श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ४   

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ४  "सती का अग्नि प्रवेश"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ४

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ४   

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः ४   

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध चौंथा अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण      

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय ४ श्लोक का हिन्दी अनुवाद

मैत्रेय उवाच -

एतावदुक्त्वा विरराम शङ्‌करः

     पत्‍न्यङ्‌गनाशं ह्युभयत्र चिन्तयन् ।

सुहृद् दिदृक्षुः परिशङ्‌किता भवान्

     निष्क्रामती निर्विशती द्विधाऽऽस सा ॥ १ ॥

सुहृद् दिदृक्षाप्रतिघातदुर्मनाः

     स्नेहाद्रुदत्यश्रुकलातिविह्वला ।

भवं भवान्यप्रतिपूरुषं रुषा

     प्रधक्ष्यतीवैक्षत जातवेपथुः ॥ २ ॥

ततो विनिःश्वस्य सती विहाय तं

     शोकेन रोषेण च दूयता हृदा ।

पित्रोरगात् स्त्रैणविमूढधीर्गृहान्

     प्रेम्णात्मनो योऽर्धमदात्सतां प्रियः ॥ ३ ॥

तामन्वगच्छन् द्रुतविक्रमां सतीं

     एकां त्रिनेत्रानुचराः सहस्रशः ।

सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादयः

     पुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथाः ॥ ४ ॥

तां सारिका कन्दुकदर्पणाम्बुज

     श्वेतातपत्र व्यजनस्रगादिभिः ।

गीतायनैः दुन्दुभिशङ्‌खवेणुभिः

     वृषेन्द्रमारोप्य विटङ्‌किता ययुः ॥ ५ ॥

आब्रह्मघोषोर्जितयज्ञवैशसं

     विप्रर्षिजुष्टं विबुधैश्च सर्वशः ।

मृद्दार्वयःकाञ्चनदर्भचर्मभिः

     निसृष्टभाण्डं यजनं समाविशत् ॥ ॥ ६ ॥

तामागतां तत्र न कश्चनाद्रियद्

     विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जनः ।

ऋते स्वसॄर्वै जननीं च सादराः

     प्रेमाश्रुकण्ठ्यः परिषस्वजुर्मुदा ॥ ७ ॥

सौदर्यसम्प्रश्नसमर्थवार्तया

     मात्रा च मातृष्वसृभिश्च सादरम् ।

दत्तां सपर्यां वरमासनं च सा

     नादत्त पित्राप्रतिनन्दिता सती ॥ ८ ॥

अरुद्रभागं तमवेक्ष्य चाध्वरं

     पित्रा च देवे कृतहेलनं विभौ ।

अनादृता यज्ञसदस्यधीश्वरी

     चुकोप लोकानिव धक्ष्यती रुषा ॥ ९ ॥

जगर्ह सामर्षविपन्नया गिरा

     शिवद्विषं धूमपथश्रमस्मयम् ।

स्वतेजसा भूतगणान् समुत्थितान्

     निगृह्य देवी जगतोऽभिशृण्वतः ॥ १० ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इतना कहकर भगवान् शंकर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्ष के यहाँ जाने देने अथवा जाने से रोकने-दोनों ही अवस्थाओं में सती के प्राण त्याग की सम्भावना है। इधर, सती जी भी कभी बन्धुजनों को देखने जाने की इच्छा से बाहर आतीं और कभी भगवान् शंकर रुष्ट न हो जायेंइस शंका से फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकने के कारण वे दुविधा में पड़ गयीं-चंचल हो गयीं। बन्धुजनों से मिलने की इच्छा में बाधा पड़ने से वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनों के स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखों में आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थर-थर काँपने लगा और वे अप्रतिमपुरुष भगवान् शंकर की ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टि से देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी। शोक और क्रोध ने उनके चित्त को बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीस्वभाव के कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अंग तक दे दिया था, उन सत्पुरुषों के प्रिय भगवान् शंकर को भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता-पिता के घर चल दीं।

सती को बड़ी फुर्ती से अकेली जाते देख श्रीमहादेव जी के मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान के वाहन वृषभराज को आगे कर तथा और भी अनेकों पार्षद और यक्षों को साथ ले बड़ी तेजी से निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये। उन्होंने सती को बैल पर सवार करा दिया और मैना पक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेल की सामग्री, श्वेत छत्र, चँवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शंख और बाँसुरी आदि गाने-बजाने के सामानों से सुसज्जित हो वे उसके साथ चल दिये।

तदनन्तर सती अपने समस्त सेवकों के साथ दक्ष की यज्ञशाला में पहुँची। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणों में परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वर में कौन बोले; सब ओर ब्रह्मर्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्म के पात्र रखे हुए थे। वहाँ पहुँचने पर पिता के द्वारा सती की अवहेलना हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्ष के भय से सती की माता और बहनों के सिवा किसी भी मनुष्य ने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिनें बहुत प्रसन्न हुईं और प्रेम से गद्गद होकर उन्होंने सती को आदरपूर्वक गले लगाया। किंतु सती जी ने पिता से अपमानित होने के कारण, बहिनों के कुशल-प्रश्न सहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादि को स्वीकार नहीं किया।

सर्वलोकेश्वरी देवी सती का यज्ञमण्डप में तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञ में भगवान् शंकर के लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ; ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोष से सम्पूर्ण लोकों को भस्म कर देंगी। दक्ष को कर्ममार्ग के अभ्यास से बहुत घमण्ड हो गया था। उसे शिव जी से द्वेष करते देख जब सती के साथ आये हुए भूत उसे मारने को तैयार हुए तो देवी सती ने उन्हें अपने तेज से रोक दिया और सब लोगों को सुनाकर पिता की निन्दा करते हुए क्रोध से लड़खड़ाती हुई वाणी में कहा।

देव्युवाच -

न यस्य लोकेऽस्त्यतिशायनः प्रियः

     तथाप्रियो देहभृतां प्रियात्मनः ।

तस्मिन् समस्तात्मनि मुक्तवैरके

     ऋते भवन्तं कतमः प्रतीपयेत् ॥ ११ ॥

दोषान् परेषां हि गुणेषु साधवो

     गृह्णन्ति केचिन्न भवादृशो द्विज ।

गुणांश्च फल्गून् बहुलीकरिष्णवो

     महत्तमास्तेष्वविदद्‍भवानघम् ॥ १२ ॥

नाश्चर्यमेतद्यदसत्सु सर्वदा

     महद्विनिन्दा कुणपात्मवादिषु ।

सेर्ष्यं महापूरुषपादपांसुभिः

     निरस्ततेजःसु तदेव शोभनम् ॥ १३ ॥

यद् द्व्यक्षरं नाम गिरेरितं नृणां

     सकृत्प्रसङ्‌गादघमाशु हन्ति तत् ।

पवित्रकीर्तिं तमलङ्‌घ्यशासनं

     भवानहो द्वेष्टि शिवं शिवेतरः ॥ १४ ॥

यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिभिः

     निषेवितं ब्रह्मरसासवार्थिभिः ।

लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोऽर्थिनः

     तस्मै भवान् द्रुह्यति विश्वबन्धवे ॥ १५ ॥

किं वा शिवाख्यमशिवं न विदुस्त्वदन्ये

     ब्रह्मादयस्तमवकीर्य जटाः श्मशाने ।

तन्माल्यभस्मनृकपाल्यवसत्पिशाचैः

     ये मूर्धभिर्दधति तच्चरणावसृष्टम् ॥ १६ ॥

कर्णौ पिधाय निरयाद्यदकल्प ईशे

     धर्मावितर्यसृणिभिर्नृभिरस्यमाने ।

छिन्द्यात्प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभुश्चेत्

     जिह्वामसूनपि ततो विसृजेत्स धर्मः ॥ १७ ॥

अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरं

     न धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिणः ।

जग्धस्य मोहाद्धि विशुद्धिमन्धसो

     जुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥ १८ ॥

न वेदवादान् अनुवर्तते मतिः

     स्व एव लोके रमतो महामुनेः ।

यथा गतिर्देवमनुष्ययोः पृथक्

     स्व एव धर्मे न परं क्षिपेत्स्थितः ॥ १९ ॥

देवी सती ने कहा ;- पिताजी! भगवान् शंकर से बड़ा तो संसार में कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियों के प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय है, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणी से वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप हैं; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा?

द्विजवर! आप-जैसे लोग दूसरों के गुणों में भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग-दोष देखने की बात तो अलग रही-दूसरों के थोड़े से गुण को भी बड़े रूप में देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ है। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषों पर भी दोषारोपण ही किया। जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जड़ शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषों की निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टा पर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणों की धूलि उनके इस अपराध को न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अतः महापुरुषों की निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषों को ही शोभा देता है। जिनका शिवयह दो अक्षरों का नाम प्रसंगवश एक बार भी मुख से निकल जाने पर मनुष्य के समस्त पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञा का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता, अहो! उन्हीं पवित्रकीर्ति मंगलमय भगवान् शंकर से आप द्वेष करते हैं! अवश्य ही आप मंगलरूप हैं।

अरे! महापुरुषों के मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रस का पान करने की इच्छा से जिनके चरणकमलों का निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषों को उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिव से आप वैर करते हैं। वे केवल नाममात्र के शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप-अमंगलरूप है; इस बात को आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशान भूमिस्थ नरमुण्डों की माला, चिता की भस्म और हड्डियाँ पहने, जटा बिखेरे, भूत-पिशाचों के साथ श्मशान में निवास करते हैं, उन्हीं के चरणों पर से गिरे हुए निर्माल्य को ब्रह्मा आदि देवता अपने सिर पर धारण करते हैं।

यदि निरंकुश लोग धर्ममर्यादा की रक्षा करने वाले अपने पूजनीय स्वामी की निन्दा करें तो अपने में उसे दण्ड देने की शक्ति न होने पर कान बंद करके वहाँ से चला जाये और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करने वाली अमंगलरूप दुष्ट जिह्वा को काट डाले। इस पाप को रोकने के लिये स्वयं अपने प्राण तक दे दे, यही धर्म है। आप भगवान् नीलकण्ठ की निन्दा करने वाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीर को अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूल से कोई निन्दित वस्तु खा ली जाये तो उसे वमन करके निकाल देने से ही मनुष्य की शुद्धि बतायी जाती है। जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेद के विधि निषेधमय वाक्यों का अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्यों की गति में भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्ग में स्थित रहते हुए भी दूसरों के मार्ग की निन्दा न करे।

कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतं

     वेदे विविच्योभयलिङ्‌गमाश्रितम् ।

विरोधि तद्यौगपदैककर्तरि

     द्वयं तथा ब्रह्मणि कर्म नर्च्छति ॥ २० ॥

मा वः पदव्यः पितरस्मदास्थिता

     या यज्ञशालासु न धूमवर्त्मभिः ।

तदन्नतृप्तैरसुभृद्‌भिरीडिता

     अव्यक्तलिङ्‌गा अवधूतसेविताः ॥ २१ ॥

नैतेन देहेन हरे कृतागसो

     देहोद्‍भवेनालमलं कुजन्मना ।

व्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसङ्‌गतः

     तज्जन्म धिग् यो महतामवद्यकृत् ॥ २२ ॥

गोत्रं त्वदीयं भगवान्वृषध्वजो

     दाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मनाः ।

व्यपेतनर्मस्मितमाशु तद्ध्यहं

     व्युत्स्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदङ्‌गजम् ॥ २३ ॥

प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति (शम-दमादि) रूप दोनों ही प्रकार के कर्म ठीक हैं। वेद में उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकार के अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होने के कारण उक्त दोनों प्रकार के कर्मों का एक साथ एक ही पुरुष के द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता। भगवान् शंकर तो परब्रह्म परमात्मा हैं। उन्हें इन दोनों में से किसी भी प्रकार का कर्म करने की आवश्यकता नहीं है।

पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अवयक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओं में यज्ञान्न से तृप्त होकर प्राण पोषण करने वाले कर्मठ लोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते। आप भगवान् शंकर का अपराध करने वाले हैं। अतः आपके शरीर से उत्पन्न इस निन्दनीय देह को रखकर मुझे क्या करना है। आप-जैसे दुर्जन से सम्बन्ध होने के कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषों का अपराध करता है, उससे होने वाले जन्म को भी धिक्कार है। जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसी में दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नाम से पुकारेंगे, उस समय हँसी को भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अंग से उत्पन्न इस शवतुल्य शरीर को त्याग दूँगी।

मैत्रेय उवाच -

इत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्

     क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।

स्पृष्ट्वा जलं पीतदुकूलसंवृता

     निमील्य दृग्योगपथं समाविशत् ॥ २४ ॥

कृत्वा समानावनिलौ जितासना

     सोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।

शनैर्हृदि स्थाप्य धियोरसि स्थितं

     कण्ठाद् भ्रुवोर्मध्यमनिन्दितानयत् ॥ २५ ॥

एवं स्वदेहं महतां महीयसा

     मुहुः समारोपितमङ्‌कमादरात् ।

जिहासती दक्षरुषा मनस्विनी

     दधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ॥ २६ ॥

ततः स्वभर्तुश्चरणाम्बुजासवं

     जगद्‍गुरोश्चिन्तयती न चापरम् ।

ददर्श देहो हतकल्मषः सती

     सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना ॥ २७ ॥

तत्पश्यतां खे भुवि चाद्‍भुतं महत्

     हा हेति वादः सुमहान् अजायत ।

हन्त प्रिया दैवतमस्य देवी

     जहावसून्केन सती प्रकोपिता ॥ २८ ॥

अहो अनात्म्यं महदस्य पश्यत

     प्रजापतेर्यस्य चराचरं प्रजाः ।

जहावसून्यद्विमताऽऽत्मजा

     सती मनस्विनी मानमभीक्ष्णमर्हति ॥ २९ ॥

सोऽयं दुर्मर्षहृदयो ब्रह्मध्रुक् च

     लोकेऽपकीर्तिं महतीमवाप्स्यति ।

यदङ्‌गजां स्वां पुरुषद्‌विडुद्यतां

     न प्रत्यषेधन्मृतयेऽपराधतः ॥ ३० ॥

(अनुष्टुप्)

वदत्येवं जने सत्या दृष्ट्वासुत्यागमद्‍भुतम् ।

दक्षं तत्पार्षदा हन्तुं उदतिष्ठन्नुदायुधाः ॥ ३१ ॥

तेषां आपततां वेगं निशाम्य भगवान् भृगुः ।

यज्ञघ्नघ्नेन यजुषा दक्षिणाग्नौ जुहाव ह ॥ ३२ ॥

अध्वर्युणा हूयमाने देवा उत्पेतुरोजसा ।

ऋभवो नाम तपसा सोमं प्राप्ताः सहस्रशः ॥ ३३ ॥

तैरलातायुधैः सर्वे प्रमथाः सहगुह्यकाः ।

हन्यमाना दिशो भेजुः उशद्‌भिर्ब्रह्मतेजसा ॥ ३४ ॥

मैत्रेय जी कहते हैं ;- कामादि शत्रुओं को जीतने वाले विदुर जी! उस यज्ञमण्डप में दक्ष से इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूँदकर शरीर छोड़ने के लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं। उन्होंने आसन को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एकरूप करके नाभिचक्र में स्थित किया; फिर उदानवायु को नाभिचक्र से ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदय स्थित वायु को कण्ठमार्ग से भ्रुकुटियों के बीच में ले गयीं। इस प्रकार, जिस शरीर को महापुरुषों के भी पूजनीय भगवान् शंकर ने कई बार बड़े आदर से अपनी गोद में बैठाया था, दक्ष पर कुपित होकर उसे त्यागने की इच्छा से महामनस्विनी सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में वायु और अग्नि की धारणा की। अपने पति जगद्गुरु भगवान् शंकर के चरण-कमल-मकरन्द का चिन्तन करते-करते सती ने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणों के अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्ष कन्या हूँ-ऐसे अभिमान से भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही योगाग्नि से जल उठा।

उस समय वहाँ आये हुए देवता आदि ने जब सती का देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयंकर कोलाहल आकाश में एवं पृथ्वीतल पर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था- हाय! दक्ष के दुर्व्यवहार से कुपित होकर देवाधिदेव महादेव की प्रिया सती ने प्राण त्याग दिये। देखो, सारे चराचर जीव इस दक्ष प्रजापति की ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है! इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पाने के योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये। वास्तव में यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसार में बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसी के अपराध से प्राण त्याग करने को तैयार हुई, तब भी इस शंकरद्रोही ने उसे रोका तक नहीं।

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिव जी के पार्षद सती का यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्ष को मारने के लिये उठ खड़े हुए। उनके आक्रमण का वेग देखकर भगवान् भृगु ने यज्ञ में विघ्न डालने वालों का नाश करने के लिये अपहतं रक्ष...इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करते हुए दक्षिणाग्नि में आहुति दी। अध्वर्यु भृगु ने ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्ड से ऋभुनाम के हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्या के प्रभाव से चन्द्रलोक प्राप्त किया था। उन ब्रह्मतेज सम्पन्न देवताओं ने जलती हुई लकड़ियों से आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रथमगण इधर-उधर भाग गये।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे सतीदेहोत्सर्गो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

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