विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २  

विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय २ में चौबीस तत्त्वों के विचार के साथ जगत के उत्पत्तिक्रम का वर्णन और विष्णु की महिमा का वर्णन है।

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २  

Vishnu Purana first part chapter 2

विष्णुपुराणम् प्रथमांशः अध्यायः २

विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय २  

श्रीविष्णुपुराण प्रथम अंश दूसरा अध्याय

श्रीपराशर उवाच

अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।

सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥१॥

नमो हिरण्यगर्भाय हरये शंकराय च ।

वासुदेवाय ताराय सर्गस्थित्यन्तकारिणे ॥२॥

श्रीपराशरजी बोले ;– जो ब्रह्मा, विष्णु और शंकररूप से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण है तथा अपने भक्तों को संसार-सागर से तारनेवाले हैं, उन विकाररहित, शुद्ध, अविनाशी, परमात्मा, सर्वदा एकरस, सर्वविजयी भगवान वासुदेव विष्णु को नमस्कार हैं ।

एकानेकस्वरूपाय स्थूलसूक्ष्मात्मने नमः ।

अव्यक्तव्यक्तरूपाय विष्णवे मुक्तिहेतवे ॥३॥

जो एक होकर भी नाना रूपवाले हैं, स्थूल-सूक्ष्ममय है, अव्यक्त (कारण) एवं व्यक्त (कार्य) रूप है तथा अपने अनन्य भक्तों की मुक्ति के कारण हैउन श्रीविष्णुभगवान् को नमस्कार है ।

सर्गस्थितिविनाशानां जगतो यो जगन्मयः ।

मूलभूतो नमस्तस्मै विष्णवे परमात्मने ॥४॥

जो विश्वरूप प्रभु विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के मूल कारण हैं, उन परमात्मा विष्णुभगवान् को नमस्कार हैं ।

आधारभूतं विश्वस्याप्यणीयांसमयीयसाम् ।

प्रणम्य सर्वभूतस्थमच्युतं पुरुषोत्तमम् ॥५॥

ज्ञानस्वरूपमत्यन्तनिर्मलं परमार्थतः ।

तमेवार्थस्वरूपेण भ्रान्तिदर्शनतः स्थितम् ॥६॥

विष्णुं ग्रसिष्णुं विश्वस्य स्थितौ सर्गे तथा प्रभुम् ।

प्रणम्य जगतामीशमजमक्षयमव्ययम् ॥७॥

कथयामि यथापूर्व दक्षाद्यैर्मुनिसत्तमैः ।

पृष्ट प्रोवाच भगवानब्जयोनिः पितामहः ॥८॥

जो विश्व के अधिष्ठान है, अतिसूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, सर्व प्राणियों में स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी है, जो परमार्थत: (वास्तव में) अति निर्मल ज्ञानस्वरूप है, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थरूप से प्रतीत होते है, तथा जो (कालस्वरूप से ) जगत की उत्पत्ति और स्थिति में समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान विष्णु को प्रणाम करके तुम्हे वह सारा प्रसंग क्रमश: सुनाता हूँ जो दक्ष आदि मुनिश्रेष्ठों के पूछनेपर पितामह भगवान् ब्रह्माजी ने उनसे कहा था 

तैश्चौक्तं पुरुकुत्साय भूभुजे निर्मदातटे ।

सारस्वताय तेनापि मह्मं सारस्वतेन च ॥९॥

वह प्रसंग दक्ष आदि मुनियों ने नर्मदा तटपर राजा पुरुकुत्स को सुनाया था तथा पुरुकुत्स ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझसे कहा था ।

परः पराणां परमः परमात्मात्मसंस्थितः ।

रूपवर्णादिनिर्देशविशेषणविवर्जितः ॥१०॥

अपक्षयविनाशाभ्यां परिणामर्धिजन्मभिः ।

वर्जितः शक्यते वक्तुंयः सदास्तीति केवलम् ॥११॥

सर्वत्रासौ समस्तं च वसत्यत्रेति वै यतः ।

ततः स वासुदेवेति विद्वद्भिः परिपठ्यते ॥१२॥

तद्‌ब्रह्म परंमं नित्यमजमक्षयमव्ययम् ।

एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च निर्मलम् ॥१३॥

 ‘जो पर से भी परे, परमश्रेष्ठ, अंतरात्मा में स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विशेषण आदि से रहित है; जिसमें जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश इन छ: विकारों का सर्वथा अभाव है; जिसको सर्वदा केवल है इतना ही कह सकते हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध है कि वे सर्वत्र हैं और उनमे समस्त विश्व बसा हुआ है इसलिये ही विद्वान जिसको वासुदेव कहते हैंवही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेब गुणों के अभाव के कारण निर्मल परब्रह्म है ।

तदेव सर्वमेवैतद्‌व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत् ।

तथा पुरुषरूपेण कालरूपेण च स्थितम् ॥१४॥

वही इन सब व्यक्त (कार्य) और अव्यक्त (कारण) जगत के रूपसे, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकारण काल के रूप से स्थित है ।

परस्य ब्रह्मणो रूपं पुरुषः प्रथमं द्विज ।

व्यक्ताव्यक्ते तथैवान्ये रूपे कालस्तथा परम् ॥१५॥

हे द्विज ! परब्रह्म का प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त (प्रकृति)और व्यक्त (महदादि ) उसके अन्य रूप हैं तथा सबको क्षोभित करनेवाला होने से काल उसका परमरूप हैं।

प्रधानपुरुषव्यक्तकालानां परमं हि यत् ।

पश्यन्ति सूरयः शुद्धं तद्विष्णोः परमं पदम् ॥१६॥

इसप्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल इन चारों से परे हैं तथा जिसे पंडितजन ही देख पाते हैं वही भगवान विष्णु का परमपद है।

प्रधानपुरुषव्यक्तकालास्तु प्रविभागशः ।

रूपाणि स्थितिसर्गान्तव्यक्तिसद्भावहेतवः ॥१७॥

प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल ये भगवान विष्णु के रूप पृथक-पृथक संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के प्रकाश तथा उत्पादन में कारण है।

व्यक्तं विष्णुस्तथाव्यक्तं पुरुषः काल एव च ।

क्रीडतो बालकस्येव चेष्टां तस्य निशामय ॥१८॥

भगवान विष्णु जो व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष और कालरूप से स्थित होते हैं, इसे उनकी बालव्रत क्रीडा ही समझो।

अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमैः ।

प्रोच्यते प्रकृतिः सूक्ष्मा नित्यं सदसदात्मकम् ॥१९॥

उनमें से अव्यक्त कारण को, जो सदसद्रूप कारण शक्तिविशिष्ट और नित्य सदा एकरस हैं, श्रेष्ठ मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते हैं।

अक्षय्यं नान्यदाधारममेयमजरं ध्रुवम् ।

शब्दस्पर्शविहीनं तद्रूपादिभिरसंहितम् ॥२०॥

वह क्षयरहित हैं, उसका कोई अन्य आधार भी नही हैं तथा अप्रमेय, अजर, निश्चल शब्द-स्पर्शीदिशून्य और रुपादिरहित हैं।

त्रिगुणं तज्जगद्योनिरनादिप्रभवाप्ययम् ।

तेनाग्रे सर्वमेवासीद्व्‌यांत्पं वै प्रलयादनु ॥२१॥

वह त्रिगुणमय और जगत का कारण है तथा स्वयं अनादि एवं उत्पत्ति और लय से रहित हैं। यह सम्पूर्ण प्रपंच प्रलयकाल से लेकर सृष्टि के आदितक इसीसे व्याप्त था,

वेदवादविदो विद्दन्नियता ब्रह्मवादिनः ।

पठन्ति चैतमेवार्थ प्रधानप्रतिपादकम् ॥२२॥

हे विद्वन ! श्रुति के मर्म को जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थ को लक्ष्य करके प्रधान के प्रतिपादक इस श्लोक को कहा करते हैं ।

नाहो न रात्रिर्न नभो न भूमि- र्नासीत्ममोज्योतिरभूच्च नान्यत् ।

श्रोत्रादिबुद्धयानुपलभ्यमेकं प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत् ॥२३॥

उससमय (प्रलयकाल में) न दिन था, न रात्रि थी, न आकाश था, न पृथ्वी थी, न अन्धकार था, न प्रकाश था और न इनके अतिरिक्त कुछ और ही था । बस, श्रोत्रादि इन्दिर्यों और बुद्धि आदि का अविषय एक प्रधान ब्रह्म और पुरुष ही था

विष्णोः स्वरूपात्मरतो हि ते द्वे रूपे प्रधानं पुरुषश्च विप्र ।

तस्यैव तेऽन्येन धूते वियुक्ते रूपांन्तरं तद्‌द्विज कालसंज्ञम् ॥२४॥

हे विप्र ! विष्णु के परम (उपाधिरहित) स्वरूप से प्रधान और पुरुष ये दो रूप हुए; उसी (विष्णु) के जिस अन्य रूप के द्वारा वे दोनों सृष्टि और प्रलयकाल में, संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तर का ही नाम कालहैं।

प्रकृतौ संस्थितं व्यक्तमतीतप्रलये तु यत् ।

तस्मात्प्राकृतसंज्ञोऽयमुच्यते प्रतिसत्र्चरः ॥२५॥

बीते हुए प्रलयकाल में यह व्यक्त प्रपंच प्रकतिमें लीन था, इसलिये प्रंपच के इस प्रलय को प्राकृत प्रलय कहते हैं

अनादिर्भगवान्कालो नान्तोऽस्य द्विज विद्यते ।

अव्युच्छिन्नास्ततस्त्वेते सर्गस्थित्यन्तसंयमाः ॥२६॥

हे द्विज ! कालरूप भगवान अनादि हैं, इनका अंत नही है इसलिये संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं सकते वे प्रवाहरूप से निरंतर होते रहते हैं । 

गुणसाम्ये ततस्तस्मिन्पृथक्पूंसि व्यवस्थिते ।

कालस्वरूपं तद्विष्णोर्मैत्रेय परिवर्त्तते ॥२७॥

हे मैत्रेय ! प्रलयकाल में प्रधान (प्रकृति) के साम्यावस्था में स्थित हो जानेपर और पुरुष के प्रकृति से पृथक स्थित हो जानेपर विष्णुभगवान् का कालरूप प्रवृत्त होता है।

ततस्तु तप्तरं ब्रह्मं परमात्मा जगन्मयः ।

सर्वगः सर्वभूतेशः सर्वात्मा परमेश्वरः ॥२८॥

प्रधानपुरुषौ चापि प्रविश्यात्मेच्छया हरिः ।

क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥२९॥

तदनंतर सर्गकाल उपस्थित होनेपर उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वर ने अपनी इच्छा से क्षोभित किया

यथा सन्निधिमात्रेण गन्धः क्षोभाय जायते ।

मनसो नोपकर्तृत्वात्तथाऽसौ परमेश्वरः ॥३०॥

जिस प्रकार क्रियाशील न होने पर भी गंध अपनी सन्निधिमात्र से ही मनको क्षुभित कर देता हैं उसी प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधिमात्र से ही प्रधान और पुरुष को प्रेरित करते हैं।

स एव क्षोभको ब्रह्मन् क्षोभ्यश्र्च पुरुषोत्तमः ।

स संकोचविकासाभ्यां प्रधानत्वेऽपिच स्थितः ॥३१॥

हे ब्रह्मन ! वह पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करनेवाले हैं और वे ही क्षुब्ध होते हैं तथा संकोच (साम्य) और विकास (क्षोभ) युक्त प्रधानरूप से भी वे ही स्थित हैं।

विकासाणुस्वरूपैश्च ब्रह्मरूपादिभिस्तथा ।

व्यक्तस्वरूपश्च तथा विष्णुः सर्वेश्वरेश्वरः ॥३२॥

ब्रह्मादि समस्त ईश्वरों के ईश्वर वे विष्णु ही समष्टि-व्यष्टिरूप, ब्रह्मादि जीवरूप तथा महत्तत्त्वरूप से स्थित हैं । 

गुणसाम्यात्ततस्तस्मात्क्षेत्रज्ञाधिष्ठितान्मुने ।

गुणव्यत्र्जनसम्भूतिः सर्गकाले द्विजोत्तम ॥३३॥

हे द्विजश्रेष्ठ ! सर्गकाल के प्राप्त होनेपर गुणों की साम्यावस्थारूप प्रधान जब विष्णु के क्षेत्रज्ञरूप से अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्त्व की उत्पत्ति हुई

प्रधानतत्त्वमुद्भतं महान्तं तत्समावृणोत् ।

सात्विको राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान् ॥३४॥

प्रधानतत्वेन समं त्वचा बीजमिवावृतम् ।

वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामस्वः ॥३५॥

त्रिविधोऽयमहंकारो महत्तत्त्वादजायत ।

भूतेन्द्रियाणां हेतुस्स त्रिगुणत्वान्महामुने ।

यथा प्रधानेन महान्महता स तथावृतः ॥३६॥

उत्पन्न हुए महान को प्रधानतत्त्व ने आवृत् किया; महत्तत्त्व सात्त्विक, राजस और तामस, भेद से तीन प्रकार का है। किन्तु जिस प्रकार बीज छिलके से समभाव से ढँका रहता हैं वैसे ही यह त्रिविध महत्तत्त्व से ही वैकारिक (सात्त्विक) तेजस (राजस) और तामस भूतादि तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ।  हे महामुने ! वह त्रिगुणात्मक होने से भूत और इन्द्रिय आदि का कारण है और प्रधान से जैसे महत्तत्त्व व्याप्त है, वैसे ही महत्तत्त्व से वह (अहंकार) व्याप्त है।

भूतादिस्तु विकुर्वाणः शब्दतन्मात्रकं ततः ।

ससर्ज शब्दतन्मात्रादाकाशं शब्दलक्षणम् ॥३७॥

भूतादि नामक तामस अहंकार ने विकृत होकर शब्द-तन्मात्रा और उससे शब्द-गुणवाले आकाश की रचना की 

शब्दमात्रं तथाकाशं भूतादिः स समावृणोत् ।

आकाशस्तु विकुर्वाणः स्पर्शमात्रं ससर्ज ह ॥३८॥

उस भूतादि तामस अहंकार ने शब्द-तन्मात्रारूप आकाश को व्याप्त किया । फिर शब्द तन्मात्रारूप आकाश ने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्रा को रचा

बलवानभवद्वायुस्तस्य स्पर्शो गुणो मतः ।

आकाशं शब्दमात्रं तु स्पर्शमात्रं समावृणोत् ॥३९॥

उस (स्पर्श-तन्मात्रा) से बलवान वायु हुआ, उसका गुण स्पर्श माना गया हैं। शब्द-तन्मात्रारूप आकाश ने स्पर्श-तन्मात्रावाले वायु को आवृत किया है।

ततो वायुर्विकुर्णाणो रूपमात्रं ससर्ज ह ।

ज्योतिरुत्पद्यते वायोस्तद्रूपगुणमुच्यते ॥४०॥

फिर स्पर्श-तन्मात्रारूप वायु ने विकृत होक रूप-तन्मात्रा की सृष्टि की, रूप-तन्मात्रायुक्त वायुसे तेज उत्पन्न हुआ है, उसका गुण रूप कहा जाता है।

 स्पर्शमात्रं तु वै वायू रूपमात्रं समावृणोत् ।

ज्योतिश्चापि विकृर्वाणं रसमात्रं ससर्ज ह ॥४१॥

स्पर्श-तन्मात्रा वायु ने रूप तन्मात्रावाले तेज को आवृत किया। फिर रूप तन्मात्रामय तेज ने भी विकृत होकर रस-तन्मात्रा की रचना की

सम्भवन्ति ततोऽम्भांसि रसाधाराणि तानि च ।

रसमात्राणि चाम्भांसि रूपमात्रं समावृणोत् ॥४२॥

उस रस- तन्मात्रारूप से रस-गुणवाला जल हुआ , रस-तन्मात्रावाले जल को रूप-तन्मात्रामय तेज ने आवृत किया

विकुर्वाणानि चाम्भांसि गन्धमात्रं ससर्जिरे ।

संघातो जायते तस्मात्तस्य गन्धो गुणो मतः ॥४३॥

रस- तन्मात्रारूप जलने विकार को प्राप्त होकर गंध-तन्मात्रा की सृष्टि की, उससे पृथ्वी उत्पन्न हुई है जिसका गुण गंध नाना जाता हैं।

तस्मिंस्तस्मिंस्तु तन्मात्रं तेन तन्मात्रता स्मृता ॥४४॥

उन उन आकाशादि भूतों ने तन्मात्रा हैं इसलिये वे तन्मात्रा (गुणरूप) ही कहे गये हैं।

तन्मात्राण्यविशेषाणि अविशेषास्ततो हि ते ॥४५॥

तन्मात्राओं में विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा हैं 

न शान्ता नापि घोरास्ते न मूढाश्चाविशेषिणः ।

भूततन्मात्रसर्गोऽयमहकांरात्तु तामसात् ॥४६॥

वे अविशेष तन्मात्राएँ शांत, घोर अथवा मूढ़ नहीं हैं , अर्थात उनका सुख-दुःख या मोहरूप से अनुभव नही हो सकता  इसप्रकार तामस अहंकार से यह भूत-तन्मात्रारूप सर्ग हुआ है।

तैजसानीन्द्रीयाण्याहूर्देवा वैकारिका दश ।

एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिकाः स्मृताः ॥४७॥

दस इन्द्रियाँ तेजस अर्थात राजस अहंकार से और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। इसप्रकार इन्दिर्यों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन वैकारिक (सात्त्विक ) हैं ।

त्वक् चक्षुर्नासिका जिह्वा श्रोत्रमत्र च पत्र्चमम् ।

शब्दादीनामवाप्त्यर्थं बुद्धीयुक्तानि वै द्विज ॥४८॥

हे द्विज ! त्वक, चक्षु , नासिका, जिव्हा और श्रोत्र ये पाँचों बुद्धिकी सहायता से शब्दादि विषयों को ग्रहण करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।

पायूपस्थौ करौ पादौ वाक् च मैत्रेय पत्र्चमी ।

विसर्गशिल्पगत्युक्ति कर्म तेषां च कथ्यते ॥४९॥

हे मैत्रेय ! पायु (गुदा), उपरथ (लिंग), हस्त, पाद और वाक् ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ है | इनके कर्म (मूल-मूत्र का ) त्याग, शिल्प, गति और वचन बतलाये जाते हैं 

आकाशवायुतेजांसि सलिलं पृथिवी तथा ।

शब्दादिभिर्गुणैर्ब्रह्मन्संयुक्तान्युत्तरोत्तरैः ॥५०॥

आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी ये पाँचों भूत उत्तरोत्तर (क्रमश:) शब्द-स्पर्श आदि पाँच गुणों से युक्त है ।

शान्ता घोराश्च मूढाश्च विशेषास्तेन ते स्मृताः ॥५१॥

ये पाँचों भूत शांत घोर और मूढ़ है अर्थात सुख, दुःख और मोहयुक्त है अत: ये विशेष कहलाते हैं।

नानावीर्याः पृथग्भूतास्ततस्ते संहतिं विना ।

नाशक्रुवन्प्रजाः स्त्रष्टुमसमागम्य कृत्स्त्रशः ॥५२॥

इन भूतों में पृथक-पृथक नाना शक्तियाँ है । अत: वे परस्पर पूर्णतया मिले बिना संसार की रचना नहीं कर सके

समेत्यान्योन्यसंयोगं परस्परसमाश्रयाः ।

एकसंघातलक्ष्याश्च सम्प्राप्यैक्यमशेषतः ॥५३॥

पुरुषाधिष्ठितताच्च प्रधानानुग्रहेण च ।

महदाद्या विशेषान्ता ह्माण्डमुत्पादयन्ति ते ॥५४॥

इसलिये एक-दूसरे के आश्रय रहनेवाले और एक ही संघात की उत्पत्ति के लक्ष्यवाले महत्तत्त्व से लेकर विशेषपर्यन्त प्रकृति के इन सभी विकारों ने पुरुष से अधिष्ठित होने के कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधानतत्त्व अनुग्रह से अंड की उत्पत्ति की

तत्क्रमेण विवृद्धं सज्जलबुदबुदवत्समम् ।

भूतेभ्योऽण्डं महाबुद्धें महत्तदुदकेशयम् ।

प्राकृतं ब्रह्मरूपयस्य विष्णोः स्थानमनुत्तमम् ॥५५॥

हे महाबुद्धे ! जल के बुलबुले के समान क्रमश: भूतों से बढ़ा हुआ वह गोलाकार और जलपर स्थित महान अंड ब्रह्म ( हिरण्यगर्भ ) रूप विष्णु का अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ

तत्राव्यक्तस्वरूपोऽसौ व्यक्तरूपो जगत्पतिः ।

विष्णुर्ब्रह्मस्वरूपेण स्वयमेव व्यवस्थितः ॥५६॥

उसमें वे अव्यक्त-स्वरूप जगत्पति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूप से स्वयं ही विराजमान हुए ।

मेरुरुल्बमभूत्तस्य जरायुश्च महीधराः ।

गर्भोदकं समुद्राश्च तस्यासन्सुमहात्मनः ॥५७॥

उन महात्मा हिरण्यगर्भ का सुमेरु उल्ब (गर्भ को ढँकनेवाली झिल्ली), अन्य पर्वत, जरायु (गर्भाशय ) तथा समुद्र गर्भाशयस्थ रस था

साद्रिद्वीपसमुद्राश्च सज्योतिर्लोकसंग्रहः ।

तस्मिन्नण्डेऽभवद्विप्र सदेवासुरमानुषः ॥५८॥

हे विप्र ! उस अंड में ही पर्वत और द्विपादिके सहित समुद्र, ग्रह-गण के सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग प्रकट हुए

वारिवह्‌न्यनिलाकाशैस्ततो भूतादिना बहिः ।

वृतं दशगुणैरण्डं भूतादिर्महता तथा ॥५९॥

वह अंड पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दस-दस गुण अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात तामस-अहंकार से आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्व घिरा हुआ है।

अव्यक्तेनावृतो ब्रह्मांस्तैः सर्वोः सहितो महान् ।

एभिरावरणैरण्डं सप्तभिः प्राकृतैर्वृतम् ।

नारिकेलफलस्यान्तर्बीजं बाह्मदलैरिव ॥६०॥

और इन सबके सहित वह महत्तत्त्व भी अव्यक्त प्रधान से आवृत है, इसप्रकार जैसे नारियल के फल का भीतरी बीज बाहर से कितने ही छिलकों से ढँका रहता है वैसे ही यह अंड इन सात प्राकृत आवरणों से घिरा हुआ है।

जुषन रजो गुणं तत्र स्वयं विश्वेश्वरो हरिः ।

ब्रह्मा भूत्वास्य जगतो विसृष्टौ सम्प्रवर्त्तते ॥६१॥

उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुण का आश्रय लेकर इस संसार की रचना में प्रवृत्त होते हैं।

सृष्टं च पात्यनुयुगं यावत्कल्पविकल्पना ।

सत्त्वभृद्भगवान्विष्णुरप्रमेयपराक्रमः ॥६२॥

तथा रचना हो जानेपर सत्त्वगुण-विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान विष्णु उसका कल्पांतपर्यन्त युग-युगमें पालन करते हैं।

तमोद्रेकी चा कल्पान्ते रुद्ररूपी जनार्दनः ।

मैत्रेयाखिलभूतानि भक्षयत्यतिदारुणः ॥६३॥

हे मैत्रेय ! फिर कल्प का अंत होनेपर अति दारुण तम: प्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतों का भक्षण कर लेते हैं!

भक्षयित्वा च भूतानि जगत्येकार्णवीकृते ।

नागपर्यंकशयने शेते च परमेश्वरः ॥६४॥

इसप्रकार समस्त भूतों का भक्षण कर संसार को जलमय करके वे परमेश्वर शेष-शय्यापर शयन करते हैं।

प्रबुद्धश्च पुनः सृष्टिं करोति ब्रह्मरूपधृक् ॥६५॥

जगने पर ब्रह्मरूप होकर वे फिर जगत की रचना करते हैं।

सृष्टिस्थित्यन्तकरणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।

स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः ॥६६॥

वह एक ही भगवान जनार्दन जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं।

स्त्रष्टा सृजाति चात्मानं विष्णुः पाल्यंच पाति च ।

उपसंह्रियते चान्ते संहर्ता च स्वयं प्रभुः ॥६७॥

वे प्रभु विष्णु स्रष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं और अंत में स्वयं ही संहारक (शिव) तथा स्वयं ही उपसंहत (लीन) होते हैं।

पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च ।.

सर्वोन्द्रियान्तः करणं पुरुषाख्यं हि यज्जगत् ॥६८॥

स एव सर्वभूतात्मा विश्वरूपो यतोऽव्ययः ।

सर्गादिकं तु तस्यैव भूतस्थमुपकारकम् ॥६९॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और अंत:करण आदि जितना जगत है सब पुरुषरूप है और क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतों के अंतरात्मा है, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियों में स्थित सर्गादिक भी उन्हीं के उपकारक है।

स एव सृज्यः स च सर्गकर्ता स एव पात्यत्ति च पाल्यते च ।

ब्रह्माद्यवस्थाभिरशेषमूर्ति र्विष्णुर्वरिष्ठो वरदो वरेण्यः ॥७०॥

वे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, वरदायक और वरेण्य (प्रार्थना के योग्य) भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले है, वे ही रचे जाते हैं, वे ही पालते हैं, वे ही पालित होते है तथा वे ही संहार करते हैं, और स्वयं ही संह्र्त होते है ।

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे द्वितीयोऽध्यायः।।

आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण अध्याय 3

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