरनों से सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जल की फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँ के वृक्षों की हरियाली देखते ही बनती थी ।

जिधर देखिये, हरी-हरी दूब से पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनों की लहरों का स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंत के खिले हुए, देर के खिले हुए - कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकार के कमलों का पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायु के कारण वनवासियों को गर्मी का किसी प्रकार का क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्नि का ताप लगता था और न तो सूर्य का घाम ही।

नदियों में अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटों को चूम जाया करतीं थीं। वे उनके पुलिनों से टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पास की भूमि गीली बनी रहती और सूर्य की अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँ की पृथ्वी और हरी-भरी घास को नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी।

उस वन में वृक्षों की पाँत-की-पाँत फूलों से लद रही थी। जहाँ देखिये, वहीं से सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरह के हिरन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं। ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम जी ने उसमें विहार करने की इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीच में अपने बड़े भाई के साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण।

राम, श्याम और ग्वालबालों ने नव पल्लवों, मोर-पंख के गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पों के हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को भाँति-भाँति से सजा लिया। फिर कोई आनन्द में मग्न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लड़ने लगा और किसी-किसी ने राग अलापना शुरु कर दिया। जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सींग बजाने लगते। कुछ हथेली से ही ताल देते, तो कुछ वाह-वाहकरने लगते।

परीक्षित! उस समय नट जैसे अपने नायक की प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवता लोग ग्वालबालों का रूप धारण करके वहाँ आते और गोप जाति में जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगते। घुँघराली अलकों वाले श्याम और बलराम कभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कुम्हार के चाक की तरह चक्कर काटते-घुमरी-परेता खेलते। कभी एक-दूसरे से अधिक फाँद जाने की इच्छा से कूदते-कूँडी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करते-एक दल दूसरे डाल के विपरीत रस्सी पकड़कर खींचता और कभी कहीं एक-दूसरे से कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरह के खेल खेलते।

क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम् ।

शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ ॥ १३॥

क्वचिद्बिल्वैः क्वचित्कुम्भैः क्व चामलकमुष्टिभिः ।

अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया ॥ १४॥

क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः ।

कदाचित्स्पन्दोलिकया कर्हिचिन्नृपचेष्टया ॥ १५॥

एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने ।

नद्यद्रिद्रोणिकुञ्जेषु काननेषु सरःसु च ॥ १६॥

पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः ।

गोपरूपी प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया ॥ १७॥

तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान् सर्वदर्शनः ।

अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन् ॥ १८॥

तत्रोपाहूय गोपालान् कृष्णः प्राह विहारवित् ।

हे गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम् ॥ १९॥

तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ ।

कृष्णसङ्घट्टिनः केचिदासन् रामस्य चापरे ॥ २०॥

आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः ।

यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिताः ॥ २१॥

वहन्तो वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम् ।

भाण्डीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः ॥ २२॥

रामसङ्घट्टिनो यर्हि श्रीदामवृषभादयः ।

क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप ॥ २३॥

उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः ।

वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥ २४॥

अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः ।

वहन्द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम् ॥ २५॥

तमुद्वहन् धरणिधरेन्द्रगौरवं

महासुरो विगतरयो निजं वपुः ।

स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ

तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः ॥ २६॥

कभी एक-दूसरे पर बेल, जायफल या आँवले के फल हाथ में लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरे की आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछे से ढूँढता - इस प्रकार आँख मिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरे को छूने के लिये बहुत दूर-दूर तक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियों की चेष्टाओं का अनुकरण करते। कहीं मेढ़कों की तरह फुदक-फुदककर चलते तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरे की हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियों से वृक्षों पर झूला डालकर झूलते तो कभी दो बालकों को खड़ा कराकर उनकी बाँहों के बल-पर ही लटकने लगते। कभी किसी राजा की नक़ल करने लगते।इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुंज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते हैं।

एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएँ चरा रहे थे तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उनकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ। भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये। ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलों के आचार्य श्रीकृष्ण ही थे।

उन्होंने सब ग्वालबालों को बुलाकर कहा ;- मेरे प्यारे मित्रों! आज हम लोग अपने को उचित रीति से दो दलों में बाँट लें और फिर आनन्द से खेलें। उस खेल में ग्वालबालों ने बलराम और श्रीकृष्ण को नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्ण के साथी बन गये और कुछ बलराम के। फिर उन लोगों ने तरह-तरह से ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दल के लोग दूसरे दल के लोगों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर एक निर्दिष्ट स्थान पर ले जाते थे। जीतने वाला दल चढ़ता था और हारने वाला दल ढोता थ। इस प्रकार एक-दूसरे की पीठ पर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वट के पास पहुँच गये ।

परीक्षित! एक बार बलराम जी के दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालों ने खेल में बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठ पर चढ़ाकर ढ़ोने लगे। हारे हुए श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को अपनी पीठ पर चढ़ाया, भद्रसेन ने वृषभ को प्रलम्ब ने बलराम जी को। दानवपुंगव प्रलम्ब ने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा।

अतः वह उन्हीं के पक्ष में हो गया और बलराम जी को लेकर फुर्ती से भाग चला, और पीठ पर से उतारने के लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया। बलराम जी बड़े भारी पर्वत के समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूर तक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीर पर सोने के गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलराम जी को धारण करने के कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली से युक्त काला बादल चन्द्रमा को धारण किये हुए हो।

निरीक्ष्य तद्वपुरलमम्बरे चर-

त्प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम् ।

ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-

त्विषाद्भुतं हलधर ईषदत्रसत् ॥ २७॥

अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलो

विहायसार्थमिव हरन्तमात्मनः ।

रुषाहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना

सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा ॥ २८॥

स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको

मुखाद्वमन् रुधिरमपस्मृतोऽसुरः ।

महारवं व्यसुरपतत्समीरयन्

गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः ॥ २९॥

दृष्ट्वा प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना ।

गोपाः सुविस्मिता आसन् साधु साध्विति वादिनः ॥ ३०॥

आशिषोऽभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम् ।

प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य प्रेमविह्वलचेतसः ॥ ३१॥

पापे प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः ।

अभ्यवर्षन् बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति ॥ ३२॥

उसकी आँखें आग की तरह धधक रही थीं और दाढ़े भौंहों तक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आग की लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवों में कड़े, सिपर मुकुट और कानों में कुण्डल थे। उनकी कान्ति से वह बड़ा अद्भुत लग रहा था।

उस भयानक दैत्य को बड़े वेग से आकाश में जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये। परन्तु दूसरे ही क्षण अपने स्वरूप की याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलराम जी ने देखा कि जैसे चोर किसी का धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्ग से लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्र ने पर्वतों पर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिर पर एक घूँसा कस कर जमाया। घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँह से खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयंकर शब्द करता हुआ इन्द्र के द्वारा वज्र से मारे हुए पर्वत के समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

बलराम जी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालों ने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुर को मार डाला, तब उनके आश्चर्य की सीमा रही। वे बार-बार वाह-वाहकरने लगे। ग्वालबालों का चित्त प्रेम से विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभकामनाओं की वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आयें हों, इस भाव से आलिंगन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुतः बलरामजी इसके योग्य ही थे।

प्रलम्बासुर मूर्तिमान पाप था। उसकी मृत्यु से देवताओं को बड़ा सुख मिला। वे बलराम जी पर फूल बरसाने लगे और बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा कियाइस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पुर्वार्धे प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 19

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