श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १७                                                       

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १०पूर्वार्ध अध्याय १७ "कालिय के कालिय दह में आने की कथा तथा भगवान का व्रजवासियों को दावानल से बचाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० अध्याय १७

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पूर्वार्धं सप्तदश अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १७  

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः१० पूर्वार्ध अध्यायः१७ 

श्रीमद्भागवत महापुराण दसवाँ स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध १० पूर्वार्ध अध्याय १७ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित 

श्रीमद्भागवतं - दशमस्कन्धः पूर्वार्धं

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ दशमस्कन्धः पूर्वार्धं ॥

॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥

राजोवाच

नागालयं रमणकं कस्मात्तत्याज कालियः ।

कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमञ्जसम् ॥ १॥

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! कालिय नाग ने नागों के निवास स्थान रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा था? और उस अकेले ने ही गरुड़ जी का कौन-सा अपराध किया था?

श्रीशुक उवाच

उपहार्यैः सर्पजनैर्मासि मासीह यो बलिः ।

वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ्निरूपितः ॥ २॥

स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागाः पर्वणि पर्वणि ।

गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने ॥ ३॥

विषवीर्यमदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः ।

कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम् ॥ ४॥

तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन् भगवान् भगवत्प्रियः ।

विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत् ॥ ५॥

तमापतन्तं तरसा विषायुधः

प्रत्यभ्ययादुच्छ्रितनैकमस्तकः ।

दद्भिः सुपर्णं व्यदशद्ददायुधः

करालजिह्वोच्छ्वसितोग्रलोचनः ॥ ६॥

तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्

प्रचण्डवेगो मधुसूदनासनः ।

पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा

जघान कद्रूसुतमुग्रविक्रमः ॥ ७॥

सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः ।

ह्रदं विवेश कालिन्द्यास्तदगम्यं दुरासदम् ॥ ८॥

तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम् ।

निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोऽहरत् ॥ ९॥

मीनान् सुदुःखितान् दृष्ट्वा दीनान् मीनपतौ हते ।

कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन् ॥ १०॥

अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान् स खादति ।

सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद्ब्रवीम्यहम् ॥ ११॥

तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः ।

अवात्सीद्गरुडाद्भीतः कृष्णेन च विवासितः ॥ १२॥

कृष्णं ह्रदाद्विनिष्क्रान्तं दिव्यस्रग्गन्धवाससम् ।

महामणिगणाकीर्णं जाम्बूनदपरिष्कृतम् ॥ १३॥

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! पूर्वकाल में गरुड़ जी को उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले सर्पों ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास में निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुड़ को एक सर्प की भेंट दी जाय।

इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षा के लिये महात्मा गरुड़ जी को अपना-अपना भाग देते रहते थे। उन सर्पों में कद्रू का पुत्र कालिय नाग अपने विष और बल के घमण्ड से मतवाला हो रहा था। उसने गरुड़ का तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहा - दूसरे साँप जो गरुड़ को बलि देते, उसे भी खा लेता।

परीक्षित! यह सुनकर भगवान के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुड़ को बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिय नाग को मार डालने के विचार से बड़े वेग से उस पर आक्रमण किया। विषधर कालिय नाग ने जब देखा कि गरुड़ बड़े वेग से मुझ पर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसने के लिए उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये अपने दाँतों से गरुड़ को डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं।

ताक्षर्यनन्दन गरुड़ जी विष्णु भगवान के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने अपने शरीर से झटककर फ़ेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंख से कालिय नाग पर बड़े जोर से प्रहार किया। उनके पंख की चोट से कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँ से भगा और यमुना जी के इस कुण्ड में चला आया।

यमुना जी का यह कुण्ड गरुड़ के लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे। इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा लिया। अपने मुखिया मत्स्यराज के मारे जाने के कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरि को बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्ड में रहने-वाले सब जीवों की भलाई के लिये गरुड़ को यह शाप दे दिया। यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ।'

परीक्षित! महर्षि सौभरि के इस शाप की बात कालिय नाग के सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुड़ के भय से वहाँ रहने लगा था और अब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे निर्भय करके वहाँ से रमण द्वीप में भेज दिया।

परीक्षित! इधर भगवान श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो उस कुण्ड से बाहर निकले।

उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः ।

प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याभिरेभिरे ॥ १४॥

यशोदा रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्च कौरव ।

कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसन् लब्धमनोरथाः ॥ १५॥

रामश्चाच्युतमालिङ्ग्य जहासास्यानुभाववित् ।

(प्रेम्णा तमङ्कमारोप्य पुनः पुनरुदैक्षत ।)

नगा गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम् ॥ १६॥

नन्दं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः ।

ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः ॥ १७॥

देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे ।

नन्दः प्रीतमना राजन् गाः सुवर्णं तदाऽऽदिशत् ॥ १८॥

यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती ।

परिष्वज्याङ्कमारोप्य मुमोचाश्रुकलां मुहुः ॥ १९॥

तां रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्शिताः ।

ऊषुर्व्रजौकसो गावः कालिन्द्या उपकूलतः ॥ २०॥

तदा शुचिवनोद्भूतो दावाग्निः सर्वतो व्रजम् ।

सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे ॥ २१॥

तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकसः ।

कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम् ॥ २२॥

कृष्ण कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम ।

एष घोरतमो वह्निस्तावकान् ग्रसते हि नः ॥ २३॥

सुदुस्तरान्नः स्वान् पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो ।

न शक्नुमस्त्वच्चरणं सन्त्यक्तुमकुतोभयम् ॥ २४॥

इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः ।

तमग्निमपिबत्तीव्रमनन्तोऽनन्तशक्तिधृक् ॥ २५॥

उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणों को पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपों का हृदय आनन्द से भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपने कन्हैया को हृदय से लगाने लगे। परीक्षित! यशोदा रानी, रोहिणी जी, नन्दबाबा, गोपी और गोप - सभी श्रीकृष्ण को पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया। बलराम जी तो भगवान का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्ण को हृदय लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े - सब-के-सब आनन्दमग्न हो गये।

गोपों के कुलगुरु ब्राह्मणों ने अपनी पत्नियों के साथ नन्दबाबा के पास आकर कहा ;- ‘नन्दजी! तुम्हारे बालक को कालिय नाग ने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्य की बात है! श्रीकृष्ण के मृत्यु के मुख से लौट आने के उपलक्ष्य में तुम ब्राह्मणों को दान करो।परीक्षित! ब्राह्मणों की बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणों को दान दीं। परम सौभाग्यवती देवी यशोदा ने भी काल के गाल से बचे हुए अपने लाल को गोद में लेकर हृदय से चिपका लिया। उनकी आँखों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं।

राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपर से भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रज में नहीं गये, वहीं यमुना जी के तटपर सो रहे। गर्मी के दिन थे, उधर का वन सूख गया था। आधी रात के समय उसमें आग लग गयी। उस आग ने सोये हुए व्रजवासियों को चारों ओर से घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी।

आग की आँच लगने पर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गये। उन्होंने कहा - प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुंदर! महाभाग्यवान बलराम! तुम दोनों का बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, यह भयंकर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनों को जलाना ही चाहती है। तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद हैं, इसलिये इस प्रलय की अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्यु से नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़ने में हम असमर्थ हैं। भगवान अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आग को पी गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायांदशमस्कन्धे पूर्वार्धे दावाग्निमोचनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥

जारी-आगे पढ़े............... दशम स्कन्ध अध्याय 18

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