विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ५
विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय
५ में सात पाताल लोकों का वर्णन है।
विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ५
Vishnu Purana second part chapter 5
विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः पञ्चमोऽध्याय:
विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः
५
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश पाँचवाँ अध्याय
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय
५
श्रीविष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
श्रीपराशर उवाच
विस्तार एष कथितः पृथिव्या भवतो मया
।
सप्ततिस्तु सहस्राणि
द्विजोच्छ्रायोपि कथ्यते ॥१॥
दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम ।
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत् ।
महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि
सप्तमम् ॥२॥
शुक्लाकृष्णारुणाः पीताः शर्कराः
शैलकांचनाः ।
भूमयो यत्र मैत्रेय
वरप्रासादमंडिताः ॥३॥
तेषु दानवदैतेया यक्षाश्च शतशस्तथा ।
निवसन्ति महानागजातयश्च महामुने ॥४॥
श्रीपराशरजी बोले ;– हे द्विज ! मैंने तुमसे वह पृथ्वीका विस्तार कहा; इसकी ऊँचाई भी सत्तर सहस्त्र योजन कही जाती है || १ || हे मुनिसत्तम ! अतल, वितल, नितल, गभस्तिमान, महातल, सुतल और पाताल इन सातों में से प्रत्येक दस-दस सहस्त्र योजन की दूरीपर है || २ || हे मैत्रेय ! सुंदर महलों से सुशोभित वहाँ की भूमियाँ शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की तथा शर्करामयी (कंकरीली), सैली (पत्थरकी ) सुवर्णमयी है || ३ || हे महामुने ! उनमें दानव, दैत्य, यक्ष और बड़े- बड़े नाग आदिकों की सैकड़ो जातियाँ निवास करती है || ४ ||
स्वर्लोकादपि रम्याणि पातालानीति
नारदः ।
प्राह स्वर्गसदां मध्ये
पातालाभ्यागतो दिवि ॥५॥
आह्लादकारिणः शुभ्रा मणयो यत्र
सुप्रभाः ।
नागाभरणभूषासु पातालं केन तत्समम् ॥६॥
दैत्यदानवकन्याभिरितश्चेतश्च शोभिते
।
पाताले कस्य न
प्रीतिर्विमुक्तस्यापि जायते ॥७॥
दिवार्करश्मयो यत्र प्रभां तन्वन्ति
नातपम् ।
शशिरश्मिर्न शीताय निशि द्योताय
केवलम् ॥८॥
भक्ष्यभोज्यमहापानमुदितैरपि भोगिभिः
।
यत्र न ज्ञायते कालो गतोपि
दनुजादिभिः ॥९॥
वनानि नद्यो रम्याणि सरांसि कमलाकराः
।
पुंस्कोकिलाभिलापाश्च
मनोज्ञान्यम्बराणि च ॥१०॥
भूषणान्यतिशुभ्राणि गन्धाढ्यं
चानुलेपनम् ।
वीणावेणुमृदंगानां स्वनैरापूरितानि
च ॥११॥
एतान्यन्यानि चोदारभाग्यभोग्यानि
दानवैः ।
दैत्योरगैश्च भुज्यन्ते
पातालान्तरगोचरैः ॥१२॥
एक बार नारदजी ने पाताल लोक से स्वर्ग
में आकर वहाँ के निवासियों से कहा था कि ‘पाताल
तो स्वर्ग से भी अधिक सुंदर है’ || ५ || जहाँ नागगण के आभूषणों में सुंदर प्रभायुक्त आह्लादकारिणी शुभ्र मणियाँ
जड़ी हुई है उस पाताल को किसके समान कहें ? || ६ || जहाँ – तहाँ दैत्य और दानवों की कन्याओं से सुशोभित
पाताललोक में किस मुक्त पुरुष की भी प्रीति न होगी || ७ ||
जहाँ दिन में सूर्य की किरणे केवल प्रकाश ही करती है, घाम नहीं करतीं; तथा रात में चन्द्रमा की किरणों से
शीत नहीं होता, केवल चाँदनी ही फैलती है || ८ || जहाँ भक्ष्य, भोज्य और
महापानादि के भोगों से आनन्दित सर्पों तथा दानवादिकों को समय जाता हुआ भी प्रतीत
नही होता || ९ || जहाँ सुंदर वन,
नदियाँ, रमणीय सरोवर और कमलों के वन है,
जहाँ नरकोकीलों लो सुमधुर कूक गूँजती है एवं आकाश मनोहारी है ||
१० | और हे द्विज ! जहाँ पातालनिवासी दैत्य,
दानव, एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण,
सुगंधमय अनुलेपन, वीणा, वेणु
और मृंदगादि के स्वर तथा तूर्य – ये सब एवं भाग्यशालियों के
भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते है || ११ – १२ ||
पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या
तामसी तनुः ।
शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता
दैत्यदानवाः ॥१३॥
योनन्तः पठ्यते सिद्धैर्दैवो
देवर्षिपूजितः ।
स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः
॥१४॥
फणामणिसहस्रेण यः स विद्योतयन्दिशः ।
सर्वान्करोति निर्वीर्यान् हिताय
जगतोऽसुरान् ॥१५॥
मदाघूर्णितनेत्रोसौ यः
सदैवैककुण्डलः ।
किरीटी स्रग्धरो भाति साग्निः श्वेत
इवाचलः ॥१६॥
नीलवासा मदोत्सिक्तः
श्वेतहारोपशोभितः ।
साभ्रगङ्गाप्रवाहोसौ
कैलासाद्रिरिवापरः ॥१७॥
लाङ्गलासक्तहस्ताग्रो
बिभ्रन्मुसलमुत्तमम् ।
उपास्यते स्वयं कान्त्या यो
वारुण्या च मूर्त्तया ॥१८॥
कल्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यो विषानलशिखोज्ज्वलः
।
संकर्षणात्मको रुद्रो
निष्क्रम्यात्ति जगत्त्रयम् ॥१९॥
स बिभ्रच्छेखरीभूतमशेषं
क्षितिमण्डलम् ।
आस्ते पातालमूलस्थः
शेषोऽशेषसुरार्चितः ॥२०॥
तस्य वीर्यं प्रभावश्च स्वरूपं
रूपमेव च ।
न हि वर्णयितुं शक्यं ज्ञातुं च
त्रिदशैरपि ॥२१॥
यस्यैषा सकला पृथ्वी फणामणिशिखारुणा
।
आस्ते कुसुममालेव कस्तद्वीर्यं
वदिष्यति ॥२२॥
पातालों के नीचे विष्णुभगवान् का
शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणों का दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर
सकते ||
१३ || जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण ‘अनंत’ कहकर बखान करते है वे अति निर्मल, स्पष्ट स्वस्तिक चिन्हों से विभूषित तथा सहस्त्र सिरवाले है || १४ || जो अपने फणों की सहस्त्र मणियों से सम्पूर्ण
दिशाओं को देदीप्यमान करते हुए संसार के कल्याण के लिये समस्त असुरों को वीर्यहीन
करते रहते है || १५ || मद के कारण
अरुणनयन, सदैव एक ही कुंडल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि
धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वत के समान सुशोभित है || १६
|| मद से उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारों से
सुशोभित होकर मेघमाला और और गंगाप्रवाह से युक्त दूसरे कैलास – पर्वत के समान विराजमान है || १७ || जो अपने हाथों में हल और उत्तम मूसल धारण किये है तथा जिनकी उपासना शोभा
और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती है || १८ ||
कल्पांत में जिनके मुखों से विशाग्रिशिखा के समान देदीप्यमान
संकर्षणनामक रूद्र निकलकर तीनों लोकों का भक्षण कर जाता है || १९ || वे समस्त देवगणों से वन्दित शेषभगवान् अशेष
भूमंडल को मुकुटवत धारण किये हुए पातालतल में विराजमान है || २० || उनका बल-वीर्य, प्रभाव,
स्वरूप (तत्त्व ) और रूप (आकार) देवताओं से भी नहीं जाना और कहा जा
सकता || २१ || जिनके फणों की मणियों की
आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथ्वी फूलों की माला के समान रखी हुई है उनके
बल-वीर्य का वर्णन भला कौन करेगा ? || २२ ||
यदा विजृम्भतेनन्तो मदाघूर्णितलोचनः ।
तदा चलति भूरेषा साब्धितोया सकानना ॥२३॥
गन्धर्वाप्सरसः सिद्धाः
किन्नरोरगचारणाः ।
नान्तं गुणानां गच्छन्ति
तेनानन्तोयमव्ययः ॥२४॥
यस्य नागवधूहस्तैर्लगितं हरिचन्दनम्
।
मुहुः श्वासानिलापास्तं याति
दिक्क्षोदवासताम् ॥२५॥
यमाराध्य पूराणर्षिर्गर्गो
ज्योतींषि तत्त्वतः ।
ज्ञातवान्सकलं चैव निमित्तपठितं
फलम् ॥२६॥
तेनेयं नागवर्येण शिरसा विधृता मही ।
बिभर्ति मालां लोकानां
सदेवासुरमानुषाम् ॥२७॥
जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई
लेते है उस समय समुद्र और वन आदि के सहित यह सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान हो जाती है ||
२३ || इनके गुणों का अंत गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर,
नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते, इसलिये
ये अविनाशी देव ‘अनंत’ कहलाते है ||
२४ || जिनका नाग-वधुओंद्वारा लेपित हरिचन्दन
पुन:पुन: श्वास-वायुसे छट –छुटकर दिशाओं को सुगन्धित करता
रहता है || २५ || जिनकी आराधना से
पूर्वकालीन महर्षि गर्ग ने समस्त ज्योतिर्मंडल (ग्रहनक्षत्रादि) और शकुन-
अपशकुनादि नैमित्तिक फलों को तत्त्वत: जाना था || २६ ||
उन नागश्रेष्ठ शेषजी ने इस पृथ्वी को अपने मस्तकपर धारण किया हुआ है,
जो स्वयं भी देव, असुर और मनुष्यों के सहित
सम्पूर्ण लोकमाला को धारण किये हुए है || २७ ||
इति श्रीविष्णुमहापुराणे द्वितियेंऽशे
पंचमोऽध्यायः ॥५॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 6
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