विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ६

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ६                

विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय ६ में भिन्न भिन्न नरकों का तथा भगवन्नाम के माहात्म्य का वर्णन है।

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ६

विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ६               

Vishnu Purana second part chapter 6  

विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः षष्ठोऽध्याय:       

विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः ६           

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश छठवाँ अध्याय

श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय ६       

श्रीविष्णुपुराण

(द्वितीय अंश)

पराशर उवाच

ततश्च नरका विप्र भुवोधः सलिलस्य च ।

पापिनो येषु पात्यन्ते ताञ्छृणुष्वमहामुने ॥ २,६.१ ॥

रौरवः सूकरो रोधस्तालो विशसनस्तथा ।

महाज्वालस्तप्तकुम्भो लवणेथ विलोहितः ॥ २,६.२ ॥

रुधिराम्भो वैतरणिः क्रिमिशः क्रिमिभोजनः ।

असिपत्रवनं कृष्णो लालाभक्षश्च दारुणः ॥ २,६.३ ॥

तथा पूयवहः पापो वह्निज्वालो ह्यधः शिराः ।

संदंशः कालसूत्रश्च तमश्चावीचिरेव च ॥ २,६.४ ॥

श्वभोजनोथाप्रतिष्ठश्चाप्रचिश्च तथा परः ।

इत्येवमादयश्चान्ये नरका भृशदारुणाः ॥ २,६.५ ॥

यमस्य विषये घोराः शस्त्राग्निभयदायिनः ।

पतन्ति येषु पुरुषाः पापकर्मरतास्तु ये ॥ २,६.६ ॥

श्रीपराशरजी बोले ;– हे विप्र ! तदनन्तर पृथ्वी और जल के नीचे नरक है जिन में पापी लोग गिराये जाते है | हे महामुने ! उनका विवरण सुनो || || रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुंभ, लवण, विलोहित, रुधिराम्भ, वैतरणि, कृमांश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, लालाभक्ष, दारुण, पुयवह, पाप, वह्रिज्वाल, अध्:शिरा, सदंश, कालसूत्र, तमस, आवीचि, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ और अप्रचि ये सब तथा इनके सिवा और भी अनेकों महाभयंकर नरक है, जो यमराज के शासनाधीन है और अति दारुण शस्त्र-भय तथा अग्नि-भय देनेवाले है और जिनमें जो पुरुष पापरत होते है वे ही गिरते है || ||

कूटसाक्षी तथासम्यक्पक्षपातेन यो वदेत् ।

यश्चान्यदनृतं वक्ति स नरो याति रौरवम् ॥ २,६.७ ॥

भ्रूणहा पुरहन्ता च गौघ्नश्च मुनिसत्तम ।

यान्ति ते नरकं रोधं यश्चोच्छ्वासनिरोधकः ॥ २,६.८ ॥

सुरापो ब्रह्महा हर्ता सुवर्णस्य च सूकरे ।

प्रयान्ति नरके यश्च तैः संसर्गमुपैति वै ॥ २,६.९ ॥

राजन्यवैश्यहन्ता च तथैव गुरुतल्पगः ।

तप्तकुण्डेस्वसृगामी हन्ति राजभटांश्च यः ॥ २,६.१० ॥

साध्वीविक्रयकृद्बन्धपालः केसरिविक्रयी ।

तप्तलोहे पतन्त्येते यश्च च भक्तं परित्यजेत् ॥ २,६.११ ॥

स्नुषां सुतां चापि गत्वा महाज्वाले निपात्यते ।

अवमन्ता गुरूणां यो यश्चाक्रोष्टा नराधमः ॥ २,६.१२ ॥

वेददूषयितायश्च वेदविक्रयकश्च यः ।

अगम्यगामी यश्च स्यात्ते यान्ति लवणं द्विज ॥ २,६.१३ ॥

चोरो विलोहे पतति मर्यादादूषकस्तथा ॥ २,६.१४ ॥

देवद्विजपितृद्वेष्टा रत्नदूषयिता च यः ।

स याति क्रिमिभक्षे वै क्रिमीशे च दुरिष्टकृत् ॥ २,६.१५ ॥

जो पुरुष कूटसाक्षी (झूठा गवाह अर्थात जानकर भी न बतलानेवाला या कुछ-का कुछ कहनेवाला) होता है अथवा जो पक्षपात से यथार्थ नहीं बोलता और जो मिथ्या भाषण करता है वह रौरवनरक में जाता है || || हे मुनिसत्तम ! भ्रूण (गर्भ) नष्ट करनेवाले ग्रामनाशक और गो-हत्यारे लोग रोध नामक नरक में जाते है जो श्वासोच्छवास को रोकनेवाला है || || मद्य-पान करनेवाला, ब्रह्मघाती, सुवर्ण चुरानेवाला तथा जो पुरुष इनका संग करता है ये सब सूकरनरक में जाते है || || क्षत्रिय अथवा वैश्य का वध करनेवाला तालनरक में तथा गुरुस्त्री के साथ गमन करनेवाला, भगिनीगामी और राजदूतों को मारनेवाला पुरुष तप्तकुंडनरक में पड़ता है || १० || सती स्त्री को बेचनेवाला, कारागृहरक्षक, अश्वविक्रेता और भक्तपुरुष का त्याग करनेवाला ये सब लोग तप्तलोहनरक में गिरते है || ११ || पुत्रवधु और पुत्री के साथ विषय करनेवाला पुरुष महाज्वाल नरक में गिराया जाता है, तथा जो नराधम गुरुजनों क अपमान करनेवाला और उनसे दुर्वचन बोलनेवाला होता है तथा जो वेद की निंदा करनेवाला, वेद बेचनेवाला या अगम्या स्त्री से सम्भोग करता है, हे द्विज ! वे सब लवणनरक में जाते है || १२-१३ || चोर तथा मर्यादा का उल्लंघन करनेवाला पुरुष विलोहित नरक में गिरता है || १४ || देव, द्विज और पितृगण से द्वेष करनेवाला तथा रत्न को दूषित करनेवाला कृमिभक्ष नरक में और अनिष्ट यज्ञ करनेवाला कृमिश नरक में जाता है || १५ ||

पितृदेवातिथींस्त्यक्त्वा पर्यश्नाति नराधमः ।

लालाभक्षे स यात्युग्रे शरकर्ता च वेधके ॥ २,६.१६ ॥

करोति कर्णिनो यश्च यश्च खङ्गादिकृन्नरः ।

प्रयान्त्येते विशसने नरके भृशदरुणे ॥ २,६.१७ ॥

असत्प्रतिगृहीता तु नरके यात्यधोमुखे ।

अयाज्ययाजकश्चैव तथा नक्षत्रसूचकः ॥ २,६.१८ ॥

वेगी पूयवहे चैको याति मष्टान्नभुङ्गरः ॥ २,६.१९ ॥

लाक्षामासरसानां च तिलानां लवणस्य च ।

विक्रेता ब्रह्मणो याति तमेव नरकं द्विज ॥ २,६.२० ॥

जो नराधम पितृगण, देवगण और अतिथियों को छोडकर उनसे पहले भोजन कर लेता है वह अति उग्र लालाभक्ष नरक में पड़ता है; और बाण बनानेवाला वेधकनरक में जाता है || १६ || जो मनुष्य कर्नी नामक बाण बनाते है और जो खड्गादी शस्त्र बनानेवाले है वे अति दारुण विशसन नरक में गिरते है || १७ || असत प्रतिग्रह (दूषित उपायों से धन-संग्रह) करनेवाला, अयाज्य-याजक और नक्षत्रोपजीवी (नक्षत्र-विद्याको न जानकर भी उसका ढोंग रचनेवाला) पुरुष अधोमुख नरक में पड़ता है || १८ || साहस (निष्ठुर कर्म) करनेवाला पुरुष पुयवह नरक में जाता है, तथा [ पुत्र-मित्रादि की वंचना करके] अकेले ही स्वादु भोजन करनेवाला और लाख, मांस, रस, तिल तथा लवण आदि बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी (पुयवह) नरक में गिरता है || १९ २०||

मार्जारकुक्कुटच्छाग श्ववराहविहङ्गमान् ।

पोषयन्नरकं याति तमेव द्विजसत्तम ॥ २,६.२१ ॥

रङ्गोपजीवी कैवर्तः कुम्डाशी गरदस्तथा ।

सूची माहिषकश्चैव पर्वकारी च यो द्विजः ॥ २,६.२२ ॥

अगारदाही मित्रघ्नः शाकुनिर्ग्रमयाजकः ।

रुधिरान्धे पतन्त्येते सोमं विक्रीणते च ये ॥ २,६.२३ ॥

मखहा ग्रामहन्ता च याति वैतरणीं नरः ॥ २,६.२४ ॥

रेतः पातादिकर्तारो मर्यादाभेदिनो हि ये ।

ते कृष्णे यान्त्यशौचाश्च कुहकाजीविनश्च ये ॥ २,६.२५ ॥

हे द्विजश्रेष्ठ ! बिलाव, कुक्कुट, छाग, अश्व, शूकर तथा पक्षियों को पालने से भी पुरुष उसी नरक में जाता है || २१ || नट या मल्लवृत्ति से रहनेवाला, धीवर का कर्म करनेवाला, कुंढ (उपपति से उत्पन्न सन्तान) का अन्न खानेवाला, विष देनेवाला, चुगलखोर, स्त्री की असदवृत्ति के आश्रय रहनेवाला, धन आदि के लोभ से बिना पर्व के अमावास्या आदि पर्वदिनों का कार्य करानेवाला द्विज, घर में आग लगानेवाला, मित्र की हत्या करनेवाला, शकुन आदि बतानेवाला, ग्राम का पुरोहित तथा सोम (मदिरा) बेचनेवाला ये सब रुधिरान्ध नरक में गिरते है || २२- २३ || यज्ञ अथवा ग्राम को नष्ट करनेवाला पुरुष वैतरणी नरक में जाता है, तथा जो लोग वीर्यपातादि करनेवाले, खेतों की बाड तोड़नेवाले, अपवित्र और छलवृत्ति के आश्रय रहनेवाले होते है वे कृष्ण नरक में गिरते है || २४ २५ ||

असिपत्रवनं याति वनच्छेदी वृथैव यः ।

औरभ्रिको मृगव्याधो वह्निज्वाले पतन्ति वै ॥ २,६.२६ ॥

यान्त्येते द्विज तत्रैव ये चापाकेषु वह्निदाः ॥ २,६.२७ ॥

व्रतानां लोपको यश्चस्वाश्रमाद्विच्युतश्च यः ।

सन्दंशयातनामध्ये पततस्तावुभावपि ॥ २,६.२८ ॥

दिवा स्वप्ने च स्कन्दन्ते ये नरा ब्रह्मचारिणः ।

पुत्रैरध्यापिता ये च ते पतन्ति श्वभोजने ॥ २,६.२९ ॥

जो वृथा ही वनों को काटता है वह असिपत्रवन नरक में जाता है | मेषोपजीवी और व्याधगण वह्रीज्वाल नरक में गिरते है तथा हे द्विज ! जो कच्चे घडो अथवा ईट आदि को पकाने के लिये उनमे अग्नि डालते है, वे भी उस (वह्रीज्वाल नरक) में ही जाते है || २६ २७ || व्रतों को लोप करनेवाले तथा अपने आश्रम से पतित दोनों ही प्रकार के पुरुष संदेश नामक नरक में गिरते है || २८ || जिन ब्रह्मचारियों का दिन में तथा सोते समय [ वूरी भावनासे] वीर्यपात हो जाता है, अथवा जो अपने ही पुत्रों से पढ़ते है वे लोग श्वभोजन नरक में गिरते है || २९ ||

एते चान्ये च नरकाः शतशोथ सहस्रशः ।

येषु दुष्कृतकर्माणः पच्यन्ते यातनागताः ॥ २,६.३० ॥

यथैव पापान्येतानि तथान्यानि सहस्रशः ।

भुज्यन्ते तानि पुरुषैर्नरकान्तरगोचरैः ॥ २,६.३१ ॥

वर्णाश्रमविरुद्धं च कर्म कुर्वन्ति ये नराः ।

कर्मणा मनसा वाचा निरयेषु पतन्ति ते ॥ २,६.३२ ॥

अधः शिरोभिदृश्यन्ते नारकैर्दिवि देवताः ।

देवाश्चाधोमुखान्सर्वानधः पश्यन्ति नारकान् ॥ २,६.३३ ॥

स्थावराः क्रिमयोब्जाश्च पक्षिणः पशवो नराः ।

धार्मिकास्त्रिदशास्तद्धन्मोक्षिणश्च यथाक्रमम् ॥ २,६.३४ ॥

सहस्रभागप्रथमा द्वितीयानुक्रमास्तथा ।

सर्वे ह्येते महाभागा यावन्मुक्तिसमाश्रयाः ॥ २,६.३५ ॥

यावन्तो जन्तवः स्वर्गे तावन्तो नरकौकसः ।

पापकृद्याति नरकं प्रायाश्चित्तपराङ्मुखः ॥ २,६.३६ ॥

इस प्रकार, ये तथा अन्य सैकड़ो-हजारों नरक है, जिनमें दुष्कर्मी लोग नाना प्रकार की यातनाएँ भोग करते है || ३० || इन उपरोक्त पापों के समान और भी सहस्रों पाप-कर्म है, उनके फल मनुष्य भिन्न-भिन्न नरकों में भोगा करते है || ३१ || जो लोग अपने वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध मन, वचन अथवा कर्म से कोई आचरण करते है वे नरक में गिरते है || ३२ || अधोमुख नरक निवासियों को स्वर्गलोक में देवगण दिखायी दिया करते है और देवता लोग नीचे के लोकों में नारकी जीवों को देखते है || ३३ || पापी लोग नरकभोग के अनन्तर क्रम से स्थावर, कृमि, जलचर, पक्षी, पशु, मनुष्य, धार्मिक पुरुष, देवगण तथा मुमुक्षु होकर जन्म ग्रहण करते है || ३४ || हे महाभाग ! मुमुक्षुपर्यन्त इन सब में दूसरों की अपेक्षा पहले प्राणी सहस्त्रगुण अधिक है || ३५ || जितने जीव स्वर्ग में है उतने ही नरक में है, जो पापी पुरुष प्रायश्चित नहीं करते वे ही नरक में जाते है || ३६ ||

पापानामनुरूपाणि प्रायश्चित्तानि यद्यथा ।

तथा तथैव संस्मृत्य प्रोक्तानि परमर्षिभिः ॥ २,६.३७ ॥

पापे गुरूणि गुरुणि स्वल्पान्यल्पे च तद्विदः ।

प्रायश्चित्तानि मैत्रेय जगुः स्वायंभुवादयः ॥ २,६.३८ ॥

प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तपःकर्मात्मकानि वै ।

यानि तेषामशेषाणां कृष्णानुस्मरणम्परम् ॥ २,६.३९ ॥

कृते पापेऽनुतापो वै यस्य पुंसः प्रजायते ।

प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम् ॥ २,६.४० ॥

प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्नादिषु संस्मरन् ।

नारायणमवाप्नोति सद्यः पापक्षयन्नरः ।

विष्णुसंस्मरणात्क्षीणसमस्तक्लेशसञ्चयः ।

मुक्तिं प्रयाति स्वर्गाप्तिस्तस्य विघ्नोनुमीयते ॥ २,६.४२ ॥

वासुदेवे मनो यस्यजपहोमार्चनादिषु ।

तस्यान्तरायो मैत्रेय देवेन्द्रत्वादिकं फलम् ॥ २,६.४३ ॥

क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम् ।

क्व जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुत्तमम् ॥ २,६.४४ ॥

भिन्न-भिन्न पापों के अनुरूप जो जो प्रायश्चित है उन्हीं- उन्हीं को महर्षियों ने वेदार्थ का स्मरण करके बताया है || ३७ || हे मैत्रेय ! स्वायम्भुवमनु आदि स्मृतिकारों ने महान पापों के लिये महान और अल्पों के लिये अल्प प्रायश्चित्तों की व्यवस्था की है || ३८ || किन्तु जितने भी तपस्यात्मक और कर्मात्मक प्रायश्चित है उन सब में श्रीकृष्ण स्मरण सर्वश्रेष्ठ है || ३९ || जिस पुरुष के चित्त में पाप-कर्म के अनन्तर पश्चाताप होता है उसके लिये ही प्रायश्चित्तों का विधान है | किन्तु यह हरिस्मरण तो एकमात्र स्वयं ही परम प्रायश्चित है || ४० || प्रात:काल, सायंकाल, रात्रि में अथवा मध्यान्ह में किसी भी समय श्रीनारायण का स्मरण करने से पुरुष के समस्त पाप तत्काल क्षीण हो जाते है || ४१ || श्रीविष्णु भगवान के स्मरण से समस्त पापराशि के भस्म हो जाने से पुरुष मोक्षपद प्राप्त कर लेता है, स्वर्ग-लाभ तो उसके लिये विश्वरूप माना जाता है || ४२ || हे मैत्रेय ! जिसका चित्त जप, होम और अर्चनादि करते हुए निरंतर भगवान वासुदेव में लगा रहता है उसके लिये इंद्रपद आदि फल तो अन्तराय (विघ्न) है ||४३ || कहाँ तो पुनर्जन्म के चक्र में डालनेवाली स्वर्ग-प्राप्ति और कहाँ मोक्ष का सर्वोत्तम बीज वासुदेवनामक जप ! || ४४ ||

तस्मादहर्निशं विष्णुं संस्मरन्पुरुषो मुने ।

न याति नरकं मर्त्यः संक्षीणाखिलपातकः ॥ २,६.४५ ॥

मनः प्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः ।

नरकस्वर्गसंज्ञे वै पापपुण्ये द्विजोत्तम ॥ २,६.४६ ॥

वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्यागमाय च ।

कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ॥ २,६.४७ ॥

तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दुःखाय जायते ।

तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते ॥ २,६.४८ ॥

तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकम् ।

मनसः परिणामोयं सुखदुःखादिलक्षणः ॥ २,६.४९ ॥

ज्ञानमेव परं ब्रह्म ज्ञानं बन्धाय चेष्यते ।

ज्ञानात्मकमिदं विश्वं न ज्ञानाद्विद्यते परम् ॥ २,६.५० ॥

विद्याविद्येति मैत्रेय ज्ञानमेवोपधारय ॥ २,६.५१ ॥

इसलिये हे मुने ! श्रीविष्णुभगवान का अहर्निश स्मरण करने से सम्पूर्ण पाप क्षीण हो जाने के कारण मनुष्य फिर नरक में नहीं जाता || ४५ || चित्त को प्रिय लगनेवाला ही स्वर्ग है और उसके विपरीत (अप्रिय लगनेवाला) ही नरक है | हे द्विजोत्तम ! पाप और पुण्यके दूसरे नाम नरक और स्वर्ग है || ४६ || जब कि एक ही वस्तु सुख और दुःख तथा ईर्ष्या और कोपका कारण हो जाती है तो उसमें वस्तुता (नियतस्वभावत्व) ही कहाँ है ? || ४७ || क्योंकि एक ही वस्तु कभी प्रीति की कारण होती है तो वही दूसरे समय दुःखदायिनी हो जाती है और वही कभी क्रोध की हेतू होती है तो कभी प्रसन्नता देनेवाली हो जाती है || ४८ || अत: कोई भी पदार्थ दुःखमय नहीं है और न कोई सुखमय है | ये सुख-दुःख तो मन के ही विकार है || ४९ || [परमार्थत:] ज्ञान ही परब्रह्म है और [अविद्या की उपाधि से ] वही बंधन का कारण है | यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानमय ही है; ज्ञान से भिन्न और कोई वस्तु नहीं है | हे मैत्रेय ! विद्या और अविद्या को भी तुम ज्ञान ही समझो || ५० ५१ ||

एवमेतन्मयाख्यातं भवतो मण्डलं भुवः ।

पातालानि च सर्वाणि तथैव नरका द्विज ॥ २,६.५२ ॥

समुद्राः पर्वताश्चैव द्वीपा वर्षाणि निम्नगाः ।

संक्षेपात्सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २,६.५३ ॥

हे द्विज ! इसप्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमंडल, सम्पूर्ण पाताललोक और नरकों का वर्णन कर दिया || ५२ || समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष और नदियाँ इन सभी की मैंने संक्षेप से व्याख्या कर दी || ५३ ||

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 7

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