श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १२          

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १२"ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति"

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १२

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १२ 

श्रीमद्भागवतपुराणम् स्कन्धः ४ अध्यायः १२    

श्रीमद्भागवत महापुराण चौथा स्कन्ध बारहवाँ अध्याय

चतुर्थ स्कन्ध:  श्रीमद्भागवत महापुराण    

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ४ अध्याय १२ श्लोक का हिन्दी अनुवाद सहित

मैत्रेय उवाच -

ध्रुवं निवृत्तं प्रतिबुद्ध्य वैशसाद्

     अपेतमन्युं भगवान् धनेश्वरः ।

तत्रागतश्चारणयक्षकिन्नरैः

     संस्तूयमानो न्यवदत् कृताञ्जलिम् ॥ १ ॥

धनद उवाच -

(अनुष्टुप्)

भो भोः क्षत्रियदायाद परितुष्टोऽस्मि तेऽनघ ।

यत्त्वं पितामहादेशाद् वैरं दुस्त्यजमत्यजः ॥ २ ॥

न भवान् अवधीद्यक्षान् न यक्षा भ्रातरं तव ।

काल एव हि भूतानां प्रभुरप्ययभावयोः ॥ ३ ॥

अहं त्वमित्यपार्था धीः अज्ञानात् पुरुषस्य हि ।

स्वाप्नीवाभात्यतद्ध्यानाद् यया बन्धविपर्ययौ ॥ ४ ॥

तद्‍गच्छ ध्रुव भद्रं ते भगवन्तं अधोक्षजम् ।

सर्वभूतात्मभावेन सर्वभूतात्मविग्रहम् ॥ ५ ॥

भजस्व भजनीयाङ्‌घ्रिं अभवाय भवच्छिदम् ।

युक्तं विरहितं शक्त्या गुणमय्यात्ममायया ॥ ॥ ६ ॥

वृणीहि कामं नृप यन्मनोगतं

     मत्तस्त्वमौत्तानपदेऽविशङ्‌कितः ।

वरं वरार्होऽम्बुजनाभपादयोः

     अनन्तरं त्वां वयमङ्‌ग शुश्रुम ॥ ७ ॥

मैत्रेय उवाच -

स राजराजेन वराय चोदितो

     ध्रुवो महाभागवतो महामतिः ।

हरौ स वव्रेऽचलितां स्मृतिं यया

     तरत्ययत्‍नेन दुरत्ययं तमः ॥ ८ ॥

(अनुष्टुप्)

तस्य प्रीतेन मनसा तां दत्त्वैडविडस्ततः ।

पश्यतोऽन्तर्दधे सोऽपि स्वपुरं प्रत्यपद्यत ॥ ९ ॥

अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।

द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ॥ १० ॥

सर्वात्मनि अच्युतेऽसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्वहन् ।

ददर्शात्मनि भूतेषु तं एव अवस्थितं विभुम् ॥ ११ ॥

तमेवं शीलसम्पन्नं ब्रह्मण्यं दीनवत्सलम् ।

गोप्तारं धर्मसेतूनां मेनिरे पितरं प्रजाः ॥ १२ ॥

षट्‌त्रिंशद् वर्षसाहस्रं शशास क्षितिमण्डलम् ।

भोगैः पुण्यक्षयं कुर्वन् अभोगैः अशुभक्षयम् ॥ १३ ॥

एवं बहुसवं कालं महात्माविचलेन्द्रियः ।

त्रिवर्गौपयिकं नीत्वा पुत्रायादान् नृपासनम् ॥ १४ ॥

मन्यमान इदं विश्वं मायारचितमात्मनि ।

अविद्यारचितस्वप्न गन्धर्वनगरोपमम् ॥ १५ ॥

आत्मस्त्र्यपत्यसुहृदो बलमृद्धकोशम्

     अन्तःपुरं परिविहारभुवश्च रम्याः ।

भूमण्डलं जलधिमेखलमाकलय्य

     कालोपसृष्टमिति स प्रययौ विशालाम् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेर ने कहा।

श्रीकुबेर जी बोले ;- शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। यह मैं-तू आदि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है। इसी से मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है।

ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपास से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो। वे संसारपाश का छेदन करने वाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिक मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करने योग्य हैं। प्रियवर! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों के समीप रहने वाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पाने योग्य हो। ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुव जी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसार सागर को पार कर जाता है। इडविडा के पुत्र कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुव जी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं। सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुव जी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे।

ध्रुव जी बड़े ही शील सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया। जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहार भूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य- ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम को चले गये।

तस्यां विशुद्धकरणः शिववार्विगाह्य

     बद्ध्वाऽऽसनं जितमरुन्मनसाऽऽहृताक्षः ।

स्थूले दधार भगवत्प्रतिरूप एतद्

     ध्यायन् तदव्यवहितो व्यसृजत्समाधौ ॥ १७ ॥

भक्तिं हरौ भगवति प्रवहन्नजस्रम्

     आनन्दबाष्पकलया मुहुरर्द्यमानः ।

विक्लिद्यमानहृदयः पुलकाचिताङ्‌गो

     नात्मानमस्मरदसाविति मुक्तलिङ्‌गः ॥ १८ ॥

(अनुष्टुप्)

स ददर्श विमानाग्र्यं नभसोऽवतरद् ध्रुवः ।

विभ्राजयद् दश दिशो राकापतिमिवोदितम् ॥ १९ ॥

तत्रानु देवप्रवरौ चतुर्भुजौ

     श्यामौ किशोरावरुणाम्बुजेक्षणौ ।

स्थिताववष्टभ्य गदां सुवाससौ

     किरीटहाराङ्‌गदचारुकुण्डलौ ॥ २० ॥

विज्ञाय तावुत्तमगायकिङ्‌करौ

     अभ्युत्थितः साध्वसविस्मृतक्रमः ।

ननाम नामानि गृणन्मधुद्विषः

     पार्षत्प्रधानौ इति संहताञ्जलिः ॥ २१ ॥

तं कृष्णपादाभिनिविष्टचेतसं

     बद्धाञ्जलिं प्रश्रयनम्रकन्धरम् ।

सुनन्दनन्दावुपसृत्य सस्मितं

     प्रत्यूचतुः पुष्करनाभसम्मतौ ॥ २२ ॥

सुनन्दनन्दावूचतुः -

(अनुष्टुप्)

भो भो राजन् सुभद्रं ते वाचं नोऽवहितः श्रृणु ।

यः पञ्चवर्षस्तपसा भवान् देवमतीतृपत् ॥ २३ ॥

तस्याखिलजगद्धातुः आवां देवस्य शार्ङ्‌गिणः ।

पार्षदौ इविह सम्प्राप्तौ नेतुं त्वां भगवत्पदम् ॥ २४ ॥

सुदुर्जयं विष्णुपदं जितं त्वया

     यत्सूरयोऽप्राप्य विचक्षते परम् ।

आतिष्ठ तच्चन्द्रदिवाकरादयो

     ग्रहर्क्षताराः परियन्ति दक्षिणम् ॥ २५ ॥

(अनुष्टुप्)

अनास्थितं ते पितृभिः अन्यैरप्यङ्‌ग कर्हिचित् ।

आतिष्ठ जगतां वन्द्यं तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ २६ ॥

एतद्विमानप्रवरं उत्तमश्लोकमौलिना ।

उपस्थापितमायुष्मन् अधिरोढुं त्वमर्हसि ॥ २७ ॥

मैत्रेय उवाच -

निशम्य वैकुण्ठनियोज्यमुख्ययोः

     मधुच्युतं वाचमुरुक्रमप्रियः ।

कृताभिषेकः कृतनित्यमङ्‌गलो

     मुनीन् प्रणम्याशिषमभ्यवादयत् ॥ २८ ॥

(अनुष्टुप्)

परीत्याभ्यर्च्य धिष्ण्याग्र्यं पार्षदौ अवभिवन्द्य च ।

इयेष तदधिष्ठातुं बिभ्रद्‌रूपं हिरण्मयम् ॥ २९ ॥

तदोत्तानपदः पुत्रो ददर्शान्तकमागतम् ।

मृत्योर्मूर्ध्नि पदं दत्त्वा आरुरोहाद्‌भुतं गृहम् ॥ ३० ॥

वहाँ उन्होंने पवित्र जल में स्नान कर इन्द्रियों को विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में किया। तदनन्तर मन के द्वारा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को भगवान् के स्थूल विराट्स्वरूप में स्थिर कर दिया। उसी विराट्रूप का चिन्तन करते-करते अन्त में ध्याता और ध्येय के भेद से शून्य निर्विकल्प समाधि में लीन हो गये और उस अवस्था में विराट्रूप का भी परित्याग कर दिया। इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के प्रति निरन्तर भक्तिभाव का प्रवाह चलते रहने से उनके नेत्रों में बार-बार आनन्दाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमांच हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जाने से उन्हें मैं ध्रुव हूँइसकी स्मृति भी न रही।

इसी समय ध्रुव जी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाश से दसों-दिशाओं को आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमा का चन्द्र ही उदय हुआ हो। उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुव जी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं-ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन के नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ध्रुव जी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडकर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा।

सुनन्द और नन्द कहने लगे- राजन्! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था। हम उन्हीं निखिल जगन्नियन्ता सारंगपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं। आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँ तक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाम में निवास कीजिये। प्रियवर! आज तक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पद पर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णु का वह परमधाम सारे संसार में वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों। आयुष्मन्! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोक शिखामणि श्रीहरि ने आपके लिये ही भेजा है, आप इस पर चढ़ने योग्य हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् के प्रमुख पार्षदों के ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुव जी ने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्य-कर्म से निवृत्त हो मांगलिक अलंकारादि धारण किये। बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद उस श्रेष्ठ विमान की पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदों को प्रणाम कर सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिव्यरूप धारण कर उस पर चढ़ने को तैयार हुए।

तदा दुन्दुभयो नेदुः मृदङ्‌गपणवादयः ।

गन्धर्वमुख्याः प्रजगुः पेतुः कुसुमवृष्टयः ॥ ३१ ॥

स च स्वर्लोकमारोक्ष्यन् सुनीतिं जननीं ध्रुवः ।

अन्वस्मरदगं हित्वा दीनां यास्ये त्रिविष्टपम् ॥ ३२ ॥

इति व्यवसितं तस्य व्यवसाय सुरोत्तमौ ।

दर्शयामासतुर्देवीं पुरो यानेन गच्छतीम् ॥ ३३ ॥

तत्र तत्र प्रशंसद्‌भिः पथि वैमानिकैः सुरैः ।

अवकीर्यमाणो ददृशे कुसुमैः क्रमशो ग्रहान् ॥ ३४ ॥

त्रिलोकीं देवयानेन सोऽतिव्रज्य मुनीनपि ।

परस्ताद्यद्ध्रुवगतिः विष्णोः पदमथाभ्यगात् ॥ ३५ ॥

यद्‌भ्राजमानं स्वरुचैव सर्वतो

     लोकास्त्रयो ह्यनु विभ्राजन्त एते ।

यन्नाव्रजन्जन्तुषु येऽननुग्रहा

     व्रजन्ति भद्राणि चरन्ति येऽनिशम् ॥ ३६ ॥

(अनुष्टुप्)

शान्ताः समदृशः शुद्धाः सर्वभूतानुरञ्जनाः ।

यान्त्यञ्जसाच्युतपदं अच्युतप्रियबान्धवाः ॥ ३७ ॥

इत्युत्तानपदः पुत्रो ध्रुवः कृष्णपरायणः ।

अभूत्त्रयाणां लोकानां चूडामणिरिवामलः ॥ ३८ ॥

गम्भीरवेगोऽनिमिषं ज्योतिषां चक्रमाहितम् ।

यस्मिन् भ्रमति कौरव्य मेढ्यामिव गवां गणः ॥ ३९ ॥

महिमानं विलोक्यास्य नारदो भगवान् ऋषिः ।

आतोद्यं वितुदन् श्लोकान् सत्रेऽगायत् प्रचेतसाम् ॥ ४० ॥

नारद उवाच -

नूनं सुनीतेः पतिदेवतायाः

     तपःप्रभावस्य सुतस्य तां गतिम् ।

दृष्ट्वाभ्युपायानपि वेदवादिनो

     नैवाधिगन्तुं प्रभवन्ति किं नृपाः ॥ ४१ ॥

यः पञ्चवर्षो गुरुदारवाक्शरैः

     भिन्नेन यातो हृदयेन दूयता ।

वनं मदादेशकरोऽजितं प्रभुं

     जिगाय तद्‌भक्तगुणैः पराजितम् ॥ ४२ ॥

यः क्षत्रबन्धुर्भुवि तस्याधिरूढं

     अन्वारुरुक्षेदपि वर्षपूगैः ।

षट्पञ्चवर्षो यदहोभिरल्पैः

     प्रसाद्य वैकुण्ठमवाप तत्पदम् ॥ ४३ ॥

मैत्रेय उवाच -

(अनुष्टुप्)

एतत्तेऽभिहितं सर्वं यत्पृष्टोऽहमिह त्वया ।

ध्रुवस्योद्दामयशसः चरितं सम्मतं सताम् ॥ ४४ ॥

धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् ।

स्वर्ग्यं ध्रौव्यं सौमनस्यं प्रशस्यमघमर्षणम् ॥ ४५ ॥

श्रुत्वैतत् श्रद्धयाभीक्ष्णं अच्युतप्रियचेष्टितम् ।

भवेद्‌भक्तिर्भगवति यया स्यात् क्लेशसङ्‌क्षयः ॥ ४६ ॥

महत्त्वमिच्छतां तीर्थं श्रोतुः शीलादयो गुणाः ।

यत्र तेजस्तदिच्छूनां मानो यत्र मनस्विनाम् ॥ ४७ ॥

प्रयतः कीर्तयेत्प्रातः समवाये द्विजन्मनाम् ।

सायं च पुण्यश्लोकस्य ध्रुवस्य चरितं महत् ॥ ४८ ॥

पौर्णमास्यां सिनीवाल्यां द्वादश्यां श्रवणेऽथवा ।

दिनक्षये व्यतीपाते सङ्‌क्रमेऽर्कदिनेऽपि वा ॥ ४९ ॥

श्रावयेत् श्रद्दधानानां तीर्थपादपदाश्रयः ।

नेच्छन् तत्रात्मनात्मानं सन्तुष्ट इति सिध्यति ॥ ५० ॥

ज्ञानमज्ञाततत्त्वाय यो दद्यात्सत्पथेऽमृतम् ।

कृपालोर्दीननाथस्य देवास्तस्यानुगृह्णते ॥ ५१ ॥

इदं मया तेऽभिहितं कुरूद्वह

     ध्रुवस्य विख्यातविशुद्धकर्मणः ।

हित्वार्भकः क्रीडनकानि मातुः

     गृहं च विष्णुं शरणं यो जगाम ॥ ५२ ॥

इतने में ही ध्रुव जी ने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये। उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी। विमान पर बैठकर ध्रुव जी ज्यों-ही भगवान् के धाम को जाने के लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा? नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के हृदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं। उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलों की वर्षा करते जाते थे।

उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुव जी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की। यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, इसी के प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवों पर निर्दयता करने वाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हीं की पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियों के कल्याण के लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं। जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियों को प्रसन्न रखने वाले हैं तथा भगवद्भक्तों को ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद मानते हैं- ऐसे लोग सुगमता से ही इस भगवद्धाम को पाप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उत्तानपाद के पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुव जी तीनों लोकों के ऊपर उसकी निर्मल चूड़ामणि के समान विराजमान हुए।

कुरुनन्दन! जिस प्रकार दायँ चलाने के समय खम्भे के चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेग वाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोक के आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है। उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारद ने प्रचेताओं की यज्ञशाला में वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे।

नारद जी ने कहा ;- इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव ने तपस्या द्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मों की आलोचना करके वेदवाणी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है। अहो! वे पाँच वर्ष की अवस्थाओं में ही सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर दुःखी हृदय से वन में चले गये और मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभु को जीत लिया, जो केवल अपने भक्तों के गुणों से ही वश में होते हैं। ध्रुव जी ने तो पाँच-छः वर्ष की अवस्था में कुछ दिनों की तपस्या से ही भगवान् को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पद को भूमण्डल में कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षो तक तपस्या करके भी पा सकता है?

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुव जी के चरित्र के विषय में पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, परम पवित्र और अत्यत्न मंगलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्व की प्राप्ति कराने वाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समत पापों का नाश करने वाला है। भगवद्भक्त ध्रुव के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसे श्रवण करने वाले को शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्व की प्राप्ति कराने वाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियों का मान बढ़ता है।

पवित्रकीर्ति ध्रुव जी के इस महान् चरित्र का प्रातः और सायंकाल ब्रह्माणादि द्विजातियों के समान में एकाग्रचित्त से कीर्तन करना चाहिये। भगवान् के परम पवित्र चरणों की शरण में रहने वाला जो पुरुष इसे निष्कामभाव से पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है। यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं- उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं। ध्रुव जी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्था में ही माता के घर और खिलौनों का मोह छोड़कर श्रीविष्णु भगवान् की शरण में चले गये थे। कुरुनन्दन! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरित नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

इस प्रकार श्रीमद्‌भागवत महापुराण का परमहंस संहिता स्कन्ध ४ अध्याय १२ समाप्त हुआ ॥ १२ ॥

आगे जारी-पढ़े............... स्कन्ध ४ अध्याय १३  

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