श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ९                            

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ९ "विश्वरूप का वध, वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार और भगवान् की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ९

श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ९                                                

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ६ अध्यायः ९                                                   

श्रीमद्भागवत महापुराण छठवाँ स्कन्ध नवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ९ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतं - षष्ठस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ नवमोऽध्यायः - ९ ॥

श्रीशुक उवाच

तस्यासन् विश्वरूपस्य शिरांसि त्रीणि भारत ।

सोमपीथं सुरापीथमन्नादमिति शुश्रुम ॥ १॥

स वै बर्हिषि देवेभ्यो भागं प्रत्यक्षमुच्चकैः ।

अददद्यस्य पितरो देवाः सप्रश्रयं नृप ॥ २॥

स एव हि ददौ भागं परोक्षमसुरान् प्रति ।

यजमानोऽवहद्भागं मातृस्नेहवशानुगः ॥ ३॥

तद्देवहेलनं तस्य धर्मालीकं सुरेश्वरः ।

आलक्ष्य तरसा भीतस्तच्छीर्षाण्यच्छिनद्रुषा ॥ ४॥

सोमपीथं तु यत्तस्य शिर आसीत्कपिञ्जलः ।

कलविङ्कः सुरापीथमन्नादं यत्स तित्तिरिः ॥ ५॥

ब्रह्महत्यामञ्जलिना जग्राह यदपीश्वरः ।

संवत्सरान्ते तदघं भूतानां स विशुद्धये ॥ ६॥

भूम्यम्बुद्रुमयोषिद्भ्यश्चतुर्धा व्यभजद्धरिः ।

भूमिस्तुरीयं जग्राह खातपूरवरेण वै ॥ ७॥

ईरिणं ब्रह्महत्याया रूपं भूमौ प्रदृश्यते ।

तुर्यं छेदविरोहेण वरेण जगृहुर्द्रुमाः ॥ ८॥

तेषां निर्यासरूपेण ब्रह्महत्या प्रदृश्यते ।

शश्वत्कामवरेणांहस्तुरीयं जगृहुः स्त्रियः ॥ ९॥

रजोरूपेण तास्वंहो मासि मासि प्रदृश्यते ।

द्रव्यभूयोवरेणापस्तुरीयं जगृहुर्मलम् ॥ १०॥

तासु बुद्बुदफेनाभ्यां दृष्टं तद्धरति क्षिपन् ।

हतपुत्रस्ततस्त्वष्टा जुहावेन्द्राय शत्रवे ॥ ११॥

इन्द्रशत्रो विवर्धस्व मा चिरं जहि विद्विषम् ।

अथान्वाहार्यपचनादुत्थितो घोरदर्शनः ॥ १२॥

कृतान्त इव लोकानां युगान्तसमये यथा ।

विष्वग्विवर्धमानं तमिषुमात्रं दिने दिने ॥ १३॥

दग्धशैलप्रतीकाशं सन्ध्याभ्रानीकवर्चसम् ।

तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं मध्याह्नार्कोग्रलोचनम् ॥ १४॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! हमने सुना है कि विश्वरूप के तीन सिर थे। वे एक मुँह से सोमरस तथा दूसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे। उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे। साथ ही वे छिप-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे। उनकी माता असुर कुल की थीं, इसीलिये वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों का भाग पहुँचाया करते थे।

देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिये। विश्वरूप का सोमरस पीने वाला सिर पपीहा, सुरापान करने वाला गौरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया। इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुई हत्या को दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरन हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया।

परीक्षित! पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने-आप भर जायेगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं-कहीं ऊसर के रूप में दिखायी पड़ती है। दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायेगा। उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। स्त्रियों ने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें; ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्तांश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप में दिखायी पड़ती है। जल ने यह वर पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया। फेन, बुद्बुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं।

विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा हे इन्द्रशत्रो! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो’-इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिये हवन करने लगे। यज्ञ समाप्त होने पर अन्वाहार्य-पचन नामक अग्नि (दक्षिणाग्नि) से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकों का नाश करने के लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो।

परीक्षित! वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर बढ़ जाया करता था। वह जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील-डौल का था। उसके शरीर में से सन्ध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी। उसके सिर के बाल और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल रंग के तथा नेत्र दोपहर के सूर्य के समान प्रचण्ड थे।

देदीप्यमाने त्रिशिखे शूल आरोप्य रोदसी ।

नृत्यन्तमुन्नदन्तं च चालयन्तं पदा महीम् ॥ १५॥

दरीगम्भीरवक्त्रेण पिबता च नभस्तलम् ।

लिहता जिह्वयर्क्षाणि ग्रसता भुवनत्रयम् ॥ १६॥

महता रौद्रदंष्ट्रेण जृम्भमाणं मुहुर्मुहुः ।

वित्रस्ता दुद्रुवुर्लोका वीक्ष्य सर्वे दिशो दश ॥ १७॥

येनावृता इमे लोकास्तमसा त्वाष्ट्रमूर्तिना ।

स वै वृत्र इति प्रोक्तः पापः परमदारुणः ॥ १८॥

तं निजघ्नुरभिद्रुत्य सगणा विबुधर्षभाः ।

स्वैः स्वैर्दिव्यास्त्रशस्त्रौघैः सोऽग्रसत्तानि कृत्स्नशः ॥ १९॥

ततस्ते विस्मिताः सर्वे विषण्णा ग्रस्ततेजसः ।

प्रत्यञ्चमादिपुरुषमुपतस्थुः समाहिताः ॥ २०॥

चमकते हुए तीन नोकों वाले त्रिशूल को लेकर जब वह नाचने, चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी और ऐसा जान पड़ता था कि उस त्रिशूल पर उसने अन्तरिक्ष को उठा रखा है। वह बार-बार जँभाई लेता था। इससे जब उसका कन्दरा के समान गम्भीर मुँह खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाश को पी जायेगा, जीभ से सारे नक्षत्रों को चाट जायेगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ों वाले मुँह से तीनों लोकों को निगल जायेगा। उसके भयावने रूप को देखकर सब लोग डर गये और इधर-उधर भागने लगे।

परीक्षित! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। इसी से उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा। बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुयायियों के सहित एक साथ ही उस पर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। अब तो देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। उनका प्रभाव जाता रहा। वे सब-के-सब दीन-हीन और उदास हो गये तथा एकाग्रचित्त से अपने हृदय में विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायण की शरण में गये।

देवा ऊचुः

वाय्वम्बराग्न्यप्क्षितयस्त्रिलोका

ब्रह्मादयो ये वयमुद्विजन्तः ।

हराम यस्मै बलिमन्तकोऽसौ

बिभेति यस्मादरणं ततो नः ॥ २१॥

अविस्मितं तं परिपूर्णकामं

स्वेनैव लाभेन समं प्रशान्तम् ।

विनोपसर्पत्यपरं हि बालिशः

श्वलाङ्गुलेनातितितर्ति सिन्धुम् ॥ २२॥

यस्योरुश्रृङ्गे जगतीं स्वनावं

मनुर्यथाऽऽबध्य ततार दुर्गम् ।

स एव नस्त्वाष्ट्रभयाद्दुरन्ता-

त्त्राताऽऽश्रितान् वारिचरोऽपि नूनम् ॥ २३॥

पुरा स्वयम्भूरपि संयमाम्भ-

स्युदीर्णवातोर्मिरवैः कराले ।

एकोऽरविन्दात्पतितस्ततार

तस्माद्भयाद्येन स नोऽस्तु पारः ॥ २४॥

य एक ईशो निजमायया नः

ससर्ज येनानुसृजाम विश्वम् ।

वयं न यस्यापि पुरः समीहतः

पश्याम लिङ्गं पृथगीशमानिनः ॥ २५॥

यो नः सपत्नैर्भृशमर्द्यमानान्

देवर्षितिर्यङ्नृषु नित्य एव ।

कृतावतारस्तनुभिः स्वमायया

कृत्वाऽऽत्मसात्पाति युगे युगे च ॥ २६॥

तमेव देवं वयमात्मदैवतं

परं प्रधानं पुरुषं विश्वमन्यम् ।

व्रजाम सर्वे शरणं शरण्यं

स्वानां स नो धास्यति शं महात्मा ॥ २७॥

देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं। प्रभो! आपके लिये कोई नयी बात न होने के कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्ते की पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है। वैवस्वत मनु पिछले कल्प के अन्त में जिनके विशाल सींग में पृथ्वीरूप नौका को बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन संकट से बच गये, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्रासुर के द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भय से अवश्य बचायेंगे।

प्राचीनकाल में प्रचण्ड पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रह्मा जी भगवान् के नाभिकमल से अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जल में गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि उनकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें। उन्हीं प्रभु ने अद्वितीय होने पर भी अपनी माया से हमारी रचना की और उन्हीं के अनुग्रह से हम लोग सृष्टि कार्य का संचालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकार की चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’-अपने इस अभिमान के कारण हम लोग उनके स्वरूप को देख नहीं पाते।

वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तव में निर्विकार रहने पर भी अपनी माया का आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों में अवतार लेते हैं, तथा युग-युग में हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं। वे ही सबके आत्मा और परमाध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूप से विश्व के कारण हैं। वे विश्व से पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करते हैं। उदार शिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओं का कल्याण करेंगे।

श्रीशुक उवाच

इति तेषां महाराज सुराणामुपतिष्ठताम् ।

प्रतीच्यां दिश्यभूदाविः शङ्खचक्रगदाधरः ॥ २८॥

आत्मतुल्यैः षोडशभिर्विना श्रीवत्सकौस्तुभौ ।

पर्युपासितमुन्निद्रशरदम्बुरुहेक्षणम् ॥ २९॥

दृष्ट्वा तमवनौ सर्व ईक्षणाह्लादविक्लवाः ।

दण्डवत्पतिता राजञ्छनैरुत्थाय तुष्टुवुः ॥ ३०॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महाराज! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिम की ओर (अन्तर्देश में) प्रकट हुए। भगवान् के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नहीं थी।

परीक्षित! भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्द से विह्वल हो गये। उन लोगों ने धरती पर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान् की स्तुति करने लगे।

देवा ऊचुः

नमस्ते यज्ञवीर्याय वयसे उत ते नमः ।

नमस्ते ह्यस्तचक्राय नमः सुपुरुहूतये ॥ ३१॥

यत्ते गतीनां तिसृणामीशितुः परमं पदम् ।

नार्वाचीनो विसर्गस्य धातर्वेदितुमर्हति ॥ ३२॥

ओं नमस्तेऽस्तु भगवन् नारायण

वासुदेवाऽऽदिपुरुष महापुरुष महानुभाव

परममङ्गल परमकल्याण परमकारुणिक

केवल जगदाधार लोकैकनाथ सर्वेश्वर

लक्ष्मीनाथ परमहंसपरिव्राजकैः

परमेणात्मयोगसमाधिना परिभावित-

परिस्फुटपारमहंस्यधर्मेणोद्घाटिततमः-

कपाटद्वारे चित्तेऽपावृत आत्मलोके

स्वयमुपलब्धनिजसुखानुभवो भवान् ॥ ३३॥

दुरवबोध इव तवायं विहारयोगो

यदशरणोऽशरीर इदमनवेक्षितास्म-

त्समवाय आत्मनैवाविक्रियमाणेन

सगुणमगुणः सृजसि पासि हरसि ॥ ३४॥

देवताओं ने कहा ;- भगवन्! यज्ञ में स्वर्गादि देने की शक्ति तथा उनके फल की सीमा निश्चित करने वाले काल भी आप ही हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप चक्र से छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामों की कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। विधातः! सत्त्व, रज, तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं। आपके परमपद का वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत् का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता।

भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत् के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परममंगलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परमदयालु हैं। आप ही सारे जगत् के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत् के स्वामी हैं। आप सर्वेश्वर हैं तथा सौन्दर्य और मृदुलता की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के परमगति हैं।

प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परमसमाधि से भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदय में परमहंसों के धर्म वास्तविक भगवद्भजन का उदय होता है। इससे उनके हृदय के अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनकी आत्मलोक में आप आत्मानन्द के रूप में बिना किसी आवरण के प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।

भगवन्! आपकी लीला का रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीर के हम लोगों के सहयोग की अपेक्षा न करके निगुण और निर्विकार होने पर भी स्वयं ही इस सगुण जगत् की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं।

अथ तत्र भवान् किं देवदत्तवदिह

गुणविसर्गपतितः पारतन्त्र्येण स्वकृत-

कुशलाकुशलं फलमुपाददात्याहोस्वि-

दात्माराम उपशमशीलः समञ्जसदर्शन

उदास्त इति ह वाव न विदामः ॥ ३५॥

न हि विरोध उभयं भगवत्यपरिमित-

गुणगण ईश्वरेऽनवगाह्यमाहात्म्येऽर्वाचीन-

विकल्पवितर्कविचारप्रमाणाभासकुतर्क-

शास्त्रकलिलान्तःकरणाश्रयदुरवग्रहवादिनां

विवादानवसर उपरतसमस्तमायामये

केवल एवात्ममायामन्तर्धाय को

न्वर्थो दुर्घट इव भवति स्वरूपद्वयाभावात् ॥ ३६॥

समविषममतीनां मतमनुसरसि यथा

रज्जुखण्डः सर्पादिधियाम् ॥ ३७॥

स एव हि पुनः सर्ववस्तुनि वस्तुस्वरूपः

सर्वेश्वरः सकलजगत्कारणकारणभूतः

सर्वप्रत्यगात्मत्वात्सर्वगुणाभासोपलक्षित

एक एव पर्यवशेषितः ॥ ३८॥

अथ ह वाव तव महिमामृतरससमुद्र-

विप्रुषा सकृदवलीढया स्वमनसि

निष्यन्दमानानवरतसुखेन विस्मारित-

दृष्टश्रुतविषयसुखलेशाभासाः

परमभागवता एकान्तिनो भगवति

सर्वभूतप्रियसुहृदि सर्वात्मनि नितरां

निरन्तरं निर्वृतमनसः कथमु ह वा एते

मधुमथन पुनः स्वार्थकुशला ह्यात्मप्रिय-

सुहृदः साधवस्त्वच्चरणाम्बुजानुसेवां

विसृजन्ति न यत्र पुनरयं संसारपर्यावर्तः ॥ ३९॥

त्रिभुवनात्मभवन त्रिविक्रम त्रिनयन

त्रिलोकमनोहरानुभाव तवैव विभूतयो

दितिजदनुजादयश्चापि तेषामनुपक्रम-

समयोऽयमिति स्वात्ममायया

सुरनरमृगमिश्रितजलचराकृतिभि-

र्यथापराधं दण्डं दण्डधर दधर्थ

एवमेनमपि भगवन् जहि त्वाष्ट्रमुत

यदि मन्यसे ॥ ४०॥

भगवन्! हम लोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्म में आप देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के समान गुणों के कार्यरूप इस जगत् में जीवरूप से प्रकट हो जाते हैं और कर्मों के अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन-साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं। हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकार के विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्क पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करके अपने हृदय को दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं। आपमें उनके वाद-विवाद के लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थों से परे, केवल है। जब आप उसी में अपनी माया को छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती? इसलिये आप साधारण पुरुषों के समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषों के समान उदासीन भी। इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न तो उदासीन ही। आप तो दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं।

जैसे एक ही रस्सी का टुकड़ा भ्रान्त पुरुषों को सर्प, माला, धारा आदि के रूप में प्रतीत होता है, किन्तु जानकार को रस्सी के रूप में-वैसे ही आप भी भ्रान्त बुद्धि वालों को कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपों में दीखते हैं और ज्ञानी को शुद्ध सच्चिदानन्द के रूप में। आप सभी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं। विचारपूर्वक देखने से मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओं में वस्तुत्व के रूप से विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत् के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदि के भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं; इसलिये जगत् में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही संकेत करती हैं और श्रुतियों ने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्त में निषेध की अवधि के रूप में केवल आपको ही शेष रखा है।

मधुसूदन! आपकी अमृतमयी महिमारस का अनन्त समुद्र है। उनके नन्हें-से सीकर का भी, अधिक नहीं-एक बार भी स्वाद चख लेने से हृदय में नित्य-निरन्तर परमानन्द की धारा बहने लगती है। उसके कारण अब तक जगत् में विषय-भोगों के जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुख का अनुभव हुआ है या परलोक आदि के विषय में सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भूला दिया है, समस्त प्राणियों के परमप्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्यनिधि परमेश्वर में जो मन को नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तन का ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्य प्रेमी परमभक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। मधुसूदन! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलों का सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से सदा के लिये छुटकारा मिल जाता है।

प्रभो! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगों से सारे जगत् को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकों के संचालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकी का मन हरण करने वाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं। तथापि यह उनकी उन्नति का समय नहीं है-यह सोचकर आप अपनी योगमाया से देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरों के रूप में अवतार ग्रहण करते और उनके अपराध के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरों के समान इस वृत्रासुर का भी नाश कर डालिये।

अस्माकं तावकानां तव नतानां तत

ततामह तव चरणनलिनयुगलध्याना-

नुबद्धहृदयनिगडानां स्वलिङ्गविवरणेना-

त्मसात्कृतानामनुकम्पानुरञ्जितविशद-

रुचिरशिशिरस्मितावलोकेन विगलित-

मधुरमुखरसामृतकलया चान्तस्ताप-

मनघार्हसि शमयितुम् ॥ ४१॥

अथ भगवंस्तवास्माभिरखिलजग-

दुत्पत्तिस्थितिलयनिमित्तायमानदिव्य-

मायाविनोदस्य सकलजीवनिकायाना-

मन्तर्हृदयेषु बहिरपि च ब्रह्मप्रत्यगात्म-

स्वरूपेण प्रधानरूपेण च यथादेशकाल-

देहावस्थानविशेषं तदुपादानो-

पलम्भकतयानुभवतः सर्वप्रत्ययसाक्षिण

आकाशशरीरस्य साक्षात्परब्रह्मणः

परमात्मनः कियानिह वार्थविशेषो

विज्ञापनीयः स्याद्विस्फुलिङ्गादिभिरिव

हिरण्यरेतसः ॥ ४२॥

अत एव स्वयं तदुपकल्पयास्माकं

भगवतः परमगुरोस्तव चरणशत-

पलाशच्छायां विविधवृजिनसंसार-

परिश्रमोपशमनीमुपसृतानां वयं

यत्कामेनोपसादिताः ॥ ४३॥

अथो ईश जहि त्वाष्ट्रं ग्रसन्तं भुवनत्रयम् ।

ग्रस्तानि येन नः कृष्ण तेजांस्यस्त्रायुधानि च ॥ ४४॥

हंसाय दह्रनिलयाय निरीक्षकाय

कृष्णाय मृष्टयशसे निरुपक्रमाय ।

सत्सङ्ग्रहाय भवपान्थनिजाश्रमाप्त-

वन्ते परीष्टगतये हरये नमस्ते ॥ ४५॥

भगवन्! आप हमारे पिता, पितामह-सब कुछ हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलों का ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हीं के प्रेम बन्धन से बँध गया है। आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणों से युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है। इसलिये प्रभो! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दया भरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुस्कानयुक्त चितवन से तथा अपने मुखारविन्द से टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दु से हमारे हृदय का ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तर की जलन बुझाइये।

प्रभो! जिस प्रकार अग्नि की ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्नि को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करने में असमर्थ हैं। आपसे भला, कहना ही क्या है। क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाली दिव्यमाया के साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवों के अन्तःकरण में ब्रह्म और अन्तर्यामी के रूप में विराजमान रहते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृति के रूप से आप ही विराजमान हैं। जगत् में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और उपादान और प्रकाशक के रूप में आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियों के साक्षी हैं। आप प्रकाशक के समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें-इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषा से हम लोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत् के परमगुरु हैं। हम आपके चरणकमलों की छत्रछाया में आये हैं, जो विविध पापों के फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकने की थकावट को मिटाने वाली है।

सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण! वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रों को तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकों को भी ग्रस रहा है, आप उसे मार डालिये। प्रभो! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि, अनन्त और उज्ज्वलकीर्ति सम्पन्न हैं। संत लोग आपका ही संग्रह करते हैं। संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अन्त में आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तर के कष्ट को हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।

श्रीशुक उवाच

अथैवमीडितो राजन् सादरं त्रिदशैर्हरिः ।

स्वमुपस्थानमाकर्ण्य प्राह तानभिनन्दितः ॥ ४६॥

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवताओं ने बड़े आदर के साथ इस प्रकार भगवान् का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे।

श्रीभगवानुवाच

प्रीतोऽहं वः सुरश्रेष्ठा मदुपस्थानविद्यया ।

आत्मैश्वर्यस्मृतिः पुंसां भक्तिश्चैव यया मयि ॥ ४७॥

किं दुरापं मयि प्रीते तथापि विबुधर्षभाः ।

मय्येकान्तमतिर्नान्यन्मत्तो वाञ्छति तत्त्ववित् ॥ ४८॥

न वेद कृपणः श्रेय आत्मनो गुणवस्तुदृक् ।

तस्य तानिच्छतो यच्छेद्यदि सोऽपि तथाविधः ॥ ४९॥

स्वयं निःश्रेयसं विद्वान् न वक्त्यज्ञाय कर्म हि ।

न राति रोगिणोऽपथ्यं वाञ्छतो हि भिषक्तमः ॥ ५०॥

श्रीभगवान् ने कहा ;- श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोगों ने स्तुतियुक्त ज्ञान से मेरी उपासना की है, इससे मैं तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ। इस स्तुति के द्वारा जीवों को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती है। देवशिरोमणियो! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते। जो पुरुष जगत् के विषयों को सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याण को नहीं जनता। यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है। जो पुरुष मुक्ति का स्वरूप जानता है, वह अज्ञानी को भी कर्मों में फँसने का उपदेश नहीं देता-जैसे रोगी के चाहते रहने पर भी सद्वैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता।

मघवन् यात भद्रं वो दध्यञ्चमृषिसत्तमम् ।

विद्याव्रततपःसारं गात्रं याचत मा चिरम् ॥ ५१॥

स वा अधिगतो दध्यङ्ङश्विभ्यां ब्रह्म निष्कलम् ।

यद्वा अश्वशिरो नाम तयोरमरतां व्यधात् ॥ ५२॥

दध्यङ्ङाथर्वणस्त्वष्ट्रे वर्माभेद्यं मदात्मकम् ।

विश्वरूपाय यत्प्रादात्त्वष्टा यत्त्वमधास्ततः ॥ ५३॥

युष्मभ्यं याचितोऽश्विभ्यां धर्मज्ञोऽङ्गानि दास्यति ।

ततस्तैरायुधश्रेष्ठो विश्वकर्मविनिर्मितः ।

येन वृत्रशिरो हर्ता मत्तेज उपबृंहितः ॥ ५४॥

तस्मिन् विनिहते यूयं तेजोऽस्त्रायुधसम्पदः ।

भूयः प्राप्स्यथ भद्रं वो न हिंसन्ति च मत्परान् ॥ ५५॥

देवराज इन्द्र! तुम लोगों का कल्याण हो। अब देर मत करो। ऋषशिरोमणि दधीचि के पास जाओ और उनसे उनका शरीर-जो उपासना, व्रत तथा तपस्या के कारण अत्यत्न दृढ़ हो गया है-माँग लो। दधीचि ऋषि को शुद्ध ब्रह्म का ज्ञान है। अश्विनीकुमारों को घोड़े के सिर से उपदेश करने के कारण उनका एक नाम अश्वशिर भी है। उनकी उपदेश की हुई आत्मविद्या के प्रभाव से ही दोनों अश्विनीकुमार जीवन्मुक्त हो गये। अथर्ववेदी दधीचि ऋषि ने पहले-पहल मेरे स्वरूपभूत अभेद्य नारायण कवच का त्वष्टा को उपदेश किया था। त्वष्टा ने वही विश्वरूप को दिया और विश्वरूप से तुम्हें मिला। दधीचि ऋषि धर्म के परम मर्मज्ञ हैं। वे तुम लोगों को अश्विनीकुमार के माँगने पर, अपने शरीर के अंग अवश्य दे देंगे। इसके बाद विश्वकर्मा के द्वारा उन अंगों से एक श्रेष्ठ आयुध तैयार करा लेना।

देवराज! मेरी शक्ति से युक्त होकर तुम उसी शस्त्र के द्वारा वृत्रासुर का सिर काट लोगे।

देवताओं! वृत्रासुर के मर जाने पर तुम लोगों को फिर से तेज, अस्त्र-शस्त्र और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी। तुम्हारा कल्याण अवश्यम्भावी है; क्योंकि मेरे शरणागतों को कोई सता नहीं सकता।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... षष्ठ स्कन्ध: दशमोऽध्यायः

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