श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ८                                    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ८ "नृसिंह भगवान् का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ८

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्याय:

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ८                                                        

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ७ अध्यायः ८                                                           

श्रीमद्भागवत महापुराण सातवाँ स्कन्ध आठवाँ अध्याय

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ७ अध्याय ८ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित  

श्रीमद्भागवतम् सप्तमस्कन्धः

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

॥ सप्तमस्कन्धः ॥

॥ अष्टमोऽध्यायः ८ ॥

नारद उवाच

अथ दैत्यसुताः सर्वे श्रुत्वा तदनुवर्णितम् ।

जगृहुर्निरवद्यत्वान्नैव गुर्वनुशिक्षितम् ॥ १॥

अथाचार्यसुतस्तेषां बुद्धिमेकान्तसंस्थिताम् ।

आलक्ष्य भीतस्त्वरितो राज्ञ आवेदयद्यथा ॥ २॥

श्रुत्वा तदप्रियं दैत्यो दुःसहं तनयानयम् ।

कोपावेशचलद्गात्रः पुत्रं हन्तुं मनो दधे ॥ ३॥

क्षिप्त्वा परुषया वाचा प्रह्लादमतदर्हणम् ।

आहेक्षमाणः पापेन तिरश्चीनेन चक्षुषा ॥ ४॥

प्रश्रयावनतं दान्तं बद्धाञ्जलिमवस्थितम् ।

सर्पः पदाहत इव श्वसन् प्रकृतिदारुणः ॥ ५॥

हे दुर्विनीत मन्दात्मन् कुलभेदकराधम ।

स्तब्धं मच्छासनोद्धूतं नेष्ये त्वाद्य यमक्षयम् ॥ ६॥

क्रुद्धस्य यस्य कम्पन्ते त्रयो लोकाः सहेश्वराः ।

तस्य मेऽभीतवन्मूढ शासनं किं बलोऽत्यगाः ॥ ७॥

नारद जी कहते हैं ;- प्रह्लाद का प्रवचन सुनकर दैत्य बालकों ने उसी समय से निर्दोष होने के कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरु जी की दूषित शिक्षा की ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया।

जब गुरु जी ने देखा कि उन सभी विद्यार्थियों की बुद्धि एकमात्र भगवान् में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया। अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्त में उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथ से मार डालना चाहिये।

मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले प्रह्लाद जी बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कार के सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभाव से ही क्रूर था। वह पैर की चोट खाये हुए साँप की तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पाप भरी टेढ़ी नजर से देखा और कठोर वाणी से डाँटते हुए कह- मूर्ख! तू बड़ा उदण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुल के और बालकों को भी फोड़ना चाहता है। तूने बड़ी ढिठाई से मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। आज ही तुझे यमराज के घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ। मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?'

प्रह्लाद उवाच

न केवलं मे भवतश्च राजन्

स वै बलं बलिनां चापरेषाम् ।

परेऽवरेऽमी स्थिरजङ्गमा ये

ब्रह्मादयो येन वशं प्रणीताः ॥ ८॥

स ईश्वरः काल उरुक्रमोऽसा-

वोजःसहःसत्त्वबलेन्द्रियात्मा ।

स एव विश्वं परमः स्वशक्तिभिः

सृजत्यवत्यत्ति गुणत्रयेशः ॥ ९॥

जह्यासुरं भावमिमं त्वमात्मनः

समं मनो धत्स्व न सन्ति विद्विषः ।

ऋतेऽजितादात्मन उत्पथस्थिता-

त्तद्धि ह्यनन्तस्य महत्समर्हणम् ॥ १०॥

दस्यून् पुरा षण् न विजित्य लुम्पतो

मन्यन्त एके स्वजिता दिशो दश ।

जितात्मनो ज्ञस्य समस्य देहिनां

साधोः स्वमोहप्रभवाः कुतः परे ॥ ११॥

प्रह्लाद ने कहा ;- दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोड़े-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान् ने ही अपने वश में कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वह परमेश्वर अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान् की सबसे बड़ी पूजा है। जो लोग अपना सर्वस्व लूटने वाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओं पर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दासों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्मा ने समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञान से पैदा होने वाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहर के शत्रु तो रहें ही कैसे।

हिरण्यकशिपुरुवाच

व्यक्तं त्वं मर्तुकामोऽसि योऽतिमात्रं विकत्थसे ।

मुमूर्षूणां हि मन्दात्मन् ननु स्युर्विप्लवा गिरः ॥ १२॥

यस्त्वया मन्दभाग्योक्तो मदन्यो जगदीश्वरः ।

क्वासौ यदि स सर्वत्र कस्मात्स्तम्भे न दृश्यते ॥ १३॥

सोऽहं विकत्थमानस्य शिरः कायाद्धरामि ते ।

गोपायेत हरिस्त्वाद्य यस्ते शरणमीप्सितम् ॥ १४॥

एवं दुरुक्तैर्मुहुरर्दयन् रुषा

सुतं महाभागवतं महासुरः ।

खड्गं प्रगृह्योत्पतितो वरासना-

त्स्तम्भं तताडातिबलः स्वमुष्टिना ॥ १५॥

तदैव तस्मिन्निनदोऽतिभीषणो

बभूव येनाण्डकटाहमस्फुटत् ।

यं वै स्वधिष्ण्योपगतं त्वजादयः

श्रुत्वा स्वधामात्ययमङ्ग मेनिरे ॥ १६॥

स विक्रमन् पुत्रवधेप्सुरोजसा

निशम्य निर्ह्रादमपूर्वमद्भुतम् ।

अन्तःसभायां न ददर्श तत्पदं

वितत्रसुर्येन सुरारियूथपाः ॥ १७॥

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं

व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मनः ।

अदृश्यतात्यद्भुतरूपमुद्वहन्

स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ॥ १८॥ सगोन

स सत्त्वमेनं परितोऽपि पश्यन्

स्तम्भस्य मध्यादनु निर्जिहानम् ।

नायं मृगो नापि नरो विचित्रमहो

किमेतन्नृमृगेन्द्ररूपम् ॥ १९॥

मीमांसमानस्य समुत्थितोऽग्रतो

नृसिंहरूपस्तदलं भयानकम् ।

प्रतप्तचामीकरचण्डलोचनं

स्फुरत्सटाकेसरजृम्भिताननम् ॥ २०॥

करालदंष्ट्रं करवालचञ्चल-

क्षुरान्तजिह्वं भ्रुकुटीमुखोल्बणम् ।

स्तब्धोर्ध्वकर्णं गिरिकन्दराद्भुत-

व्यात्तास्यनासं हनुभेदभीषणम् ॥ २१॥

दिविस्पृशत्कायमदीर्घपीवर-

ग्रीवोरुवक्षःस्थलमल्पमध्यमम् ।

चन्द्रांशुगौरैश्छुरितं तनूरुहै-

र्विष्वग्भुजानीकशतं नखायुधम् ॥ २२॥

दुरासदं सर्वनिजेतरायुध-

प्रवेकविद्रावितदैत्यदानवम् ।

प्रायेण मेऽयं हरिणोरुमायिना

वधः स्मृतोऽनेन समुद्यतेन किम् ॥ २३॥

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- 'रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकने की भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं। अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसी को जगत् का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभे में क्यों नहीं दीखता?

अच्छा, तुझे इस खंभे में भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग-हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा सर्वस्व हरि, जिस पर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है।'

इस प्रकर वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान् के परमप्रेमी प्रह्लाद को बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोध के मारे वह अपने को रोक न सका, तब हाथ में खड्ग लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खंभे में एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परन्तु दैत्य सेनापतियों को भी भय से कँपा देने वाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करने वाला कौन है? परन्तु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा।

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का था और न मनुष्य का ही। जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा। वह सोचने लगा- 'अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है।'

जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंह भगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेने से गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे। दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़ की गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ों से उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी। विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमा की किरणों के समान सफ़ेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम देते थे। उनके पास फटकने तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रों के द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवों को भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा- 'हो-न-हो महामायावी विष्णु ने ही मुझे मार डालने के लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालों से हो ही क्या सकता है।'

एवं ब्रुवंस्त्वभ्यपतद्गदायुधो

नदन् नृसिंहं प्रति दैत्यकुञ्जरः ।

अलक्षितोऽग्नौ पतितः पतङ्गमो

यथा नृसिंहौजसि सोऽसुरस्तदा ॥ २४॥

न तद्विचित्रं खलु सत्त्वधामनि

स्वतेजसा यो नु पुरापिबत्तमः ।

ततोऽभिपद्याभ्यहनन्महासुरो

रुषा नृसिंहं गदयोरुवेगया ॥ २५॥

तं विक्रमन्तं सगदं गदाधरो

महोरगं तार्क्ष्यसुतो यथाग्रहीत् ।

स तस्य हस्तोत्कलितस्तदासुरो

विक्रीडतो यद्वदहिर्गरुत्मतः ॥ २६॥

असाध्वमन्यन्त हृतौकसोऽमरा

घनच्छदा भारत सर्वधिष्ण्यपाः ।

तं मन्यमानो निजवीर्यशङ्कितं

यद्धस्तमुक्तो नृहरिं महासुरः ।

पुनस्तमासज्जत खड्गचर्मणी

प्रगृह्य वेगेन जितश्रमो मृधे ॥ २७॥

तं श्येनवेगं शतचन्द्रवर्त्मभि-

श्चरन्तमच्छिद्रमुपर्यधो हरिः ।

कृत्वाट्टहासं खरमुत्स्वनोल्बणं

निमीलिताक्षं जगृहे महाजवः ॥ २८॥

विष्वक्स्फुरन्तं ग्रहणातुरं हरिर्व्यालो

यथाऽऽखुं कुलिशाक्षतत्वचम् ।

द्वार्यूर आपात्य ददार लीलया

नखैर्यथाहिं गरुडो महाविषम् ॥ २९॥

संरम्भदुष्प्रेक्ष्यकराललोचनो

व्यात्ताननान्तं विलिहन् स्वजिह्वया ।

असृग्लवाक्तारुणकेसराननो

यथान्त्रमाली द्विपहत्यया हरिः ॥ ३०॥

नखाङ्कुरोत्पाटितहृत्सरोरुहं

विसृज्य तस्यानुचरानुदायुधान् ।

अहन् समन्तान्नखशस्त्रपार्ष्णिभि-

र्दोर्दण्डयूथोऽनुपथान् सहस्रशः ॥ ३१॥

सटावधूता जलदाः परापतन्

ग्रहाश्च तद्दृष्टिविमुष्टरोचिषः ।

अम्भोधयः श्वासहता विचुक्षुभु-

र्निर्ह्रादभीता दिगिभा विचुक्रुशुः ॥ ३२॥

इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान् पर टूट पड़ा। परन्तु जैसे पतिंगा आग में गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान् के तेज के भीतर जाकर लापता हो गया। समस्त शक्ति और तेज के आश्रय भगवान् के सम्बन्ध में ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है; क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में उन्होंने अपने तेज से प्रलय के निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकार को भी पी लिया था।

तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोध से लपका और अपनी गदा को बड़े जोर से घुमाकर उसने नृसिंह भगवान् पर प्रहार किया। प्रहार करते समय ही-जैसे गरुड़ साँपों को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान् ने गदा सहित उस दैत्य को पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथ से वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीड़ा करते हुए गरुड़ के चंगुल से साँप छूट जाये।

युधिष्ठिर! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलों में छिपकर इस युद्ध को देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपु ने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान् के हाथ से छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपु ने भी यही समझा कि नृसिंह ने मेरे बलवीर्य से डरकर ही मुझे अपने हाथ से छोड़ दिया है। इस विचार से उसकी थकान जाती रही और वह युद्ध के लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा। उस समय वह बाज की तरह बड़े वेग से ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवार के पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उन पर आक्रमण करने का अवसर ही न मिले। तब भगवान् ने बड़े ऊँचे स्वर में प्रचण्ड और भयंकर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपु की आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेग से झपटकर भगवान् ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है।

जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजे से निकलने के लिये जोर से छटपटा रहा था। भगवान् ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँप को चीर डालते हैं। उस समय उनकी क्रोध से भरी विकराल आँखों की ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभ से फैले हुए मुँह के दोनों कोने चाट रहे थे। खून के छींटों से उनका मुँह और गरदन के बाल लाल हो रहे थे। हाथी को मारकर गले में आँतों की माला पहले हुए मृगराज के समान उनकी शोभा हो रही थी। उन्होंने अपने तीखे नखों से हिरण्यकशिपु का कलेजा फाड़कर उसे जमीन पर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथों में शस्त्र लेकर भगवान् पर प्रहार करने के लिये आये। पर भगवान् ने अपनी भुजारूपी सेना से, लातों से और नखरूपी शस्त्रों से चारों ओर खदेड़-खदेड़ कर उन्हें मार डाला।

युधिष्ठिर! उस समय भगवान् नृसिंह के गरदन के बालों की फटकार से बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रों की ज्वाला से सूर्य आदि ग्रहों का तेज फीका पड़ गया। उनके श्वास के धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनाद से भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाड़ने लगे।

द्यौस्तत्सटोत्क्षिप्तविमानसङ्कुला

प्रोत्सर्पत क्ष्मा च पदाभिपीडिता ।

शैलाः समुत्पेतुरमुष्य रंहसा

तत्तेजसा खं ककुभो न रेजिरे ॥ ३३॥

ततः सभायामुपविष्टमुत्तमे

नृपासने सम्भृततेजसं विभुम् ।

अलक्षितद्वैरथमत्यमर्षणं

प्रचण्डवक्त्रं न बभाज कश्चन ॥ ३४॥

निशाम्य लोकत्रयमस्तकज्वरं

तमादिदैत्यं हरिणा हतं मृधे ।

प्रहर्षवेगोत्कलितानना मुहुः

प्रसूनवर्षैर्ववृषुः सुरस्त्रियः ॥ ३५॥

तदा विमानावलिभिर्नभस्तलं

दिदृक्षतां सङ्कुलमास नाकिनाम् ।

सुरानका दुन्दुभयोऽथ जघ्निरे

गन्धर्वमुख्या ननृतुर्जगुः स्त्रियः ॥ ३६॥

तत्रोपव्रज्य विबुधा ब्रह्मेन्द्रगिरिशादयः ।

ऋषयः पितरः सिद्धा विद्याधरमहोरगाः ॥ ३७॥

मनवः प्रजानां पतयो गन्धर्वाप्सरचारणाः ।

यक्षाः किम्पुरुषास्तात वेतालाः सिद्धकिन्नराः ॥ ३८॥

ते विष्णुपार्षदाः सर्वे सुनन्दकुमुदादयः ।

मूर्ध्नि बद्धाञ्जलिपुटा आसीनं तीव्रतेजसम् ।

ईडिरे नरशार्दुलं नातिदूरचराः पृथक् ॥ ३९॥

उनके गरदन के बालों से टकराकर देवताओं के विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरों की धमक से भूकम्प आ गया, वेग से पर्वत उड़ने लगे और उनके तेज की चकाचौंध से आकाश तथा दिशाओं का दीखना बंद हो गया। इस समय नृसिंह भगवान् का सामना करने वाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की राजसभा में ऊँचें सिंहासन पर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोध भरे भयंकर चेहरे को देखकर किसी का भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे।

युधिष्ठिर! जब स्वर्ग की देवियों को यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकों के सिर की पीड़ा मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्ध में भगवान् के हाथों मार डाला गया, तब आनन्द के उल्लास से उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। आकाश में विमानों से आये हुए भगवान् के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओं के ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। तात! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान् के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिर पर अंजलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंह भगवान् की थोड़ी देर से अलग-अलग स्तुति की।

ब्रह्मोवाच

नतोऽस्म्यनन्ताय दुरन्तशक्तये

विचित्रवीर्याय पवित्रकर्मणे ।

विश्वस्य सर्गस्थितिसंयमान् गुणैः

स्वलीलया सन्दधतेऽव्ययात्मने ॥ ४०॥

ब्रह्मा जी ने कहा ;- 'प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणों के द्वारा आप लीला से ही सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंग से करते हैं-फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।'

श्रीरुद्र उवाच

कोपकालो युगान्तस्ते हतोऽयमसुरोऽल्पकः ।

तत्सुतं पाह्युपसृतं भक्तं ते भक्तवत्सल ॥ ४१॥

श्रीरुद्र ने कहा ;- 'आपके क्रोध करने का समय तो कल्प के अन्त में होता है। यदि इस तुच्छ दैत्य को मारने के लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरण में आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्त की रक्षा कीजिये।'

इन्द्र उवाच

प्रत्यानीताः परम भवता त्रायता नः स्वभागा

दैत्याक्रान्तं हृदयकमलं त्वद्गृहं प्रत्यबोधि ।

कालग्रस्तं कियदिदमहो नाथ शुश्रूषतां ते

मुक्तिस्तेषां न हि बहुमता नारसिंहापरैः किम् ॥ ४२॥

इन्द्र ने कहा ;- 'पुरुषोत्तम! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तव में आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्यों के आतंक से संकुचित हमारे हृदयकमल को आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादि का राज्य हम लोगों को पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब काल का ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है कि क्या? स्वामिन्! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है।'

ऋषय ऊचुः

त्वं नस्तपः परममात्थ यदात्मतेजो

येनेदमादिपुरुषात्मगतं ससर्ज ।

तद्विप्रलुप्तममुनाद्य शरण्यपाल

रक्षागृहीतवपुषा पुनरन्वमंस्थाः ॥ ४३॥

ऋषियों ने कहा ;- 'पुरुषोत्तम! आपने तपस्या के द्वारा ही अपने में लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्या का उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्य ने उसी तपस्या का उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल! उस तपस्या की रक्षा के लिये फिर से उसी उपदेश का अनुमोदन किया है।'

पितर ऊचुः

श्राद्धानि नोऽधिबुभुजे प्रसभं तनूजैर्दत्तानि

तीर्थसमयेऽप्यपिबत्तिलाम्बु ।

तस्योदरान्नखविदीर्णवपाद्य आर्च्छत्तस्मै

नमो नृहरयेऽखिलधर्मगोप्त्रे ॥ ४४॥

पितर ने कहा ;- 'प्रभो! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थों में या संक्रान्ति आदि के अवसर पर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखों से उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मों के एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव! हम अपको नमस्कार करते हैं।'

सिद्धा ऊचुः

यो नो गतिं योगसिद्धामसाधु-

रहार्षीद्योगतपोबलेन ।

नानादर्पं तं नखैर्निर्ददार

तस्मै तुभ्यं प्रणताः स्मो नृसिंह ॥ ४५॥

सिद्धों ने कहा ;- 'नृसिंह देव! इस दुष्ट ने अपने योग और तपस्या के बल से हमारी योगसिद्धि गति छीन ली थी। अपने नखों से आपने उस घमंडी को फाड़ डाला है। हम आपके चरणों में विनीतभाव से नमस्कार करते हैं।'

विद्याधरा ऊचुः

विद्यां पृथग्धारणयानुराद्धां

न्यषेधदज्ञो बलवीर्यदृप्तः ।

स येन सङ्ख्ये पशुवद्धतस्तं

मायानृसिंहं प्रणताः स्म नित्यम् ॥ ४६॥

विद्याधरों ने कहा ;- 'यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरता के घमंड में चूर था। यहाँ तक कि हम लोगों ने विविध धारणाओं से जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्ध में यज्ञपशु की तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीला से नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं।'

नागा ऊचुः

येन पापेन रत्नानि स्त्रीरत्नानि हृतानि नः ।

तद्वक्षःपाटनेनासां दत्तानन्द नमोस्तु ते ॥ ४७॥

नागों ने कहा ;- 'इस पापी ने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियों को छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियों को बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।'

मनव ऊचुः

मनवो वयं तव निदेशकारिणो

दितिजेन देव परिभूतसेतवः ।

भवता खलः स उपसंहृतः प्रभो

करवाम ते किमनुशाधि किङ्करान् ॥ ४८॥

मनुओं ने कहा ;- 'देवाधिदेव! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्य ने हम लोगों की धर्म मर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्ट को मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?'

प्रजापतय ऊचुः

प्रजेशा वयं ते परेशाभिसृष्टा

न येन प्रजा वै सृजामो निषिद्धाः ।

स एष त्वया भिन्नवक्षा नु शेते

जगन्मङ्गलं सत्त्वमूर्तेऽवतारः ॥ ४९॥

प्रजापतियों ने कहा ;- 'परमेश्वर! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देने से हम प्रजा की सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीन पर सर्वदा के लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करने वाले प्रभो! आपक यह अवतार संसार के कल्याण के लिये है।'

गन्धर्वा ऊचुः

वयं विभो ते नटनाट्यगायका

येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृताः ।

स एष नीतो भवता दशामिमां

किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ॥ ५०॥

गन्धर्वों ने कहा ;- 'प्रभो! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और संगीत सुनाने वाले सेवक हैं। इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशा में पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलने वाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है?'

चारणा ऊचुः

हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः ।

यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ॥ ५१॥

चारणों ने कहा ;- 'प्रभो! आपने सज्जनों के हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले इस दुष्ट को समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलों की शरण में हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है।'

यक्षा ऊचुः

वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञैस्त

इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम् ,

स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते

नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ॥ ५२।

यक्षों ने कहा ;- 'भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हम लोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें अपनी पालकी ढोने वाला कहार बना लिया। प्रकृति के नियामक परमात्मा! इसके कारण होने वाले अपने जिनजनों के कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है।'

किम्पुरुषा ऊचुः

वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः ।

अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ॥ ५३॥

किम्पुरुषों ने कहा ;- 'हम लोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषों ने इसका तिरस्कार किया- इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष- असुराधम को नष्ट कर दिया।'

वैतालिका ऊचुः

सभासु सत्रेषु तवामलं यशो

गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे ।

यस्तां व्यनैषीद्भृशमेष दुर्जनो

दिष्ट्या हतस्ते भगवन् यथाऽऽमयः ॥ ५४॥

वैतालिकों ने कहा ;- 'भगवन्! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञों में आपके निर्मल यश का गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्ट ने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्य की बात है कि महारोग के समान इस दुष्ट को आपन जड़मूल से उखाड़ दिया।'

किन्नरा ऊचुः

वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा

दितिजेन विष्टिममुनानुकारिताः ।

भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो

नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ॥ ५५॥

किन्नरों ने कहा ;- 'हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगार में ही काम लेता था। भगवन्! आपने कृपा करके आज इस पापी को नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें।'

विष्णुपार्षदा ऊचुः

अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते

दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म ।

सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्तस्तस्येदं

निधनमनुग्रहाय विद्मः ॥ ५६॥

भगवान् के पार्षदों ने कहा ;- 'शरणागतवत्सल! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करने वाला आपका यह अलौकिक नृसिंह रूप हमने आज ही देखा है। भगवन्! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादि ने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है।'

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यराजवधे नृसिंहस्तवो नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८॥

शेष जारी-आगे पढ़े............... सप्तम स्कन्ध: नवमोऽध्यायः

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