विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ४
विष्णु पुराण के द्वितीय अंश के अध्याय
४ में प्लक्ष तथा शाल्मल आदि द्वीपों का विशेष वर्णन है।
विष्णु पुराण द्वितीय अंश अध्याय ४
Vishnu Purana second part chapter 4
विष्णुपुराणम् द्वितीयांशः चतुर्थोऽध्याय:
विष्णुपुराणम्/ द्वितीयांशः/अध्यायः
४
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश चौथा अध्याय
श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय
४
श्रीविष्णुपुराण
(द्वितीय अंश)
श्रीपराशर उवाच
क्षारोदेन यथा द्वीपो
जम्बूसंज्ञोऽभिवेष्टितः ।
संवेष्ट्य क्षारमुदधिं
प्लक्षद्वीपस्तथा स्थितः ॥ २,४.१
॥
जम्बूद्वीपस्य विस्तारः
शतसाहस्रसंमितः ।
स एवं द्विगुणो ब्रह्मन्
प्लक्षद्वीप उदाहृतः ॥ २,४.२ ॥
सप्त मेधातिथेः पुत्राः
प्लक्षद्वीपेश्वरस्य वै ।
ज्येष्ठ शान्तहयो नाम
शिशिरस्तदनन्तरः ॥ २,४.३ ॥
सुखोदयस्तथानन्दः शिवः क्षेमक एव च
।
ध्रुवश्च सप्तमस्तेषां प्लक्षद्वीपेश्वरा
हि ते ॥ २,४.४ ॥
पूर्वं शान्तहयं वर्षं शिशिरं च
सुखं तथा ।
आनन्दं च शिवं चैव क्षेमकं ध्रुवमेव
च ॥ २,४.५ ॥
मर्यादाकारकास्तेषां तथान्ये
वर्षपर्वताः ।
सप्तैव तेषां नामानि शृणुष्व
मुनिसत्तम ॥ २,४.६ ॥
गोमदेश्चैव चन्द्रश्च नारदौ
दुन्दुभिस्तथा ।
सोमकः मुमनाश्चैव वैभ्राजश्चैव
सप्तमः ॥ २,४.७ ॥
श्रीपराशरजी बोले - जिस प्रकार
जम्बूद्वीप क्षारसमुद्र से घिरा हुआ है उसी प्रकार क्षारसमुद्र को घेरें हुए
प्लक्षद्वीप स्थित है ॥१॥ जम्बूद्वीप का विस्तार एक लक्ष योजन है;
और हे ब्रह्मन ! प्लक्षद्वीप का उससे दूना कहा जाता हैं ॥२॥ प्लक्शद्वीप
के स्वामी मेधातिथि के सात पुत्र हुए । उनमें सबसे बड़ा शान्तहय था और उससे छोटा
शिशिर ॥३॥ उनके अनन्तर क्रमशः सुखोदय, आनन्द, शिव और क्षेमक थे तथा सातवाँ ध्रुव था । ये सब प्लक्षद्वीपके अधीश्वर हुए
॥४॥ ( उनके अपने-अपने अधिकृत वर्षो में ) प्रथम शान्तहयवर्ष है तथा अन्य शिशिरवर्ष,
सुखोदयवर्ष, आनन्दवर्ष, शिववर्ष,
क्षेमकवर्ष और ध्रुववर्ष हैं ॥५॥ तथा उनकी मर्यादा निश्चित करनेवाले
अन्य सात पर्तव हैं । हे मुनिश्रेष्ठ ! उनके नाम ये हैं, सुनो
- ॥६॥ गोमेद, चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक, सुमना और
सातवाँ वैभ्राज ॥७॥
वर्षाचलेषु रम्येषु वर्षेष्वेतेषु
चानघाः ।
वसंति देवगन्धर्वसहिताः सततं प्रजाः
॥ २,४.८ ॥
तेषु पुण्या जनपदाश्चिराच्च म्रियते
जनः ।
नाधयो व्याधयो वापि सर्वकालसुखं हि
तत् ॥ २,४.९ ॥
तेषां नद्यस्तु सप्तैव वर्षाणां च
समुद्रगाः ।
नामतस्ताः प्रवक्ष्यामि श्रुताः
पापं हरन्ति याः ॥ २,४.१० ॥
अनुतप्ता शिखी चैव विपाशा
त्रिदिवाक्लमः ।
अमृता सुकृता चैव सप्तैतास्तत्र
निम्नगाः ॥ २,४.११ ॥
इन अति सुरम्य वर्ष-पर्वतों और
वर्षोमें देवता और गन्धवोंके सहित सदा निष्पाप प्रजा निवास करती हैं ॥८॥ वहाँके
निवासीगण पुण्यवान होते हैं और वे चिरकालातक जीवित रहकर मरते हैं;
उनको किसी प्रकरकी अधिव्याधि नहीं होती, निरन्तर
सुख ही रहता है ॥९॥ उन वर्षोंकी सात ही समुद्रगामिनी नदियाँ हैं । उनके नाम मैं
तुम्हें बतलाता हूँ जिनके श्रवणमात्रसे वे पापोंको दूर कर देती हैं ॥१०॥ वहाँ
अनुतत्पा, शिखी, विपाशी , त्रिदिवा, अक्लमा, अम्रुता और
सुकृता - ये ही सात नदियाँ हैं ॥११॥
एते शैलास्तथा नद्यः प्रधानाः
कथितास्तव ।
क्षुद्रशैलास्तथा नद्यस्तत्र सन्ति
सहस्रशः ।
ताः पिबन्दि सदाहृष्टा
नदीर्जनपदास्तुते ॥ २,४.१२ ॥
अपसर्पिणी न तेषां वै न
चैवोत्सर्पिणी द्विज ।
न त्वेवास्ति युगावस्था तेषु
स्तानेषु सप्तसु ॥ २,४.१३ ॥
त्रेतायुगसमः कालः सर्वदैव महामते ।
प्लक्षद्वीपादिषु
ब्रह्मञ्शाकद्वीपान्तिकेषु वै ॥ २,४.१४
॥
पञ्च वर्षसहस्राणि जना
जीवन्त्यनामयाः ।
धर्मः पञ्चस्वथैतेषु
वर्णाश्रमविभागशः ॥ २,४.१५ ॥
वर्णाश्च तत्र चत्वारस्तान्निबोध
वदामि ते ॥ २,४.१६ ॥
यह मैंने तुमसे प्रधान - प्रधान
पर्वत और नदियोंका वर्णन किया हैं; वहाँ
छोटे-छोटे पर्वत और नदियाँ तो और भी सहस्त्रों हैं । उस देशके हृष्ट-पृष्ट लोग सदा
उन नदियोंका जल पान करते हैं ॥१२॥ हे द्विज ! उन लोगोंमें ह्नास अथवा वॄद्धि नहीं
होती और न उन सात वर्षोमें युगकी ही कोई अवस्था है ॥१३॥ हे महामते ! हे ब्रह्मन् !
प्लक्षद्वीपसे लेकर शाकाद्वीपपर्यन्त छहों द्वीपोमें सदा त्रेतायुगके समान समय
रहता हैं ॥१४॥ इन द्वीपोके मनुष्य सदा नीरोग रहकर पाँच हजार वर्षतक जीते हैं और
इनमें वर्णाश्रम-विभागानुसार पाँचों धर्म ( अहिंसा , सत्य,
अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) वर्तमान
रहते हैं ॥१५॥ वहाँ जो चार वर्ण है वह मैं तुमको सुनाता हूँ ॥१६॥
आर्यकाः कुरारश्चैव विदिश्या
भाविनश्चे ते ।
विप्रक्षत्रिवैश्यास्ते शूद्राश्च
मुनिसत्तम ॥ २,४.१७ ॥
ज्मबूवृक्षप्रमाणस्तु तन्मध्ये
सुमहांस्तरुः ।
प्लक्षस्तन्नामसंज्ञोयं
प्लक्षद्वीपो द्विजोत्तम ॥ २,४.१८
॥
इज्यते तत्र
भगवांस्तैर्वर्णैरार्यकादिभिः ।
सीमरूपि जगत्स्त्रष्टा सर्वः
सर्वेश्वरो हरिः ॥ २,४.१९ ॥
प्लक्षद्वीपप्रमाणेन प्लक्षद्वीपः
समावृतः ।
तथैवेक्षुरमोदेन परिवेषानुकारिणा ॥
२,४.२० ॥
इत्येवं तव मैत्रेय प्लक्षद्वीप
उदाहृतः ।
संक्षेपेण मया भूयः शाल्मलं मे
निसामय ॥ २,४.२१ ॥
हे मुनिसत्तम ! उस द्वीपमें जो
आर्यक,
कुरर, विदिश्य और भावी नामक जातियाँ हैं;
वे ही क्रमसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र हैं ॥१७॥ हे द्विजोत्तम ! उसीमें जम्बूवृक्षक ही
परिमाणवाला एक प्लक्ष ( पाकर ) का वृक्ष है, जिसके नामसे
उसकी संज्ञा प्लक्षद्वीप हुई है ॥१८॥ वहाँ आर्यकादि वर्णोद्वारा जगत्स्त्रष्टा,
सर्वरूप, सर्वेश्वर भगवान् हरिका सोमरूपसे यजन
किया जाता हैं ॥१९॥ प्लक्षद्वीप अपने ही बराबर परिमाणवाले वृत्ताकार इक्षुरसके
समुद्रसे घिरा हुआ हैं ॥२०॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंनें तुमसे संक्षेप में
प्लक्षद्वीप का वर्णन किया, अब तुम शाल्मलद्वीप का विवरण
सुनो ॥२१॥
शाल्ममस्येश्वरोःवीरो
वपुष्मांस्तत्सुताञ्छृणु ।
तेषां तु नामसंज्ञानि सप्तवर्षाणि
तानि वै ॥ २,४.२२ ॥
श्वेतोथ हरितश्चैव जीमूतो
रोहितस्तथा ।
वैद्युतो मानसश्चैव सुप्रभश्च
महामुने ॥ २,४.२३ ॥
शाल्मलेन समुद्रोसौ
द्वीपेनेक्षुरसोदकः ।
विस्तारद्विगुणेनाथ सर्वतः संवृतः
स्थितः ॥ २,४.२४ ॥
तत्रापि पर्वताः सप्त विज्ञेया
रत्नयोनयः ।
वर्षाभिव्यञ्जका ये तु तथा सप्त च निम्नगाः
॥ २,४.२५ ॥
कुमुदश्चेन्नतश्चैव तृतीयश्च बलाहकः
।
द्रोणो यत्र महौषध्यः स चतुर्थो
महीधरः ॥ २,४.२६ ॥
कङ्कस्तुपञ्चमः षष्ठी महिषः
सप्तमस्तथा ।
ककुद्मान्पर्वतवरः सरिन्नामानि मे
शृणु ॥ २,४.२७ ॥
शाल्मलद्वीपके स्वामी वीरवर
वपुष्मान थे । उनके पुत्रोंके नाम सुनो - हे महामुने ! वे श्वेत,
हरित, जीमूत, रोहित,
वैद्युत, मानस और सुप्रभ थे । उनके सात वर्ष
उन्हींके नामानुसार संज्ञावाले हैं ॥२२-२३॥ यह (प्लक्षद्वीप को घेरनेवाला) इक्षुरस
का समुद्र अपनेसे दूने विस्तारवाले इस शाल्मलद्विपसे चारों ओरसे घिरा हुआ हैं ॥२४॥
वहाँ भी रत्नोंके उद्भवस्थानरूप सात पर्वत हैं जो उसके सातों वर्षोंके विभाजक हैं
तथा सात नदियाँ हैं ॥२५॥ पर्वतों में पहला कुमुद, दुसरा
उन्नत और तीसरा बलाहक है तथा चौथा द्रोणाचल हैं, जिसमें नाना
प्रकारकी महौषधियाँ हैं ॥२६॥ पाँचवाँ कंक, छठा महिष और
सातवाँ गिरिवर कुकुद्यान् है । अब नदियोंके नाम सुनो ॥२७॥
योनितोयो वितृष्णा च चन्द्रा मुक्ता
विमोचनी ।
निवृत्तिः सप्तमी तासां स्मृतास्ताः
पापशान्तिदाः ॥ २,४.२८ ॥
श्वेतञ्च हरितं चैव वैद्युतं मानसं
तथा ।
जीमूतं रोहितं चैव सुप्रभं चापि
शोभनम् ।
सप्तैतानि तु वर्षाणि चातुर्वर्ण्ययुतानि
वै ॥ २,४.२९ ॥
शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्त्येते
महामुने ।
कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव
पृथक्पृथक् ॥ २,४.३० ॥
ब्रह्मणाः क्षत्रया वैश्याः
शुद्राश्चैव यजन्तितम् ।
भगवन्तं समस्तस्य
विष्णुमात्मानमव्ययम् ।
वायुभूतं मखश्रेष्ठैर्यज्वनो यज्ञसंस्थितिम्
॥ २,४.३१ ॥
देवानामत्र सान्नध्यमतीव सुमनोहरे ।
शाल्मलिः सुमहान्वृक्षो नाम्ना
निर्वृतिकारकः ॥ २,४.३२ ॥
एष द्वीपः समुद्रेण सुरोदेन समावृतः
।
विस्ताराच्छाल्मलस्यैव समेन तु
समन्ततः ॥ २,४.३३ ॥
सुरोदकः परिवृतः कुशद्वीपेन सर्वतः
।
शाल्मलस्य तु विस्तराद्द्विगुणेन
समन्ततः ॥ २,४.३४ ॥
वे योनि,
तोया, वितृष्णा, चन्द्रा,
मुक्ता, विमोचनी और निवृत्ति हैं तथा
समर्णमात्रसे ही सारे पापोंको शान्त कर देनेवाली हैं ॥२८॥ श्वेत, हरित,वैद्युत, मानस जीमूत
रोहित और अति शोभायमान सुप्रभ - ये उसके चारों वर्णोंसे युक्त सात वर्ष हैं ॥२९॥ हे
महामुने ! शाल्मलद्वीपमें कपिल, अरुण , पति और कृष्ण ये चार वर्ण निवास करते हैं जो पृथक् - पृथक् क्रमशः
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
अहिं । ये यजनशील लोग सबके आत्मा, अव्यय और यज्ञके आश्रय
वायुरूप विष्णुभगवान्का श्रेष्ठ यज्ञोंद्वारा यजन करते हैं ॥३०-३१॥ इस अत्यन्त
मनोहर द्वीपमें देवगण सदा विराजमान रहते हैं । इसमें शाल्मल ( सेमल ) का एक महान
वृक्ष हैं जो अपने नामसे ही अत्यन्त शान्तिदायक हैं ॥३२॥ यह द्वीप अपने समान ही
विस्तारवाले एक मदिराके समुद्रसे सब ओरसे पूर्णतया घिरा हुआ हैं ॥३३॥ और यह सुरासमुद्र
शाल्मलद्वीपसे दुने विस्तारवाले कुशद्वीपद्वारा सब ओंरसे परिवेष्टित हैं ॥३४॥
ज्योतिष्मतः कुशद्वीपे सप्त
पुत्राञ्छृणुष्व तान् ॥ २,४.३५ ॥
उद्भिदो वेणुमांश्चैव वेरथो लम्बनो
धृतिः ।
प्रभाकरोतिकपिलस्तन्नामा
वर्षपद्धतिः ॥ २,४.३६ ॥
तस्मिन्वसन्ति मनुजाः सह दैते
यदानवैः ।
तथैव देवगन्धर्वयक्षकिंपुरुषादयः ॥
२,४.३७ ॥
वर्णास्तत्रापि चत्वारो
निजानुष्ठानतत्पराः ।
दमिनः शुष्मिणः स्नेहा मन्देहाश्च
महामुने ॥ २,४.३८ ॥
ब्रह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः
शूद्राश्चानुक्रमोदिताः ॥ २,४.३९
॥
यथोस्ककर्मकर्तृत्वात्स्वाधिकारोक्षयाय
ते ।
तत्रैव तं कुशद्वीपे ब्रह्मरूपं
जनार्दनम् ।
यजन्तः
क्षपयन्त्युग्रमधिकारफलप्रदम् ॥ २,४.४०
॥
विद्रुमो हेमशैलश्च द्यतिमान्
पुष्पवांस्तथा ।
कुशशयो हरिश्चैव सप्तमो मन्दराचलः ॥
२,४.४१ ॥
वर्षाचलास्तु सप्तैते तत्र द्वीपे
महामुने ।
नद्यश्च सप्त तासां तु शृणु नामान्यनुक्रमात्
॥ २,४.४२ ॥
धूतपापा शिवा चैव पवित्रा
संमतिस्तथा ।
विद्युदम्भा मही चान्या सर्वपाप
हरास्त्विमाः ॥ २,४.४३ ॥
अन्याः सहस्रशस्तत्र
क्षुद्रनद्यस्तथाचलाः ।
कुशद्वीपे गुशस्तम्बः संज्ञया तस्य
तत्स्मृतम् ॥ २,४.४४ ॥
तत्प्रमाणेन स द्वीपो घृतोदेन
समावृतः ।
घृतोदश्च समुद्रो वै क्रौञ्चद्वीपेन
संवृतः ॥ २,४.४५ ॥
कुशद्वीपसे ( वहींके अधिपति )
ज्योतिष्मानके सात पुत्र थे, उनके नाम सुनो
। वे उद्भिद, वेणुमान, व्रैरथ, लम्बन, धृति, प्रभाकर और कपिल
थे ॥ उनके नामानुसार ही वहाँके वर्षोंके नाम पड़े ॥३५-३६॥ उसमें दैत्य और दानवोंके
सहित मनुष्य तथा देव, गन्धर्व, यक्ष,
और किन्नर आदि निवास करते हैं ॥३७॥ हे महामुने ! वहाँ भी अपने -
अपने कर्मोंमें तत्पर दमी, शुष्मी, स्त्रेह
और मन्देहनामक चार ही वर्ण हैं, जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हैं ॥३८-३९॥ अपने प्राब्धक्षयके
निमित्त शास्त्रनुकूल कर्म करते हुए वहाँ कुशद्वीपमें ही वे ब्रह्मरूप जनार्दनकी
उपासनाद्वारा अपने प्रारब्धफलके देनेवाले अत्युग अहंकारका क्षय करते हैं ॥४०॥ हे
महामुने ! उस द्वीपमें विद्रुम, हेमशैल, द्युतिमान, पुष्पवान, कुशेशय ,
हरि और सातवाँ मन्दराचल, ये सात वर्षपर्यत हैं
। तथा उसमें सात ही नदियाँ हैं, उनके नाम क्रमशः सुनो
॥४१-४२॥ वे धूतपापा, शिवा, पवित्रा,
सम्मति, विद्युत अम्भा और मही हैं । ये
सम्पूर्ण पापोंको हरनेवाली हैं ॥४३॥ वहाँ और भी सहस्त्रों छोटी-छोटी नदियाँ और
पर्वत हैं । कुशद्वीपमें एक कुशका झाड़ हैं । उसीके कारण इसका यह नाम पड़ा हैं ॥४४॥ यह
द्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले घीके समुद्रसे घिरा हुआ है और वह घृत समुद्र
क्रोत्र्चद्वीपसे परिवेष्टित हैं ॥४५॥
क्रौञ्चद्वीपो महाभाग
श्रुयताञ्चापरो महान् ।
कुशद्वीपस्य विस्तारा द्द्विगुणो
यस्य विस्तरः ॥ २,४.४६ ॥
क्रौञ्चद्वीपे द्युतिमतः
पुत्रास्तस्य महात्मनः ।
तन्नामानि च वर्षाणि तेषां चक्रे
महीपतिः ॥ २,४.४७ ॥
कुशलो मल्लगश्चोष्णः
पीवरोथान्धकारकः ।
मुनिश्च दुन्दुभिश्चैव सप्तैते
तत्सुता मुने ॥ २,४.४८ ॥
तत्रापि देवगन्धर्वसेविताः
सुमनोहराः ।
वर्षाचला महाबुद्धे तेषां नामानि मे
शृणु ॥ २,४.४९ ॥
हे महाभाग ! अब इसके अगले
क्रोच्त्रनामक महाद्वीपके विषयमें सुनो, जिसका
विस्तार कुशद्वीपसे दुना हैं ॥४६॥ क्रोत्र्चद्वीपमें महात्मा द्युतिमानके जो पुत्र
थे; उनके नामानुसार हे महाराज द्युतिमानके उनके वर्षोंके नाम
रखे ॥४७॥ हे मुने ! उनके कुशल, मन्दग, उष्ण,
पीवर, अन्धकारक, मुनि और
दुन्दुभि - ये सात पुत्र थे ॥४८॥ वहाँ भी देवता और गन्धवोंसे सेवित अति मनोहर सात
वर्षपर्वत है । हे महाबुद्धे ! उनके नाम सुनो - ॥४९॥
क्रौञ्चश्च वामनश्चैव
तृतीयश्चान्धकारकः ।
चतुर्थो रत्नशैलश्च स्वाहिनी
हयसन्निभः ॥ २,४.५० ॥
दिवावृत्पञ्चमश्चात्र तथान्यः
पुण्डरीकवान् ।
दुन्दुभिश्च महाशैलो द्विगुणास्त
परस्परम् ।
द्वीपाद्वीपेषु ये शैला यथा
द्वीपानि ते तथा ॥ २,४.५१ ॥
वर्षेष्वेतेषु रम्येषु तथा शैलवरेषु
च ।
निवसंति निरातङ्काः सह देवगणैः
प्रजाः ॥ २,४.५२ ॥
पुष्कराः पुष्कला
धन्यास्तिष्याख्याश्च महामुने ।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः
शुद्राश्चानुक्रमोदिताः ॥ २,४.५३
॥
नदीर्मैत्रेय ते तत्र याः पिबन्ति
शृणुष्व ताः ।
सप्तप्रधानाः शतशस्तत्रान्याः
क्षुद्रनिम्नगाः ॥ २,४.५४ ॥
गौरी कुमुद्वती चैव सन्ध्या
रात्रिर्मनोजवा ।
क्षान्तिश्च पुण्डरीका च सप्तैता
वर्षनिम्नगाः ॥ २,४.५५ ॥
तत्रापि
विष्णुर्भगवान्पुष्काराद्यैर्जानार्दनः ।
यागौ रुद्रस्वरूपश्च इज्यते
यज्ञसन्निधौ ॥ २,४.५६ ॥
क्रौञ्चद्वीपः समुद्रेण
दधिमण्डोदकेन च ।
आवृतः सर्वतः क्रौञ्च द्वीपतुल्येन
मानतः ॥ २,४.५७ ॥
दधिमण्डोदकश्चापि शाकद्वीपेन संवृतः
।
क्रौञ्चद्वीपस्य
विस्ताराद्द्विगुणेन महामुने ॥ २,४.५८
॥
उनमें पहला क्रौञ्च, दुसरा वामन, तिसरा अन्धकारका, चौथा घोड़ीके मुखके समान रत्नमय स्वाहिनी पर्वत, पाँचवाँ
दिवावृत् छठा पुण्डरेकवान् और सातवाँ महापर्वत दुन्दुभि हैं । वे द्वीप परस्पर एक
दुसेरेसे दुणे हैं; और उन्हींकी भाँति उनके पर्वत भी (
उत्तरोत्तर द्विगुण ) हैं ॥५०-५१॥ इन सरम्य वर्षों और पर्वतश्रेष्ठोंमें देवगणोंके
सहित सम्पूर्ण प्रजा निर्भय होकर रहती हैं ॥५२॥ हे महामुने ! वहाँके ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र क्रमसे पुष्कर,
पुष्कल, धन्य और तिष्य कहलाते हैं ॥५३॥ हे
मैत्रेय ! वहाँ जिनका जल पान किया जाता है उन नदियोंका विवरण सुनो ! उस द्वीपमें
सात प्रधान तथा अन्य सैकड़ों क्षुद्र नदियाँ हैं ॥५४॥ वे सात वर्षनदियाँ गौरी,
कुमुद्वती, सन्ध्या , रात्री,
मनोजवा, क्षान्ति, और
पुण्डरीका हैं ॥५५॥ वहाँ भी रुद्ररूपी जनार्दन भगवान् विष्णुकी पुष्करादि
वर्णोंद्वारा यज्ञादिसे पूजा की जाती हैं ॥५६॥ यह क्रौञ्चद्वीप चारों ओरसे अपने
तुल्य परिमाणवाले दधिमण्ड ( मट्ठे ) के समुद्रसे घिरा हुआ है ॥५७॥ और हे महामुने !
यह मट्ठेका समुद्र भी शाकद्वीपसे घिरा हुआ हैं, जो
विस्तारमें क्रोत्र्चद्वीपसे दुना है ॥५८॥
शाकद्वीपेश्वरस्यापि भव्यस्य
मुमहात्मनः ।
सप्तैव तनयास्तषां ददौ वर्षाणि सप्त
सः ॥ २,४.५९ ॥
जलदश्च कुमारश्च मुकुमारो मरीचकः ।
कुसुमोदश्च मौदाकिः सप्तमश्च
महाद्रुमः ॥ २,४.६० ॥
तत्संज्ञान्येव तत्रापि सप्त वर्षाण्यनुक्रमात्
।
तत्रापि पर्वताः स्पत
वर्षविच्छेदकारिणः ॥ २,४.६१ ॥
पूर्वस्तत्रोदयगिरिर्जलाधारस्तथापरः
।
तथा रैवतकः
श्यामस्तथैवास्तगिरिर्द्विज ।
आम्बिकेयस्तथा रम्यः केसरी
पर्वतोत्तमः ॥ २,४.६२ ॥
शाकस्तत्र महावृक्षः
सिद्धगन्धर्वसेवितः ।
यत्रत्यवातसंस्पार्शादाह्लादो जायते
परः ॥ २,४.६३ ॥
तत्र पुण्या
जनपदाश्चातुर्वर्ण्यसमन्विताः ।
नद्यश्चात्र महापुण्याः
सर्वपापभयापहाः ॥ २,४.६४ ॥
सुकुमारी कुमारी च नलिनी धेनुका च
या ।
इक्षुश्च वेणुका चैव गभस्ती सप्तमी
तथा ॥ २,४.६५ ॥
अन्याश्च शतशस्तत्र क्षुद्रनद्यो
महामुने ।
महीधरास्तथा सन्ति शतशोथ सहस्रशः ॥
२,४.६६ ॥
ताः पिबन्ति मुदायुक्ता जलदादिषु ये
स्थिताः ।
वर्षषु ते जनपदाः स्वर्गादभ्येत्य
मेदिनीम् ॥ २,४.६७ ॥
धर्महानिर्न तेष्वस्ति न संघर्षः
परस्परम् ।
मर्यादाव्युत्क्रमो नापि तेषु
देशेषु सप्तसु ॥ २,४.६८ ॥
वङ्गाश्च मागधाश्चैव मानसा
मन्दगास्तथा ।
वङ्गा ब्रह्मणभूयिष्ठा मागधाः
क्षत्रियास्तथा ।
वैश्यास्तु मानसास्तेषां
शूद्रस्तेषां तु मन्दगाः ॥ २,४.६९
॥
शाकद्वीपे तु तैर्विष्णुः
सूर्यरूपधरो मुने ।
यथोक्तौरिज्यते
सम्यक्कर्मभिर्नियतात्मभिः ॥ २,४.७०
॥
शाकद्वीपस्तु मैत्रेय क्षीरोदेन
समावृतः ।
शाकद्वीपप्रमाणेन वलयेनेव वेष्टितः
॥ २,४.७१ ॥
क्षीराब्धिः सर्वतो
ब्रह्मन्पुष्कराख्येन वेष्टितः ।
द्वीपेन शाकद्वीपात्तु द्विगुणेन
समन्ततः ॥ २,४.७२ ॥
शाकद्वीपके राजा महात्मा भव्यके भी
सात ही पुत्र थे । उनको भी उन्होंने पृथक पृथक सात वर्ष दिये ॥५९॥ वे सात पुत्र
जलद,
कुमार, सुकुमार, मरीचक्र,
कुसुमोद, मौदाकि और महाद्रुम थे । उन्हींके
नामानुसार वहाँ क्रमशः सात वर्ष हैं और वहाँ भी वर्षका विभाग करनेवाले सात ही
पर्वत हैं ॥६०-६१॥ हे द्विज ! वहाँ पहला पर्वत उदयाचल हैं और दुसरा जलाधार;
तथा अन्य पर्वत रैवतक, श्याम, अस्ताचल, आम्बिकेय और अति सुरम्य गिरिश्रेष्ठ केसरी
हैं ॥६२॥ वहाँ सिद्ध और गन्धवोंसे सेवित एक अति महान शाकवृक्ष हैं, जिसके वायुका स्पर्श करनेसे हृदयमें परम आह्लाद उप्तन्न होता हैं ॥६३॥ वहाँ
चातुर्वर्ण्यसे युक्त अति पवित्र देश और समस्त पाप तथा भयको दूर करनेवाली सुकुमारी,
कुमारी, नलिनी, धेनुका,
इक्षु, वेणुका और गभस्ती ये सात महापवित्र
नदियाँ हैं ॥६४-६५॥ हे महामुने ! इनके सिवा उस द्वीपमें और भी सैकड़ों छोटो-छोटी
नदियाँ और सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं ॥६६॥ स्वर्ग भोगके अनन्तर जिन्होंने पृथिवी तलपर
आकर जलद आदि वर्षोंमें जन्म ग्रहन किया हैं वे लोग प्रसन्न होकर उनका जल पान करते
हैं ॥६७॥ उन सातों वर्षोंमें धर्मका ह्यास पारस्परिक संघर्ष ( कलह ) अथवा
मर्यादाका उल्लंघन कभी नहीं होता ॥६८॥ वहाँ मग, मागध,
मानस और मन्दग ये चार वर्ण हैं । इनमें मग, सर्वश्रेष्ठ
ब्राह्मण हैं , मागध क्षत्रिय हैं, मानस
वैश्य है तथा मन्दग शुद्र हैं ॥६९॥ हे मुने ! शाकद्वीपमें शास्त्रानुकुल कर्म
करनेवाले पूर्वोक्त चारों वर्णोद्वारा संयत चित्तसे विधिपूर्वक सूर्यरूपधारी
भगवान् विष्णुकी उपासना की विधिपूर्वक सुयरुफधारी भगवान् विष्णुकी उपासना की जाती
हैं ॥७०॥ हे मैत्रेय ! वह शाकद्वीप अपने ही बराबर विस्तारवाले मण्डलाकार दुग्धके
समुद्रसे घिरा हुआ है ॥७१॥ और हैं ब्रह्मन ! वह क्षीर- समुद्र शाकद्वीपसे दूने
परिमाणाले पुष्करद्वीपसे परिवेष्टित हैं ॥७२॥
पुष्करे सवनस्यापि महावीरोऽभवत्सुतः
।
धातुकिश्च तयोस्तत्र द्वे वर्षे
नामचिह्निते ।
महावीरं
तथैवान्यद्धातुकीखण्डसंज्ञितम् ॥ २,४.७३
॥
एकश्चत्र महाभाग प्रख्यातो
वर्षपर्वतः ।
मानासोत्तरसंज्ञो वै मध्यतो
वलयाकृतिः ॥ २,४.७४ ॥
योजनानां सहस्राणि ऊर्ध्वं
पञ्चाशदुच्छ्रितः ।
तावदेव च विस्तीर्णः सर्वतः परिमण्डलः
॥ २,४.७५ ॥
पुष्करद्वीपवलयं मध्येन विभजन्निव ।
स्थितोसौ तेन विछिन्नं जातं
तद्वर्षकद्वयम् ॥ २,४.७६ ॥
वलयाकारमेकैकं तयोर्वर्षं तथा गिरिः
॥ २,४.७७ ॥
दशवर्षसहस्राणि तत्र जीवन्ति मानवाः
।
विरामया विशोकाश्च
रागद्वेषादिवर्जिताः ॥ २,४.७८ ॥
अधमोत्तमौ न तेष्वास्तां न वध्यवधकौ
द्विज ।
नेर्ष्यासूया भयं द्वेषो दोषो
लोभादिको न च ॥ २,४.७९ ॥
महापीतंबहिर्वर्षं धातकीखण्डमन्ततः
।
मानसोत्तरशौलस्य देवदैत्यादिसेवितम्
॥ २,४.८० ॥
सत्यानृतेन तत्रास्तां द्वीपे
पुष्करसंज्ञिते ।
न तत्र नद्यः शैला वा द्वीपे
वर्षद्वयान्विते ॥ २,४.८१ ॥
तुल्यपेषास्तु मनुजा
देवास्तत्रैकरूपिणः ॥ २,४.८२ ॥
वर्णाश्रमाचारहीनं धर्माचरणवर्जितम्
।
त्रयीवार्तादण्डनीतिशुश्रूषारहितञ्च
यत् ॥ २,४.८३ ॥
वर्षद्वयं तु मैत्रेय भौमः
स्वर्गोयमुत्तमः ।
सर्वर्तुसुखदः कालो
जरारोगादिवर्जितः ।
धातकीखण्डसंज्ञेऽथ महावीरे च वै
मुने ॥ २,४.८४ ॥
न्यग्रोधः पुष्करद्वीपे ब्रह्मणः
स्थानमुत्तमम् ।
तस्मिन्नवसति ब्रह्मा पूज्यमानः
सुरासुरैः ॥ २,४.८५ ॥
स्वादूदकेनोदधिना पुष्करः
परिवेष्टितः ।
समेन पुष्करस्यैव विस्तारान्मण्डलं
तथा ॥ २,४.८६ ॥
पुष्करद्वीपमें वहाँके अधिपति
महाराज सवनके महावीर और धातकिनामत दो पुत्र हुए । अतः उन दोनोंके नामानुसार उसमें
महावीर-खण्ड और धातकी - खण्डनामक दो वर्ष हैं ॥७३॥ हे महाभाग ! इसमें
मानसोत्तरनामक एक ही वर्ष पर्वत कहा जाता हैं जो इसके मध्यमें वलयाकार स्थित है
तथा पचास सहस्त्र योजन ऊँचा और इतना ही सब और गोलाकार फैला हुआ हैं ॥७४-७५॥ यह
पर्वत पुष्करद्वीपरुप गोलेकी मानो बीचमेंसे विभक्त कर रहा हैं और इससे विभक्त
होनेसे उसमें दो वर्ष हो गये है; उनमेंसे
प्रत्येक वर्ष और वह पर्वत वलयाकार ही हैं ॥७६-७७॥ वहाँके मनुष्य रोग, शोक, और रागद्वेषादिसे रहित हुए दस सहस्त्र वर्षतक
जीवित रहते हैं ॥७८॥ हे द्विज ! उनमें उत्तम अधम अथवा वध्यवधक आदि ( विरोधी ) भाव
नहीं हैं और न उनमें ईर्ष्या, असूया, भय
द्वेष और लोभादि दोष ही हैं ॥७९॥ महावीरवर्ष मानसोत्तर पर्वतके बाहरकी और है और
धातकी-खण्ड भीतरकी ओर ! इनमें देव और दैत्य आदि निवास करते हैं ॥८०॥ दो खण्डोंसे
युक्त उस पुष्करद्वीपसें सत्य और मिथ्याका व्यवहार नहीं है और न उसमें पर्वत तथा
नदियाँ ही हैं ॥८१॥ वहाँके मनुष्य और देवगण समान वेष और समान रूपवाले होते हैं ।
हे मैत्रेय ! वर्णाश्रमाचारसे हीन, काम्य कर्मोंसे रहित तथा
वेदयत्री, कृषि, दण्डनीति और शुश्रुषा
आदिसे शून्य वे दोनों वर्ष तो मानो अत्युत्तम भौम ( पृथवीके ) स्वर्ग हैं ॥८२-८३॥ हे
मुने ? उन महावीर और धातकी - खण्डनामक वर्षोंमें काल ( समय )
समस्त ऋतुओंमें सुखदायक और जरा तथा रोगादिसे रहित रहता हैं ॥८४॥ पुष्करद्वीपमें
ब्रह्माजीका उत्तम निवासस्थान एक न्यग्रोध ( वट ) का वृक्ष है, जहाँ देवता और दानवादिसे पूजित श्रीब्रह्माजी विराजते हैं ॥८५॥ पुष्करद्वीप
चारों ओरसे अपने ही समान विस्तारवाले मीठे पानीके समुद्रसे मण्डलके समान घिरा हुआ
है ॥८६॥
एवं द्वीपाः समुद्रैश्च
सप्तसप्तभिरावृताः ।
द्वीपश्चैव समुद्रश्च समानो
द्विगुणौ परौ ॥ २,४.८७ ॥
पयांसि सर्वदा सर्वसमुद्रेषु समानि
वै ।
न्यूनातिरिक्तता तेषां कदाचिन्नैव
जायते ॥ २,४.८८ ॥
स्थालीस्थमग्नीसंयोगादुद्रेकिसलिले
यथ ।
तथेन्दुवृद्धौ सलिलमंभोधौ मुनिसत्तम
॥ २,४.८९ ॥
अन्यूनानतिरिक्ताश्च वर्धन्त्यापो
ह्रसंति च ।
उदयास्तमनेष्विन्दोः पक्षयोः
शुक्लकृष्णयोः ॥ २,४.९० ॥
दशोत्तराणि पञ्चैव ह्यङ्गुलानां
शतानि वै ।
अपां वृद्धिक्षणो दृष्टौ
सामुद्रीणां महामुने ॥ २,४.९१ ॥
भोजनं पुष्करद्वीपे तत्र
स्वयमुपस्थितम् ।
षड्रसं भुञ्जते विप्र प्रजाः सर्वाः
सदैव हि ॥ २,४.९२ ॥
इस प्रकार सातों द्वीप सात
समुद्रोसें घिरे हुए हैं और वे द्वीप तथा ( उन्हें घेरनेवाले ) समुद्र परस्पर समान
हैं,
और उत्तरोत्तर दुने होते गये हैं ॥८७॥ सभी समुद्रोमें सदा समान जल
रहता हैं उसमें कभी न्यूनता अथव अधिकत नहीं होती ॥८८॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! पात्रका जल
जिस प्रकार अग्निका संयोग होंनेसे उबलने लगना है उसी प्रकार चन्द्रमाकी कलाओंके
बढ़्नेसे समुद्रका जल भी बढ़ने लगता हैं ॥८९॥ शुक्ल और कृष्ण पक्षोंमें चन्द्रमाके
उदय और अस्तसे न्यूनाधिक न होते हुए ही जल घटता और बढ़्ता है ॥९०॥ हे महामुने !
समुद्रके जलकी वृद्धि और क्षय पाँच सौ दस ( ५१०) अंगुलतक देखी जाती है ॥९१॥ हे
विप्र ! पुष्करद्वीपमें सम्पूर्ण प्रजावरी सर्वदा ( बिना प्रयत्नके ) अपने - आप ही
प्राप्त हुए षड्रस भोजनका आहार करते हैं ॥९२॥
स्वादूदकस्य परितो दृस्यते
लोकसंस्थितिः ।
द्विगुणा काञ्चनी भूमिः
सर्वजन्तुविवर्जिता ॥ २,४.९३ ॥
लोकालोकस्ततः शैलो जोजनायुतविस्तृतः
।
उच्छ्रायेणापि तावन्ति सहस्राण्यचलो
हि सः ॥ २,४.९४ ॥
ततस्तमः समावृत्य तं शौलं सर्वतः
स्थितम् ।
तमश्चाण्डकटाहेन
समन्तात्परिवेष्टितम् ॥ २,४.९५ ॥
पञ्चशत्कोटिविस्तारा सेयमुर्व
महामुने ।
सहैवाण्डकटाहेन सद्वीपाब्धिमहीधरा ॥
२,४.९६ ॥
सेयं धात्री विधात्री च
सर्वभूतगुणाधिका ।
आधारभू६ आ सर्वेषां मैत्रेय
जगतामिति ॥ २,४.९७ ॥
स्वादुदक ( मीठे पानीके ) समुद्रके
चारों ओर लोकनिवाससे शून्य और समस्त जीवोंसे रहित उससे दूनी सुवर्णमयी भूमि दिखायी
देती है ॥९३॥ वहाँ दस सहस्त्र योजन विस्तारवाला लोकालोक - पर्वत है । वह पर्वत
ऊँचाईमें भी उतरे ही सहस्त्र योजन हैं ॥९४॥ उसके आगे उस पर्वतको सब ओरसे आवृतकर
घोर अन्धकार छाया हुआ है, तथा वह अन्धकार
चारों ओरसें ब्रह्माण्ड - कटाहसे आवृत हैं ॥९५॥ हे महामुने ! अण्डकटाहके सहित
द्वीप, समुद्र, और पर्वतादियुक्त यह
समस्त भूमण्डल पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है ॥९६॥ हे मैत्रेय ! आकाशादि समस्त
भूतोंसे अधिक गुणवाली यह पृथिवी सम्पुर्ण जगत्की आधारभूता और उसका पालन तथा उद्भव
करनेवाली हैं ॥९७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशें
चतुर्थोंऽध्यायः ॥४॥
आगे जारी........ श्रीविष्णुपुराण द्वितीय अंश अध्याय 5
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