विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय २
विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय
२ में भूगोल का विवरण का वर्णन है।
विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय २
Vishnu Purana second part chapter 2
विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः द्वितीयोऽध्याय:
विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः
२
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश दुसरा अध्याय
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय
२
श्रीविष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
मैत्रेय उवाच ।
कथितो भवता ब्रह्मन् ! सर्गः
स्वायम्भुवश्च मे ।
श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तः सकलं
मण्डलं भुवः ।। 1 ।।
यावन्तः सागरा द्रीपास्तथा वर्षाणि
पर्व्वताः ।
वनानि सरितः पुर्थ्यौ देवादीनां तथा
मने ।। 2 ।।
यत्प्रमाणमिदं सर्व्वं यदाधारं
यदात्मकम् ।
संस्थानमस्य च मुने ! यथावद
वक्तुमर्हसि ।। 3 ।।
श्रीमैत्रेयजी बोले ;–
हे ब्रह्मन ! आपने मझसे स्वायम्भुवमनु के वंश का वर्णन किया ,
अब मैं आपके मुखार्विदं से सम्पूर्ण पृथ्वीमंडल का विवरण सुनना
चाहता हूँ । हे मुने ! जितने भी सागर, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ और देवता आदि की पुरियाँ है, उन सबका जितना –
जितना परिमाण है, जो आधार है, जो उपादान-कारण है और जैसा आकार है, वह सब आप यथावत
वर्णन कीजिये ।। १ -३ ।।
पराशर उवाच ।
मैत्रेय श्वूयतामेत्त संक्षेपाद
गदतो मम ।
नास्य वर्ष शतेनापि वक्तु शक्यो हि
विस्तरः ।। 4 ।।
जम्बू-प्लक्षह्वयौ द्रीपौ
शाल्मलिशचापरो द्रिज ।
कुशः क्रौञ्चस्तथा शाकः पुष्करश्चैव
सप्तमः ।। 5 ।।
एते द्रीपाः समुद्रस्तु सप्त
सप्तभिरावृताः ।
लवणेक्षु-सुरा-सर्पिर्दधि-दुग्ध-जलैःसमम्
।। 6 ।।
श्रीपराशरजी बोले ;–
हे मैत्रेय ! सुनो, मैं इन सब बातों का
संक्षेप से वर्णन करता हूँ, इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो सौ
वर्ष में भी नही हो सकता । हे द्विज ! जम्बू, प्लक्ष,
शाल्मल, कुश, क्रोंच,
शाक और सातवाँ पुष्कर – ये सातों द्वीप चारों
ओर से खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा,
घृत, दधि, दुग्ध और मीठे
जल के सात समुद्रों से घिरे हुए है ।। ४ – ६ ।।
जम्बूद्वीपः समस्तानाम् एतेषां
मध्यसंस्थितः ।
तस्यापि मैरुर्म्मैत्रेय ! मध्ये
कनकपर्व्वतः ।। 7 ।।
प्रविष्टः षोड़शाधस्ताद्
द्रात्रिंशन्मूदूर्ध्न विस्तृतः ।। 8 ।।
मूले षोड़शसाहस्त्रो विस्तारस्तस्य
सर्व्वशः ।
भूपद्मस्यास्य शैलेशः
कर्णिकाकारसंस्थितः ।। 9 ।।
हिमवान् हेमकूटश्च निषधश्वास्य
दक्षिणो ।
नीलः श्वेतश्व श्वृङ्गी च उत्तरे
वर्षपर्व्वताः ।। 10 ।।
लक्षप्रमाणौ द्रौ मध्यौ
दशहीनास्तथापरे ।
सहस्त्रद्रितयोच्छायास्तावदविस्तारिणश्व
ते ।। 11 ।।
हे मैत्रेय ! जम्बुद्वीप इन सबके
मध्य में स्थित है और उसके भी बीचों – बीच
में सुवर्णमय सुमेरुपर्वत है । इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है और नीचे के ओर यह
सोलह हजार योजन पृथ्वी में घुसा हुआ है । इसका विस्तार ऊपरी भाग में बत्तीस हजार
योजन है तथा नीचे केवल सोलह हजार योजन है | इसप्रकार यह
पर्वत इस पृथ्वीरूप कमल की कर्णिका (कोश) के समान है । इसके दक्षिण में हिमवान,
हेमकूट और निषध तथा उत्तर में नील, श्वेत और
शृंगी नामक वर्षपर्वत है । उनमे बीच के दो पर्वत [ निषध और नील] एक-एक लाख योजनतक
फैले हुए हैं, उनसे दूसरे-दूसरे दस-दस हजार योजन कम है ।
[अर्थात हेमकूट और श्वेत नब्बे – नब्बे हजार
योजन तथा हिमवान और शृंगी अस्सी- अस्सी सहस्त्र योजनतक फैले हुए है ] वे सभी दो –
दो सहस्र योजन ऊँचे और इतने ही चौड़े है ।।७- ११ ।।
भारतं प्रथमं बर्षं ततः किम्पुरुषं
स्मृतम् ।
हरिवर्षं वान्यन्मेरोर्दक्षिणातो द्विज
।। 12 ।।
रम्यकञ्चोत्तरे वर्षं तस्यैवानु
हिरण्मयम् ।
उत्तराःकुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा
।। 13 ।।
नवसाहस्त्रमेकैकमेतेषां द्रिजसत्तम्
!
इलावृतञ्च तन्मध्ये सौवर्णो
मेरुरुच्छितः ।। 14 ।।
मेरोश्वतुर्दिशं तत्तु
नवसाहस्त्रविस्तृतम् ।
इलावृतं महाभाग ! चत्वारश्वात्र
पर्व्वताः ।। 15 ।।
विष्कम्भा रचिता
मरोर्योजनायुतमुच्छिताः ।। 16 ।।
पूर्व्वेण मन्दरो नाम दक्षिणो
गन्धमादनः ।
विपुलः पश्विमे पाश्व
सुपार्श्वश्वोत्तरे स्मृतः ।। 17 ।।
कदम्बस्तेषु जम्बूश्व पिप्पलो वट एव
च ।
एकादशशाततायामाः पादपा गिरिकेतवः ।।
18 ।।
हे द्विज ! मेरुपर्वत के दक्षिण की
ओर पहला भारतवर्ष है तथा दूसरा किम्पुरुषवर्ष और तीसरा हरिवर्ष है । उत्तर की ओर
प्रथम रम्यक, फिर हिरण्मय और तदनन्तर
उत्तरकुरुवर्ष है जो भारतवर्ष के समान है । हे द्विजश्रेष्ठ ! इनमें से प्रत्येकका
विस्तार नौ – नौ हजार योजन है तथा इन सबके बीचमें इलावृतवर्ष
है जिसमें सुवर्णमय सुमेरुपर्वत खड़ा हुआ है । हे महाभाग ! यह इलावृतवर्ष सुमेरु के
चारों और नौ हजार योजनतक फैला हुआ है । इसके चारों ओर चार पर्वत है । ये चारों
पर्वत मानो सुमेरु को धारण करने के लिये ईश्वरकृत कीलियाँ है । इनमे से मन्दराचल
पूर्व में, गन्धमादन दक्षिण में, विपुल
पश्चिम में और सुपार्श्व उत्तर में है । ये सभी दस – दस हजार
योजन ऊँचे है । इनपर पर्वतों की ध्वजाओं के समान क्रमश: ग्यारह – ग्यारह सौ योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बू, पीपल और वट के वृक्ष है ।।१२- १८ ।।
जम्बूद्वीपस्य सा
जम्बूर्नामहेतुर्महामुने ।
महागजप्रमाणानि जम्ब्वास्तस्याः
फलानि वै ।। 19 ।।
पतन्ति भूभृतः पृष्ठे शीर्य्यमाणानि
सर्वतः ।
रसेन तेषां प्रख्याता तत्र
जम्बूनदीति वै ।। 20 ।।
सरित् प्रवर्त्तते सा च पीयते
तन्निवासिभिः ।
नि स्वेदो न च दौर्गन्ध्यं न जरा
नेन्द्रियक्षयः ।। 21 ।।
तत्पानात् स्वच्छमनसां जनानां तत्र
जायते ।
तीरमृत् तदूरसं प्राप्य
सुखवायुविशोषिता ।
जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्णं सिद्धभूषणम्
।। 22 ।।
भद्राश्वं पूर्व्वतो मेरोः
केतुमालञ्च पश्चिमे ।
वर्षे द्र तु मुनिश्वष्ठ!
तयोर्म्मध्ये इलावृतम् ।। 23 ।।
वनं चैत्ररथं पूर्व्वे दक्षिणो
गन्दमादनम् ।
वैभ्राजं पश्विमे तदूदुत्तरे नन्दनं
स्मृतम् ।। 24 ।।
अरुणोदं महाभद्रमसितोधं समानसम् ।
सरोस्येतानि चत्वारि देवभोग्यानि
सर्व्वदा ।। 25 ।।
हे महामुने ! इनमें जम्बू (जामुन)
वृक्ष जम्बुद्वीप के नामका कारण है । उसके फल महान गजराज के समान बड़े होते है । जब
वे पर्वतपर गिरते है तो फटकर सब ओर फ़ैल जाते है । उनके रस से निकली जम्बू नामकी
प्रसिद्ध नदी वहाँ बहती है, जिसका जल वहाँ के
रहनेवाले पीते है । उसका पान करनेसे वहाँ के शुद्धचित्त लोगों को पसीना, दुर्गन्ध, बुढ़ापा अथवा इन्द्रियक्षय नहीं होता । उसके
किनारे की मृत्तिका उस रस से मिलकर मंद – मंद वायु से
सूखनेपर जाम्बूनद नामक सुवर्ण हो जाती है, जो सिद्ध पुरुषों का
भूषण है । मेरु के पूर्व में भद्राश्ववर्ष और पश्चिम में केतुमालवर्ष है तथा हे
मुनिश्रेष्ठ ! इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है । इसी प्रकार उसके पूर्व की ओर
चैत्ररथ, दक्षिण की ओर गंधमादन, पश्चिम
की ओर वैभ्राज और उत्तर की ओर नंदन नामक वन है तथा सर्वदा देवताओं से सेवनीय अरुणोद, महाभद्र, असितोद और मानस – ये
चार सरोवर है ।। २०- २५ ।।
शीतान्तश्वक्रमुञ्जश्व कुररी
माल्यवांस्तथा ।
वैकङ्कप्रमुखा मैरोःपूर्व्वतः
केशराचलाः ।
त्रिकूटः शिशिरश्चैव पतङ्गो
रुचकस्यथा ।। 26 ।।
निषधाद्या दक्षिणातस्तस्य
केसरपर्व्वताः ।
शिखिवासाः सवैदूर्य्यः कपिलो
गन्धमादनः ।
जारुधिप्रमुखास्तदूत् पश्विमे
केसराचलाः ।। 27 ।।
मेरोरनन्तराङ्गषुं
जठरादिष्ववस्थिताः ।
शङ्खकूटोऽथ ऋषभो हंसो नागस्तथापरः।
कालञ्जराद्याश्व तथा उत्तरे
केशराचलाः ।। 28 ।।
हे मैत्रेय ! शीताम्भ,
कुमुन्द, कुररी, माल्यवान
तथा वैकंक आदि पर्वत मेरु के पूर्व दिशा के केसराचल है । त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक और निषाद
आदि केसराचल उसके दक्षिण ओर है । शिखिवासा, वैडूर्य, कपिल, गन्धमादन और जारूधि आदि उसके पश्चिमीय
केसरपर्वत है तथा मेरु के अति समीपस्थ इलावृतवर्ष में और जठरादि देशों में स्थित
शंखकूट, ऋषभ, हँस, नाग तथा कालंज आदि पर्वत उत्तरदिशा के केसराचल है ।। २६- २८ ।।
चतुर्ददशसहस्त्राणि योजनानां
महापुरी ।
मेरोरुपरि मैत्रेय! ब्रह्मणःप्रथिता
दिवि ।। 29 ।।
तस्याः समन्ततश्वाशष्टौ दिशासु
विदिशासु च ।
इन्द्रादिलोकपालानां प्रख्याताः
प्रवराःपुरः ।। 30 ।।
विष्णुपादविनिष्कान्ता
प्लावयित्वेन्दुमणडलम् ।
समन्ताद् ब्रह्मणाः पुर्य्यां गङ्गा
पतति वै दिवः ।। 31 ।।
सा तत्र पतिता दिक्षु चतुर्धा
प्रतिपद्यते ।
सीता चालकनन्दा च चक्षुर्भदा च वै
क्रमात् ।। 32 ।।
पूर्व्वेण शैलात् सीता तु शैलं
यात्यन्तरिक्षगा ।
ततश्व पूर्व्ववर्षेण भद्राश्वेनैति
सार्णवम् ।। 33 ।।
तथैवालकनन्दापि दक्षिणोनैत्य भारतम्
।
प्रयाति सागरं भूत्वा सप्तभेदा
महामुने ।। 34 ।।
चक्षुश्च पश्विमगिरीनतीत्य
सकलांस्ततः ।
पश्विमं केतुमालाख्यं वष गत्वैति
सागरम् ।। 35 ।।
भद्रा तथोत्तरगिरीनुत्तरांश्व तथा कुरून्
।
अतीत्योत्तरमम्भोधिं समब्योति
महामुने ।। 36 ।।
आनीलनिषधायामौ माल्यवदू-गन्धमादनौ ।
तयोर्म्मध्यगतो मेरुः
कर्णिकाकारसंस्थितः ।। 37 ।।
हे मैत्रेय ! मेरु के ऊपर
अन्तरिक्षा में चौदह सहस्त्र योजन के विस्तारवाली ब्रह्माजी की महापुरी
(ब्रह्मपुरी) है । उसके सब ओर दिशा एवं विदिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों के आठ अति
रमणीक और विख्यात नगर है । विष्णुपादोभ्दवा श्रीगंगाजी चन्द्रमंडल को चारो ओर से
आप्लावित कर स्वर्गलोक से ब्रह्मपुरी में गिरती है । वहाँ गिरनेपर वे चारों दिशाओं
में क्रम से सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नामसे चार भागों में विभक्त हो जाती है । उनमें से सीता
पूर्वकी ओर आकाशमार्ग से एक पर्वत से दूसरे पर्वतपर जाती हुई अंत में पूर्वस्थित
भद्राश्ववर्ष को पारकर समुद्र में मिल जाती है । इसी प्रकार, हे महामुने ! अलकनंदा दक्षिण-दिशा की ओर भारतवर्ष में आती है और सात भागों
में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है । चक्षु पश्चिमदिशा के समस्त पर्वतों को
पारकर केतुमाल नामक वर्ष में बहती हुई अंत में सागर में जा गिरती है तथा हे
महामुने ! भद्रा उत्तर के पर्वतों और उत्तरकुरुवर्ष को पार करती हुई उत्तरीय
समुद्र में मिल जाती है । माल्यवान और गंधमादनपर्वत उत्तर तथा दक्षिण की ओर नीलाचल
और निषधपर्वततक फैले हुए है । उन दोनों के बीच में कर्णिकाकार मेरुपर्वत स्थित है ।।
२९- ३७ ।।
भारताः केतुमालाश्व भद्राश्वाः
कुरवस्तथा ।
पत्राणि लोकपह्मस्य मर्य्यादा
शैलबाह्मतः ।। 38 ।।
जठरो देवकूटश्च
मर्य्यादापर्व्वतावुभौ ।
तौ दक्षिणोत्तरायामावानीलनिषधायतौ
।। 39 ।।
गन्धमादन-कैलासौ
पूर्व्वपश्चायतावुभौ ।
अशीतियोजनायामावर्णावान्तर्व्यवस्थितौ
।। 40 ।।
निषधः पारिपात्रश्च
मर्य्यादापर्व्वतावुभौ ।
मेरोः परिचमदिगभागे यता पूर्व्वौ
तथा स्थितौ ।। 41 ।।
त्रिश्वृह्गो जारुधिश्चैव उत्तरौ
वर्षपर्व्वतौ ।
पूर्व्वपश्वायतावेतावर्णवान्तर्व्यवस्थितौ
।। 42 ।।
इत्येते मुनिवर्य्योक्ता
मर्य्यादापर्व्वतास्तव ।
जठराद्याः स्थिता मेरोस्तेषां द्वौ द्वौ
चतुर्दिशम् ।। 43 ।।
हे मैत्रेय ! मर्यादापर्वतों के
बहिर्भाग में स्थित भारत, केतुमाल, भद्राश्व और कुरुवर्ष इस लोकपद्म के पत्तों के समान है । जठर और देवकूट –
ये दोनों मर्यादापर्वत है जो उत्तर और दक्षिण की ओर नील तथा
निषधपर्वततक फैले हुए है । पूर्व और पश्चिम की ओर फैले हुए गंधमादन और कैलास –
ये दो पर्वत जिनका विस्तार अस्सी योजन है, समुद्र
के भीतर स्थित है । पूर्व के समान मेरु की पश्चिम ओर भी निषध एयर पारियात्र नामक
दो मर्यादापर्वत स्थित है । उत्तर की ओर त्रिश्रुंग और जारूधि नामक वर्षपर्वत है |
ये दोनों पूर्व और पश्चिमकी ओर समुद्र के गर्भ में स्थित है । इस प्रकार,
हे मुनिवर ! तुमसे जठर आदि मर्यादा पर्वतों का वर्णन किया, जिनमें से दो – दो मेरु की चारों दिशाओं में स्थित
है ।। ३८-४३ ।।
मैरोश्चतुर्दिशं ये तु प्रोक्ताः
केसरपर्व्वताः ।
शीतान्ताद्या मुने ! तेषामतीव हि
मनोरमाः ।। 44 ।।
शैलानामन्तरे द्रोण्यः
सिद्धचारणसेविताः ।
सुरम्याणि तथा तासु काननानि पुराणि
च ।। 45 ।।
लक्ष्मी-विष्णवग्निसूर्य्यादिदेवानां
मुनिसत्तम् ।
तास्वायतनवर्षाणि जुष्टानि
वरकिन्नरैः ।। 46 ।।
गन्घर्व्वयक्षरक्षांसि तथा
दैतेयदानवाः ।
क्रीड़न्ति तासु रम्यासु
शैलद्रोणीष्वहर्निशम् ।। 47 ।।
भौमा ह्येते स्मृताः स्वर्गा धर्म्मिणामालया
मुने ।
नैतेषु पापकर्म्मणो यान्ति
जन्मशतैरपि ।। 48 ।।
हे मुने ! मेरु के चारों ओर स्थित
जिन शीतांत आदि केसरपर्वतों के विषय में तुमसे कहा था,
उनके बीच में सिद्ध – चारणादि से सेवित अति
सुंदर कन्दराएँ है । हे मुनिसत्तम ! उनमें सुरम्य नगर तथा उपवन है और लक्ष्मी,
विष्णु, अग्नि एवं सूर्य आदि देवताओं के
अत्यंत सुंदर मन्दिर है जो सदा किन्नरश्रेष्ठों से सेवित रहते है । उन सुंदर पर्वत
– द्रोणियों में गन्धर्व, यक्ष,
राक्षस, दैत्य और दानवादि अहर्निश क्रीडा करते
है । हे मुने ! ये सम्पूर्ण स्थान भौम (पृथ्वी के ) स्वर्ग कहलाते हिल ये धार्मिक
पुरुषों के निवासस्थान है । पापकर्मा पुरुष इनमें सौ जन्म में भी नहीं जा सकते ।।
४४- ४८ ।।
भद्राश्वे भगवान् विष्णुरास्ते
हयशिरा द्विज ।
वराहः केतुमाले तु भारते
कूर्म्मरूपधृक् ।। 49 ।।
मत्स्यरूपश्व गोविन्दः कुरुष्वास्ते
जनार्द्दनः ।
विश्वरूपेण सर्व्वत्र सर्व्वः
सर्वत्रगो हरिः ।। 50 ।।
सर्व्वस्याधारभूतोऽसौ
मैत्रेयास्तेऽखिलात्मकः ।
यानि किम्पुरुषादीनि वर्षाण्यष्टौ
महामुने ।
न तेषु शोको नायासो नोद्वेगः
क्षुद्भयादिकम् ।। 51 ।।
सुस्थाः प्रजा निरातङ्काः
सर्व्वदुःखविवर्ज्जिताः ।
दशद्वादशवर्षाणां सहस्त्राणि
स्थिरायुषः ।। 52 ।।
न तेषु वर्षते देवो भौमान्यम्भांसि
तेषु वै ।
कृत-त्रेतादिका नैव तेषु स्थानेषु
कल्पना ।। 53 ।।
सर्व्वेष्वेतेषु वर्षेषु सप्त सप्त
कुलाचलाः ।
नद्यश्व शतशस्तेभ्यः प्रसूता या
द्विजोत्तम ।। 54 ।।
हे द्विजो ! श्रीविष्णुभगवान
भद्राश्ववर्ष में हयग्रीवरूप से, केतुमालवर्ष
में वराहरूप से और भारतवर्ष में कूर्मरूप से रहते है तथा वे भक्तप्रतिपालक
श्रीगोविंद कुरुवर्ष में मत्स्यरूप से रहते है । इस प्रकार वे सर्वमय सर्वगामी हरि
विश्वरूप से सर्वत्र ही रहते है | हे मैत्रेय ! वे सबके
आधारभूत और सर्वात्मक है । हे महामुने ! किम्पुरुष आदि जो आठ वर्ष है उनमें शोक,
श्रम, उव्देग और क्षुधा का भय आदि कुछ भी नहीं
है । वहाँ की प्रजा स्वस्थ, आतंकहीन और समस्त दु:खोंसे रहित
है तथा वहाँ के लोग दस-बारह हजार वर्ष की स्थिर आयुवाले होते है । उनमें वर्षा कभी
नहीं होती, केवल पार्थिव जल ही है और न उन स्थानों में
कृतत्रेतादि युगों की ही कल्पना है । हे द्विजोत्तम ! इन सभी वर्षों में सात –
सात कुल पर्वत है और उनसे निकली हुई सैकड़ो नदियाँ है ।।४९- ५६ ।।
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितियेंऽशे
द्वितीयोऽध्याय ॥ २ ॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 3
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